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________________ प्रस्तावना ३६ व्यवस्था सर्वप्रथम अकलङ्कदेवने की है । इसके बाद माणिक्यनन्दि आदि ने परोक्षके पाँच ही भेद वर्णित किये हैं । हाँ, आचार्य वादिराजने' अवश्य परोक्षके अनुमान और आगम ये दो भेद बतलाये हैं । पर इन दो भेदोंकी परम्परा उन्हीं तक सीमित रही है, आगे नहीं चली, क्योंकि उत्तरकालीन किसीभी ग्रन्थकारने उसे नहीं अपनाया। कुछ भी हो, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम इन्हें सभीने निर्विवाद परोक्ष-प्रमाण स्वीकार किया है। अभिनव धर्मभूषणने भी इन्हीं पाँच भेदोंका कथन किया है। १५. स्मृति यद्यपि अनुभूतार्थविषयक ज्ञानके रूपमें स्मृतिको सभी दर्शनोंने स्वीकार किया है । पर जैनदर्शनके सिवाय उसे प्रमाण कोई नहीं मानते हैं। साधारणतया सबका कहना यही है कि स्मृति अनुभव के द्वारा गृहीत विषयमें ही प्रवृत्त होती है, इसलिए गृहीतग्राही होनेसे वह प्रमाण नहीं है। न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और बौद्ध सबका प्रायः यही अभिप्राय है। जैनदार्शनिकोंका कहना है कि प्रामाण्यमें प्रयोजक अविसंवाद है। जिस प्रकार प्रत्यक्षसे जाने हुए अर्थमें विसंवाद न होनेसे वह प्रमाण माना जाता हैं उसी प्रकार स्मृति से जाने हुए अर्थमें भी कोई विसंवाद नहीं होता और जहाँ होता है वह स्मृत्याभास है । अतः स्मृति प्रमाणही होना १ लघीय० का० १० और प्रमाणसं० का २ । २ “तच्च (परोक्षं) द्विविधमनुमानमागमश्चेति । अनुमानमपि द्विविधं गौणमुख्यविकल्पात् । तत्र गौणमनुमानं त्रिविधम्, स्मरणम्, प्रत्यभिज्ञा, तर्कश्चेति.....।"-प्रमानि० पृ० ३३ । ३ “सर्वे प्रमाणादयोऽनधिगतमर्थं समान्यतः प्रकारतो वाऽधिगमयन्ति, स्मृतिः पुनर्न पूर्वानुभवमर्यादामतिकामति, तद्विषया तदूनविषया वा न तु तदधिकविषया, सोऽयं वृत्त्यन्तराद्विशेषः स्मृतेरिति विमृशति ।”—तत्त्ववंशा० १-११। ४ देखो, प्रमाणपरीक्षा पृ० ६६ ।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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