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________________ तीसरा प्रकाश १७६ अन्यथा लिङ्गदर्शन (धूमादि का देखना) और व्याप्ति के स्मरण आदि की सहायता से चक्षुरादिक इन्द्रियाँ ही अग्नि आदिक लिङ्गि (साध्य) का ज्ञान उत्पन्न कर दें। इस तरह अनुमान भी पृथक् प्रमाण न हो। यदि कहा जाय, कि चक्षुरादिक इन्द्रियाँ तो अपने विषय धूमादि के देखने मात्र में ही चरितार्थ हो जाती हैं, वे अग्नि आदि परोक्ष 5 अर्थ में प्रवृत्त नहीं हो सकतीं, अतः अग्नि आदि परोक्ष अर्थों का ज्ञान करने के लिये अनुमान प्रमाण को पृथक मानना आवश्यक है, तो प्रत्यभिज्ञान ने क्या अपराध किया ? एकत्व को विषय करने के लिए उसको भी पृथक् मानना जरूरी है। अतः प्रत्यभिज्ञान नामका पृथक प्रमाण है, यह स्थिर हुआ। 10 'सादृश्यप्रत्यभिज्ञान उपमान नाम का पृथक् प्रमाण है' ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और मीमांसकों ) का कहना है। पर वह ठीक नहीं हैं। क्योंकि स्मरण और अनुभवपूर्वक जोड़रूप ज्ञान होने से उसमें प्रत्यभिज्ञानता (प्रत्यभिज्ञानपना) का उलंघन नहीं होता - वह उसमें रहती है । अतः वह प्रत्यभिज्ञान ही है। अन्यथा (यदि सादृश्य- 15 विषयक ज्ञानको उपमान नाम का पृथक् प्रमाण माना जाय तो) 'गाय से भिन्न भैसा हैं' इत्यादि विसदृशता को विषय करने वाले वैसादृश्यज्ञान को और 'यह इससे दूर हैं' इत्यादि प्रापेक्षिक ज्ञान को भी पृथक् प्रमाण होना चाहिए । अतः जिस प्रकार वैसादृश्यादिज्ञानों में प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वे प्रत्यभिज्ञान हैं 20 उसी प्रकार सादृश्यविषयक ज्ञान में भी प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वह प्रत्यभिज्ञान ही है-उपमान नहीं। यही प्रामाणिक परम्परा है। तर्क प्रमाण का निरूपणप्रत्यभिज्ञान प्रमाण हो। तर्क का क्या स्वरूप है ? व्याप्ति के 25
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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