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तीसरा प्रकाश
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में पाँचरूपता के न होने पर भी 'कृत्तिकोदय' श्रादि में हेतुता है । कहा भी है
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" अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" [
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जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ तीन रूपों के मानने से क्या ? और 5 जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ तीन रूपों के सद्भाव से भी क्या ? तात्पर्य यह कि त्रैरूप्य श्रन्यथानुपपत्ति के बिना अभिमत फल का सम्पादक नहीं है- व्यर्थ है । यह त्रैरूप्य को मानने वाले बौद्धों के लिए उत्तर है । और पाँच रूपों को मानने वाले नैयायिकों के लिए तो निम्न उत्तर है :
"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ॥" [ प्रमाणप० पृ० ७२ ]
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जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ पाँच रूपों के मानने से क्या ? और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ पाँच रूपों के सद्भाव से भी क्या ? मतलब यह कि अन्यथानुपपत्ति के बिना पाँच रूप सर्वथा अन्यथा - 15 सिद्ध हैं - निष्फल हैं
हेतु के भेदों और उपभेदों का कथन
यह अन्यथानुपपत्ति के निश्चयरूप एक लक्षण वाला हेतु संक्षेप में दो तरह का है- १ विधिरूप और २ प्रतिषेधरूप विधिरूप हेतु के भी दो भेद हैं- १ विधिसाधक और २ प्रतिषेध- 20
१ यह कारिका प्रमाण-परीक्षा में कुछ परिवर्तनके साथ निम्न प्रकार उपलब्ध है :
अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ॥