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बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपाजितैः माहात्म्यात्तमस: स्वयं कलिबलात्प्रायः गुण-द्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते
सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः ॥२॥ अकलङ्कदेव द्वारा पुन: प्रतिष्ठित इस निर्मल न्यायको विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र जैसे महान् आचार्योंने अपनी अपनी कृतियों तथा टीका ग्रन्थों द्वारा प्रोत्तेजन दिया था और उसके प्रचारको बढ़ाया था; परन्तु दुर्भाग्य अथवा दुर्दैवसे देशमें कुछ ऐसा समय उपस्थित हुआ कि इन गूढ़ तथा गंभीर ग्रन्थोंका पठन-पाठन ही उठ गया, ग्रन्थप्रतियोंका मिलना दुर्लभ हो गया और न्यायशास्त्रके विषयमें एक प्रकारका अन्धकार सा छा गया। अभिनव धर्मभूषणजीने अपने समय (विक्रमकी १५वीं शताब्दी) में इसे महसूस किया और इसलिये उस अन्धकारको कुछ अंशोंमें दूर करनेकी शुभ भावनासे प्रेरित होकर ही वे इस दीपशाखा अथवा टोर्च (torch) की सृष्टि करनेमें प्रवृत्त हुए हैं और इसलिये इसका 'न्यायदीपिका' यह नाम बहुत ही सार्थक जान पड़ता है । ____ ग्रन्थके इस वर्तमान प्रकाशनसे पहले चार संस्करण और निकल चुके हैं, जिनमेंसे प्रथम संस्करण वही है जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । सम्पादकीय कथनानुसार यह प्रथम संस्करण दूसरे संस्करणोंकी अपेक्षा शुद्ध है; जबकि होना यह चाहिये था कि पूर्व संस्करणोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर संस्करण अधिक शुद्ध प्रकाशित होते । परन्तु मामला उलटा रहा । अस्तु; मुद्रित प्रतियोंकी ये अशुद्धियाँ अक्सर खटका करती थीं और एक अच्छे शुद्ध तथा उपयोगी संस्करणकी जरूरत बराबर बनी हुई थी। 1 अप्रेल सन् १९४२ में, जिसे तीन वर्ष हो चुके, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठियाकी योजना वीरसेवामन्दिरमें हुई और उससे कोई १।। वर्ष बाद मुझे यह बतलाया गया कि आप न्यायदीपिका ग्रंथ पर अच्छा परिश्रम कर रहे हैं, उसके कितने ही अशुद्ध पाठोंका आपने संशोधन किया है, शेषका संशोधन करना चाहते हैं, विषयके स्पष्टीकरणार्थ