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पहले न्याय वैशेषिक परम्परामें प्रमाणसामान्यलक्षणमें 'अनुभव पदका प्रवेश प्रायः उपलब्ध नहीं होता । उनके बादमें तो अनुभव ही प्रमाणसामान्यका लक्षण बतलाया है ।
अनेक नैयायिकोंने '
प्रस्तावना
मीमांसक परम्परामें मुख्यतया दो सम्प्रदाय पाये जाते हैं - १ भाट्ट और २ प्रभाकर । कुमारिल भट्टके अनुगामी भाट्ट और प्रभाकर गुरुके मतका अनुसरण करनेवाले प्राभाकर कहे जाते हैं । कुमारिलने प्रमाणके सामान्यलक्षण में पाँच विशेषण दिये है । १ अपूर्वार्थविषयत्व २ निश्चितत्व ३ बाधवर्जितत्व ४ प्रदुष्टकारणारब्धत्व और ५ लोकसम्मतत्व कुमारिल का वह लक्षण इस प्रकार है :
तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥
पिछले सभी भाट्टमीमांसकोंने इसी कुमारिल क क लक्षणको माना है और उसका समर्थन किया है। दूसरे दार्शनिकोंकी आलोचनाका विषय भी यही लक्षण हुआ है । प्रभाकरने अनुभूति को प्रमाण सामान्यका लक्षण कहा है ।
सांख्यदर्शन में श्रोत्रादि- इन्द्रियोंकी वृत्ति ( व्यापार ) को प्रमाणका सामान्य लक्षण बतलाया गया है ।
बौद्धदर्शनमें अज्ञातार्थके प्रकाशक ज्ञानको प्रमाणका सामान्य लक्षण बतलाया है। दिग्नागने विषयाकार अर्थनिश्चय और स्वसंवित्तिको प्रमाण१ 'बुद्धिस्तु द्विविधा मता अनुभूतिः स्मृतिश्चि स्यादनुभूश्चतुर्विधा ।' - सिद्धान्तमु० का० ५१ । 'तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवोयथार्थः । ... सैवप्रमा ।' तर्कसं० पृ० ६८,६६ २ 'अनुभूतिश्च नः प्रमाणम् ।' बृहती १-१-५ ।
३ ' अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम्
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- प्रमाणसमु० टी० पृ० ११