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________________ 5 १६० न्याय - दीपिका प्रमाणसे बाधित न होने के कारण सविकल्प का विषय परमार्थ ( वास्तविक ) ही है । वल्कि बौद्धों के द्वारा माना गया स्वलक्षण ही आपत्ति के योग्य है । श्रतः प्रत्यक्ष निर्विकल्पकरूप नहीं है - सवि 20 कल्पकरूप ही है । नैयायिक और वैशेषिक सन्निकर्ष ( इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध ) को प्रत्यक्ष मानते हैं। पर वह ठीक नहीं है; क्योंकि सन्निकर्ष चेतन है । वह प्रमिति के प्रति करण कैसे हो सकता है ? प्रमिति के प्रति जब करण नहीं, तब प्रमाण कैसे ? और जब प्रमाण 10 ही नहीं, तो प्रत्यक्ष कैसे ? यौगाभिमत सन्निकर्ष का निराकरण दूसरी बात यह है कि चक्षु इन्द्रिय रूपका ज्ञान सन्निकर्ष के बिना ही कराती है, क्योंकि वह श्रप्राप्य है । इसलिए सन्निकर्ष के श्रभाव में भी प्रत्यक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्ष में सन्निकर्षरूपता ही नहीं है । चक्षु इन्द्रिय को जो यहाँ अप्राप्यकारी कहा गया है वह प्रसिद्ध 15 नहीं है। कारण, प्रत्यक्ष से चक्षु इन्द्रिय में श्रप्राप्यकारिता ही प्रतीत होती है । 25 प्राप्यकारिता ( पदार्थ को प्राप्त मालूम नहीं होती तथापि उसे जिस प्रकार पर करेंगे । 'परमाणु है, शंका - यद्यपि चक्षु इन्द्रिय की करके प्रकाशित करना ) प्रत्यक्ष से परमाणु की तरह अनुमान से सिद्ध माणु प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने पर भी क्वोंकि स्कन्धादि कार्य अन्यथा नहीं हो सकते' इस अनुमान से उसकी सिद्धि होती है उसी प्रकार 'चक्षु इन्द्रिय पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाश करने दाली है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रिय है ( बाहर से देखी जाने वाली इन्द्रिय है ) जो बहिरिन्द्रिय है वह पदार्थ को प्राप्त करके ही प्रकाश करती है, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय' इस अनुमान से चक्षु में न वि हो
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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