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न्याय-दीपिका
रूप वस्तु प्रमाणका विषय है।" अतः अविशद (अस्पष्ट) प्रतिभास को जो परोक्ष का लक्षण कहा है वह बिल्कुल ठीक है।
परोक्ष प्रमाण के भेद और उनमें ज्ञानान्तर की सापेक्षता का
कथन
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उस परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं-१ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, ४ अनुमान और ५ प्रागम। ये पाँचों ही परोक्ष प्रमाण ज्ञानान्तर की अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं। स्मरण में पूर्व अनुभव की अपेक्षा होती है, प्रत्यभिज्ञान में स्मरण और अनुभव की, तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान की, अनुमान में लिङ्गदर्शन, व्याप्ति स्मरण आदि की और पागम में शब्दश्रवण, सङ्केतग्रहण (इस शब्द का यह अर्थ है, इस प्रकार के संकेत के ग्रहण ) आदि की अपेक्षा होती है। किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण में ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं होती, वह स्वतन्त्र रूप से—ज्ञानान्तर निरपेक्ष ही उत्पन्न होता है । स्मरण आदि को यह ज्ञानान्तरापेक्षा उनके अपने अपने निरूपण के समय बतलायी जायगी।
प्रथमतः उद्दिष्ट स्मृति का निरूपणस्मृति किसे कहते हैं ? 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाले और पहले अनुभव किये हुये पदार्थ को विषय करने वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं। जैसे 'वह देवदत्त' । यहाँ पहले अनुभव किया हुना ही देवदत्त 'वह' शब्द के द्वारा जाना जाता है। इसलिये यह ज्ञान 'वह' शब्द से उल्लिखित होने वाला और अनुभूत पदार्थ को विषय करने वाला है । जिसका अनुभव नहीं किया उसमें यह ज्ञान नहीं होता। इस ज्ञान का जनक अनुभव है और वह अनुभव धारणारूप ही
कारण होता है। क्योंकि पदार्थ में अवग्रहादिक ज्ञान हो जाने पर भी : धारणा के अभाव में स्मृति उत्पन्न नहीं होती। कारण, धारणा
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