Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002998/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * * ******** ***** *** जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा लेखकरतनलाल डोशी, सैलाना प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा- नेहरू गेट बाहर, ब्यावर : (०१४६२) २५१२१६, २५७६६६ ************** ********************** Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का ११० वां रत्न जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा लेखक रतनलाल डोशी, सैलाना प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा - नेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राज.) : (०१४६३) २५१२१६, २५७६६६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोटः सभी प्रसंगों का न्याय क्षेत्र ब्यावर ही होगा। द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ (नासिक) २५२५१ |४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन . पो० बॉ० नं० २२१७, बम्बई-२ ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन ६७ बालाजी पेठ, जलगांव |६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा ६. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, २३३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई क ५३५७७५ मूल्य : १५-०० प्रथम आवृत्ति वीर संवत् २५२८ ५००० विक्रम संवत् २०५८ नवम्बर २००२ | मद्रक-स्वस्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर | - Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन जहां जीव रक्षा यही परीक्षा धर्म वही जानिये। जहाँ होत हिंसा, नहीं है संशय, अधर्म वही पहिचानिए॥ जैन धर्म अहिंसा प्रधान है। इसका सार उक्त दोहे में दे दिया गया है। धर्म की पहिचान एवं परीक्षा का एक मात्र बेरो मीटर जीव रक्षा है। जहाँ भगवान् द्वारा प्ररूपित षट्काय रूप जीवों की रक्षा होती हो तो वहाँ बिना किसी ननूनच के स्वीकार कर लेना चाहिये कि धर्म है। इसके विपरीत जहाँ षट्काय रूप जीवों में से किसी भी काय की हिंसा होती हो अथवा इनकी हिंसा में धर्म होना स्वीकार किया जाता हो वहाँ बिना किसी संशय के अधर्म मानना चाहिये। अतएव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिये। इसके लिए स्वयं तीर्थंकर प्रभु अपनी देशना रूप आगमवाणी में निरूपित करते हुए फरमाते हैं - . “से बेमि जे य अईया जे य पडुप्पण्णा जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूविंति-सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अजावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परियावेयव्वा ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तंजहा-उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिएसु वा अणुवहिएसु वा संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा, तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सिं चेयं पवुच्चइ॥१२६॥" (आचारांग सूत्र) . भावार्थ - गत काल में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं और Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] ******************** भविष्यत् काल में अनन्त तीर्थंकर होंगे तथा वर्तमान काल में पांच महाविदेह क्षेत्र में २० तीर्थंकर विद्यमान हैं उन सब का यही फरमान है कि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी प्राणी की हिंसा न करनी चाहिए, उन्हें शारीरिक या मानसिक कष्ट न देना चाहिए तथा उनके प्राणों का नाश नहीं करना चाहिए। यह अहिंसा धर्म नित्य है, शाश्वत है। संसार सागर में डूबते हुए प्राणियों पर अनुकम्पा करके उनके उद्धार के लिए तीर्थंकर भगवान् ने यह अहिंसात्मक धर्म फरमाया है । भगवान् ने जगत् जीवों के कल्याणार्थ जो धर्मोपदेश दिया है, वह सर्वथा सत्य है। वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा ही भगवान् ने फरमाया हैं, उसमें किञ्चिन्मात्र भी अन्यथा नहीं है। इस प्रकार पदार्थ का यथार्थ वर्णन इस जैन दर्शन में ही पाया जाता है, अन्य दर्शनों में नहीं क्योंकि उनमें पूर्वापर विरुद्ध बातें पाई जाती हैं। प्रश्न होता है कि उक्त पाठ में तो भगवान् ने एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव की हिंसा नहीं करने का कहा है । पर यहाँ यह कहा - बतलाया कि धर्म के नाम पर भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। भगवान् (धर्म) के नाम पर हिंसा करने पर तो महान् लाभ (फल) होता है। इसके समाधान के लिए प्रभु इसी आचारांग सूत्र में फरमाते हैं । "इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहे" अर्थात् प्रभु ने अपने केवलज्ञान में देखकर फरमाया है कि जीवहिंसा (आरम्भसमारंभ) चाहे इस जीवन को नीरोग चिरंजीवी बनाने के लिए परिवंदना - प्रशंसा के लिए, मान पूजा प्रतिष्ठा के लिए, यावत् जन्म मरण से छूटने दुःखों का नाश (अन्त) करने के लिए यानी धर्म के नाम पर ही क्यों न की जाय ? वह हिंसा "तं से अहियाए, तं से Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] ******************************************* अबोहिए" उस जीव के लिए अहितकर तथा बोधि(सम्यक्त्व गुण) का नाश करने वाली होती है। हाँ तो हिंसा (आरम्भ समारम्भ) चाहे किसी भी नाम पर क्यों न किया जाय वह हिंसा अधर्म है, संसार परम्परा को बढ़ाने वाली है और यदि वह हिंसा धर्म के नाम पर अथवा उसमें धर्म मान कर की जाय तब तो वह बहुत ही ज्यादा अहितकर है। आगमकार फरमाते हैं कि ऐसे जीवों को भविष्य में धर्म की प्राप्ति होना भी दुर्लभ हो जाता है। इतना ही नहीं प्रश्नव्याकरण सूत्र के प्रथम अध्ययन में धर्म के नाम पर भगवान् के नाम पर हिंसा करने वाले को "मंदबुद्धी" विशेषण देकर उसे हीनमति, विवेक-विकल, मिथ्यादृष्टि हिताहित धर्म-अधर्म और पुण्य पाप के ज्ञान से रहित कहा है। “मदबुद्धि' के साथ उसे “दृढमूढा' अत्यन्त मूर्ख और दारुणमई-कठोरमति वाला भी बतलाया है। मंदबुद्धि वाले केवल वे ही नहीं जो पढ़े लिखे नहीं हों, जिन्हें बोलने-लिखने का ख्याल न हों, बल्कि जो अपने समान प्राण रखने वाले जीवों की हिंसा करते हों, हिंसाकारी उपदेश देते हों, हिंसा में धर्म की प्ररूपणा करते हों, लोगों को हिसंक प्रवृत्तियों में जोड़ते हों, ऐसे सभी लोगों को प्रभु ने मंदबुद्धि कहा है। जड़पूजा, मूर्ति पूजा में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा होती है। अतएव मूर्ति पूजा प्रभु महावीर के अहिंसा व्रत को दूषित करने वाली होने से इसे “जिनाज्ञा विरुद्ध" कहा है। इसके अलावा जैन धर्म में अहिंसा के साथ गुणों को प्रमुखता दी गई है, गुण होने पर ही व्यक्ति विशेष वंदनीय पूजनीय माना गया है। कहा भी है कि-"जैन धर्म में गुण लारे पूजा, निर्गुणा ने पूजे वह धर्म है दुजा"। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] ********************************************** जब तक किसी भी व्यक्ति में गुण विद्यमान है तब तक वह वंदनीय पूजनीय माना जाता है। यह बात सामान्य साधु साध्वी तक ही सीमित नहीं बल्कि तीर्थ के संस्थापक तीर्थंकर भगवन्तों पर भी लागू होती है। जब तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, तब इन्द्रादि देवों के द्वारा किये गए जन्मोत्सव से मालूम हो जाता है कि जिनका इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया, वे तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी भव में मोक्ष पधारेंगे। इतना सब कुछ जानते हुए भी जब तक तीर्थंकर महाराज गृहस्थावस्था में रहते हैं, तब तक कोई भी व्रती श्रावक या साधु उन्हें तीर्थंकर रूप में वंदन-नमस्कार नहीं करते और जब तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण हो जाता है, तब देह रूप शरीर के लोक में रहते हुए भी तीर्थंकर प्रभु का विरह हो जाता है, उनके शव को देव अग्नि संस्कारित कर देते हैं। क्योंकि वंदनीय पूजनीय जो गुण आत्मा थी वह तो गमन कर गई। सम्पूर्ण जैन समाज के सर्वमान्य नमस्कार सूत्र में पांचों पद गुण निष्पन्न है, कोई भी ऐसा पद नहीं जिसमें गुण नहीं हो और उस पद को वंदन किया गया हो पहला एवं दूसरा पद तो सर्वज्ञता को लिए हुए हैं, अतएव वे तो गुणों के भंडार हैं ही पर शेष के तीन पदों के लिए भी बता दिया गया है कि आचार्य के छत्तीस, उपाध्याय के पच्चीस एवं साधु के सत्तावीस गुण हों तो ही वे उस पद के योग्य एवं वंदनीय पूजनीय हैं, अन्यथा नहीं। आगमों में पांच प्रकार के असाधु कुशीलिए बतलाए गए हैं यानी जो साधु के वेश में होते हुए भी गुणों से साधुता के गुणों से रहित हैं, वे वंदनीय पूजनीय तो दूर बल्कि प्रभु ने तो उनसे संसर्ग रखने का भी निषेध किया है। इससे कुछ आगे चले, प्रभु के शासन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] ***************** में सात वि हुए, वे प्रभु द्वारा निर्देशित सभी नियमों का पालन करने वाले थे । मात्र एक नियम में उनका प्रभु से मतभेद हुआ, यानी. वे ज्ञान और चारित्र से सम्पन्न होते हुए भी किसी एक बात की अमान्यता के कारण वे संघ से बहिष्कृत हुए। जमाली जो भगवान् का संसारी जंवाई एवं भाणेज था, किन्तु जिनवाणी विरुद्ध प्ररूपणा से वह भी संघ से बाहर कर दिया गया । पीछे हाँ तो जैन धर्म में किसी का लिहाज नहीं है, यहाँ तो गुणों के पूजा है । यदि जड़ पूजा का महत्त्व होता तो तीर्थंकर प्रभु के शव को मसालादि भरकर मंदिर में सुरक्षित रखा जा सकता था, जैसा कि अन्य देशों में शवों में मसाला भर कर रक्खा जाता है । क्योंकि पाषाण मूर्ति से शव ठीक ही था, जिसमें अब चाहे गुण न रहे हों, पर पूर्व में तो उनमें गुण थे ही। जबकि पाषाण मूर्त्ति में न कोई पहले और न ही बाद में कोई गुण है? वस्तुतः गुणों की आराधना एवं गुणी की सेवा भक्ति करने से ही उनके गुण आत्मा में प्रकट होते हैं। जड़ पूजा, मूर्त्ति पूजा में ऐसे कोई गुण दृष्टि गोचर नहीं होते, जिनकी पूजा अर्चना करने से जीव के अन्दर आध्यात्मिक गुणों का कुछ विकास होता हो। अतएव जड़ पूजा, मूर्ति पूजा गुणों की अपेक्षा से भी जिनागम विपरीत है। जीव रक्षा, गुण पूजा के साथ जैन दर्शन की तीसरी कसौटी है आगम मान्यता। यह तो सर्व विदित है कि तीर्थंकर प्रभु चार घाती कर्मों का क्षय होने पर वाणी की वागरणा करते हैं, उनकी प्रथम देशना में ही चतुर्विध संघ की स्थापना एवं गणधर भगवन्तों द्वारा प्रभु की वाणी को आगम रूप में गूंथित कर दिया जाता है। वह आगम Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] रूप वाणी वर्तमान में बत्तीस आगमों के रूप में हमारे समक्ष उपलब्ध है, जिसे सम्पूर्ण श्वेताम्बर समाज मान्य करता है। इन आगमों में अन्यान्य विषयों के अलावा चतुर्विध संघ के प्रत्येक घटक (साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका ) के धर्माराधना के लिए विधि विधानों का सविस्तार उल्लेख किया गया है । किन्तु सम्पूर्ण बत्तीस आगमों में बिन्दु मात्र कहीं पर भी मूर्ति पूजा करने या मूर्ति के दर्शन करने की आज्ञा नहीं दी है। न ही किसी श्रमण महात्मा या श्रावक महोदय के चारित्र वर्णन में यह बात मिलती है कि उन्होंने प्रभु की मूर्ति के दर्शन या पूजा की हो, संघ निकाल कर यात्रा की हो, मन्दिरों का निर्माण करवाया हो, प्रतिष्ठा महोत्सव आदि करवायें हो यानी इस प्रकार की किसी भी क्रिया का उल्लेख न आगम में है, न ही प्राचीन कथानकों में है। आगमों में जहां भी श्रावकों की धर्माराधना का वर्णन है, वहाँ श्रावक के व्रत ग्रहण करने, प्रतिमाओं की आराधना करने, अपनी पौषधशाला में दया, पौषध संवर क्रिया करने का तो उल्लेख है, पर कहीं पर भी ऐसा वर्णन नहीं मिलता कि अमुकअमुक भगवान् के श्रावक ने इतने मंदिर बनवाये, जिर्णोद्धार करवाया, मूर्ति पूजा की, उनके दर्शन आदि किए हों। इसी प्रकार भगवान् के साधुवर्ग द्वारा मंदिरों के निर्माण, उनके जिर्णोद्वार, प्रतिष्ठा महोत्सव आदि करवाने का वर्णन एवं संघ आदि निकलवाने का कहीं उल्लेख नहीं है, जबकि साधु एवं श्रावक वर्ग के साधना विधि के लिए सूत्र के सूत्र भरे हुए हैं, जिनमें उनके छोटी से छोटी साधना का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यदि मूर्त्ति पूजा जैनागम सम्मत होती तो जिस तरह अन्य साधना विधि का वर्णन आगमों में है उसी प्रकार ********** Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [9] ***************** मूर्ति पूजा इसके दर्शन आदि का वर्णन भी जैनागमों में अवश्य मिलता। अतएव 'मूर्तिपूजा', 'जीवरक्षा', 'गुणवत्ता' एवं 'आगमिक विधि-विधानों' आदि किसी भी दृष्टि से 'जिनागम सम्मत' नहीं है। हमारे कितनेक मूर्त्तिपूजक बंधु एवं इनके मान्य गुरु वर्ग मूर्तिपूजा को जिनाज्ञानुसार बतलाने की कोशिश करते हैं, इसके लिए आगम की दुहाई भी देते हैं, किन्तु यह मात्र भ्रम जाल है। मूर्तिपूजक समाज जिन-जिन मुद्दों के आधार से मूर्त्ति पूजा को जिनाज्ञानुसार बतलाते हैं, उनमें कितनी सत्यता है, आगम पाठों को किस प्रकार तोड़ मरोड़ कर उनका अर्थ किया है, इन सब बातों का समाधान आगमपाठों का संदर्भ देकर सचोट इस पुस्तक में किया गया है। श्री ज्ञानसुन्दर जी म. ( जो मरुधर केशरी कहलाते ) पहले स्थानकवासी परम्परा में दीक्षित हुए, स्थानकवासी समाज से वे बहिष्कृत किए जाने पर, वे मूर्तिपूजक समाज में जा मिले और वहाँ जाकर आपने वहाँ " मूर्त्ति पूजा का प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक लिखी, जिसमें आपने आगम के कुछ खोटे उद्धरण देकर मूर्ति पूजा को जिनागम सम्मत बताने का प्रयास किया। आपके दिए गए उद्धरण कितने बेबुनियादी, अयथार्थ एवं आगम विरुद्ध है, उन सब का उत्तर (समाधान) श्रीमान् रतनलाल जी डोशी, सैलाना ने इस पुस्तक में विस्तार से किया है। आदरणीय रतनलाल जी सा. डोशी अपने समय के प्रकाण्ड विद्वान् एवं चर्चावादी रहे, आपके नाम से ही मूर्ति पूजक समाज के साधु-साध्वी घबराते थे । आपने “ मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास" में चर्चित मुख्य - मुख्य सभी मुद्दों का जिनके बल बूते पर मूर्त्तिपूजक समाज मूर्त्ति पूजा को आगमानुसार होना करार देते हैं। उनका आगम प्रमाणों से ---- Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] ** ****** सचोट खण्डन कर प्रभु महावीर द्वारा प्ररूपित शुद्ध निर्दोष, धर्म की स्थापना की है। इस पुस्तक का प्रकाशन विक्रम संवत् १६६६ में यानी लगभग ६० वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय चर्चावादी युग था मूर्त्तिपूजक समाज एवं स्थानकवासी समाज के आचार्यों के बीच चर्चा होती रहती थी और चर्चा में हमेशा मूर्त्तिपूजक समाज को मात खानी पड़ती। क्योंकि वे इसे जिनागम सम्मत सिद्ध करने में हमेशा विफल रहे। यद्यपि वर्तमान चर्चावादी युग तो नहीं है, पर स्थानकवासी समाज में ज्ञान का अभाव होने एवं कुगुरुओं द्वारा धर्म का सही स्वरूप नहीं समझ ने के कारण जिन शासन से भटकनें की स्थिति बनी हुई है। ऐसी विषम स्थिति में इस प्रकार के साहित्य का प्रकाशन आवश्यक समझा गया, ताकि समाज जिनशासन के सही स्वरूप को समझ कर इस के श्रद्धालु बनें तथा जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदेशित साधना मार्ग का अनुसरण कर मोक्ष मार्ग के पथिक बनें । इसी भावना को लेकर इस पुस्तक का प्रकाशन संघ द्वारा किया जा रहा है। इस पुस्तक के साथ अन्य तीन पुस्तकों (लोकाशाह मत समर्थन, मुखवस्त्रिका सिद्धि एवं विद्युत् (बिजली) बादर तेऊकाय है) के प्रकाशन के बारे में धर्म प्रिय उदारमना श्रावक रत्न श्रीमान् वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर निवासी के सामने चर्चा की तो आपको अत्यधिक प्रसन्नता हुई । आपने चारों पुस्तकों के प्रकाशन का सम्पूर्ण खर्च अपनी ओर से देने की भावना व्यक्त की। मैंने आपसे निवेदन किया कि फ्री पुस्तकें देने में पुस्तक की उपयोगिता समाप्त हो जाती है तथा उसका दुरुपयोग होता है। अतएव इन चारों पुस्तकों का दृढ़धर्मी प्रियधर्मी उदारमना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक रत्न श्रीमान् वल्लभचन्दजी सा. डागा, जोधपुर के अर्थ सहयोग से अर्द्ध मूल्य में प्रकाशन किया जा रहा है। आदरणीय डागा साहब की उदारता के लिए समाज पूर्ण रूपेण परिचित है। आप संघ की प्रवृत्तियों के लिए हमेशा उदारता से सहयोग प्रदान करने के तत्पर रहते हैं । साहित्य प्रकाशन में सहयोग प्रदान करने में आपकी भावना उत्कृष्ट रहती है। संघ एवं पाठक गण आपके इस सहयोग के लिए बहुत-बहुत आभारी है। आप चिरायु रहे और संघ और समाज को आपका सहयोग प्राप्त होता रहे । [11] प्रस्तुत पुस्तक के पुनः प्रकाशन में हमारा एक मात्र लक्ष्य है कि जिनवाणी रसिक चतुर्विध संघ के सदस्य जिनवाणी के शुद्ध स्वरूप को समझें एवं स्थानकवासी समाज में बढ़ रही विकृतियों के कारण लोगों की श्रद्धा जो डांवाडोल हो रही है वह स्थिर बने ! बावजूद इस प्रकाशन से किसी भी महानुभाव के हृदय को यदि कोई ठेस पहुँचे तो उसके लिए मैं हृदय से क्षमा चाहता हूँ । सैद्धान्तिक मान्यता के अलावा मेरा किसी व्यक्ति विशेष के प्रति कोई वैर विरोध नहीं है। