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________________ तीसरा प्रकाश १८५ यदि अशक्य ( बाधित ) को साध्य माना जाय, तो अग्नि में अनुष्णता ( उष्णता का अभाव ) आदि भी साध्य हो जायगी। अनभिप्रेत को साध्य माना जाय, तो अतिप्रसङ्ग नामका दोष प्रावेगा। तथा प्रसिद्ध को साध्य माना जाय, तो अनुमान व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि साध्य की सिद्धि के लिये अनुमान किया जाता है 5 और वह साध्य पहले से प्रसिद्ध है। अतः शक्यादिरूप ही साध्य है। न्यायविनिश्चय में भी कहा है : साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ॥१७२॥ इसका अर्थ यह है कि जो शक्य है, अभिप्रेत है और अप्रसिद्ध 10 है वह साध्य है और जो इससे विपरीत है वह साध्याभास है। वह साध्याभास कौन है ? विरुद्धादिक हैं। प्रत्यक्षादि से बाधित को विरुद्ध कहते हैं। 'पादि' शब्द से अनभिप्रेत और प्रसिद्ध का ग्रहण करना चाहिए। ये तीनों साध्याभास क्यों हैं ? क्योंकि ये तीनों ही साधन के विषय नहीं हैं। अर्थात्--साधन के द्वारा ये 15 विषय नहीं किये जाते हैं। इस प्रकार यह अकलङ्कदेव के अभिप्राय का संक्षेप है। उनके सम्पूर्ण अभिप्राय को तो स्याद्वादविद्यापति श्री वादिराज जानते हैं। अर्थात्-अकलङ्कदेव की उक्त कारिका का विशद एवं विस्तृत व्याख्यान श्री वादिराज ने न्यायविनिश्चय के व्याख्यानभूत अपने न्यायविनिश्चयविवरण में किया है । अतः 20 अकलङ्कदेव के पूरे प्राशय को तो वे ही जानते हैं। यहाँ सिर्फ उनके अभिप्राय के अंशमात्र को दिया है । साधन और साध्य दोनों को लेकर श्लोकवात्तिक में भी कहा है-"जिसका अन्यथानुपपत्तिमात्र लक्षण है, अर्थात्-जो न त्रिलक्षणरूप है और न पञ्चलक्षणरूप है, केवल अविनाभावविशिष्ट है वह साधन है। तथा जो शक्य है, अभिप्रेत है 25
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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