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न्याय - दीपिका
इधर जब मैं सन् १९४३ के अप्रेल में वीरसेवामन्दिर में आया तो दूसरे साहित्यिक कार्योंमें प्रवृत्त रहनेसे एक वर्ष तक तो उसमें कुछ भी योग नहीं दे पाया । इसके बाद उसे पुनः प्रारम्भ किया और संस्थाके कार्यसे बचे समयमें उसे बढ़ाता गया । मान्यवर मुख्तार सा० ने इसे मालूम करके प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमालासे प्रकाशित करनेका विचार प्रदर्शित किया। मैंने उन्हें अपनी सहमति दे दी । और तबसे ( लगभग ८, 8 माह से ) अधिकांशतः इसी में अपना पूरा योग दिया। कई रात्रियोंके तो एक-एक दो-दो भी बज गये । इस तरह जिस महत्त्वपूर्ण एवं सुन्दर कृति के प्रति मेरा श्रारम्भसे सहज अनुराग और आकर्षण रहा है उसे उसके अनुरूपमें प्रस्तुत करते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है ।
संशोधन को कठिनाइयां
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साहित्यिक एवं ग्रन्थसम्पादक जानते हैं कि मुद्रित और मुद्रित दोनों ही तरहकी प्रतियोंमें कैसी और कितनी अशुद्धियाँ रहती हैं । और उनके संशोधनमें उन्हें कितना श्रम और शक्ति लगानी पड़ती है । कितने ही ऐसे स्थल प्राते हैं जहाँ पाठ त्रुटित रहते हैं और जिनके मिलाने में दिमाग थककर हैरान हो जाता है। इसी बातका कुछ अनुभव मुझे भी प्रस्तुत न्यायदीपिकाके सम्पादनमें हुआ है । यद्यपि न्यायदीपिकाके अनेक संस्करण हो चुके और एक लम्बे अरसेसे उसका पठन-पाठन है पर उसमें जो त्रुटित पाठ और अशुद्धियाँ चली आ रही हैं उनका सुधार नहीं हो सका । यहाँ मैं सिर्फ कुछ त्रुटित पाठों को बता देना चाहता हूँ जिससे पाठकों को मेरा कथन असत्य प्रतीत नहीं होगा
मुद्रित प्रतियों के छूटे हुए पाठ
'सर्वतो वैशद्यात्पारमार्थिकं प्रत्यक्ष' (का०प्र०) अग्न्यभावे च धूमानुपलम्भे'
(सभी प्रतियों में )
पृ० ३६ पं० ४ पृ० ६३ पं० ४ पृ० ६४ पं० ५ 'सर्वोपसंहारवतीमपि '
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