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं ण केण ॥ यह दुर्लभ पुस्तक बड़े ही लम्बे अन्तराल के पश्चात् पुनः प्रकाशित की जा रही है । अतएव पाठक बंधुओं से निवेदन है कि वे इसे धरोहर के रूप में अपने पास रखें और समय-समय पर इसका वाचन कर अपनी श्रद्धा को दृढ़ करे। इसी शुभ भावना के साथ ! ब्यावर (राज.) दिनांक १-११-२००२ संघ सेवक नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सु. जैन सं. र. संघ, जोधपुर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] धन्यवाद! पहले से थोक ग्राहक होकर मेरे इस समाजोपयोगी कार्य में सहायक होने वाले महानुभावों का हार्दिक स्वागत करता हुआ उनकी शुभ नामावली आदर्श के लिए उपस्थित करता हूँ। प्रति शुभनाम १०० श्रीमान् सेठ वर्धमानजी साहब पितलिया, रतलाम। १०० श्रीमान् सेठ भैरोदानजी जेठमल जी सेठिया बीकानेर। १०० श्रीमान् सेठ गुलाबचन्दजी पानाचन्दजी मेहता, राजकोट। १०० श्रीमान् सेठ दलीचन्दजी ऊँकारलालजी रांका, सैलाना। ५.० श्रीमान् सेठ रतनलालजी साहब नाहर, बरेली। २५ श्रीमान् सेठ सोमचन्दजी तुलसीदास जी, रतलाम। इन महानुभावों के वचन प्राप्त होने पर पुस्तक प्रकाश में आई, अतएव इस पुस्तक से जो भी समाज हित होगा, उसका अधिकांश श्रेय उक्त महानुभावों को है। श्रीमान् मुनिवर्य सदानन्दी छोटालाल जी महाराज साहब ने अपने समय और शक्ति का भोग देकर इस पुस्तक पर मननीय भूमिका लिखी है, अतएव यह लेखक मुनिराज श्री का हार्दिक उपकार मानता है। इस पुस्तक में जिन-जिन ग्रन्थकारों और लेखकों के ग्रन्थों तथा समाचार पत्रों की सहायता ली गई है, उनका उपकार माने बिना कैसे रह सकता हूँ, यदि कागजों का दुष्काल नहीं होता तो सबका पृथक्-पृथक् परिचय देता, जिससे एक बहुत बड़ी सूची बन जाती। किन्तु इस निकृष्ट समय में मात्र समुच्चय आभार मानकर ही सन्तोष करना पड़ता है। ___ - लेखक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ [13] उद्बोधन मित्र ज्ञानसुन्दर जी! आपके मूर्ति पूजा के प्राचीन इतिहास के उत्तर में पहले 'मुख वस्त्रिका सिद्धि' पेश की गई। अब जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा' प्रथम भाग भेंट करता हूँ। आपकी दोनों पुस्तकों का समुचित खंडन करने में प्रत्येक विषय के लगभग ७ ग्रन्थ और प्रकाशित हो सकते हैं। यदि समय साधन एवं परिस्थिति की अनूकूलता रही तो क्रमशः एक-एक चीज आपके सामने रखता रहूँगा। वास्तव में आपने इन दो पुस्तकों का प्रकाशन कर जैन समाज का महान अपकार किया है और स्थानकवासी समाज के महान उपकारों का इस तरह उल्टा बदला चुका कर कृतज्ञ (?) सिद्ध हुए आपके मिथ्या श्रद्धान और भ्रम पूर्ण प्रचार का अवरोध करने के लिए यह कृति समाज के चरणों में समर्पण करता हूँ और एक प्रति आपके पास भेजकर इससे यथेष्ट लाभ उठाने का आग्रह करता हूँ। आपको चाहिये कि अपने हृदय एवं मस्तिष्क पर बर्फ रख कर ठंडे दिल और दिमाग से इसे पढ़ें और परिणाम से सूचित करें। यदि इस विषय में आप मुझे कुछ पूलना चाहेंगे तो मैं यथा संभव अन्य कार्यों को रोककर पहले आपको उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा। शुभेच्छुक लेखक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भूमिका सहु कोई समजे एवी एक बात ए छे के जगतना प्राणी मात्र पछी ते मनुष्य होय के इतर होय, मनुष्य मां पण बाल, युवान, वृद्ध, स्त्री, के पुरुष, ज्ञानी के अज्ञानी, सधन के निर्धन गमे ते होय पण सहु कोई बाह्य के आभ्यन्तर शान्ति ने इच्छे छे अने पोत पोतानी समज शक्ति मुजब दरेक यथा शक्य शान्ति मेलववाने बनतो प्रयत्न करे छ। केटला एक नो प्रयत्न समजण पूर्वक नो होय छे, केटलाएक नो ओघ संज्ञावालो होय छे, ज्यारे केटलाएक नो अज्ञानता वालो अने केटलाएक नो दुराग्रह मिश्रित समजण वालो होय छ। एम जुदा जुदा प्रकारे शान्ति माटे प्रयत्न करनारा ओ पोत पोताना प्रयत्न मां मस्त होय छे, तेमां समजण पूर्वक प्रयत्न करनार जरूर शान्ति मेलवी शके छे, अन्ध श्रद्धा वाला पण अमुक अंशे शान्ति प्राप्त करी शके छे, पण एकान्त अज्ञानता वाला के दुराग्रह मिश्रित प्रयत्न करनाराओ पोते साची शान्ति मेलवी शकता नथी, एटलुंज नहिं पण बीजा अनेकने अशान्तिना निमित्त रूप बने छे, कारण के एवाओने शान्ति मेलववानुं साधन जड़ होय छे पुद्गलिक होय छे, अने जड़ वस्तु ने शान्ति शुं?के अशान्ति शुं? चैतन्य ने शान्ति चैतन्य पासेथीज मली शके पण जड़ पासे थी आध्यात्मिक शान्ति नज मली शके ए सहेजे समजी शकाय तेम छे, आंबानी गोटली मांथीज आंबो मेलवी शकाय, सबीज जुवार मांथीज जुवार प्राप्त करी शकाय, पण पत्थर नी आंबानी गोटली बनावीने के पत्थरना जुवार ना दाणा बनावीने सारामां सारी कराल जमीन मां वाववामां आवे अने उपर वर्षाद वगेरे मनमानता पूरता प्रमाण मां साधनो नो उपयोग थाय तो पण ए मांथी-आंबाना नाममात्र बीजमांथी आंबो के जुवार वगेरे कांई पण नज मेलवी शकाय, एटलुंज नहिं पण ए Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [15] ***** जड़ बीज सामे गमे तेवी प्रबल प्रार्थना के भावना पण सफल थती नथी कारण के ए आंबानी गोटली के जुवार ने मात्र नाम आपेल छे, अथवा तो तेनी मिथ्या स्थापना करेल छे, जेथी ते फल दायक बनती नथी, कारण ते वस्तु मां नो मूल गुण होतो नथी एटले उद्यम करनार नो वर्षो नो उद्यम होय तो पण ते शून्य परिणामज निवड़े छे, ए सनातन सत्य छे। ए अनादि सत्य ने विकृत स्वरूपमा अबुधोने समजाववा गमे तेवा विद्वत्तापूर्ण युक्तिओं के कुयुक्तिओं वाला शास्त्रों रचवामां आवे के अर्हत् कथित शास्त्रों ना विपरीतार्थ करवामां आवे पण अथी अबीज वस्तु सबीज कोई पणकाले नज बना शके । एज रीते एकान्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तप वडे करीने तेमां पण खास करीने ज्ञानदर्शन जे अनन्त शक्तिमान आत्माना मूल गुण छे, ते गुणोने कर्मोए आवरी लीधेल होवाथी जे अशान्ति अनुभवाय छे ते अशान्ति दूर करवाने अनन्त ज्ञानी ए बतावेल चारित्र अने तप एज परम साधन छे। ए परम साधन द्वारा साधना करवाने बदले मूर्ति आदि जड़ पदार्थ मां अरिहंतों नी कल्पना करी तेनी सन्मुख बेसी ए जड़ साधन द्वारा (तेनी मार्फत ) आत्म साधना करी शाश्वत शांति मेलववानी आशा राखवी ते केटले अंशे न्याय संगत छे, ते तटस्थ वृत्ति थी विचार नारा विचारकों सहेजे समजी शके तेम छे। जैन सिद्धान्तों मां आत्मगुण- ज्ञान दर्शनादिना आवरणो दूर करवाने चारित्र अने तप सिवाय अन्य कोई पण साधन कहेलज नथी । श्रमणोपासक श्रावक नी ज्यां ज्यां दिनचर्या सिद्धान्तों मां बतावेल छे त्यां देश विरती चारित्र अने नानाविध तपनीज विधि बतावेल छे कोई पण ठेकाणे प्रतिमाजी नुं पूजन अर्चन के ते सम्बन्धी विधि विधान क्या बतावेल नथी । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [16] श्री ठाणांगजी सूत्रना चोथे ठाणे श्रमणोपासक ने माटे चार विशामा बतावेल छे तेमां सामान्य व्रत, पच्चक्खाण, सामायिक, पौषध आदि अने संयम विगेरे कहेल छे पण क्यांय प्रतिमां वंदन-पूजन विश्रान्तिनुं स्थान कहेल नथी तेमज त्रीजे ठाणे त्रण कारणे करी देवने पश्चात्ताप-खेद-थवानुं कहेल छे तेमां (१) छती अनुकूलताए ज्ञानाभ्यास न कर्यो (२) श्रावक पणुं शुद्ध न पाल्युं अने (३) संयमी पणुं शुद्ध न पाल्युं, ए त्रण कारणे देवने खेद थवान कहेल छे, पण क्यांय पहाड़ पर्वतनी यात्रा न करी के प्रतिमादिनुं पूजन न कर्यु तेना माटे खेद थवानुं श्री वीतराग देवे कहेल नथी, कारण के आत्मकल्याणसाधनाराओ माटे ए वस्तु ए प्रवृत्तिनी जरापण जरूर ज्ञानीओओ स्वीकारी नथी, तेमज प्रतिमा पूजन ए निरवद्य क्रिया नथी पण सावध क्रिया छे, एटले ते क्रिया सम्बन्धी सर्वविरति तो कांई पण आदेश के आज्ञा तो शुं पण उपदेश पण नज करीशके, एटलुंज नहिं पण देश विस्ती श्रावको पण पौषधादि व्रत मां होय त्यारे पण प्रतिमा पूजननी आज्ञा के सूचना न करी शके, जे क्रिया आत्माना आवरणो दूर करी शके तेवी निरवद्य के जे संसार ने छेदनार होय तेनीज आज्ञा उपदेश के सूचना करी शके, पण जे क्रिया संसार वधारनार होय तेनो आदेश व्रतधारी श्रावक पण नजकरी शके, एवात मूर्ति पूजक बन्धुओ पण स्वीकारे छे। जैन धर्म प्रकाश पुस्तकं ५२ अंक ५ मे पृष्ट १८५ मां प्रश्नोत्तर विभाग मां एक प्रश्नकारे प्रश्न को छे के - - “आपणा घर देराशर नी प्रतिमानी पूजा करी न होय ने भलामण करवी पण रही गई होय तो बीजा कोई ने पूजा करवानो आदेश पौषधमां करी शकाय? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [17] उत्तर मां कहे छे के - “पौषधकर्या अगाउ घरदराशर मां पूजा करवी जोइए अथवा तो बीज करवानी भलामण करवी जोइए, पौषध लीधा पछी भलामण थइशके नहीं ।" ज्यारे पौषध वाला ने जेनुं व्रत समय पुरतुंज छे अने ते पण पूर्ण नवकोटिना पच्चक्खाण वालुं नथी छतां एनाथी पूजननी भलामण पण थई शके नहिं, तो सर्व विरति अने ते पण जावजीव ना चारित्रवाला थी प्रतिमादि पूजन वगेरे नी भलामण थई शकेज नहिं ए तो देखीतीज वात छे। श्री ठाणांगजी सूत्रनां पांचमें ठाणे त्रीजे उद्देशे धर्म नां पांच अवलम्बन-पांच आधार - कहेल छे ते " धम्मेसुणं चरमाणस्स पच निस्साट्टाणा पण्णत्ता तंजहा १ छक्काया २ गणो ३ राया ४ गाहावई ५ सरीरं अर्थात् छः काय, गण, राजा, गाथापति अने शरीर ए पांच अवलम्बन कह्या, पण धर्म के जे आत्मानो गुण अथवा आत्म मल दूर करवानुं पवित्र साधन ए धर्मना आधार रूपे प्रतिमाजी के कोई पण स्थावर तीर्थ बतावेल नथी, ए उपर थी पण सिद्ध थाय छे के धर्मकार्यआत्मकल्याण ना माटे मूर्ति पूजा - मूर्तिनी क्यांय पण जरूरियात श्री जिनेश्वर देवे स्वीकारेल नथी । शाश्वती प्रतिमा शाश्वती प्रतिमा अने तेपण श्री जिनेश्वरदेवनी प्रतिमा शाश्वत होइ शकेज केवी रीते? जे वस्तु अनादि अनन्त होय तेज शाश्वत, तो जिनेश्वर देवनी प्रतिमा होय तो कोई पण काले ते जिनेश्वर देव थया होवा जोइए, एटले ओमनी आदि थई, अने ए जिनेश्वरदेव ना शरीर नो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [18] ********************************************* अन्त पण होयज, एटले ए अनादि अनन्त नज कहेवाय। अने अनादि अनन्तज होय ते जिनेश्वर देवनी प्रतिमा न होय, ए सर्व मान्य सत्य छ। वली स्तूप, खाई, प्रकार, कोट वगेरे शाश्वत होइ शकता नथी एना माटे श्री जिनेश्वर देव पोतेज एवी स्थूल वस्तु ने रहेवानो काल संख्यातो काल कहे छे, ज्यारे शाश्वत वस्तु अनन्तकाल सुधी नी होवी जोइए, एटले जे वस्तु-पदार्थ ने माटे कालनी मर्यादा होय ते अशाश्वत, अने अमर्यादित कालनी जे वस्तु ते शाश्वत, एना माटे श्री जिनेश्वर देव श्री वर्धमान प्रभु पोतेज श्री भगवतीजी सूत्र ना ८ मां शतक ना ६ मां उद्देशा मां कथे छे के - “सेकित्तं समुच्चय बंधे? समुच्चय बंधे जएणं अगड, तडाग, नदी, दह, वावी, पुक्खरिणी गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाण, बिलपंतियाणं, देवकूल, सभा, पव्वय, थूभ, खाइयाणं, परिहाणं, पागारट्टालग चरियदार, गोपुर, तोरणाणं, पासायवर सरणलेण आवणाणं सिंघाडग, तिग, चउक्क चच्चर चउम्मुह महापह माइणं छुहा चिच्किख लसिला समुच्चएणं बंधे समुपजइ जहण्णेणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं संखेजकाल से तं समुच्चय बंधे।" अर्थ - हवे समुच्चय बंध कोने कहे छे ते कहे छे, हे गौतम! कूवा, तलाव, नदी, द्रह, वावड़ी, पुष्करणीवाव, गुंजाली, पालबंध, तलाव, तलावनी पंक्तिओ, देवालय, राजादिकनी सभा “स्तूप" खाई, प्रकार, कोट, अटाली, कांगरा, द्वार, नगरना द्वार, तोरण गृह, सरणलेण, सिंघाडा ना आकार ना स्थान, त्रिक, चौक, घणा मार्गवालुं स्थानचौक-राजमार्ग वगेरे ने समुच्चय बंध कहे छे, अने तेना स्थिति जघन्य अनन्तर मुहूर्तनी अने उत्कृष्टी संख्याता कालनी। ___ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [19] ********************************************** आ उपरथी स्पष्ट समजाशेके देवालय स्तूप वगेरेनी स्थिति संख्याता कालनी छे, अने शाश्वत छे ते कोई पण व्यक्ति विशेष नथी, मात्र नाम गमे ते होय तेथी कांई ते अमुकज होय एम मानी शकाय नहीं। वस्तुतः शाश्वत प्रतिमा ए जिनेश्वर देवनी प्रतिमा नथी, मात्र जिनेश्वर देवना नामने मलता नाम छे, अने मलता नाम थी जिनेश्वर देव मानी लेवाए केटले अंशे सुसंगत छे ते वांचकोज विचारी ले। अत्यारे घणाना नाम महावीर होय छे एथी तेने वर्धमान महावीर मानीने कोई देव तेमनी सेवामां आवतो नथी, के वर्धमान नामना साधुने कोई प्रभु तरीके वांदता पूजता नथी घणा रामचन्द्र नामना माणसो महेनत मजुरी करीने आजीविका चलावे छे, पण नाम मात्र थी ते बलदेव तरीके पूजाता नथी, गुजराती मां एक दुहो छे के - “नाम मात्रने सांभली, मोहाता नहीं कोय। कनक नाम धतुर मुं, हेम कडा नवि होय॥" अर्थात् - कनक एटले सोनू-सुवर्ण खरं अने कनक एटले धतुरो पण खरो, कनक नामे धतुरो लेवाथी कांई तेना आभूषणों थोड़ाकज बनी शके छे? नामनी साथे तेनामां ते गुण होवो जोइये, गुण पूजनीय छे नाम नहिं, घणीए गंगा, सरस्वती, गोदावरी नामे बहेनो गंधाती अने गोबरी होय छे, ए जन समाज थी क्या अजाण्युं छे? एटले वर्धमानादि नाम उपरथी ते प्रतिमा जिनेश्वर नी होवानुं मानी लेवु ए मतमोह नुं परिणाम होय तेम केम न मानी शकाय* *आ सम्बन्धी पंडित बेचरदासजी ए लखेल श्री रायपसेणिय सूत्र नो गुजराती अनुवाद मां मारो लखेल उपोद्घात वांचो। