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________________ न्याय-दीपिका का फल कह कर उन्हें ही प्रमाण माना है । क्योंकि बौद्धदर्शनमें प्रमाण और फल भी भिन्न नहीं हैं और जो अज्ञातार्थप्रकाश रूप ही हैं। धर्मकीत्तिने अविसंवादि' पद और लगाकर दिग्नाग के ही लक्षण को प्रायः परिष्कृत किया है। तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने सारूप्य और योग्यताको प्रमाण वर्णित किया है' जो एक प्रकारसे दिग्नाग और धर्मकीतिके प्रमाणसामान्यलक्षणका ही पर्यवसितार्थ है । इस तरह बौद्धोंके यहाँ स्वसंवेदो अज्ञातार्थज्ञापक अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण कहा गया है । जैन परम्परामें सर्व प्रथम स्वामी समन्तभद्र और प्रा० सिद्धसेनने प्रमाणका सामान्यलक्षण निर्दिष्ट किया है और उसमें स्वपरावभासक, ज्ञान तथा बाधविवर्जित ये तीन विशेषण दिये हैं । भारतीय दार्शिनिकोंमें समन्तभद्र ही प्रथम दार्शनिक हैं जिन्होंने स्पष्टतया प्रमाणके सामान्यलक्षणमें 'स्वपरावभासक' पद रखा है यद्यपि विज्ञानवादी बौद्धोंने भी ज्ञानको ‘स्वरूपस्य स्वतो गते: कहकर स्वसंवेदी प्रकट किया है परन्तु ताकिक रूप देकर विशेषरूपसे प्रमाणके लक्षणमें 'स्व' पदका निवेश समन्तभद्रका ही स्वोपज्ञ जान पड़ता है । क्योंकि उनके पहले वैसा प्रमाणलक्षण देखनेमें नहीं आता । समन्तभद्रने प्रमाणसामान्यका लक्षण 'युगपत्सर्वभासितत्त्वज्ञान' भी किया है जो उपर्युक्त लक्षणमें ही पर्यवसित है दर्शनशास्रोंके अध्ययनसे ऐसा मालूम होता है 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा प्रमिति ( परिच्छित्तिविशेष ) हो वह प्रमाण है' इस अर्थमें १ "स्वसंवित्तिः फल चात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाण तेन मीयते ॥"-प्रमाणसमु० १-१० । २ "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्..."प्रमाणवा० २-१ । ३ “विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ।।"- तत्त्वसं० का १३४४ । ४ "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्”–स्वयम्भू० का० ६३ । ५ प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्।"-न्यायवा० का० १
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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