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न्याय-दीपिका
ग्रन्थकार धर्मभूषण और उनकी परम्परा
प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता धर्मभूषण उपर्युक्त धर्मभूषणों से भिन्न हैं और जिनका उल्लेख उसी विजयनगरके शिलालेख नं० २ में तीसरे नम्बरक धर्मभूषणके स्थान पर है तथा जिन्हें स्पष्टतया श्रीवर्द्धमान भट्टारक शिष्य बतलाया है। न्यायदीपिकाकारने स्वयं न्यायदीपिकाके अन्तिम पद्य और अन्तिम (तीसरे प्रकाशगत) पुष्पिकावाक्यमें अपने गुरुका नाम श्रीवर्द्धमान भट्टारक प्रकट किया है। मेरा अनुमान है कि मङ्गलाचरण पद्यमें भी उन्होंने 'श्रीवर्द्धमान' पदके प्रयोग द्वारा वर्द्धमान तीर्थंकर और अपने गुरु वर्द्धमान भट्टारक दोनोंको स्मरण किया है। क्योंकि अपने परापरगुरुका स्मरण करना सर्वथा उचित ही है। श्रीधर्मभूषण अपने गुरुके अत्यन्त अनन्य भक्त थे। वे न्यायदीपिका के उसी अन्तिम पद्य और पुष्पिकावाक्यमें कहते हैं कि उन्हें अपने उक्त गुरु की कृपासे ही सरस्वतीका प्रकर्ष (सारस्वतोदय) प्राप्त हुआ था और उनके चरणोंकी स्नेहमयी भक्ति-सेवासे न्यायदीपिका की पूर्णता हुई है । अतः मङ्गलाचरणपद्यमें अपने गुरु वर्द्धमान भट्टारकका भी उनके द्वारा स्मरण किया जाना सर्वथा-सम्भव एवं सङ्गत है ।
विजयनगरके उस शिलालेखमें जो शकसम्बत् १३०७ (१३८५ ई०) । में उत्कीर्ण हुआ है, ग्रन्थकार की जो गुरु परम्परा दी गई है उसके सूचक शिलालेखगत प्रकृतके उपयोगी कुछ पद्योंको यहां दिया जाता है :
"यत्मादपङ्कजरजो रजो हरति मानसं । स जिनः श्रेयसे भूयाद् भूयसे करुणालयः ॥१॥ श्रीमत्परमगाम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥२॥
१-२ देखो, पृ० १३२॥