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [20] ********************************************** सूर्याभ देव नो दाखलो मूर्ति पूजा सिद्ध करवा माटे सूर्याभ देवनो दाखलो बहुवार अने मुख्यताए अपाय छे पण ते केटलो अवास्तविक छे तेनो आज पुस्तकमां श्रीयुत दोसीए बहुज सारी रीते अने स्पष्टता थी समजावेल छे, एटले ए सम्बन्धी वधु तो कांइ लखवा जेवू योग्य जणातुं नथी छतां एबाबत परत्वे जरा विचार करतां एक प्रश्न थाय छे के वर्तमान सूर्याभदेव परदेशी राजा नो जीव छे, अने परदेशी राजाए पोतानी पाछली अवस्था मां श्रावक पणुं-श्रमणोपासक पणुं पालेलं, तेथीते मरीने सूर्याभदेव थया पछी पण ते देव पणामां सम्यक्त्वी -जैनधर्मी रह्या छे, एटले तेणे करेल परम्परागत रूढ़ि अनुसार प्रतिमा पूजनने जिनेश्वर देवनी प्रतिमा ठरावाय छे, अने नमुत्थुणं ना पाठनो उल्लेख करावाय छे, परन्तु सूर्याभ देव तो दरेक काले होयज, अने ते सूर्याभ देवनी जग्या अने नाम कदाच एनेए होय, स्थान परत्वे नो नाम कायम होय छे-परन्तु देवना आयुष्यनी तो अमुक स्थिति होय छे, ते स्थिति पूर्ण थतां ते देव आयुष्य पूर्ण करी स्व कर्मानुसार कोई पण गतिमां जाय छे, पछी थी एज जग्याए बीजो कोई जीव आवीने उत्पन्न थाय छे, अने तेपण स्थान परत्वेना नाम थी सूर्याभदेव कहेवाय छे, ए नाम थी ओलखाय छे, अने ते सूर्याभ-दरेक सूर्याभ देव सम्यक्त्वी -जैनधर्मी होय छे-होयज-एवो कोई चोक्कस सिद्धान्त नथीं, तेथी सूर्याभदेव मिथ्यात्वी पण होय, अने ए मिथ्यात्वीदेव पण परम्परागत रूढ़िने अनुसरी प्रतिमा पूजन जरूर करेज, त्यारे पण शुं ते मिथ्यात्वीदेव जिनेश्वर देवनी प्रतिमा मानीने जिनेश्वरदेव प्रत्येना भक्तिभाव श्रद्धा थी पूजन करता हशे? अने नमोत्थुणं नो पाठ पण कहेता हशे? अने कदाच नमोत्थुणं नो पाठ पण रूढ़ि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [21] **** ***** अनुसार बोलवानो नियम होयतो ते पाठ बोलती वखते ते श्रद्धा सम्यक्त्व पूर्वक ते बोलता हशे ? ना, ना तेम कदीपण बनवा सम्भव नथी, नज बने, एटले ए सिद्ध थाय छे के सूर्याभदेव जे प्रतिमा पूजन करेल छे ते धर्म के आत्मकल्याण नी भावना थी नहि पण रूढ़िगत प्रणालिका ना बन्धन थी, अने तेवी क्रिया सम्यक्त्वी के मिथ्यात्वी बने करे तेमां जरा महत्ता नथी, देवस्थान मां देवलोकादि मां शाश्वत प्रतिमा होय छे, अने तेनुं पूजन ते स्थाने उत्पन्न थयेल देवो करे छे पण तेथी एम नथी समजवान के ते दरेक प्रतिमा जिनेश्वर देवनीज होय छे अने तेना पूजक देवो बधाय सम्यक्त्वीज होय छे, कारण के सामान्य देव होय के इन्द्रादि देव होय ते सम्यक्त्वी होय छे अने मिथ्यात्वी पण होय छे, इन्द्रादि देवो सम्यक्त्वीज होय अमुक जग्याना देव सम्यक्त्वीज होय, एवो चोक्कस सिद्धान्त नियम नथी, दरेक जीव दरेक स्थाने उत्पन्न थयेल छे, श्री जीवाभिगमजी सूत्र मां चार प्रकारनी जीवनी पडिवत्ती मां वीतराग देव फरमावे छे के " सोधमीसाणे सुणं भंते कप्पेसु सव्वेपाणा सव्वेभूया सव्वेजीवा सव्वेसत्ता पुढवीकाइयताए जाव वणसइकाइयताए देवत्ताए देवीत्ताए आसणसयण जाव भंडमत वगरणताए उवन्न पुव्वा ? हंता गोयमा असइ अदुवा अणंतखुत्तो सव्वेसु कप्पेसु एवं चेव नवरं नो चेवणं देवीत्ताए जाव गेविजवा अणुत्तरोववाइए सुविएवं नो चेवणं देवत्ताए देवीताए सेतं देवा । " अर्थ - सुधर्मा इशान देवलोक ने विषे अहो भग़वंत, सर्वप्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव, सर्वसत्व पृथ्वीकाय पणे यावत् वनस्पति काय पणे, देवता पणे, देवांगना पणे, सिंहासन, शय्या, ज्यान, भण्ड, उपकरण पणे अतीतकाले उपना छे? हाँ गौतम वारम्वार निश्चय अनन्ती Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [22] ***************************************** अनन्तीवार एम सर्वदेवलोक मध्ये उपन्या छे, पण देवांगना पणे सर्व ठेकाणे नथी उपन्या, कारण के बीजा देव लोक सुधीज देवांगना छे, ते उपरनां देवलोक मां देवांगना नथी, ते माटे तेमज पांच अनुत्तर विमाने पण पृथ्वीकायादि पणे अनंती वार उपना छे पण देवपणे के देवांगना पणे उत्पन्न थया नथी, कारण के देवांगना त्याँ छे नहीं, अने देव सर्व एकावतारी छे माटे देवपणे संसारी सर्वजीव उत्पन्न थया नथी।" ___आ पाठ परथी स्पष्ट थाय छे के मात्र पांच अनुत्तर विमान ना देव अने त्रीजा देवलोक थी देवीपणे उत्पन्न थवा सिवाय सर्व जग्याए सर्व पदपर सर्व जीवो उत्पन्न थइ शके छे, एटले भव्य होय के अभव्य होय, सम्यक्त्वी होय के मिथ्यात्वी होय गमे ते होय ते उत्पन्न थाय, अने जे जग्याए जे उत्पन्न थाय ते स्थान परत्वे जे काई क्रिया प्रवृत्ति करवानी होय ते करवीज पड़े, पछीते श्रद्धा थी करे के रूढि प्रणालिका ने वशवर्ती ने करे, पण करवीज जोइए एमा शंका नथी। - श्री भगवती जी सूत्रना १२ माँ शतक ना ७ मां उद्देशा मां पण एज वात करी छे के - भगवान् श्री गौतम स्वामीना पूछये थके श्री वीर प्रभुए कहेल छे के बीजा देवलोक पछी देवी पणे अने पाँच अनुत्तर विमानना देवपणे जीव उत्पन्न थयो नथी, ते सिवाय दरेक जीव दरेक स्थले कर्म सहित आत्मा दरेक स्थिति मां उत्पन्न थयेल छे. एटले इन्द्रो अने देवो भव्य होय के अभव्य होय, सम्यक्त्वी होय के मिथ्यात्वी पण होय पण ते सर्वे जीताचार मुजब पूर्वगत रूढ़ि अनुसार प्रतिमादिनी पूजा करे, एथी सिद्ध थाय छे के प्रतिमा ए जिनेश्वर देवनी न होय, अने पूजनारा बधाए सम्यक्त्वी पण न होय, लोकान्तिक देवोनुं पण एमज छ। अर्थात् सूर्याभ देवे पूजेल प्रतिमा जिनेश्वर देवनीज प्रतिमा हती एवं छे नहीं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [23] तेमज एणे धर्म भावना थी के आत्म कल्याण नी भावना थी प्रतिमा पूजन कर्यु नथी पण रूढ़ि अनुसार करवी जोई ली क्रिया तरीके ए क्रिया करी छे। अने एम तो राज्याभिषेक के एवा कोई खास प्रसंगे वर्तमान काले पणे हिन्दू राजाओं ने मुस्लिम क्रियाने के मुस्लिम राजाने हिन्दू धर्म क्रिया ने मान आपq पड़े छे एटलुंज नहिं पण कोई कोई क्रिया जाते पण करवी पड़े छ। पण एथी कोई एम नथी मानतु के हिन्दू राजा मुस्लिम धर्म प्रत्ये श्रद्धा राखे छे के मुस्लिम राजा हिन्दु धर्म प्रत्येक श्रद्धा राखे छे. राजधर्म तरीके जे वखते जे खास प्रवृत्ति रूढ़ि अनुसार करवी जोइए ते करे, तेथी कांई विशेषता नथी। ____ आ सूर्याभदेव सम्बन्धी अने तेणे करेल प्रतिमा पूजन संबन्धी विशेष विगत जाणवानी इच्छावालाए पं० श्री बेचरदास जी दोसी कृत श्री रायपसेणीय सूत्रनो गुजराती अनुवाद अने तेमां लखेल आज लेखक नो उपोद्घात जिज्ञासुवृत्ति वालाए एकवार जरूर वांचवो, जेमा घणी जातना खुलासा थयेल छे, तेमज आ पुस्तक ना पृ० ३६ थी शुरु थतुं शाश्वती प्रतिमा अने सूर्याभदेव नुं प्रकरण बहुज शांतिथी अने तटस्थ वृत्ति थी वांचq के जेथा श्रीयुत रतनलाल दोशीए करेल सप्रमाण शास्त्रोक्त अने बुद्धि गम्य खुलासा थी सत्य शु छे ते स्पष्ट समजाशे। दाढ़ा पूजन मूर्ति पूजाने सिद्ध करवाने माटे मूर्ति पूजक बन्धुओ श्री तीर्थकर देव परमपद पामे त्यारे पछी तेमना स्थूल देहनो अग्नि-संस्कार थयापछी इन्द्रादि देवो ते देहनी राखने क्षीर समुद्रमा पधरावे छे, अन तेमनी दाढ़ाओ ने पोते लाई जईने पूज्य वस्तु तरीके राखे छे आ ऊपर थी प्रतिमा पूजको मूर्ति पूजानी सिद्धि थयेल माने छे अने कहे छे के जो ___ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [24] ****** दाढ़ा पूजनीक छे तो ते जिनेश्वर देवनी प्रतिमा पूजनीक केम न होय ? आवा प्रकारनी दलील करी सामान्य प्रजा जनने मूर्ति पूजा साची छे एम ठसाववा प्रयत्न करे छे पण ए वात बराबर नथी अने तो श्री दोशीए बहुज स्पष्टता थी समजावेल छे, विशेषमां विचारिए तो एना माटे वे बावतो विचार वानी रहे छे । **** (१) ए दाढ़ाओ जिनेश्वरदेव तरीके वंदनीय शरीरनीज हती एटले रागवश मनुष्यो पूजनीय पुरुषनी - पोतानी वस्तुनी कदाच महत्ता करे तो बनवा जोग छे, अने ते पण धर्म दृष्टिए नहिं, पण एकान्त रागनी दृष्टिएज । ज्यारे प्रतिमा श्री जिनेश्वरदेवनी नथी, प्रति मूर्ति एतो काल्पनिक छे अने ते काल्पनिक वस्तुने धर्म दृष्टिए पूजवा वांदवा थी कल्याण थाय एतो कोई पण विचारवन्त मनुष्य कबूलनज करे । (२) दादानी पूजा कुलाचार वंश परम्परागत रिवाज मुजब पण कराय छे। कारण के जे देव सम्यक्त्वी न होय ते पण दादानुं पूजन प्रणालिका ने वशवर्ति पणे करे छे, एटले मिथ्यात्वी देवपण ए दादानुं पूजन करेछे, एटले ते जिनेश्वरदेव प्रत्येना भक्तिभाव के श्रद्धा थी नहिं पण व्यवहार साचववा अर्थेज सिवाय कांई नहिं । ए ऊपर थी सहेजे समझी शकाय छे के दाढ़ानी पूजन थी प्रतिमा पूजननी वातने जराए पुष्टि मलती थी, कारण के रागादिने वशवर्ति कोई पण मनुष्य के देव पोताना प्रिय जननी कोई पण महत्ता जालवेज, ए एक सामान्य बात छे। श्री भगवतीजी सूत्रमां श्री जमालिना अधिकारे पाठ छे के - " जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरङ्गल वज्जे निक्खमणययोगे अग्ग केसेकप्पड़ तएणं सा जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अग्ग केसे पडिच्छड़ अग्ग के से पडि च्छित्ता सुरभिणागंधोदएणं पक्खालेइ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [25] ********************************************* सुरभिणागंधोदएणं पक्खालित्ता अग्गेहिवरेहिं गंधेहिंमल्लेहिं अच्चेति २ सुद्धवत्थेणं बंधित्ता रयण करंडंगसि पक्खिवति २ हारवारिधारा सिंदुवार छिन्न मुत्तावलिप्पगासाई सुयवियोग दूसहाई असुइ विणिमुयमाणि २ एवं वयासी।" “एसणं अम्हं जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स बहुसु तिहिसुय पव्वाणीसुय उस्सवेसुय जन्नेसुय छणेसुय अप्पच्छिमे दरिसणे भविस्सति तिकट्ट ओसिसग मूले ठवेति।" ___अर्थ - जमालि क्षत्रिय कुमारना निष्क्रमण योग्य अग्र केशो चार आंगल मुकीने कापे छे, त्यारपछी जमालि क्षत्रिय कुमारनी माता हंसना जेवा श्वेत पट साटक थी ते अग्र केशोने ग्रहण करे छे, ग्रहण करीने ते केशो ने सुगंधी गंधोदक थी धुए छे, धोइने उत्तम अने प्रधान गंध तथा माला वडे पूजे छे, पूजीने शुद्ध वस्त्र वडे बांधे छे, बांधीने रत्ना करंडिया मां मूके छे, त्यारपछी जमालि क्षत्रिय कुमारनी माता हीर पाणीनी धारा सिंदुवार ना पुष्पो अने तुटी गयेली मोतीनी माला जेवा पुत्रना वियोग थी आंसु पाडती आ प्रमाणे बोली के "आ केशो अमारा माटे घणी तिथिओ, उत्सवो, यज्ञो, अने महोत्सवो मां जमालि कुमारना वारंवार दर्शन रूप थशे” एम धारीने तेने ओशिका ना मूलमां मूके छे। रागने वशथई माता पुत्रना केशो नो पूजन करे तो पछी श्री जिनेश्वर देवनी दाढ़ानें कोई पण पूजन करे तो तेथी कोई प्रतिमा पूजन सिद्ध थतुं नथी, अर्थात् दाढ़ा पूजन ए प्रतिमा पूजन नी प्रतिती नथी। देवाणं आसायणाए “देवाणं आसायणाए" शब्द नो आधार लई मूर्ति पूजा सिद्ध करवानो प्रयत्न बालकनी रमत जेवोज छे के बीजुं कांई? सामान्य रीते Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [26] ****** ******* सामान्य बुद्धि वालो मनुष्य पण सहेजे समजी शके तेम छे के कोइनु पण खराब करवुं नहिं एनो अर्थ ए नथी थतो के तेनुं पूजन करवुं ? ज्ञानीओ अने आत्म कल्याण ने इच्छनाराओ पापिओ नो पण अनादर न करवानुं वारंवार समजावे छे तेनी अवगणना - तेनुं अपमान के तेनो तिरस्कार न करवानुं पोकारी पोकारी ने कहे छे, पण एना सामे एम कहेता नथी के पापिओने पगे लागों के तेनुं पूजन अर्चन करो, तेने वंदनादि करो एम कदी कहेताज नथी, अने कहे पण नहिंज एक वस्तुना अनादर न करो एटले तेनो आदर करो एम नज होय, अनादर करवा थी, लाभ नथी तेम जे वस्तु आदरणीय नथी तेनो आदर नज करवो पण उपेक्षा वृत्तिज राखवी, "देवाणं आसायणाए" नो आ हेतु छे, अने ते बराबर छे। कोई नुं खराब न करवुं एनो अर्थ ए नथी थतो के तेनी पूजा करवी । मनुष्य लोकमां विशेषे करीने खास करीने व्यंतर देवनो निवास छे, अने देव जाति मां ए हलकी जातिनां छे, एना संसर्ग मां मनुष्यो ने हरवखत आववुं पड़े छे, कारण के ए व्यंतर देवो ज्यां ज्यां रखडता होय छे, कोई स्थल, कोई मन्दिर, कोई पण मूर्ति वगेरे के जेने थोड़ा या झाझा मनुष्यो अथवा स्थूल स्वार्थ ने वश पडेला मनुष्यो ए स्थल अथवा मूर्ति वगेरे ने पूजता होय तेवा कोई पण स्थले ते व्यंतरदेव घुसी गयेल होय, कारण के ते मान पूजा ना बहुज अभिलाषी होय छे ए पोतानी अभिलाषा ने तृप्त करवा माटे आवा स्थलो ने पोताना निवास स्थान बनावे छे, ए रीते पोतानी पूजा थती पोते माने छे एवा स्थलोना आशातना करवाथी व्यंतरादि देवोके जे हलका स्वभाव ना छे, ते देवोने दुःख थाय, पोतानु अपमान थयुं माने अने एथी ए अजाणता पण आशातना करनारने दुःख आपे, अने तेथी चारित्र धर्ममां धक्को लागे माटे प्रभु श्रीए फरमाव्युं के देवोनी आशातना करवी नहिं, पण Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [27] ********* एथी प्रतिमानुं पूजन करवानु कई रीते सिद्ध थाय छे? शुं जिनेश्वर देव के जे वर्तमान काले भरत क्षेत्र मां देहधारी नथी, पण जे जे तीर्थंकर देवनुं स्मरण थाय छे ते सर्व सिद्ध थयेल छे, ते प्रभु तेमनी प्रतिमानी अन्दर आवी विराजता हशे ? के जेथी देवनी आशातना करवाथी जेम हाथाय तेम तीर्थंकर देवनी प्रतिमा पूजवा थी कल्याण थाय? सिद्ध परमात्मा अशरीरी छे, तेओ शाश्वत छे एटले त्यांथी पोते आवता नथी, तमेज तेमना प्रतिनिधि तरीके कोईने मोकलता नथी के जे प्रतिमाजी मां आवी वासो करी तेने पूजनारनुं ते कांई पण हित करीशके के कर्मक्षय मां मददगार थई शके ? अफीण के सोमल खावाथी माणस मरी जाय छे, पण अफीण न खावाथी के पूजा-भक्ति करवाथी मनुष्यने अमरत्व प्राप्त तुं नथी, एवात तो सामान्य बुद्धि नो मनुष्य पण समजी शके तेम छे, टुंका मां देवाणं आसायणाए नो प्रतिपादन करी प्रतिमा पूजन सिद्ध करवा प्रयत्न करवो व्यर्थ प्रयत्न छे, एम समजाय छे। २० प्रकारे तीर्थंकर नाम कर्म हर कोई प्रकारे अबुध जनोने प्रतिमाजी ना पूजननुं ठसाववानुज ज्यां मानस छे त्यां पोतानी दलील के पुरावो वास्तविक छे के केम? ते पण भूली जवाय छे, एनो प्रत्यक्ष पुरावो २० प्रकारे तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन मां अरिहंतादि ७ ना अरिहंत, सिद्ध प्रवचन ( तीर्थंकर देव कथित शास्त्रो नु बहुमान पणु) गुरु, स्थविर बहु सूत्री, अने तपस्वी, ए सातना गुणग्राम-स्तुति करतां तेमां जो तदाकार वृत्ति थाय तो अनेक प्रकारना कर्मनी वर्गणाओ कर्मना दलियाओने उडाडी मुकी तीर्थंकर पदवीना अधिकारी बनी शकाय छे, अने ए बात तो सहु कोई समजी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [28] शके मछे, कारण के स्तुति करवाथी जेनी स्तुति थाय छे ते पोते आपण ने स्तुति करनारने कांई पण आपता नथी । कोई प्रमाण पत्र के अधिकार स्तुति करनारने जेनी स्तुति थाय छे ते आपी शकता नथी । ऊँच नीच पणुं, सुख दुःख सिद्ध पदके नरकमां नारकीपणुं ए कोई ना आप्या अपाता नथी, एतो जेवो जेनो पुरुषार्थ तेवुं तेने परिणाम | श्री वीतराग प्रभु पोते पण एज कहे छे के "अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाण य सुहाण य” अर्थात् सुख दुःखना कर्त्ता अने कर्म भोक्ता आत्मा पोतेज छे, अन्य कोई नथी । माटेज फरीएज अध्ययनमां प्रभुए कह्युं के "अप्पा मित्तममित्तं च दुपट्ठियं सुपट्ठियं" पोतानो मित्र अने शत्रु आत्मा पोतेज छे, अन्य कोई नहिं । जो तीर्थंकर प्रभु पोते कोई ने देव नारकी बनावी शकता होत तो श्रेणिक राजा श्री कृष्ण वासुदेव अने एक अनेकने नर्कना दुःखो भोगववा पड़तज नहिं, एटले सुख दुःख ए स्वउपार्जित वस्तु छे, स्थिति छे परन्तु जे ध्येय जे जेना गुणानुवाद थाय छे, ते ध्याता ना आदर्श रूपे होय छे अने आदर्शने पहुंचवा माटे तेनो स्मरण निरन्तर जोइयेज, माटे गुणग्राम स्तुतिनी महत्ता दरेक धर्मना पंथा आचार्य देवो अने अवतारी आत्माओए गाई छे अने ते बराबर छे, परन्तु ते स्तुति ते गुणानुवाद देहना नामना के जड़ वस्तुना नहिं पण चैतन्यना कारण के अनन्त ज्ञान दर्शननो धारक सिद्ध स्वरूपी अने शाश्वत गुण नो धारक आत्मा छे, नहिं के देह अथवा जड़मूर्ति । जड़ तो नाशवंत अने त्याज्य वस्तु छे, तेनी उपयोगिता तो तेमां अनन्त गुण धारक आत्मा होय त्यां सुधीज पछी जराए नहिं । जो जड़ वस्तु पूजनीय वंदनीय होयतो श्री तीर्थंकर देव ना स्थूल उदारिक देह मांथी आत्मा परम पदे पहोंच्या पछी ते शरीरने देवो पोतानी शक्ति वडे तेने हजारो