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न्याय-दीपिका
है। न्याय-प्रवेशपर तो जैनाचार्य हरिभद्रसूरिकी 'न्यायप्रवेशवृत्ति टीका है और इस वृत्तिपर भी जैनाचार्य पार्श्वदेव कृत 'न्यायप्रवेश पंजिका नामकी व्याख्या है। दिग्नागका समय ईसाकी चौथी और। शताब्दी (३४५-४२५ई० ) के लगभग है । प्रा० धर्मभूषणने न्यायदं पृ० ११६ पर इनका नामोल्लेख करके 'न याति' इत्यादि एक क उद्धृत की है, जो सम्भवतः इन्हींके किसी अनुपलब्ध ग्रन्थकी होग द्रष्टव्याः । एषां तूदाहरणानि हेत्वाभासवात्तिके द्रष्टव्यानि स्वयं मानि" (पृ० १६८) । इससे तो यह मालूम होता है कि यहाँ उद्य किसी 'हेत्वाभासवात्तिक' नामक ग्रंथका ही उल्लेख कर रहे है 'विरुद्धविशेषणविरुद्धविशेष्यो' के उदाहरण प्रदर्शित किये हैं और जिन्हें देखनेका यहाँ संकेतमात्र किया है । 'हेत्वाभासवात्तिके' पदरे कारिका या श्लोक प्रतीत नहीं होता। यदि कोई कारिका या होता तो उसे उद्धृत भी किया जा सकता था । अतः 'हेत्वाभासव नामका कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा उक्त उल्लेखसे साफ मालूम होत
इसी तरह उद्योतकरके निम्न उल्लेखसे 'हेतुवात्तिक ग्रन्थके में की सम्भावना होती है-“यद्यपि हेतुवात्तिकं ब्रुवाणेनोक्तम्-सा सम्भवे षट्प्रतिषेधादेकद्विपदपर्युदासेन विलक्षणो हेतुरिति । एतदप्य ......' (पृ० १२८) यहाँ हेतुवात्तिककारके जिन शब्दोंको उद्धृत है वे गद्य में हैं। श्लोक या कारिकारूप नहीं हैं। अतः सम्भव न्यायप्रवेशकी तरह 'हेतुवात्तिक गद्यात्मक स्वतन्त्र रचना हो और ि कर्णकगोमिने आदि शब्दसे संकेत भी किया हो । यह भी सम्भव प्रमाणसमुच्चयके अनुमानपरिच्छेदकी स्वोपज्ञ वृत्तिके उक्त पदवा हों। और उनकी मूल कारिकाओंको हेत्वाभासवात्तिक एवं हेतुव कहकर उल्लेख किया हो । फिर भी जबतक 'हेतुचक्रडमरू' और । समुच्चयका अनुमानपरिच्छेद सामने नहीं आता और दूसरे पुष्ट नहीं मिलते तबतक निश्चयपूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा सकता