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प्रस्तावना
८७ का उल्लेख किया है और तत्त्वार्थवातिक तथा न्यायविनिश्चयसे कुछ वाक्योंको उद्धृत किया है।
कुमारनन्दि भट्टारक-यद्यपि इनकी कोई रचना इस समय उपलब्ध नहीं है, इससे इनका विशेष परिचय कराना अशक्य है फिर भी इतना जरूर कहा जा सकता है कि ये आ० विद्यानन्दके पूर्ववर्ती विद्वान् हैं और अच्छे जैनतार्किक हुए हैं। विद्यानन्दस्वामीने अपने प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और तत्वार्थश्लोकवात्तिकमें इनका और इनके 'बादन्याय'का नामोल्लेख किया है तथा उसकी कुछ कारिकाएँ भी उद्धत की हैं। इससे इनकी उत्तरावधि तो विद्यानन्दका समय है अर्थात् हवीं शताब्दी है। और अकलङ्कदेवके उत्तरकालीन मालूम होते हैं; क्योंकि अकलङ्कदेवके समकालीनका अस्तित्व परिचायक इनका अब तक कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । अतः अकलङ्कदेवका समय (८वीं शताब्दी) इनकी पूर्वावधि है। इस तरह ये ८वीं, हवीं सदीके मध्यवर्ती विद्वान् जान पड़ते है । चन्द्रगिरि पर्वतपर उत्कीर्ण शिलालेख नं० २२७ (१३६) में इनका उल्लेख है जो हवीं शताब्दीका अनुमानित किया जाता है। इनका महत्वका 'वादन्याय' नामका तर्कग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं जिसके केवल उल्लेख मिलते हैं। प्रा० धर्मभूषणने न्यायदी० पृ० ६६ और ८२ पर 'तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः कहकर इनके वादन्यायकी एक कारिकाके पूर्वार्द्ध और उत्तरार्धको अलग अलग उद्धृत किया है।
माणिक्यनन्दि-ये कुमारनन्दि भट्टारककी तरह नन्दिसंघके प्रमुख प्राचार्योंमें हैं। इनकी एकमात्र कृति परीक्षमुख है। जिसके सम्बन्धमें हम पहले प्रकाश डाल पाए हैं। इनका समय १०वीं शताब्दीके लगभग माना जाता है । ग्रन्थकारने न्यायदीपिकामें कई जगह इनका नामोल्लेख किया है । एक स्थान ( पृ० १२० ) पर तो 'भगवान' और
१ देखो, जैनशिलालेखसं० पृ० १५२, ३२१ ।