वरस सुधी जालवी राखत, अने तेनी पूजा अर्चना करत, पण Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [29] जड़ वस्तु पूजनीय न होवाथीज श्री जिनेश्वर देवना शरीरने अग्निने आधीन करे छे, अथवा अग्नि संस्कार करी तेनी राखने क्षीर समुद्र मां पधरावी दे छे। आ ऊपर थी स्पष्ट थाय छे के गुणग्राम करवाना छे ते चैतन्यना, अने वंदनीय पूजनीय छे ते पण चैतन्य जड़ नहिं, एटले तीर्थंकर नाम कर्मनी उपार्जना तीर्थंकर देव तरीके रहेला आत्माना नहिं तेना शरीरना, के तेनी मूर्तिना, गुणग्राम करवाने व्यवहार मां पण "अमुक घर घणुं खानदान छे" एमजे वखाणाय छे ते घर एटले पत्थर ईंट के चूना माटी थी बनेलुं ते नहिं पण ए घरमा रहेनार मनुष्यो सद् चारित्रवान - उत्तम नीति वाला होय तेथीजए घर वखाणाय छे, मनुष्य थी घरनी महत्ता छे कांई घरथी मनुष्यनी कीमत नथी, अर्थात् तीर्थंकर नाम कर्मनुं निमित्त तीर्थंकर देवनागुण ग्रामछे, नहिं के तीर्थंकर देवनी बनावटी मूर्ति । ज्यां मूर्ति पूजा घुसाड़वानी वृत्तिवालुं मानस छे त्यां पोतानुं कथन पोतानो पुरावो केटलो वास्तविक छे, केटले अंशे सप्रमाण छे तेनो कांई पण विचार कर्या बिना मात्र जेम आव्युं तेम कही के लखी नाखे छे एतो घणी उतावल छे । बलि कर्म कर्म मां मूर्ति पूजा कई रीते समाणी ? तेनो कोई विचार के हेतु बिना मात्र बलिकर्म एटले प्रभूनी मूर्तिनी पूजा, बलिकर्म मात्र जैन करेछे एवं तो कांई छे नहिं, सम्यक्त्वी योय के मिथ्यात्वी होय, पण ज्यां स्नाननी - देह शुद्धिनी क्रिया होय त्यां बलिकर्म होयज । तीर्थंकर देव ना व्याख्यानमां जती वखते बलिकर्म होय अने वेश्या ने त्यां जती वखते पण बलिकर्म होय, राज कचेरी मां जती वखते पण होय अने Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [30] ******************* **************** युद्ध मां जती वखते पण होय एम ज्या ज्यां स्नान छे त्यां बलिकर्म होयज, एटले दरेक ठेकाणे जिनेश्वर देवनी प्रतिमाजीनी पूजा न होय एतो सहेजे समजी शकाय एम छे, छतां बलिकर्म एटले प्रतिमा पूजन कथा शास्त्र ना आधारे समजाववा मां आवे छे, पूजक भाइओ समजावशे? श्री ज्ञाताजी सूत्रना प्रथम अध्ययन मां पाठ छे के - "तत्तेणं सुमिणपाठगा सेणियस्सरन्नो कोडंबिय पुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्ठ तुट्ठा जाव हियया ण्हाया कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता।" अर्थात् - त्यार पछी ते स्वप्नपाठको श्रेणिक राजना कोटुम्बिक ना बोलाव्याथी हष्ट तुष्ट यावत् आनन्दित हृदय वाला थया, न्हाया बलिकर्म कर्यु यावत् कौतुक मङ्गल प्रायश्चित्त कर्यु अर्थात् पाछली अवस्था टाली। एज अध्ययन मां मेघकुमार दीक्षा लेवा तैयार थया त्यारे हजामने बोलावे छे, ते हजाम पण स्नान बलिकर्म करीने आवे छे एम दरेक ठेकाणे स्नाननी साथे बलिकर्म कहेल छे, एटले स्नान होय त्यां बलिकर्म होयज, अने ते बकिलर्म पाठनी पाछल “पायच्छित्ता" पाठ पण होयज, एथी बलिकर्म एटले स्नाननी विशेष शुद्धिनी क्रिया-शरीरना प्रत्येक अङ्गोपांगनी कालजी पूर्वकनी शुद्धि केटलाक स्नान करे छे त्यारे मात्र शरीर पर पाणी ढोले, पण प्रत्येक अङ्गोपांगनी शुद्धि तरफ बेदरकार रहे तो भविष्य मां स्नान करवा छतां रहेली अशुद्धिना कारणे घणा रोगो उत्पन्न थाय छे, अने जो विधि पूर्वक स्नान थायतो घणा रोगो उत्पन्न थता अटकी जाय छे ए अशुद्धि टालवा माटेनी खास कालजी एज बलिकर्म, कारण के एना पछीनो जे पाठ "पायच्छित्ता" Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [31] *** **** ते सूचवे छे के स्नान अने बलिकर्म करीने पाछली एटले स्नान कर्या पलानी जे जे शारीरिक अशुद्धि-दोष हता ते सर्व ने दूर कर्या । हवे जो बलिकर्म नो अर्थ देव पूजा करवामां आवे तो ते देवपूजानो अशुद्धिमां समावेश थाय छे, कारण के बलिकर्म करवुं ए अशुद्धि शारीरिक अशुद्धि टालवानुं स्नान साधेनुं एक कार्य छे, एटले ए पण त्याज्य छे अने जो देव पूजा त्याज्य होय तो पछी तेनी महत्ता कांई छेजनहिं अर्थात् बलिकर्म नो अर्थ शरीर शुद्धिनी कालजी पूर्वकनी एक क्रिया सिवाय शुं होइ शके ? धर्म प्राण लोंकाशाहना वंशजो धर्मप्राण लोकाशाहना वंशज कोई यतिए मूर्तिपूजानी महत्ता गाई होय के मूर्तिपूजा करी होय एथी मूर्ति पूजा जो सिद्ध थती होय तो वर्तमान काले कोई कोई श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुजी रेलमा मुसाफिरी करे छे एटलुंज नहिं, पण रेलमा मुसाफरी करवानुं ते प्रतिपादन करे छे, दरिया मार्गे जावामा स्टीमरमा बेसे छे अने तेम बेसवुं ए धर्म विरुद्ध नथी पण धर्म प्रचारनुं एक कल्याण कारक अङ्ग छे एम परूपे छे, एटले हवे रेल विहारी साधुजी ने आदर्श मानी तेनुं अनुकरण सर्व आचार्यों अने सर्व साधुजी अने साध्वीजीए जरूर करवुंज जोइए ने? अने जो रेल्वे मुसाफरी करवामां आवे तो गृहस्थो परनों घणो आर्थिक बोजो ओछो थाय तेम छे एटले जैन साधु ने वर्जित एवा रेलविहार ने माननाराओ नुं अनुकरण साधु साध्वीजी करे तो मुख्यताए बे लाभ तो थाय तेम छे । (१) कोई शरीर ना कारणे के वृद्धावस्था ने कारणे लांबो विहार करी शकता नथी तेओने डोली मां बेशी ने मनुष्य कांधा पर चढ़ीनेमनुष्यों ने तकलीफ आपीने जे गामो गाम विहार करवो पड़े छे अने एने Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [32] **************************************** अंगे भक्तों ने सैकड़ों अथवा हजारों ना जे खर्च करवा पड़े छे तेमां तेओने घणी राहत मले अने खर्ची घणोज ओछो थई जाय। (२) बीजो लाभ साधु साध्वीजी साथे बोजो उपाड़नार गामोगाम थी जे माणसो-मजुरो लेवा पड़े छे अने ते मजुरो नुं खर्च जे केटलाक नाना गामों ने ते घणुज भारे पड़े छे ते पण ओछु थई जाय अने गामड़ा वाला ने ते खर्च मां थी घणी राहत मले। एटले रेल विहार करनार ने आदर्श मानीने हवे सुविहित कहेवाता सत्पुरुषों पण रेल्वे विहार नी शुरुआत करी देवी जोइए पण हुँ धारुं छु त्यां सुधी सुविहित आचार्यों-संतों रेल्वे विहार करनार के ऐवा साधु धर्म थी विरुद्ध आचरण आचरनार ना कार्यनी कोई पण अनुमोदनाए करता नथी, तेमज धर्मप्राण लोंकाशाह ना कोई वंशज लोंकाशाह नी शुद्ध धर्म प्रणालिका थी विरुद्ध अने अशुद्ध आचरण आचरेके विपरीत परूपणा करे तेथी तेनो पुरावो सज्जनों तो नज आपे। अने तेना पुरावा थी पोताना कोई मान्यता सिद्ध करवा मांगे तो तेना माटे विचारवंतो तो जरूर हास्य ज करे। एटले प्रतिमाजी ना पूजन नी साबिती अर्थ लोकाशाह ना कोई श्रद्धाभ्रष्ट शिष्य नो पुरावो आपवो एतो नरी बाल चेष्ठाज छे। आलोयणा आलोयणा एतो अंतःकरण नो पश्चात्ताप छ। साची आलोचना एतो अनंत जन्मांतरो ना पापने बालनार प्रबल अग्नि छ। ए पश्चात्तापए आलोचना कोई थी करावी शकाती नथी, आ जगत मां कोई एवी सत्ता नथी कोई एवी शक्ति नथी के कोई ना पाप नो नाश करावी शके। पाप कर्म ना नाश - अमोघ शस्त्र तो ए एकज छे। सांचा दिल नो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [33] ******************************************** पश्चाताप-अंतःकरण नी आलोचना माटे श्रीमान् “कलापी" स्वरुंज कहे छे के - "हा? पस्तावो विपुल झरj, स्वर्ग थी उतर्यु छ। पापी तेमां डुबकी दई ने, पुण्यशाली बने छ। अहो! केवू स्मरण मधुरं, पाप, ए धरे छ। माफी पाम्युं कुदरत कने, एम मानी गले छे। । राज्यो थी के जुलमवती के, दण्ड थी ना बने छ। ते पस्तावो सहज वहता, कार्य साधी शके छे। हुं पस्तायो प्रभु! प्रणयी ए माफी आपी मने छ। हुँ पस्तायो मुज हृदय नी, पूर्ण माफी मली छे।" आवो परम पवित्र पश्चात्ताप ए परमात्मा-अनन्त ज्ञानी परमात्मानी साक्षीए होई शके, के जेओ पश्चात्ताप ना शुद्ध स्वरूपने यथार्थ रूपे समजी शके एवा-सर्वज्ञ प्रभुनी हाजरी ना अभावे कदाच कोई वर्तमान काले जेओ शास्त्रज्ञ होय, हृदयना उदार अने सरल होय, जेओ शास्त्रानुसार वर्तन करनार होय तेवानी साक्षीए आलोयणा करवानी होय, अने तेमना अभावे कोई समभावो उदारचित्त संघनी साक्षीए आलोयणा थई शके। परन्तु जे जड़ पदार्थ छे, जेने मन संकल्प विकल्प जेवी वस्तुपण नथी, जेनेज्ञान दर्शन पण नथी तेनी साक्षी होइज शु शके? साक्षीने पोताने पोतानुं ज्ञान भान नथी तेवा खरे खर जड़ पदार्थनी साक्षीए आलोयणा नज होई शके। कोई पण जैनागम मां प्रतिमा जीनी साक्षी आलोयणा माटे कही होय तेवू जाणवामां नथी। जैनेत्तर समाज के जड़पूजा मां घणा वखत थया मानतो आवेछे ते समाज मां पण कोई गुन्हेगार ने गुन्हा नी कबूलात कराववी होय त्यारे तेमना पूज्य देवनी मूर्ति समक्ष लावीने सोगन खवरावे छे, पण ते वखते पण ते ज्ञातिना Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [34] ** आगेवान पटेलियाओ के एवा कोई जरूर हाजर होयज छे, अने तेमनी साक्षी सोगन खावानुं काम थाय ते । परन्तु कोई पण दुन्हेगारने प्रतिमाजी पासे एकलो मोकलीने गुन्हाना सम्बन्धमां सोगन खावानुं कहेवामां आवतुं नथी, तो पछी ज्यां एकान्त आत्मभावना छे, ज्यां ज्ञान दर्शननीज मुख्य महत्ता छे तेवाओने जड़ प्रतिमा पासे जइने एना साक्षीए आलोयणा करवानुं कोई सामान्य बुद्धि वालोए कबूल न करे तो पछी ज्ञानी देवतो मी आज्ञा करेज केम? अर्थात् नज करे । नथीज करी 1 आ सम्बन्धी श्रीयुत् दोसीए जे जे युक्ति युक्त जवाब आप्या छे ते जरूर समजु विचारक ने तो मान्य थाय तेमछ, बीजाने माटे तो कहेवा जेवुंज शुं रहे छे जेने शास्त्रकारो एकान्त अधर्मी कहीने ओलखावेल छे तेवा परदेशी राजाए जे पाप कर्म नो क्षय कर्यो अने आत्माने कर्म थी हलवो बनाव्यो ते ज्ञानी समक्ष अन्तःकरण ना सांचा पश्चात्ताप थी। कोई पण प्रतिमानी साक्षीए नथी अर्थात् जड़ साक्षीए साक्षीज नथी, पण खरेखर आत्म वंचनाज छे । प्रतिमानी प्राचीनता प्रतिमानी प्राचीनता कही बतावीने ते पूजनीय छे एम कहेवुं एतो भोला बालको ने भरमावी उन्मार्ग गामी बनावा जेवुं छे कारण के प्रतिमाजीनी प्राचीनत ए कोई महत्वनी बाबत नथी, कारण के घणी त्याज्य वस्तु पण प्रतिमाजी थीए अनन्त कालनी प्राचीन छे । पाप आश्रव बन्ध वगेरे घणा प्राचीन छे । सोमलादि विष झेरए पण बहुक लना जुना छे, एवी अनेक वस्तुओ अनादि कालनी प्राचीन छे पण तेथी ते ग्राह्य छे, वन्दनीय पूजनीय छे, एम कोई पण डाह्यो मनुष्य नज कहे। अने वस्तु स्वरूपे प्राचीन होयके न होय पण प्राचीन करी बताववुं - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [35] होयतो ते सहेलाई थी थई शके छे, विहार दरम्यान अमें शत्रुंजा, गिरनार, अमदाबाद, खंभात, संखेश्वर, पाटण, आबू, देलवाड़ा, अचलगढ़, सेरीशा, पानसर, वगेरे स्थले म्हारी समज शक्ति मुजब घणा देरासरजी अने देरासरमां रहेल प्रतिमाजी ध्यान पूर्वक जोयेल छे तो प्रतिमाजी ओ विक्रम संवत् १२ ना सैका पहेलानी प्रतिमा क्यांय जोवा मां नथी आवेल, मात्र एकज प्रतिमा संखेश्वरजी ना तीर्थ धाममा संवत् ११ ना सैकानी छे, ते सिवाय बीजे क्यांय १२ ना सैका पहेलानी प्रतिमाजी म्हारा जोवामा नथी आवेल छताँ दलील खातर प्रतिमानी प्राचीनता कबूल कराय तो ते थी वंदनीय पूजनीय छे एम कोई रीते साबित थतुं नथी, थायज नहिं माटे प्राचीनता कहीने भोला लोकोने भरमाववा ए कोई रीते बुद्धिमान मनुष्य नुं काम नथी । सारांश श्रीयुत् रतनलाल दोशीए बहु विशाल वांचन, मनन अने अध्ययन पछीज युक्ति युक्त सप्रमाण दलीलो थी श्रीमान् मुनिवर्य श्री ज्ञानसुन्दरजी ने जे जबाब आप्या छे ते तेमणे पोते अने अन्य विचारक वाँचको ए तटस्थ अने शान्त वृत्ति थी बन्ने पुस्तको साथे राखीने वाँचवा, अनेहुं धारुं छं त्याँ सुधी तटस्थ वृत्ति थी वाँचनारने आ पुस्तक जरूर आदरणीय अ वस्तु स्वरूप समजावनार अने सन्मार्ग ना साचा भोमिया जेवुंज जणाशे, एमाँ शङ्का नथी । - आत्मकल्याणनी साधना कोई पंण जड़ वस्तु पछीते स्थूल पदार्थ रूपे होके स्थूल क्रिया रूपे होय तेनाथी थती नथी कारण के ते साधन पोते काँई कोई नुं कल्याण के अकल्याण करतुं नथी पण से साधन नो सदुपयोग के दुरुपोगज कल्याण अकल्याण नो निमित्त बने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [36] ***************************************** छे, पण तेथी ते निमित्त ने वलगो रही बीजाने पण एज निमित्त ने स्वीकारवानो आग्रह करवो अने ते न स्वीकारे एटले तेने गालो देवीके अपवाद करवो ते कोई नो पण धर्म नथी पण ए धर्म भ्रष्टता छ। ___करकंडु ऋषिने बलद ने जोइने वैराग्य थयो तेथी तेओ बीजाने एम न कही शके के सर्व कोईए बलद राखी तेनी वृद्धावस्था जोइने वैराग्यवीन थq। श्री मल्लिनाथ प्रभुना पूर्व भवना छः मित्र राजाओ मल्लिनाथ प्रभुनी प्रतिमानी गंध थी कटाल्या अने ते वखते मल्लि प्रभुए उपदेश आप्यो तेथी छः राजाओने स्त्री शरीर अने विषयभोगनो अनित्यता, अस्थिरता, अने अनिष्टता समजाणी एथी श्री मल्लिनाथ प्रभुए पोतानी देशना माँ क्याँय न कह्यु के दरेक वैराग्यवान स्त्रीए पोताने घरे पोतानी प्रतिमूर्ति जेवी एक मूर्ति बनावीने तेमा अन्नना कोलिया नाखी तेने सडावी गँधावीने पुरुषोने वैराग्य पमाडवो, एम कदी बनेज नहिं, अने वैराग्य, निमित्त स्थूल अने जड़ ए वंदनीय पूजनीय न होय। अथवा जे साधन द्वारा आत्म साधना कराती होय, थती होय, ए साधन तो अनाशक्ति पणे उपयोग करीने तेने त्यागी देवूज पड़े, जो तेनापर सहेज पण मूर्छा भाव आवे तो तेतो परिग्रह गणाय, अने परिग्रह एटलेराग, अने राग होय त्यां द्वेष होयज, अने रागद्वेष एज कर्मना बीज ए बीजने बाल्या सिवाय आत्मकल्याण कदी न संभवे, एतो सर्वकोई समजी शके तेम छे, तो पछी स्थूल जड़ साधनने वलगी रही ए साधन ऊपर ममत्वभाव राखीने पोताने अशान्ति राग द्वेषनो वधारो करवो, अने अन्यने अशान्ति कराववी ए वुद्धजन नो काम नथी। आत्म कल्याण नु स्थूल जड़ पण अति निकटनुं परम साधन शरीर छे, तेनापर पण मूर्छा भाव न राखवानुं श्री वीतराग देव अने सर्व महापुरुषो पोकारी २ ने कहे छे, अने ते एटले सुधीके ए स्थूल शरीरने कोई निंदे के Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [37] वंदे, कोई तेनु पूजन करे के प्रहार करे ते सर्वमां समभाव राखी ममत्व भावथी रहित थई ने आत्म साधना करवी, एवो परम पुरुष श्री वीतराग देवनो उपदेश छे, तो पछी शास्त्रमां जेनी पूजा अर्चनानो उल्लेख सरखो ए न होय तेवी जड़ मूर्ति - प्रतिमाजीनी पराणे पूजा करावी अने ते निमित्त रागद्वेष वधारीने आत्मकल्याण कराववानो धखारो करवो ते केटलो सत्वहीन छे? ते वांचक वर्ग ने समजाववुं पड़े तेम नथी । पोतानी समजण शक्ति मुजब पोताने जे कल्याण कारक लागतुं होय तेने प्रमाणिक पणेते स्वीकारे के सत्कारे तेमां बीजा कोईने बांधो होई शकेज नहिं, पण पोतानी मान्यता अन्य सर्व कोईए स्वीकारवीज जोइ एवो दुराग्रह करनारने माटे एटलुंज कही शकाय केते श्री वीतरागना मार्गने वीतरागदेवनी धर्मने थोड़े अंशेपण समज्याजनथी, अने एथीए वधु खराब ते एछे के पोतानी मान्यता थी इतर मान्यता वालाने द्वेष बुद्धि थी निंदवा, तेना सद्गुणने पण दुर्गुण ना रूपमां चितरवा, अनेक प्रकारना अवर्णवादी बोलवा, एतो हरकोईने माटे खरेखर पामरताज छे, एटलुंज नहिं पण सामाने कषायादि उत्पन्न करावी पोते अनंत संसारी बनवानी साथे अन्यने पण ए चक्रावा मां घसड़े छे। वस्तु स्वरूपे एम होवुं जोइए के पोतानी मान्यता थी विरुद्ध मान्यता वालाने शान्ति थी समजाववा उपदेशवा अने एम करीने पोताना सहधर्मी बनाववा, ए प्रयत्न अवगणना करवा लायक नथी, परन्तु पोतानी मान्यता सामी व्यक्ति न स्वीकारे तो तेनी उपेक्षा करवी, पण तेनी अवगणना के तेनापर क्रोधादि करीने आत्मघाततो नज करवो जोइए । जो विरुद्ध विचार धरावनार प्रत्ये उपेक्षा वृत्तिथी जोवायतो परस्पर भले सम्बन्ध स्नेह कदाच न वधे पण परस्पर बैर तो नज थाय, पण विरुद्ध विचार मान्यतावाला ने शास्त्रना नामे जो वगोववा मां आवे तो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [38] ************ पछी सामां कांई बधाए वीतराग अवस्थाने पामेला होता नथी, एनेपण थोड़े घणे अंशे राग द्वेषतो होयज, छेज, अने ए रागद्वेषनो अग्निभारेला अग्निने आ मताग्रहीए फूंक मारी ने प्रदिप्त कर्यो, पछी प्रदिप्त थल अग्निने तुर्तमां ठारवा मां ने आवे तो लाखोनुं नुकसान करी बेसे छे, ए स्थितिना गुन्हेगार प्रथमनी ममत्वी व्यक्तिज के समूहज होयछे । गुजरातीमां कहेवत छे के " बोलवु न हतुं पण मोंडा मां आंगली नाखीने बोलावे त्यारे शुं करवुं” अर्थात् पोतानी मान्यता थी जुदी रीते आचरण राखनार ने "येन केन प्रकारेण " निंदवा तेने जुठा पाखंडी कही वगोववा नो धन्धो लई बेसनाराओ सामाने पराणे बोलवानी फरज पाड़े छे अने श्रीमान् मुनिवर्य श्री ज्ञानसुंदरजी ए पण कांइक एवुंज कर्यु छे " मूर्ति पूजाका प्राचीन इतिहास” नामनी पुस्तिका मुनिश्री लखी पण ते जो मंडनात्मक लखी होततो स्थानकवासी - अमूर्तिपूजक ना कोई पण पुस्तक सम्बन्धी कांई कहेवानुं होयज नहिं । पण प्रतिमाजी नो इतिहास लखता स्थानकवासी समाजने भांडवा काम कर्यु त्यारे श्री रतनलाल दोशीने आ पुस्तक लखवानी जरूर पड़ी, अन ते जरूरियात पूरवा माटे निवृत्ति परायण अने धर्म प्रचार करवा माटे त्यागी जीवन गुजारनार साधु-धर्म गुरुओनुं मुख्य कर्त्तव्य हतुं, अने छे, ते कार्य गृहस्थाश्रमनी अनेक प्रवृत्तिथी विंटाएल श्री रतनलाल दोशीए कर्यु छे, ते समाज ऊपर महान् उपकार कर्यो छे, अने जो अमूर्तिपूजक ( स्थानकवासी) समाजमां कांई पण कृतज्ञता होयतो श्री रतनलाल दोशीनो समाजे उपकार मानवो जोइए, वधु नहिं तो छेवट आ पुस्तकनी हजारो नकलो धनवानोए खरीद करीने गाम्मे गाम तो शुं पण घरोघर भेंट आपवी जोइए, म्हारी आ याचना धनिको सांभलशे ? स्वीकार शे? अने थोड़े अंशे पण सार्थक करशे ? