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________________ प्रस्तावना ४१ है और न न्याय-वैशेषिक आदिकी तरह प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। किन्तु वह प्रत्यक्ष और स्मरणके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला और पूर्व तथा उत्तर पर्यायोंमें रहनेवाले वास्तविक एकत्व, सादृश्य आदिको विषय करनेवाला स्वतन्त्र ही परोक्ष-प्रमाणविशेष है। प्रत्यक्ष तो मात्र वर्तमान पर्यायको ही विषय करता है और स्मरण अतीत पर्यायको ग्रहण करता है। अतः उभयपर्यायवर्ती एकत्वादिकको जाननेवाला संकलनात्मक (जोड़रूप) प्रत्यभिज्ञान नामका जुदा ही प्रमाण है। यदि पूर्वोत्तरपर्यायव्यापी एकत्वका अपलाप किया जावेगा तो कहीं भी एकत्वका प्रत्यय न होनेसे एक सन्तानकी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः प्रत्यभिज्ञानका विषय एकत्वादिक वास्तविक होनेसे वह प्रमाण ही है-अप्रमाण नहीं। और विराट् प्रतिभास न होनेसे उसे प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं कहा जासकता है । किन्तु स्पष्ट प्रतीति होनेसे वह परोक्ष प्रमाणका प्रत्यभिज्ञान नामक भेदविशेष है । इसके एकत्वप्रत्यभिज्ञान, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान, वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदि अनेक भेद जैनदर्शनमें माने गये हैं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि आचार्य विद्यानन्दने' प्रत्यभिज्ञानके एकत्वप्रत्यभिज्ञान और सादृश्यप्रत्यभिज्ञान ये दो ही भेद बतलाये हैं। लेकिन दूसरे सभी जैनताकिकोंने उल्लिखित अनेक-दोसे अधिक भेद गिनाये हैं। इसे एक मान्यताभेद ही कहा जासकता है । धर्मभूषणने एकत्व, सादृश्य और वैसादृश्य विषयक तीन प्रत्यभिज्ञानोंको उदाहरणद्वारा कण्ठोक्त कहा है विवर्त्तमात्रगोचरत्वात् । नापीदमिति संवेदनं तस्य वर्तमानविवर्त्तमात्रविषयत्वात् । ताभ्यामुपजन्यं तु संकलनज्ञानं तदनुवादपुरस्सरं द्रव्यं प्रत्यवमृशत् ततोऽन्यदेव प्रत्यभिज्ञानमेकत्वविषयं तदपह्नवे क्वचिदेकान्वयाव्यवस्थानात् सन्तानकत्वसिद्धिरपि न स्यात् ।'-प्रमाणप० पृ० ६६, ७० । १ देखो, तत्त्वार्थश्लो० पृ० १६०, अष्टस० पृ० २७६, प्रमाणपरी० पृ०६६।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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