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________________ पहला प्रकाश १५५ क्योंकि प्रमासाधन और प्रमाश्रयमें से किसी एकको प्रमाण माननेपर लक्षणकी परस्परमें अव्याप्ति होती है। 'प्रमासाघन' रूप जब प्रमाणका लक्षण किया जायगा तब 'प्रमाश्रय' रूप प्रमाणलक्ष्यमें लक्षण नहीं रहेगा और जब 'प्रमाश्रय' रूप प्रमाणका लक्षण माना जायगा तब 'प्रमासाधन' रूप प्रमाणलक्ष्य में लक्षण घटित नहीं होगा। 5 तथा प्रमाश्रय और प्रमासाधन दोनोंको सभी लक्ष्योंका लक्षण माना जाय तो कहीं भी लक्षण नहीं जायगा। सन्निकर्ष श्रादि केवल प्रमासाघन हैं, प्रमाणके आश्रय नहीं हैं और ईश्वर केवल प्रमाका आश्रय है प्रमाका साधन नहीं है क्योंकि उसकी प्रमा (ज्ञान) नित्य है। प्रमाका साधन भी हो और प्रमाका आश्रय भी हो ऐसा 10 कोई प्रमाणलक्ष्य नहीं है। अतः नैयायिकोंका भी उक्त लक्षण सुलक्षण नहीं है। ए और भी दूसरोंके द्वारा माने गये प्रमाणके सामान्य लक्षण हैं। जैसे सांख्य 'इन्द्रियव्यापार' को प्रमाणका लक्षण मानते हैं । जरन्नैयायिक कारकसाकल्य' को प्रमाण मानते हैं, आदि । पर वे सब विचार 15 करनेपर सुलक्षण सिद्ध नहीं होते। अतः उनकी यहाँ उपेक्षा कर दी गई है । अर्थात् उनकी परीक्षा नहीं की गई। की अतः यही निष्कर्ष निकला कि अपने तथा परका प्रकाश करनेवाला सविकल्पक और अपूर्वार्थग्राही सम्यग्ज्ञान ही पदार्थोंके अज्ञानको दूर करनेमें समर्थ है। इसलिए वही प्रमाण है। इस तरह जैनमत 20 सिद्ध हुना। इस प्रकार श्रीजैनाचार्य धर्नभूषण यति विरचित न्यायदीपिकामें प्रमाणका सामान्य लक्षण प्रकाश करनेवाला पहला प्रकाश पूर्ण हुआ।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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