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रतनलाल दोशीनुं बहोलुं वांचन, घणो अभ्यास वगेरे जोतां आ पुस्तकनी भूमिका लखवा माटे कोई वधु समर्थ वधु विद्वान् अने शास्त्रज्ञने आ काम सोंपवु जोइतुं हतुं परन्तु तेमनी इच्छा म्हारी पासेथी आसेवा लेवानी थई, अने तेना माटे तेमनो आग्रह थयो, एटले आयत्किंचित सेवा समाज चरणे धरुंछु अने ते पण म्हारा हमेशना सहायक विनयमूर्ति मुनिवर्य श्री लक्ष्मीचन्द्रजी महाराजनी परम सहाय थीज । [39] म्हारी फरी फरी सर्व कोईने भलामण - विनंति छे के जेओ थोड़े अंशे पण हिंदी भाषा वांची समजी - शकता होय तेमणे आ पुस्तक जरूर वांचवुं । श्री रतनलाल दोशीना आवा शुभ प्रयत्नमां वधु सफलता मले तेवुं इच्छी आ भूमिका लखवामां जे कांई जिनाज्ञा विरुद्ध लखायुं होय ते सर्व ने माटे श्री अरिहंत, श्री गुरुदेव, श्री संघनी अने आत्मानी साक्षीए मिथ्यामे दुष्कृतम् । - विहार स्थल जामनगर बेडी बंदर श्री दिग्विजयसिंहजी सोल्ट वर्कस (स्थानकवासी जैन, लिंबडी संप्रदाय) वि० संवत् १९६८ वीर सं० २४६८ ना प्रथम जेठ वद १३ गुरुवार लि० सदानंदी जैन मुनि छोटालालजी ✰✰✰✰ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका प्रकरण विषय १. प्रवेश २. धर्म मार्ग ३. प्रारंभ में ही पथ भ्रष्ट ४. विश्व व्यापकता की मिथ्या युक्ति ५. क्या सदाचार आदि के लिए मूर्ति पूजा आवश्यक है ? ६. साक्षात् और मूर्ति में अन्तर ७. मिथ्या प्रशंसा ८. शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभ देव (१) देवलोक की प्रतिमाएं तीर्थंकर प्रतिमा नहीं है (अ) मूर्तियों का शाश्वत पन (आ) अरुण नेत्र (इ) वस्त्र परिधान (ई) पूजन विधि शरीर वर्ण में भिन्नता प्रतिमा परिवार नाम निश्चितता (२) सूर्याभ साक्षी की अनुपादेयता (३) मूर्ति पूजा और जिनाज्ञा ६. दाढ़ा पूजन १०. भरतेश्वर के मूर्ति निर्माण की असत्यता Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***** [41] प्रकरण विषय ११. श्रेणिक और मूर्ति पूजा १२. चम्पा नगरी और अरिहंत चैत्य १३. पूयण वत्तियं १४. चमरेन्द्र औरं मूर्ति का शरण १५. देवाणं आसायणाए १६. आनन्द श्रमणोपासक १७. अंबड़ परिव्राजक और मूर्ति पूजा १८. तुंगिका के श्रमणोपासक १६. चारण मुनि और मूर्ति पूजा २०. द्रौपदी और मूर्ति पूजा समकितसार का पाठ श्री० हर्षचन्द्रजी म. के नाम से झूठा प्रचार २१. कथाओं के उदाहरण २२. लोंका गच्छीय यति २३. स्थापनाचार्य का मिथ्या अडंगा २४. व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य २५. पट्टावली के नाम से प्रपंच २६. स्वर्ण गुलिका से मूर्ति का मिथ्या सम्बन्ध २७. स्थापना सत्य में समझ फेर २८. डॉ० हरमन जेकोबी का अटल अभिप्राय २६. स्तूप निर्माण का कारण ********** पृष्ठ ६७ ७३ το ६२ ६६ १०१ १२१ १२६ १३८ १४४ १५४ १५८ १५६ १६६ १६६ १७६ १८१ १८४ १८६ १६२ १६८ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [42] पृष्ठ . ज म ० २४४ प्रकरण विषय ३०. भक्ति या अपमान ३१. साधुमार्गी जैन मूर्ति पूजक नहीं हैं ३२. विकृति का सहारा ३३. मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध मूर्ति निर्माण का कारण मूर्तियों के सभी लेख सच्चे नहीं हैं प्राचीन होने मात्र से उपादेय नहीं आगमों के सामने इसका कोई मूल्य नहीं ३४. क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? ३५. चैत्य शब्द के अर्थ ३६. बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प ३७. क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है? ३८. मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता ३६. मूर्ति पूजा विरुद्ध प्रमाण संग्रह जैनागम. विरुद्ध मूर्ति पूजा न तीन में न तेरह में मूर्ति पूजक मान्य प्रमाणों से मूर्ति पूजा का विरोध अजैन विद्वान् और मूर्ति पूजा ४०. उपसंहार का संहार ४१. निष्कर्ष ४२. परिशिष्ट ४३. उपयोगी पद्य २६४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य संघ के प्रकाशन 5. नाम १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ३. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग ३ ४. अंगपविठ्ठसुत्ताणि संयुक्त ५.अनंगपविट्ठसत्ताणि भाग १ ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८. अंतगडदसा सूत्र ९. अनुत्तरोववाइय सूत्र १०. आचारांग सूत्र भाग १ ११. आचारांग सूत्र भाग २ १२. आयारो १३. आवश्यक सूत्र (सार्थ) १४. उत्तरज्झयणाणि (गुटका) १५. उत्तराध्ययन सूत्र . १६. उपासक दशांग सूत्र १७. उववाइय सुत्त १८. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका) १९. दशवैकालिक सूत्र २०. णंदी सुतं २१. नन्दी सूत्र २२. प्रश्नव्याकरण सूत्र २३-२९. भगवती सूत्र भाग १-७ ३०-३१. स्थानाङ्ग सूत्र भाग १-२ ३२. समवायांग सूत्र ३३. सुखविपाक सूत्र ३४. सूयगडो ३५. सूयगडांग सूत्र भाग १ ३६. सूयगडांग सूत्र भाग २ ३७. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ३८.मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ३९-४१.तीर्थंकरचरित्र भा० १,२,३ ४२. तीर्थंकर पद पाप्ति के उपाय ४३. सम्यक्त्व विमर्श ४४. आत्म साधना संग्रह ४५. आत्म शुद्धि का मूल तत्त्वत्रयी ४६. नव तत्त्वों का स्वरूप .४७. सामण्ण सविधम्मो ४८. अगार-धर्म ४९-५१. समर्थ समाधान भाग १,२,३ ५२. तत्व-पृच्छा ५३. तेतली-पुत्र ५४. शिविर व्याख्यान ५५. जैन स्वाध्याय माला ५६. स्वाध्याय सुधा ५७. आनुपूर्वी ५८. भक्तामर स्तोत्र "... ...MOVo ००००००००००००००० ००००००००००००००००००० m . morrrrrrrrror 50.50.55055500 ४०.०००००००००००००० R०००००००००००००००० ors500 0900901 ००००००००० 000००००००० अप्राप्य . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन स्तुति मंगल प्रभातिका सिद्ध स्तुति संसार तरणिका आलोचना पंचक विनयचन्द चौबीसी भवनाशिनी भावना स्तवन तरंगिणी सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ सुधर्म चरित्र संग्रह सामायिक सूत्र सार्थ सामायिक सूत्र प्रतिक्रमण सूत्र जैन सिद्धान्त परिचय जैन सिद्धान्त प्रवेशिका जैन सिद्धान्त प्रथमा जैन सिद्धान्त कोविद जैन सिद्धान्त प्रवीण १०२ बोल का बासठिया तीर्थंकरों का लेखा जीव-धड़ा लघु-दण्डक महा-दण्डक तेतीस बोल गुणस्थान स्वरूप गति - आगति कर्म-प्रकृति समिति-गुप्ति समकित के ६७ बोल २५ बोल नव-तत्त्व जैन सिद्धान्त थोक संग्रह भाग १ जैन सिद्धान्त थोक संग्रह भाग २ जैन सिद्धान्त थोक संग्रह भाग ३ जैन सिद्धान्त थोक संग्रह संयुक्त पत्रवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ पत्रवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ Saarth Saamaayik Sootra सामायिक संस्कार बोध प्रज्ञापना सूत्र भाग १ प्रज्ञापना सूत्र भाग २ . प्रज्ञापना सूत्र भाग ३ प्रज्ञापना सूत्र भाग ४ चउछेयसुत्ताई जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग १ लोकाशाह मत समर्थन जिनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा मुख वस्त्रिका सिद्धि विद्युत् ( बिजली ) सचित्त तेऊकाय है ६-०० अप्राप्य ३-०० ७-०० २०० १-०० २-०० ५-०० २२-०० १५-०० १०-०० १-०० ४-०० ३-०० ३-०० ४-०० ४-०० ३-०० ४-०० ०-५० १-०० २-०० २-०० १-०० 2-00 २-०० १-०० २-०० २-०० २-०० ३-०० ७-०० १०-०० १०-०० १०-०० १५-०० ८-०० १०-०० ६-०० 10-00 ७-०० ४०-०० ४०-०० ४०-०० ४०-०० १५-०० ३५-०० १०-०० १५-०० ३-०० ३-०० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ जैनागम चिरुद्ध मूर्ति पूजा प्रवेश जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । निवृत्ति का अर्थ है -अलग रहना, आत्मा से भिन्न बाह्य पदार्थों (पुद्गलों) से विरक्त रहना निवृत्ति मार्ग है। और पुद्गलों में आसक्त रहना है - प्रवृत्ति मार्ग । जब तक प्राणी पुद्गल से अपना सम्बन्ध नहीं छोड़ता और घर, हाट, हवेली, धन, धान्य, स्त्री, परिवार, वस्त्र, आभूषण तथा वाहन आदि में लिप्त रहकर प्रवृत्ति की ओर ही बढ़ता जाता है, तब तक उसको आत्मशांति प्राप्त होना असम्भव एवं अशक्य ही है। ज्यों-ज्यों आत्मा की पुद्गल शक्ति घटती जायगी, त्यों-त्यों उत्थान होता जायगा, क्योंकि पुद्गल प्रेम ही आत्मा को भारी बनाकर भवभ्रमण के चक्कर में डालता है। इसीलिए जैनागमों में निवृत्ति को ही प्रधानता दी गई है। जैन समाज के साधु-महात्मा इस सिद्धांत के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, इसी उद्देश्य से उन्हें निर्ग्रथ विशेषण से सम्बोधन किया गया है। यदि यहाँ कोई शङ्का करे कि जब पुद्गल त्याग ही धर्म है तब फिर सूत्रों में साधुओं के लिये आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि के उपयोग करने का विधान क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि - आत्मा शरीर के आधार से रहता है, शरीर द्वारा ही आत्मा ने कर्म बन्धन किये हैं और कर्म बन्ध के फल स्वरूप ही यह शरीर प्राप्त हुआ है। जब तक आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त न हो जाय तब Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश तक अशरीरी (सिद्ध) नहीं हो सकता (भले ही एक शरीर को छोड़कर दूसरे में चला जाय) अतएव अशरीरी होने के लिये आत्मा को इस शरीर में रहकर ही आत्म-कल्याण करना होता है। जब शरीर में रहकर ही आत्म-साधना होती है तब देह को टिकाये रखने की भी आवश्यकता है। देह टिके रहने पर ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की विशेष आराधना कर कर्म बन्धन से आत्मा हल्का होता हुआ ऊर्ध्व गमन करता है। ऐसी अवस्था में शरीर को टिकाने के लिये खान, पान और वस्त्रादि की आवश्यकता भी अनिवार्य है। इसीलिए आत्मकल्याण और परोपकारार्थ आवश्यकता के अनुसार निर्ममत्व बुद्धि से साधुओं के भोजन पान और वस्त्रादि से शरीर निर्वाह करने का आगमों में विधान है। आगम के अभ्यासी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। इसके सिवाय धर्मोपकरण में रजोहरण मुखवस्त्रिका आदि भी चारित्राराधन-आत्मोत्थान-में मुख्य साधन है। जिनके सदुपयोग से साधक महात्मा छोटे-छोटे जन्तुओं की रक्षा करते हुए अपनी संयम यात्रा में प्रयत्नशील रहते हैं। प्रमार्जन करने के लिये रजोहरण और निरवद्य (निर्दोष) भाषा बोलने के लिए मुखवस्त्रिका का होना परमावश्यक है। जिससे प्रथम तो अहिंसा महाव्रत का पूर्णतया पालन होता है, दूसरा संसार को मूक भाषा में अपने विशिष्ट सिद्धांतों का परिचय देकर धर्माभिमुख करने की भावना और तीसरा जिनाज्ञा की आराधना होती है। इस तरह कई प्रकार के लाभ होते हैं। अतएव धर्मोपकरण की भी आवश्यकता अनिवार्य और आगम सम्मत है। ____ यद्यपि साधक महानुभाव आहार, वस्त्र, पात्रादि का उपयोग कर शरीर रक्षा करते हैं तथापि निर्ममत्व बुद्धि (आसक्ति रहित) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******************************************** होने से पुद्गलों से विरक्त ही कहे जाते हैं। ऐसे महात्मा यह ध्यान में रखते हैं कि जिस प्रकार रोगी मनुष्य स्वास्थ्य लाभ करने के लिए अप्रिय व कटु औषधि का उपयोग करता है, किन्तु स्वास्थ्य लाभ कर लेने पर औषधि की तरफ देखता भी नहीं। ठीक इसी प्रकार साधक महात्मा भी कर्म बन्ध रूप रोग से मुक्त होने और ज्ञानादि रत्नत्रय की आराधना के लिए औषधि की तरह आहारादि बाह्य वस्तुओं का सेवन करते हैं और भावना रखते हैं कि वह दिन कब आयगा कि मैं आहारादि बाह्य वस्तुओं के त्याग पूर्वक इस शरीर को शव की तरह डाल दूंगा और आत्म ध्यान में लीन होता हुआ कल्याण साध लूँगा, तथा अपनी आत्मा को इन पुद्गलों से एकदम भिन्न कर शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल एवं स्वतन्त्र बना लूंगा। ___इसके सिवाय धात्री-माता (धाय) का उदाहरण भी इस बात को स्पष्ट करता है। जिस प्रकार धात्री-माता (धाय) दूसरे के पुत्र को खिलाती पिलाती हुई पुत्र की तरह पालन करती है और मन में जानती है कि यह पुत्र मेरा नहीं है। मुझे आजीविका के लिए ही ऐसा करना पड़ता है। इसी प्रकार महात्मा पुरुष भी आहार, पानी और वस्त्रादि से शरीर की रक्षा करते हैं। फिर भी वे जानते हैं कि हमारी आहारादि द्वारा शरीर रक्षा केवल तन को टिकाकर ज्ञानादि रत्नत्रय की विशेष आराधना के लिए ही है। हमारा मुख्य ध्येय तो आत्मोत्थान ही है, खान पान आदि नहीं। अतएव सिद्ध हुआ कि आवश्यक आहार आदि का सेवन भी निर्मम बुद्धि से करना योग्य है। इस प्रकार आसक्ति रहित सेवन करने वाले को पुद्गल से अलिप्त कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, अर्थात् ऐसे महात्मा को पुद्गल से भिन्न कहना ही उचित है। इसलिए उक्त शङ्का को स्थान ही नहीं है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश ******京********************************* यदि कोई महानुभाव तर्क करें कि जिस प्रकार चारित्र निर्वाह और आत्म कल्याण में वस्त्र, पात्र और धर्मोपकरण की आवश्यकता है उसी प्रकार निवृत्ति मार्ग वाले को आत्म-कल्याण में “मूर्ति" भी सर्वप्रथम आवश्यक है। इसका निषेध क्यों किया जाता है? इसका समाधान है कि मूर्ति पूजा की आत्म-कल्याण में कोई आवश्यकता नहीं है। शास्त्रों में उपकरणों का जो विधान किया गया है वह आवश्यक और अनिवार्य होने से ही उपादेय है तथा इन उपकरणों की गणना भी की गई है। किन्तु ऐसे धार्मिक उपकरणों में सर्वज्ञ महर्षियों ने मूर्ति का तो नाम भी निर्देश नहीं किया। इन उपकरणों को उचित साधन समझकर ही ग्रहण करते हैं। इनमें ममत्व बुद्धि नहीं रहती, किन्तु मूर्ति तो साध्य की तरह मानी जाती है और इसके द्वारा आसक्ति अधिक बढ़ती है। उपकरणों को कम करने तथा समय पर त्यागने की भावना रहती है, परन्तु मूर्ति को तो अपनाये रखने की ही बुद्धि रहती है * उपकरणों के उपयोग में हिंसा नहीं होती, परन्तु मूर्ति की पूजा में त्रस तथा स्थावर जीवों की हिंसा * उपकरणों से मूर्ति की साम्यता हो नहीं सकती क्योंकि शास्त्रों में - १. रजोहरण मुखवस्त्रिका को जैन लिंग में मानकर अत्यंत उपयोगी बताया है। यहां तक कि जिन कल्पी और केवली तक के यह लिङ्ग रहता है। “स्वलिङ्गसिद्ध” का स्वरूप जानने वाले इस विषय में शङ्का ही नहीं कर सकते, किन्तु मूर्ति रूप उपकरण के लिए तो आगम एक दम मौन है। २. रजोहरण मुखवस्त्रिका के सिवाय वस्त्र पात्र आदि उपधि के लिए त्याग की भावना होकर समय पर त्याग भी किया जाता है। जिसके लिए उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्याय में उपधि त्याग का फल भी बताया गया है। यद्यपि मूर्ति कोई उपकरण नहीं है, तथापि उपकरणों के साथ समानता करने पर तो मूर्ति भी उपकरण की तरह त्यागने योग्य (उपकरण) मानी जानी चाहिए। