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________________ तीसरा प्रकाश १७५ आत्मा में उस प्रकार का संस्कार पैदा करती है, जिससे वह कालान्तर में भी उस अनुभूत विषय का स्मरण करा देती है। इसलिये धारणाके विषय में उत्पन्न हुआ 'वह' शब्द से उल्लिखित होने वाला यह ज्ञान स्मृति है, यह सिद्ध होता है। शङ्का-यदि धारणा के द्वारा ग्रहण किये विषय में ही स्मरण 5 उत्पन्न होता है तो गृहीतग्राही होने से उसके अप्रमाणता का प्रसङ्ग आता है ? समाधान-नहीं; ईहा प्रादिक की तरह स्मरणमें भी विषयभेद मौजूद है। जिस प्रकार अवग्रहादिक के द्वारा ग्रहण किये हुए अर्थ को विषय करने वाले ईहादिक ज्ञानों में विषयभेद होने से अपने विषय-सम्बन्धी 10 संशयादिरूप समारोप को दूर करने के कारण प्रमाणता है उसी प्रकार स्मरण में भी धारणा के द्वारा ग्रहण किये गये विषय में प्रवृत्त होने पर भी प्रमाणता ही है। कारण, धारणा का विषय इदन्ता से युक्त अर्थात् यह है-'यह' शब्द के प्रयोग पूर्वक उल्लिखित होता है और स्मरण का तत्ता से युक्त अर्थात् 'वह' है-'वह' शब्द के द्वारा निर्दिष्ट 15 होता है । तात्पर्य यह है कि धारणा का विषय तो वर्तमान कालीन है और स्मरण का विषय भूतकालीन है। अतः स्मरण अपने विषय में उत्पन्न हुये अस्मरण आदि समारोपको दूर करने के कारण प्रमाण ही है—अप्रमाण नहीं। प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी कहा है-"विस्मरण, संशय और विपर्ययरूप समारोप है और उस समारोप को दूर करने 20 से यह स्मृति प्रमाण है।" * स्मरण अनुभूत विषय में प्रवृत्त होता है' इतने से यदि वह अप्रमाण हो तो अनुमान से जानी हुई अग्नि को जानने के लिये पीछे प्रवृत्त हुआ प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ठहरेगा। अतः स्मरण किसी भी प्रकार अप्रमाण सिद्ध नहीं होता।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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