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न्याय-दीपिका
यह है-'यह प्रदेश धूमवाला है, क्योंकि वह अग्निवाला है।' यहाँ 'अग्नि' हेतु पक्षभूत सन्दिग्ध धूमवाले सामने के प्रदेश में रहता है
और सपक्ष धूम वाले रसोईघर में रहता है तथा विपक्ष धूमरहित रूप से निश्चित अङ्गारस्वरूप अग्नि वाले प्रदेश में भी रहता है, 5 ऐसा निश्चय है। अतः वह निश्चितविपक्षवृत्ति अनैकान्तिक है। दूसरे शङ्कितविपक्षवृत्ति का उदाहरण यह है—'गर्भस्थ मैत्री का पुत्र श्याम होना चाहिए, क्योंकि मैत्री का पुत्र है, मैत्री के दूसरे पुत्रों की तरह यहाँ 'मैत्री का पुत्रपना' हेतु पक्षभूत गर्भस्थ मैत्री के
पुत्र में रहता है, सपक्ष दूसरे मैत्रीपुत्रों में रहता है, और विपक्ष 0 अश्याम–गोरे पुत्र में भी रहे इस शङ्का की निवृत्ति न होने से अर्थात् विपक्ष में भी उसके रहने की शङ्का बनी रहने से वह शङ्कितविपक्षवृत्ति है। शङ्कितविपक्षवृत्ति का दूसरा भी उदाहरण है-'अरहन्त सर्वज्ञ नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे वक्ता हैं, जैसे-'रथ्यापुरुष'। यहाँ 'वक्ता
पन' हेतु जिस प्रकार पक्षाभूत अरहन्त में और सपक्षभूत रथ्यापुरुष 5 में रहता है उसी प्रकार सर्वज्ञ में भी उसके रहने की सम्भावना
की जाय, क्योंकि वक्तापन और ज्ञातापन का कोई विरोध नहीं है। जिसका जिसके साथ विरोध होता है वह उस वाले में नहीं रहता है और वचन तथा ज्ञान का लोक में विरोध नहीं है, बल्कि
ज्ञान वाले ( ज्ञानी ) के ही वचनों में चतुराई अथवा सुन्दरता ) स्पष्ट देखने में आती है। अतः विशिष्ट ज्ञानवान् सर्वज्ञ में विशिष्ट
वक्तापन के होने में क्या आपत्ति है ? इस तरह वक्तापन की विपक्षभूत सर्वज्ञ में भी सम्भावना होने से वह शङ्कितविपक्षवृत्ति नाम का अनैकान्तिक हेत्वाभास है।
लिये
अधर्म
आगर जैसे
गर्भ न
रहता
(४) अकिञ्चित्कर-जो हेतु साध्यकी सिद्धि करने में अप्रयोजक; असमर्थ है उसे अकिञ्चित्कर हेत्वाभास कहते हैं । उसके दो
है औ मेरी ।