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा *********** ********* होती है। उपकरणों का उपयोग प्रभु की आज्ञानुसार है, किन्तु मूर्ति पूजा आप्त आज्ञा रहित और हिंसा युक्त होने से प्रभु आज्ञा की विरोधिनी है। उपकरणों के लिए किसी प्रकार की लड़ाई नहीं होती, किन्तु मूर्ति के लिए ऐसे-ऐसे झगड़े हुए, जिसमें समाज छिन्न भिन्न हो गये। लाखों करोड़ों का पानी हुआ, और हो रहा है। यहाँ तक कि केशरिया तीर्थ में तो पूजक महानुभावों ने अपने ही भाइयों के प्राण हरण कर लिये । उपकरणों के उपयोग से इन्द्रियों का विषय पोषण नहीं होता, किन्तु मूर्त्ति पूजा से पांचों इन्द्रियों का स्पष्ट विषय पोषण होता है । गान, तान, वादिंत्र, दीपराशि, नृत्य, सुगन्धित पुष्प, फल, इत्र, केशर, नैवेद्य, स्नान, मर्दन आदि कार्यों में पांचों इन्द्रियों का विषय पोषण खुल्लम-खुल्ला होता है । यदि स्पष्ट कहा जाय तो जिस जैनधर्म का सिद्धान्त पुद्गल त्याग है, मूर्ति - पूजा से उल्टा पुद्गलासक्त - पुद्गलों में मस्त रहना प्रतीत होता है। जो श्रृङ्गार सामग्री विलास भवनों तथा नाट्यशालाओं में होती है, प्रायः उसी प्रकार की सामग्री आज मूर्ति के महालयों-मन्दिरों में पाई जाती है। ऐसे स्थानों में गया हुआ मनुष्य पुद्गलों में मस्त होकर ही लौटता है। कोई-कोई तो काम वासना में गोते लगाते पाये जाते हैं । समाचार पत्रों में मन्दिरों को व्यभिचार के अड्डे कह कर पुकारा जाता है। दक्षिण की देवदासी प्रथा तो सर्व प्रसिद्ध है। जैन मन्दिरों में भी काम ३. जिनकल्पी के रजोहरण और मुखवस्त्रिका ये दो ही उपकरण माने गये हैं फिर इनके लिए मूर्ति कहां गई ? ४. जिस प्रकार रजोहरण मुखवस्त्रिका सदा साथ रक्खे जाते हैं। रजोहरण अधिक दूर रखने पर प्रायश्चित्त योग्य है । इस प्रकार मूर्ति तो सदैव साथ नहीं रहती। ऐसी दशा में धर्मोपकरणों से इसकी समानता कैसे हो सकती है? Tan Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or प्रवेश वर्द्धक सामग्री तथा रसीले गान, तान नृत्यादि क्रियाओं के प्रभाव से और स्त्री पुरुषों, युवक, युवतियों के सम्पर्क से विकार वर्धक भावनाओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अभी थोड़े दिनों की खबर है कि पालीताने में....विजय नामक साधु.....नामक कच्छी विधवा को लेकर पलायन कर गया। ऐसी एक नहीं अनेक घटनाएं घट चुकी, और घटती जा रही है। यह सब प्रभाव पुद्गलासक्ति का है जो कि मन्दिरों और मूर्तियों का सहारा पाकर फैल चुकी है। अतएव मूर्तिपूजा आत्मकल्याण में अनावश्यक एवं अहितकर सिद्ध होती है। पुद्गलों के फन्दे में फँसाने वाली ठहरती है। आत्म कल्याण के इच्छुक को इसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है। जब पुद्गल त्याग ही धर्म है। पुद्गलों की आवश्यकताओं को घटाना ही कल्याण की ओर अग्रसर होना है। तो फिर मन्दिर मूर्ति के द्वारा पुद्गलों की विशेष वृद्धि कर उसमें आसक्ति की प्रचूरता को धर्म कैसे कहा जाय? जैन धर्म लोकोत्तर धर्म है। इसमें व्यक्ति पूजा की अपेक्षा गुण पूजा को अधिक महत्त्व दिया गया है। गुणों के अस्तित्व से गुणी की पूजा होती है। निर्गुणी या दुर्गुणी तथा द्रव्य लिंगी को वन्दन करने का विधान जैन धर्म का नहीं है। जो भी व्यक्ति पूजा बाह्य दृष्टि से दिखाई देती है, उसके लिए समझदारों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह व्यक्ति पूजा नहीं, किन्तु व्यक्ति के भीतर विद्यमान महान् व्यक्तित्व-अर्थात् गुणों-की ही पूजा है। क्योंकि जब तक पूजा पाने वाले व्यक्ति में उत्तम गुणों का होना पाया जाता है तब तक ही वह पूजनीय होता है। किन्तु जब उपासक को यह मालूम हो जाय कि जिसे हम अपना आदर्श-गुरु मान कर वन्दना नमस्कारादि करते हैं, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा उनमें गुरुत्व के गुण तो है ही नहीं, केवल वेषभूषा से ही वे हमें धोखा दे रहे हैं। तो शीघ्र ही उनका बहिष्कार और निरादर कर दिया जाता है। जैनागमों के अभ्यासी यह जानते हैं कि जब तक जमाली, गोशाला आदि में शुद्ध श्रद्धा थी, तब तक ही वे जैनियों के लिए वन्दनीय - पूजनीय थे । किन्तु जब वे श्रद्धा भ्रष्ट हुए और इसकी खबर जैनियों को लगी तब शीघ्र ही वन्दना नमस्कार बंद कर बहिष्कार बोल दिया। यह गुण - पूजकता का ज्वलन्त उदाहरण है । तीर्थंकर प्रभु का जन्म होता है, तब इन्द्रादि देवों से किये गये जन्मोत्सव से यह मालूम हो जाता है कि जिनका इन्द्रों ने जन्मोत्सव किया ऐसे तीर्थंकर प्रभु संसार का कल्याण कर इसी जन्म में मोक्ष पधारेंगे। इतना जानते हुए भी जब तक तीर्थंकर महाराज गृहस्थावस्था में रहते हैं तब तक कोई भी व्रती श्रावक या साधु उन्हें तीर्थंकर रूप से वन्दना नमस्कार तथा सेवा - भक्ति नहीं करता और जब तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण हो जाता है तब - देह - शरीर के यहाँ रहते हुए भी जैन संसार में तीर्थंकर विरह का महान् शोक छा जाता है और उनके शव को जलाकर नष्ट कर दिया जाता है। क्योंकि वंदनीय पूजनीय जो गुणी आत्मा थी, वह तो गमन कर गयी। इससे स्पष्ट है कि जैन समाज जड़ पूजक या व्यक्ति पूजक नहीं, वरन् गुण पूजक ही है । यदि व्यक्ति पूजा या जड़ शरीर की पूजा ही मुख्य होती तो तीर्थंकर के गृहस्थावस्था में रहते हुए या निर्वाण के पश्चात् उनका शव भी वन्दनीय, पूजनीय माना जाता और मूर्त्ति के स्थान में वह शव ही मन्दिरों में सुरक्षित रखा जाता। जैसे की कई देशों में मसाले भरकर शव रखे जाते हैं। आज भी संसार में अनेक धर्मों के धर्म गुरुओं - नेताओं के देहोत्सर्ग पश्चात् उनके शरीर को अपनी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश ************术学李李李李李安求实学家辛次次学术安客家**本学 अपनी मान्यतानुसार जला दिया जाता, अथवा भूमि में गाड़ दिया जाता, या पानी में बहा दिया जाता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि यदि व्यक्ति की मूर्ति (आकृति) पूजना ही धर्म होता तो उनके शरीर को जिसमें कि रहकर वे पूज्य हुए थे, क्यों नष्ट किया जाता? पाषाण की मूर्ति से तो शव ठीक ही है, क्योंकि पहले उसमें गुण विद्यमान थे। अतएव सिद्ध हुआ कि मूर्ति पूजा आत्मकल्याण में अनावश्यक है। आदरणीय केवल गुण ही हैं। गुण के धारक महान् सर्वज्ञ पुरुष ही हमारे देव हैं। साधुत्व सम्बन्धी उत्तम गुणों के धारक महात्मा ही हमारे गुरु हैं। वीतराग प्रभु ने हमारे लिये जो कल्याणकारी मार्ग बताया है, उसका अनुसरण करना ही हमारा धर्म है और ऐसे देव की भक्ति और बहुमान पूर्वक आज्ञा पालन करना ही सच्ची देव पूजा है और यही कल्याणकारी मार्ग है। स्वयं मूर्ति पूजक श्री विजयानन्द सूरिजी "जैनतत्त्वादर्श' पृ० ४१६ में लिखते हैं कि - "इहाँ सर्व जो भाव पूजा है सो जिनाज्ञा का पालना है।" __अतएव जिनाज्ञा पालन रूप प्रभु पूजा ही मोक्ष दायिनी है, मूर्ति-पूजा नहीं। मूर्ति-पूजा तो उल्टी पुद्गलों की अभिवृद्धि और आसक्ति बढ़ाकर भव भ्रमण कराने वाली हेय (त्यागने योग्य) वस्तु है। - विश्वभर के षट् नित्य द्रव्यों में पांच द्रव्य अरूपी और एक पुद्गल नामक द्रव्य रूपी है। यद्यपि छहों द्रव्यों में प्रधानता जीव द्रव्य की है, तथापि अरूपी हल्का और ऊर्ध्वगामी इस प्रधान जीव द्रव्य को जड़ और पुद्गल ने अपनी ओर आकर्षित कर, उस पर अपना प्रभाव जमाकर उसे भारी और पतन की ओर बढ़ने वाला बना दिया है। इस तरह प्रधान और अनन्त शक्तिशाली होते हुए भी यह Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******************************** ** आत्मपदार्थ जड़-पुद्गल के आधीन होकर परतन्त्रता में भी आनन्द मानता है। इसीलिए अनन्त ज्ञानी, सर्वदर्शी, वीतराग प्रभु ने समस्त जीवों के कल्याण की कामना से प्रेरित होकर पुद्गल त्याग रूप धर्म का उपदेश किया है। और ऐसा ही उपदेश करने का अपनी वंश परम्परा में होने वाले अनगार भगवन्तों को आदेश दिया है। ... संसार में जीवों की प्रकृति पुद्गलों की ओर अधिक रही है। अधिकांश लोग प्रवृत्ति मार्ग में ही आनन्द मानकर अपना जन्म व्यर्थ व्यय कर रहे हैं। जिसके लिए खेदज्ञ महात्माओं को दुःख होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इससे अधिक दुःख की बात तो यह है कि निवृत्ति प्रधान ऐसे परम पवित्र जैन धर्म की मिथ्या ओट लेकर कितने ही लोग भोले मनुष्यों को प्रवृत्ति मार्ग की ओर बढ़ाकर स्व-पर अहित कर रहे हैं। ऐसे भ्रम जाल में कोई भद्र बन्धु न पड़ जाय इसीलिये यह उद्यम किया जा रहा है। इस पुस्तक में हम श्री ज्ञानसुन्दरजी (जो मरुधर केशरी कहलाते हैं) के प्रकाशित “मूर्ति-पूजा का प्राचीन इतिहास' नामक पुस्तक पर विचार कर उनके फैलाये हुए भ्रम (आत्म-कल्याण में बाधक मत) का उन्मूलन करेंगे। यद्यपि सत्य बात को स्वीकार करना सुज्ञता का कर्त्तव्य है, किन्तु श्री ज्ञानसुन्दरजी ने सत्य को हृदय में स्थापन कर कार्य किया हो, ऐसा मालूम नहीं होता। इस पोथे के अन्दर सुन्दर बन्धु ने कई स्थानों पर साधुमार्गियों की निंदा करके मजाक उड़ाई है। कई बातें निरर्थक लिख मारी है, कई कुतर्क भी किये हैं। हम उन सब बातों का उत्तर देना निरर्थक समझकर विशेष और आवश्यक विषयों को चुनकर उसी पर विचार करेंगे। यदि विषय चुनने में किसी विषय पर हमारा ध्यान न भी जाय तो सुज्ञ पाठक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० धर्म-मार्ग ************************************** हमसे पत्र द्वारा पूछलें। हम यथाशक्ति समाधान करने का प्रयत्न करेंगे। हम अपने पाठक महोदयों से विशेषरूप से यह भी निवेदन करते हैं कि वे इस पुस्तक को कम से कम एक बार अथ से इति तक, ध्यान पूर्वक पढ़ें। (२) धर्म-मार्ग जैन समाज का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि जैनागमों की रचना घातीकर्म को क्षय करके अनन्त ज्ञान दर्शन को प्राप्त करने वाले सर्वज्ञ वीतराग और तीर्थ के नायक पूर्ण एवं आप्त प्रभु के विशिष्ट ज्ञान में से हुई है। ऐसे पूर्ण और वीतराग प्रभु की आज्ञा विश्व के समस्त प्राणियों के लिए एकान्त कल्याणकारी होती है। जब तक मनुष्य ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा उन्मूलन नहीं कर सकता तब तक वह अपूर्ण ही है। ऐसे अपूर्ण मानवों के लिए आत्मकल्याण का यही मार्ग है कि वे सर्वज्ञ आज्ञाओं का पालन कर उसी मार्ग से अपनी अपनी उन्नत्ति साधे। जैनागमों में सबसे प्रथम स्थान आंचारांग सूत्र को प्राप्त है। इसमें एक स्थल पर लिखा है कि - 'आणाएमामगंधम्म, एस उत्तरवादे, इहमाणवाणं, वियाहिते।' (आचारांग श्रु० १ अध्ययन ६ उद्देशक २) अर्थात् - आज्ञा से मेरे धर्म को पालन करे। यह पूर्वोक्त कथन मनुष्यों के लिये उत्कृष्टवाद कहा गया है। “अणाणाएएगेसोवट्ठाणे आणाएएगे निरुवट्ठाणे एवं ते मा होउ एयं कुसलस्स दंसणं।" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ११ ****************************************** गुरु कहते हैं कि हे शिष्य! जिन-आज्ञा से बाहर की करणी में उद्यम और जिन आज्ञा में आलस्य, यह तुझे न होना चाहिए ऐसा तीर्थंकर का अभिप्राय है। (आचारांग अ० ५ उद्देशक ६ सूत्र प्रारम्भ) ___ इस प्रकार जिनागमों में विश्व कल्याण की कामना वाले गणधर महाराज ने सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग प्रभु की आज्ञा पालन करने का आदेश किया है। प्रभु आज्ञा का पालन कर अनन्त जीव सिद्ध बुद्ध हो चुके हैं। भविष्य में जिनाज्ञा पालन कर अनन्त जीव भव भ्रमण का नाशकर नित्य और शाश्वत सुखों को प्राप्त करेंगे। श्री सुन्दर मित्र भी हमारी इस बात को स्वीकार करते हुए अपने “मेझरनामे' में लिखते हैं कि - धर्म आज्ञा वीतरागनी, आज्ञा लोपी हो करे गणी धर्म आचारांगपहेला अङ्गमां, नहीं जाण्योहो? तेणे धर्म नो मर्म|| १०॥ (ढाल १३ पृ० ४५) (२) "सूत्र सूयगडांग मां कयुं, आज्ञा बाहर हो? बंधु आल पंपाल।" (ढाल २५ पृ० ७६) (३) "जिन आणा विराधतांरुले अनन्त संसार। आणा आराधी जे हुआ, शिवरमणी भरतार"॥१॥ (ढाल ३० का दोहा पृ०६८) (४) "धर्म छे ते वीतरागनी आज्ञा मांछे अने आज्ञा थी न्यूनाधिक करवू ते तो अधर्मज छ।" (ढाल २२ के तात्पर्य में पृ० ६९) उक्त चार अवतरण स्वयं सुन्दर मित्र के मेझरनामे के हैं। इसके सिवाय श्री विजयानन्द सूरिजी ने सम्यक्त्व शल्योद्धार के ३७ वें Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म- मार्ग ****** प्रकरण में आज्ञा पालन ही धर्म है इस विषय में एक पूर्ण प्रकरण लिखा है। १२ जिनागमादि उक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट सिद्ध हो गया कि जिस कार्य के करने की प्रभु आज्ञा है वह धर्म है । और जिसके लिये आज्ञा नहीं, वह कार्य करना, अथवा आज्ञा के विरुद्ध कृत्य करना अधर्म है। तीर्थंकर प्रभु ने कैसा धर्म बतलाया ? एकान्त हितकारी, सुखकारी एवं मोक्षकारी धर्म का स्वरूप क्या है ? इस सम्बन्ध में बताया है। " से बेमि जेय अतीता, जेय पडुप्पन्ना, जेय आगमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वेवि एवमाइक्रवंति एवभासंति एवं पण्णविंति एवं परुवेंति - सव्वेपाणा, सव्वेभूया, सव्वेजीवा, सव्वेसत्ता, ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा ण परिघेतव्वा ण परित्तावेयव्वा ण किलामेयव्वा, ण उद्यवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, णितिए, सासए समेच्चलोयं खेयन्नेहिं पवेतिते तंजहा - उट्ठिएसु वा अणुट्टिएस वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा, सोवहिएसु वा अणोवहिएस वा, संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा तच्चचेयं तहाचेयं, अस्सिंचेयं " पवुच्चई ।" (आचा० श्रु १ अ० ४ उ० १) तात्पर्य - सुधर्म स्वामी कहते हैं कि अहो जंबु ! भूतकाल में जो अनंत तीर्थंकर हुवे हैं, वर्तमान में जो हैं, और जो भविष्य में होंगे वे सब अरिहंत भगवान् ऐसा कहते हैं, ऐसा बतलाते हैं कि किसी प्राणी, भूत, जीव, सत्व को मारना ताड़ना व घात करना न चाहिए, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १३ ****************************************** यावत् उनको जीवत्व से रहित न करना चाहिये, यही धर्मशुद्ध है, शाश्वत है, ऐसा खेदज्ञ श्री महावीर प्रभु ने कहा है। जो प्रमाद में पड़े हैं, या प्रमाद रहित हैं, जो त्यागी नहीं हुए हैं, या त्यागी हो चुके हैं, इत्यादि सब जीवों के लिये यह प्रभु भाषित धर्म यथातथ्य है। ___ प्रभु ने साधु श्रावक के लिए जो साधना बताई, वह भी प्रभु के उपदेश से ही सुनिये, यथा - "तमेवधम्मंदुविहं आइक्खंतितंजहा-अगारधम्म अणगार धम्मं च, अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वतो सव्वताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयई सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ राइभोयणाओ वेरमणं अयमाउसो! अणगार सामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवहिए णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवंति अगारधम्मंदुवालसविहं आइक्खइतंजहा-पंच अणुव्वयाई तिण्णि गुणवयाई चत्तारि सिक्खावयाई पञ्च अणुव्वयाइतंजहा-थूलाओपाणाइवायाओवेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमाथूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छा परिमाणे, तिण्णि गुणव्वयाइं तंजहा - अणत्थदंड वेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोगपरिभोगपरिमाणं, चत्तारिसिक्खावयाइतंजहासामाइयं, देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहिसं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ** धर्म-मार्ग **** विभागे, अपच्छिमा मरणंतिया संलेहणा जूसणाराहणा, अयमाउसो ! अगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिकरवाए उवट्ठिए समणोवासए समणोवासिआ वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । उववाई सूत्र धर्म देशनाधिकार सू० ३४ तात्पर्य यह है कि - जो साधु साध्वी पाँच महाव्रत और रात्रि भोजन त्यागव्रत का पालन करते हैं और जो श्रावक पाँच अणुव्रत तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत का पालन करते हैं और अन्त समय में शल्य रहित होकर आराधना पूर्वक समाधि मरण करते हैं वे आज्ञा के आराधक होते हैं । इसके सिवाय सूत्रकृताङ्ग सूत्र श्रु० २ अ० २ में भी अगार और अनगार धर्म का वर्णन स्पष्टता के साथ किया गया है और भी सूत्रों में अनेक स्थलों पर धर्माराधन की विधि बतलाई गई है। श्रमण वर्ग के लिये तो रात्रि - दिन के २४ घंटों में जो-जो आवश्यक क्रियायें करनी आवश्यक हैं जैसे कि भोजन, पान, गमनागमन, भिक्षाचरी, शयन, परिष्ठापन, बोलना, चलना, वस्त्र पहिनना, पात्रादि कितने व कैसे रखना आदि क्रियाओं की विधि स्पष्ट समझा कर बतलाई है। इसी प्रकार अनेक महात्माओं के चरित्र वर्णन भी आगमों में अनेक स्थानों पर आये हैं। उनमें उनके धर्माराधन सम्बन्धी विस्तृत विवेचन मिलते हैं, किन्तु किसी भी स्थान पर ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि जिससे मूर्ति पूजा के सिद्धान्त को कुछ भी सहारा मिल सके। विधिवाद में farai भी स्थान पर मूर्त्ति पूजा करने या मूर्त्ति के दर्शन करने की आज्ञा नहीं दी गई। न ही किसी श्रमण महात्मा या श्रावक महोदय के चरित्र वर्णन में यह बात आई कि उन्होंने प्रभु मूर्ति के दर्शन या पूजा की हो। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १५ ********************************************* संघ निकाल कर यात्रा करने या मन्दिर बनवाने तथा प्रतिष्ठा करवाने आदि मूर्ति सम्बन्धी किसी भी क्रिया की न तो कहीं आज्ञा ही है और न किसी धार्मिक पुरुष के धर्माराधन के चरित्र वर्णन में उल्लेख ही है। मूर्ति-पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा का किसी भी सूत्र में किसी भी तरह उल्लेख नहीं है। बिलकुल नहीं है, बिंदु विसर्ग तक नहीं है। हमारे कितने ही मूर्ति-पूजक बन्धु मूर्ति-पूजा को जिनाज्ञा के अनुसार कहते हैं और इसके लिए आगम प्रमाण की दुहाई देते हैं। श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी ने भी अपने “मूर्ति-पूजा के प्राचीन इतिहास' नामक पुस्तक में ऐसा प्रयत्न किया है, किन्तु यह एक भ्रम-जाल ही है। श्रीमान् सुन्दरजी ने अपने सारे पोथे में एक भी प्रमाण ऐसा नहीं दिया जो मूर्ति-पूजा में धार्मिक श्रद्धा को पुष्ट करे। हाथ कंगन को आरसी क्या? पाठक स्वयं उस पुस्तक से निर्णय कर सकते हैं, सुन्दरजी ने इस विषय में जहाँ-जहाँ शास्त्रों के नाम से भ्रम फैलाया है, उस पर विचार हम इसी ग्रन्थ में कर रहे हैं, किन्तु मैं संक्षिप्त में दृढ़ता पूर्वक कह सकता हूँ कि - जिनागमों में मूर्ति-पूजा करने की किसी भी जगह आज्ञा नहीं है, न सुन्दरजी भी ऐसा सिद्ध कर सके हैं। जब मूल में ही यह वस्तु नहीं है, तो फिर सुंदर मित्र लावें कहाँ से? हाँ, व्यर्थ के कुतर्क खड़े करके भद्र जनता को वे भ्रम में अवश्य डाल सकते हैं। एक साधारण पढ़ा लिखा और समझदार मनुष्य मूर्ति-पूजक विद्वान् से यह प्रश्न करले कि - महानुभाव! जरा यह तो बतलाइये कि जहाँ आचार धर्म की विधि बतलाने वाले सूत्र के सूत्र भरे पड़े हैं। जिनमें छोटी छोटी बातों के लिए स्पष्टता पूर्वक आज्ञा दी गई है, उनमें किसी एक भी जगह मूर्ति या मन्दिर बनवाने अथवा दर्शन, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ में ही पथ भ्रष्ट ******************* ********************* पूजन, करने की आज्ञा दी है? साधु साध्वियों के समूह के साथ संघ निकालकर आरम्भ समारम्भ करते हुए तीर्थ यात्रा जाने और इस प्रकार मौज उड़ाने की वीतराग प्रभु ने आज्ञा दी है क्या? ऐसे प्रश्न का उत्तर प्रश्नकार को या तो मौन से मिलेगा या क्रोध से ? अगर उत्तरदाता ने कुतर्कों का रास्ता पकड़ लिया तो वह इतनी बड़ी-बड़ी छलांगे मारेगा कि जिससे सत्य रूपी सुन्दर मार्ग से हटकर मिथ्यारूपी गहरी खाड़ी में जा गिरेगा। ___इसी प्रकार श्री ज्ञानसुन्दरजी ने भी कुतर्क करने में कमी नहीं की। ऐसी-ऐसी व्यर्थ की बातें लिख मारी हैं कि जिनके कारण सुन्दर मित्र की योग्यता स्पष्ट हो जाती है, इतना ही नहीं बल्कि भाषा, ज्ञान और विद्वत्ता न होते हुए भी साधुमार्गी समाज के मुनियों और सुधारकों को मूर्ख या अज्ञ कहने तक की धृष्टता कर डाली है। अपनी मूर्खता और द्वेष बुद्धि से प्रेरित होकर निन्दा करने एवं हँसी उड़ाने में भी सुन्दर मित्र ने पक्की वीरता दिखाई है। ___ सुन्दर मित्र की सुन्दर दलीलों का परिचय तो पाठकों को अगले प्रकरण से ही मिल जायगा। पाठक महोदय ध्यान पूर्वक अवलोकन करें। प्रारम्भ में ही पथ-भ्रष्ट जिस कार्य का प्रारम्भ ही दोष युक्त हो उसका अन्त भी अनिष्टकारी माना जाता है। जो व्यक्ति लम्बा सफर करने की इच्छा से प्रस्थान करे और प्रारम्भ में ही विपरीत मार्ग का अनुसरण करने लग जाय तो उसका प्रवास सफलता पूर्वक होना असम्भव समझा जाता है। समझदार लोग प्रथम दृष्टिपात में ही कार्य के परिणाम को Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १७ 卒卒卒卒卒卒卒卒*********本本*****卒卒卒來來來來來卒卒卒卒卒卒卒卒本本次 समझ लेते हैं। जब हम श्री ज्ञानसुन्दरजी के “मूर्ति-पूजा के प्राचीन इतिहास" के प्रारम्भ को ही देखते हैं, तभी यह स्पष्ट कहना पड़ता है कि - सुन्दर मित्र प्रारम्भ में ही पथ-भ्रष्ट हो गये। आप विषय प्रवेश करते हुए पृ० १ में लिखते हैं कि - "जैनागमों में षट् द्रव्य शाश्वत बताए हैं जिसमें पाँचद्रव्य अमूर्त और एक द्रव्य मूर्त हैxxx जब मूर्तद्रव्य (पुद्गल) अनादि हैतो मूर्ति-पूजाअनादिमानने में सन्देह ही क्या हो सकता है?". ___ सुन्दर मित्र की उक्त दलील कितनी थोथी और मिथ्या है, यह निम्न विचार से स्पष्ट हो जाता है। १. सुन्दर मित्र ने जिस मूर्त द्रव्य को अनादि बताया है यह वही इस पुस्तक के प्रारम्भ में प्रशंसित हुआ "पुद्गल" द्रव्य है। यदि पुद्गल पूजा में ही धर्म है तब तो संसारी जीव पुद्गल पूजक ही हैं। धन, धान्य, कुटुम्ब, परिवार, आदि पुद्गल की उपासना सभी करते हैं। इसलिए सुन्दर हिसाब से तो सभी धर्मी होंगे? और जो महात्मा (सर्वज्ञ से लेकर साधु पर्यंत) तथा आगम शास्त्र पुद्गल से विमुख होने का उपदेश करते हैं, वे अधर्मी तथा अधर्म प्रचारक ठहरेंगे। २. पुद्गल के अनादि होने से मूर्ति-पूजा भी अनादि मानली जाय तो फिर सुंदरजी को क्या अधिकार है कि वे जैनियों की मूर्तिपूजा को ही अनादि मानकर अन्य शिव, कृष्ण, राम, बुद्ध आदि की मूर्ति-पूजा की सादि कहें? और जैनियों की मूर्ति-पूजा में धर्म और अन्य की सात्विक मूर्ति-पूजा में अधर्म कहें? क्योंकि पुद्गल द्रव्य तो सबके लिये समान है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रारम्भ में ही पथ भ्रष्ट ********************************************** ३. कर्म बन्ध भी पुद्गल द्रव्य ही है, जो कि जैन दृष्टि से हेय वस्तु है, सुंदरजी के सिद्धांत से तो यह भी उपादेय होकर पूजनीय होना चाहिए? ___४. धन, धान्य, स्त्री, परिवार, वस्त्र, आभूषण, जूते, तलवार, बन्दूक आदि पुद्गलों को भी पूजना चाहिए? ५. पुद्गल के अनादि होने से ही मूर्ति-पूजा भी अनादि और उपादेय है तो फिर पुद्गलों से ही पुद्गल की पूजा करना कैसे उचित " कहा जा सकता है ? पूजने योग्य मूर्ति भी पुद्गल और उसकी पूजा की सामग्री अर्थात् पुष्प, फल, धूप, चाँवल, केशर, चन्दन और पैसा आदि भी पुद्गल, तो पुद्गलों से पुद्गल की पूजा करना क्या बुद्धिमत्ता का कार्य है? पौद्गलिक पन तो सब में है, फिर एक पूज्य और दूसरे उसकी पूजा की सामग्री। यह कल्पना क्यों? जबकि अखिल जैन समाज पुद्गल रूपी मूर्त द्रव्य से अमूर्त आत्मा का पिण्ड छुड़ाने का प्रबल उपदेश दे रहा है। जिन जिन आत्माओं ने पुद्गल को सर्वथा छोड़ दिया है वे ही "सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं संपत्ताणं" हुए हैं, और भविष्य में भी ऐसे ही महात्मा मुक्त हो सकेंगे। यह मान्यता समस्त जैन शासन की है। ऐसी दशा में मूर्ति-पूजा के मोह और साधुमार्गी समाज पर के अपने द्वेष रूप मद में मस्त होकर पुद्गल की अनादिता से ही मूर्ति-पूजा की अनादिता और उपादेयता सिद्ध करने वाले सुन्दर बन्धु कब सद्मार्ग के पथिक होंगे? . एक जैन साधु और ऊपर से विद्वत्ता का दम भरने वाले ही जब मत मोह में मस्त होकर पुद्गल पूजा में धर्म बतलाने, पुद्गल के सम्मुख जनता की प्रवृत्ति करने की चेष्टा करें और साथ ही पुद्गलों से Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा १६ ** विरक्त होने का उपदेश करने वालों की निन्दा करे तो यह वास्तव में अज्ञान ईर्षा का ही प्राबल्य है। इस प्रकार धर्म विरुद्ध युक्ति लगाकर वास्तव में सुन्दर मित्र प्रारम्भ में ही पथ भ्रष्ट हुए हैं। - जैन साधुओं का कर्त्तव्य पथ स्वयं पुद्गल से विमुख होना और दूसरों को भी करना है । किन्तु सुन्दर मित्र अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही अपनी मूर्ति पूजा की उपादेयता पुद्गल द्रव्य के मूर्त्त और अनादि - होने से बताकर परस्पर तुलना कर रहे हैं। इस प्रकार पुद्गलानुसारीपन को प्रोत्साहन देना स्पष्ट पथ भ्रष्टता है। (४) विश्व व्यापकता की मिथ्या युक्ति सुन्दर मित्र पृ० २ में दूसरी कुयुक्ति लगाते हुए लिखते हैं कि " मूर्त्ति पूजा का सिद्धांत विश्व व्यापक है, यह किसी भी समय विश्व से पृथक् नहीं हो सकता +++ मूर्ति को नहीं मानना एक प्रकार से प्रकृति का खून करना है । " उक्त वाक्य सुन्दर मित्र ने किसी तरंग में आकर लिखे प्रतीत होते हैं। यद्यपि उक्त सिद्धांत भी पुद्गल पूजा की तरह नि:सार है, किन्तु फिर भी सुन्दर मित्र के लिये इस पर भी दूसरी तरह से विचार करते हैं। जबकि सुन्दर कथनानुसार मूर्ति पूजा का सिद्धांत स्वयं विश्व व्यापक और नित्य है, तब उसी के लिये इन्हें इतना परिश्रम करने की आवश्यकता ही क्यों हुई? और साधुमार्गी समाज को मूर्त्ति पूजा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ****** ***** के विरोधी कहने की बुद्धि ही क्यों पैदा हुई? इससे तो यही स्पष्ट हुआ कि मूर्त्ति पूजा का सिद्धांत विश्व व्यापक नहीं है । विश्व व्यापकता की मिथ्या युक्ति *********** (१) साधुमार्गी जैन, आर्य समाज, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई, कबीर आदि समाजें मूर्ति पूजा की मान्यता नहीं रखती हैं। उन्हें जबरदस्ती मूर्त्ति पूजक लिख डालना क्या हठ बुद्धि नहीं है? यद्यपि समय के प्रभाव से विकृति प्रायः सबमें आ गई है, जो कि प्रवृत्ति मार्ग का धर्म है। तथापि उन उन समाजों के मूल सिद्धांत तो मूर्तिपूजा को नहीं मानने के ही हैं। यदि आप पीछे से घुसी हुई किसी विकृति को देखकर प्रसन्न होते हों तो यह आपकी भूल है । किन्तु हाँ, आप भी तो विकृति के उपासक तथा प्रचारक हैं न? क्योंकि मूर्ति-पूजा. जैनधर्म का मूल सिद्धान्त (मौलिक संस्कृति) नहीं, किन्तु समय पाकर घुसा हुआ विकार ही है। (२) किसी प्रवृत्ति के विश्व व्यापक होने से ही वह आदरणीय नहीं हो जाती, जैसे कि - मिथ्यात्व, अव्रत, असंयम आदि विश्वव्यापक हैं - विश्व के कौने-कौने में फैले हुए हैं । प्रवृत्ति मार्ग का अनुसरण करने वाला बहुत बड़ा समूह है। यदि विश्व व्यापकता ही के कारण किसी विषय की उपादेयता स्वीकार करते हैं तो आपके लिए मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय आदि भी करणीय हो जायेंगे? मित्रवर! विश्व व्यापकता की दुहाई देकर कहीं ऐसा नहीं करने लग जाना, नहीं तो उलटे लेने के देने पड़ जायँगे । - (३) विषय सेवन विश्व व्यापक है। देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी विषय में लुब्ध रहते हैं। केवल मनुष्यों में ही अँगुली पर गिनी जाय इतनी संख्या ऐसे महात्माओं की होगी जो विषय सेवन छोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हों । सिद्ध हुआ कि विषय Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ***************************************** २१ ********** सेवन विश्व व्यापक है। किन्तु सुन्दर सिद्धान्तानुसार विश्व व्यापकता के नाते यह भी उपादेय समझना चाहिए ? यहाँ तो सुन्दर मित्र भीतर से नहीं तो (?) ऊपर से तो जरूर कहेंगे कि नहीं, यह तो विश्व व्यापक होते हुए भी अनुपादेय - हेय - ही है । फिर विश्व व्यापकता की झूठी दुहाई देकर मूर्ति पूजा कैसे सिद्ध कर सकते हैं? महाशय ! आप स्वयं आगे चलकर क्या लिखते हैं, क्या इसका भी आपको भान है ? देखिये आपने ही इसी पोथे के पृ० २८६ में लिखा है कि - " जन संख्या अधिक होने से ही किसी मत की सत्यता नहीं कही जाती है। यदि ऐसा ही है तो मुसलमान धर्म को भी आपको सत्य मानना पड़ेगा, क्योंकि उसको तीस करोड़ मनुष्य मानते हैं। " कहिये मित्र ! आप ही के लेख से आप ही के सिद्धान्त का चकनाचूर हो गया न? और विश्व व्यापकता की मिथ्या ओट से मूर्त्ति पूजा की उपादेयता धूल में मिल गई न ? कहना नहीं होगा कि यद्यपि सुन्दर मित्र ने मूर्ति - पूजा के विश्व व्यापक होने की झूठी बात लिखी है, तथापि इन्हीं की दूसरी दलील से ये स्वयं असत्य भाषी ठहर चुके । आश्चर्य तो यह है कि ऐसी लचर दलीलों पर से ही सुन्दर मित्र कहते हैं कि "मूर्ति को नहीं मानना प्रकृति का खून करना है" समझ में नहीं आता कि सुन्दर मित्र ने ये वाक्य किस आशय से लिखें हैं। वैसे तो जैन मात्र प्रकृति का खून करना ही चाहेगा हम भी यही चाहते हैं कि शीघ्र ही जड़ प्रकृति का खून ( नाश) कर - “विहयरयमला” बन जावें । बिना आठ कर्म की विविध प्रकृतियों Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ क्या सदाचार आदि के लिए मूर्ति पूजा आवश्यक है ******************************************** का खून किये कोई भी मुक्ति नहीं पा सकता। सिद्ध प्रभु भी प्रकृति का खून करके ही शाश्वत सुख पा सके हैं। फिर हम प्रकृति का खून कर अनन्त सुखी बनें, यह तो ठीक और मन भावनी बात है। किन्तु सुन्दर आशय कुछ और ही दिखाई देता है। वे मूर्ति-पूजा को नहीं मानना स्व-पर अहित करना कहते होंगे? जो कि मिथ्या है, जिसका विवेचन आगे यथा स्थान किया जायगा। यहाँ तो हम इतना ही कहेंगे कि-जो मूर्ति-पूजा के प्रचारक हैं, वे कल्याण और मोक्ष के सुन्दर मार्ग का खून करने वाले-बाधक हैं, यह निःसन्देह है। ___ एक दृष्टि से सुन्दर शब्द साधुमार्गियों पर लागू ही नहीं होते क्योंकि सुन्दर सिद्धान्त मूर्ति नहीं मानना ही