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________________ प्रस्तावना पठन का उत्तर सर्वप्रथम' दार्शनिकरूपसे सम्भवतः प्रथम शताब्दिमें हए तत्त्वार्थसूत्रकार प्रा० उमास्वातिने दिया है। उन्होंने कहा कि सम्यज्ञान प्रमाण है और वह मूलमें दो ही भेदरूप है :-१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष । आ० उमास्वातिका यह मौलिक प्रमाणद्वय विभाग इतना सुविचारपूर्वक और कौशल्यपूर्ण हुअा है कि प्रमाणोंका आनन्त्य भी इन्हीं दोमें समा जाता है। इनसे अतिरिक्त पृथक् तृतीय प्रमाण माननेकी बिल्कुल आवश्यकता नहीं रहती है। जबकि वैशेषिक और बौद्धोंके प्रत्यक्ष तथा अनुमानरूप द्विविध प्रमाणविभागमें अनेक कटिनाइयाँ आती हैं । उन्होंने अति संक्षेपमें, मति, स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) इनको भी प्रमाणान्तर होनेका संकेत करके और उन्हें मतिज्ञान कह कर 'नाद्ये परोक्षम्' सूत्रके द्वारा परोक्षप्रमाणमें ही अन्तर्भूत कर लिया है। प्रा० उमास्वातिने इस प्रकार प्रमाणद्वयका विभाग करके उत्तरवर्ती जैनताकिकोंके लिए प्रशस्त और १ यद्यपि श्वेताम्बरीय स्थानाङ्ग और भगवतीमें भी प्रत्यक्ष-परोक्षरूप प्रमाणद्वयका विभाग निर्दिष्ट है, पर उसे श्रद्धेय पं० सुखलालजी नियुक्तिकार भद्रबाहुके बादका मानते हैं, जिनका समय विक्रमकी छठी शताब्दि है। देखो, प्रमाणमी० भा० टि० पृ० २० । और भद्रबाहुके समयके लिये देखो, श्वे० मुनि विद्वान् श्रीचतुरविजयजीका 'श्रीभद्रबाहु' शीर्षक लेख 'अनेकान्त' वर्ष ३ कि० १२ तथा 'क्या नियुक्तिकार भद्रवाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं?' शीर्षक मेरा लेख, 'अनेकान्त' वर्ष ६ कि० १०-११ पृ० ३३८ । २ "तत्प्रमाणे” “अाद्ये परोक्षम्"-"प्रत्यक्षमन्यत्' -तत्त्वार्थसू० १-१०, ११, १२ । ३ “मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्”–तत्त्वार्थसू० १-१४ ।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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