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________________ १८२ न्याय-दीपिका व्याप्ति का ज्ञान मानने पर अनवस्था दोष आता है, क्योंकि दूसरे अनुमान की व्याप्ति का ज्ञान अन्य तृतीय अनुमान से मानना होगा, तृतीय अनुमान की व्याप्ति का ज्ञान अन्य चौथे अनुमान से माना जायगा, इस तरह कहीं भी व्यवस्था न होने से अनवस्था नाम का 5 दोष प्रसक्त होता है। इसलिए अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण सम्भव नहीं है। और न आगमादिक प्रमाणों से भी सम्भव है, क्योंकि उन सबका विषय भिन्न भिन्न है। और विषयभेद से प्रमाणभेद को व्यवस्था होती है। अतः व्याप्ति को ग्रहण करने के लिए तर्क प्रमाण का मानना आवश्यक है। 10 निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के अनन्तर जो विकल्प पैदा होता है वह व्याप्ति को ग्रहण करता है' ऐसा बौद्ध मानते हैं; उनसे हम पूछते हैं कि वह विकल्प अप्रमाण है अथवा प्रमाण ? यदि अप्रमाण है, तो उसके द्वारा ग्रहीत व्याप्ति में प्रमाणता कैसे ? और यदि प्रमाण है. तो वह प्रत्यक्ष है अथवा अनुमान ? प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता; क्योंकि 15 वह अस्पष्टज्ञान है और अनुमान भी नहीं हो सकता; कारण, उसमें लिङ्गदर्शन आदि की अपेक्षा नहीं होती। यदि इन दोनों से भिन्न हो कोई प्रमाण है, तो वही तो तर्क है। इस प्रकार तर्क नाम के प्रमाण का निर्णय हुना। अनुमान प्रमाण का निरूपण-- 20 अब अनुमान का वर्णन करते हैं। साधन से साध्य का ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं। यहाँ 'अनुमान' यह लक्ष्य-निर्देश है। और 'साधन से साध्य का ज्ञान होना' यह उसके लक्षण का कथन है । तात्पर्य यह कि साधन-धूमादि लिङ्ग से साध्य-अग्नि आदिक लिङ्गी में जो ज्ञान होता है वह अनुमान है। क्योंकि वह साध्य25 ज्ञान ही अग्नि आदि के अज्ञान को दूर करता है। साधनज्ञान अनुमान
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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