प्रकृति का खून करना बता रहे हैं। और हमारी समाज तो मूर्ति को मूर्ति मानती है। इसलिए हमारे विषय में ये शब्द लिखना बिलकुल व्यर्थ हो जाता है। क्या सदाचार आदि के लिये मूर्ति पूजा आवश्यक है? ___ श्री सुन्दरजी पृ० ३ पर लिखते हैं कि - "संसार में सदाचार, शांति, सुख और समृद्धि का मूल कारण केवल मूर्ति-पूजा ही है।" हद हो गई? अन्ध विश्वास के प्रवर्तक महोदय ने कमाल कर दिया??? सरासर झूठ लिखते हुए तनिक भी संकोच नहीं किया। जिस मूर्ति-पूजा के पीछे केवल जैन समाज के ही लाखों रुपये स्वाहा हो चुके, मानव हत्या का निंदनीय कार्य केशरिया तीर्थ में हुआ। शिथिलाचार और पाखण्ड का दौर दौरा हुआ। सदैव मूर्ति के Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************************************** दर्शन करने और तत्सम्बन्धी प्रचार करने वाले कितने ही साधु लोग प्रभु कथित चारित्र धर्म से गिरे हुए दिखाई देते हैं और समाचार पत्रों में जिनके लज्जा जनक समाचार छपते हैं तब सुन्दरजी के कथन की असत्यता में सन्देह ही क्या है? ____ अनेक मूर्ति-पूजक बन्धु सदैव मूर्ति-पूजा करते हुए भी नैतिक आचार से गिरे हुए पाये जाते हैं जो अनेक प्रकार की आधि व्याधि से अशांत और दुःखी दिखाई देते हैं। कितने ही लोग आर्थिक स्थिति के गिर जाने के कारण बड़ी कठिनाई से अपनी आजीविका चलाते हैं। फिर सुन्दरजी के उक्त शब्दों का मूल्य ही क्या रहता है? . यदि सुन्दरजी के कथनानुसार मूर्ति-पूजा ही सदाचार, शांति सुख और समृद्धि का कारण है तो फिर मैं उनसे पूछता हूँ कि महानुभाव मूर्ति-पूजक साधु जो कि सदैव मूर्ति के दर्शन-पूजा करते हैं और मूर्ति-पूजा का यथाशक्ति प्रचार भी करते हैं उनमें आपस में ही डंडेमार क्यों चलती है? मूर्ति के दर्शन करने वाले साधु गृहस्थों के बच्चे क्यों उड़ाते हैं? उन पर राज्य संस्था की ओर से वारंट क्यों जारी होते हैं? ऊंझा (गुजरात) में लक्ष्मण विजय* नामक साधु पर जुलाई १९३८ को न्यायाधीश ने दो महीने का कारावास या ५००) रुपये दंड क्यों किया? यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर हमसे लिया जाय तो केवल यही है कि ये लोग केवल मूर्ति के चक्कर में पड़कर सदाचार-साधु आचार-को भूल गये हैं। “शत्रुजय महात्म्य' नामक ग्रंथ में लिखा है कि "जिसने हत्या, चोरी, परदार-सेवन आदि दुष्कर्म किये हों तो इस पहाड़ पर आकर एक उपवास कर मूर्ति-पूजा करने से पापों का पिंड छुट जाता * वर्तमान आचार्य विजय लक्ष्मणसूरिजी - - ____ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ क्या सदाचार आदि के लिए मूर्त्ति पूजा आवश्यक है ************** न है और लिखा है कि तप जपादि करने की कोई आवश्यकता नहीं, पाप से डरने की ही जरूरत है, केवल शत्रुंजय का स्मरण किया कि सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । जिसने केवल बहुरूपिये की तरह साधु वेष पहिन लिया है ऐसे वेषधारी को भी शत्रुंजय पर्वत पर गौतम गणधर के समान समझो और उसका गौतम पात्र मिष्ठान्न से पूर्ण भरदो" इत्यादि । ************** ऐसे ही अन्धविश्वास और पाखण्ड प्रवर्त्तक ग्रन्थों की स्वाध्याय कर, और सुन्दरजी जैसे गुरुओं के मुख से ऐसी बातें सुन कर बेचारे भोले लोग भ्रम में पड़ जाते हैं । सोचते होंगे कि अब सदाचार आदि का काम ही क्या है? शत्रुंजय का स्मरण या वहाँ जाकर पूजा की कि बस सब पापों का नाश हो जायगा । इस तरह मूर्त्ति पूजा के खोटे चक्कर में पड़कर भद्र लोग सदाचार और शांति से हाथ धो बैठते हैं। और व्यर्थ के आस्रव सेवन आदि पापों से अपनी आत्मा को भारी बना लेते हैं। अतएव सिद्ध हुआ कि मूर्ति-पूजा के पीछे ही अन्धविश्वास में पड़कर लोग सदाचार शान्ति और सुख से वंचित रहते हैं । अतः मूर्त्ति पूजा सदाचार शान्ति और सुख की घातक होकर दुःख और पतन का कारण सिद्ध होती है। यदि साधारण तौर पर विचार किया जाय तो जितनी हत्यायें भारतवर्ष में मूर्त्ति पूजा की आड़ में हुई, और होती हैं, उतनी दूसरी तरह से नहीं । विषय विकार के पोषण में भी कभी-कभी कहीं-कहीं मूर्त्तियों के स्थान ही कारण रूप बन गये। मन्दिरों और मूर्तियों की श्रृंगार सामग्री - बहुमूल्य आभूषण आदि सम्पत्ति ही गिरे हुए लोगों को लुभा कर चोरी जैसे निंदनीय कार्य तक करने की प्रेरणा करती है। समाचार पत्रों के पाठकों से यह बात गुप्त नहीं है कि मन्दिरों में Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २५ 卒卒*****客家多多学多多学****字字字********字多多多多*** चोरियाँ होकर कितनी हानि होती है। चोर धातु की मूर्ति को ही उठा ले जाते हैं। अतएव सुन्दरजी का कथन निःसंदेह मिथ्या हैं। मिस्टर ज्ञानसुन्दरजी! आपने अपने उक्त शब्दों में "केवल" और “ही'' दो शब्द लगाकर अपनी बात को खूब दृढ़ किया कि बस “संसार भर में यदि सदाचार, शांति, सुख और समृद्धि का मूल कारण यदि कोई है तो एक मात्र मूर्ति-पूजा, अन्य कुछ नहीं। (हँसी आती है सुंदरजी की बालबुद्धि पर। आप मूर्ति के रङ्ग में ऐसे रङ्ग गये कि जिसके कारण अन्य सभी कल्याणकारी मार्गों पर ताला ही ठोक दिया। बिना प्रमाण या युक्ति के ऐसे मिथ्या अतिशयोक्ति भरे वाक्य लिख डालना सचमुच बाल चेष्टा ही है। यदि सुंदरजी मूर्ति-पूजा की भयङ्करता पर विचार करते तो उन्हें स्पष्ट दिखाई देता कि मानव जाति को धर्म के नाम पर पाखंड और अन्धविश्वास में ढकेलने के मुख्य कारणों में मूर्ति-पूजा भी है वह भी सबमें बढ़कर है। साधुता की घातक और चैत्यवाद आदि से शिथिलता की वर्द्धक भी यही सिद्ध हुई है। मूर्ति-पूजा के संस्कारों ने ही जैन मन्दिरों में अन्य भैरवादि की मूर्तियों को स्थान दिया है। और इसी के सहारे अन्य अधर्मी * लोग जैन समाज को लुटते हैं। राज्य + की ओर से भी जैन समाज चूसी जा रही है। आपसी xx . * केशरिया तीर्थ में पंडे लोग जैन समाज का पैसा हड़प कर लेते हैं। + पालिताना स्टेट प्रतिवर्ष ६००००) रूपये शत्रुञ्जय पहाड़ के कर के वसूल करती है, आबू पहाड़ पर भी टेक्स दिये बिना मूर्ति तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है। _xx दिगम्बर श्वेताम्बर के आपसी झगड़ों में लाखों का पानी हुआ,, और हो रहा है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साक्षात् और मूर्ति में अन्तर ********************************************** झगड़े और कलह कंकाश भी इसी के कारण होता है। व्यर्थ x के खर्चे भी यही करवाती है। इसलिए यदि आत्मकल्याण के इच्छुक सदाचार शान्ति और समृद्धि चाहते हैं तो उन्हें मूर्ति-पूजा से सर्वथा दूर रहना चाहिये। वास्तव में मूर्ति-पूजा सदाचार शान्ति सुख एवं समृद्धि की नाशक ही सिद्ध हुई है। सुंदर बंधु को उल्टा कथन करते कुछ सत्य का भी ध्यान रखना चाहिये। साक्षात् और मूर्ति में अन्तर श्री सुन्दरजी आगे (पृ० ४ में) लिखते हैं कि - “आप अपने मन-मन्दिर में निराकार ईश्वर की कल्पना करेंगे तो वह कल्पना भी साकारही होगी।जैसे कि तीर्थंकर अष्ट महा प्रतिहार विभूषित केवलज्ञानादि संयुक्त समवसरण में विराजकरदेशना देरहे हैं इत्यादि। अब आप स्वयं सोचिये कि-मन्दिर या मूर्ति मानने वाले आप की इस कल्पना से विशेष क्या करते हैं?" सुन्दर मित्र की उक्त वाक् छलना से बेचारे भोले लोग तो भ्रम में पड़ जाते हैं, किन्तु जिनमें थोड़ी भी विचार शक्ति है वह अवश्य इसके भेद को अच्छी तरह नाप सकते हैं। आश्चर्य तो यह है कि खुद सुंदरजी इतने वर्ष साधुमार्गी समाज में रहकर भी हमारे सिद्धांत से अनभिज्ञ रहे। क्योंकि साकार निराकार - प्रतिष्ठा, संघ निकालना, आदि कार्यों में लाखों रुपये व्यर्थ बरबाद होते हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २७ *****事*老***********京专家学会学李***************学学 का झगड़ा तो है ही नहीं। हम भी साकार तीर्थंकर प्रभु को ईश्वर मानते हैं। फिर व्यर्थ कागज काला करके सुंदरजी ने क्या लाभ उठाया? - सुंदर बुद्धि का एक चमत्कार और देखिये - आप अपने उक्त लेख में साकार तीर्थंकर को ही निराकार मानते हैं इसीसे आप निराकार की चर्चा करते-करते साकार में आ पड़े। इसके सिवाय सुंदर मित्र स्थापना और भाव का स्वरूप भी कदाचित् नहीं जानते होंगे? इसीसे ऐसी व्यर्थ की युक्ति लगा बैठे। क्योंकि स्थापना, मिट्टी, काष्ट, पाषाण, धातु, कागज और ऐसे ही . अन्य पदार्थों से बनाई जाती है, किन्तु कल्पना किसी वस्तु से नहीं बनाई जाती। साक्षात् तीर्थंकर प्रभु भाव स्वरूप हैं। उसी तरह साक्षात् की कल्पना-विचार-या भावना भी भाव स्वरूप ही है। स्थापना नहीं, क्योंकि इसका सम्बन्ध भाव से हैं। जिसका भावों से सम्बन्ध हो वह स्थापना नहीं हो सकती। यहाँ भावों से विचार करने वाला व्यक्ति अपने भावों में तीर्थंकर के भावों-गुणों का चिन्तन करता हुआ भाव-आराधना करता है। ऐसी सरल बात को भी तोड़मरोड़कर उल्टी पद्धति से जनता को दिखाना एक प्रकार से धोखा देना है। _ विचार करो कि किसी व्यक्ति ने श्री सुंदरजी को देखे हैं और उसका उनमें अनुराग भी है। कालान्तर में सुंदरजी की अनुपस्थिति में जब वह सुंदरजी को याद करेगा तब उसकी दृष्टि में इनकी आकृति दिखाई देगी तो क्या वह आकृति मात्र स्थापना निक्षेप में होगी? __मैंने अपने गुरुवर्य को धर्मोपदेश देते हुए देखे थे, अब जब कभी मुझे उनका स्मरण होता है, तब मेरी आँखों में वह सौम्य वदन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ साक्षात् और मूर्त्ति में अन्तर ***************************************** ****************** महात्मा धर्मोपदेश देते हुए दिखाई देते हैं। यह स्पष्ट रूप से भाव स्वरूप है। यदि कोई कहे कि देखी हुई वस्तु तो सरलता से स्मरण की जा सकती है किन्तु बिना देखी वस्तु की कल्पना करना असम्भव होता है इसलिए उसकी स्थापना होना आवश्यक है तो यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि जिस प्रकार बिना देखे ही कल्पना के आधार पर मूर्त्तियें बनाई गई हैं ( क्योंकि तीर्थंकरों का फोटू खींचकर उससे मूर्त्तियें बनाई गई हों, यह बात तो है ही नहीं) उसी प्रकार शास्त्रों से तीर्थंकरों के देह और गुणों का वर्णन जानकर उसका चिंतन किया जा सकता है। इस प्रकार भावों से किया हुआ चिंतन भी भाव देव की भक्ति में ही सम्मिलित है। इसलिये साक्षात् भाव निक्षेप प्रभु की कल्पना कर स्तुति करना भी भाव स्वरूप ही है। ऐसे सरल और भाव प्रदर्शक विषय को स्थापना में घसीट ले जाना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता । श्रीमान् सुन्दरजी कहते हैं कि "तुम कल्पना करते हो, हम मूर्ति बनाकर पूजते हैं। इसमें अधिक क्या हुआ ?" दया आती है इस बाल चेष्टा पर, आप इतना भी नहीं समझ सके कि भावों द्वारा भक्ति और स्थापना - मूर्त्ति पूजन में आकाश पाताल का सा अन्तर है। एक है शुद्ध प्रकाश, तो दूसरा है गाढ़ अन्धकार । एक में निरवद्य भक्ति होकर आत्मा हल्की होती है, तो दूसरे में व्यर्थ ही प्राणियों की हिंसा व पूज्य की आज्ञा भङ्ग रूप अपमान होकर आत्मा भारी होती है। भावरूपी भक्ति में किसी भी बाह्य वस्तु की अपेक्षा नहीं रहती, शुद्ध तन-मन से की जाती है, तब मूर्त्ति पूजा में अगणित त्रस और स्थावर जीवों की हत्या, व्यर्थ का द्रव्य व्यय और मिथ्या पाखंड रहता है । - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा. ******************本*** ******************** __सुन्दर मित्र यदि आप हमसे अधिक नहीं करते हैं तो बतलाइये, यह मूर्ति बनवाना, मन्दिर चुनवाना, प्रतिष्ठा करवाना, संघ निकालकर यात्रा करना आदि क्रियायें आप क्यों करते, करवाते हैं? क्या ये क्रियायें हमसे आप अधिक नहीं करते हैं? यदि आपकी दृष्टि में हमारी भाव रूप भक्ति और आपकी स्थापना भक्ति एक ही है तो फिर यही करिये, जिससे किसी प्रकार का झगड़ा भी नहीं रहे, न व्यर्थ का धर्म के नाम पर पाप हो, न जैन समाज की शक्ति ईंट चूना और पत्थरों में बरबाद हो! न श्रद्धा दूषित रहे और सभी जैन समाज प्रभु आज्ञा पालक बनें। सुन्दर मित्र ने भोलों को चक्कर में डालने के लिये अमावस्या और पूर्णिमा की तरह जड़ भक्ति और शुद्ध चैतन्य भक्ति को एक समान बता दिया, किन्तु जनता जानती है कि इसमे कितना अन्तर है ? जबकि मूर्तियों और मन्दिरों के कारण जैन समाज में भारी कलह मचा हुआ है। दिगम्बर श्वेताम्बरों के लाखों रुपये इनके हक और अधिकार के लिए स्वाहा हो चुके और हो रहे हैं। श्वेताम्बर मूर्ति पूजक लोग साधुमार्गी समाज पर इसी के कारण हमले करके प्रभु पथ को ठेस पहुँचाते रहते हैं। इन्हीं मन्दिरों और मूर्तियों के कारण विलासिता विकारी भाव और चोरी जैसे निंद्य कार्य बढ़ते हैं। ऐसी हानिकर पद्धति को किसी भी प्रकार की हानि से सर्वथा रहित आत्मबल प्रदाता कहना और भाव द्वारा भक्ति से समानता बतलाना कितना अन्धेर है? क्या यह सरासर दिन दहाड़े जनता की आँखों में धूल झोंकना नहीं हैं? स्पष्ट है कि भाव द्वारा भक्ति करने को मूर्तिपूजा के समान बतलाना सरासर झूठ हैं। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० **** मिथ्या प्रशंसा (७) मिथ्या प्रशंसा श्री० सुन्दरजी पुस्तक के प्रथम प्रकरण के अन्त में पृ० ११६ में मूर्त्ति पूजा की मिथ्या महिमा गाते हैं कि - " मूर्ति पूजकों ने संसार का जितना उपकार किया है उतना ही मूर्ति विरोधकों ने संसार का अपकार किया है । " ७ वाह ! क्या कहना ! अपने आप मियाँ मिट्ठ बनना इसे ही तो कहते हैं । वास्तव में जिस प्रकार बिना लगाम का घोड़ा उन्मार्ग गमन करता है, ठीक उसी प्रकार बिना विचारे प्रमाण शून्य बोलने और लिखने वाले भी उन्मार्ग- मिथ्या मार्ग पकड़ लेते हैं । सुन्दर मित्र ! सच पूछा जाय तो जितना पतन मूर्ति-पूजा के द्वारा मूर्ति पूजकों ने किया, उतना शायद ही किसी अन्य कारण से किसी ने किया हो ? १. जितना धन आज तक मन्दिर मूर्त्ति निर्माण करने में, मूर्तियों के बहुमूल्य आभूषण बनवाने में, मन्दिर मूर्त्ति के लिये झगड़े लड़ने में, संघ निकालकर यात्रा करने में और पहाड़ों के कर भरने में व्यर्थ खर्च हुआ है, उतना शायद ही किसी अन्य कार्यों में खर्च हुआ हो । यदि यही धन बचा रहता तो उससे सारा भारतवर्ष शिक्षित हो सकता, बेकारी का नाम भी नहीं रह सकता और इस धन के बहुत से हिस्से को महमूद गजनवी जैसे आक्रमणकारी लूट खसोटकर भारत को निर्बल बनाकर स्वयं सबल न हो सकते। अतएव भारत की आर्थिक स्थिति के गिरने में मूर्त्ति पूजा और इसके प्रवर्त्तक तथा भक्त भी प्रधान कारण हैं। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******************************************* २. मूर्ति-पूजा ही के कारण देवदासी जैसी भयङ्कर प्रथा का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रथा का कुछ असर जैनियों पर भी हुआ, और यहाँ तक कि जैनियों के बड़े आचार्य कहे जाने वाले गोविन्दाचार्य * तथा हेमचन्द्राचार्य ने मन्दिरों में नर्तकियों-वेश्याओं का नाच करवाया। वर्तमान में भी कहीं कहीं मन्दिरों में दैनियों की कन्याओं को नचाकर इसे भक्ति का रूप दिया जाता है। विक्रम सं० १९६३ में श्रीमान् विद्याविजयजी ने भी करांची में ऐसा किया था, ऐसा समाचार पत्र से मालूम हुआ था। इस प्रकार मूर्ति-पूजकों ने धर्म की ओट लेकर क्या-क्या ढङ्ग रचा, यह स्पष्ट दिखाई देता है। सुरिले वादिंत्र और गान तान के साथ नृत्य करवाकर मूर्ति-पूजक महानुभावों ने विषय विकार का पोषण ही किया है। ३. मन्दिरों और मूर्तियों के अधिकार के लिये मूर्ति-पूजकों ने मानव हत्या भी करवाई जिसका ज्वलंत उदाहरण केशरिया तीर्थ का हत्याकांड है। _____४. मन्दिरों और मूर्तियों की आड़ में प्रतिवर्ष हजारों प्राणी तलवार के घाट उतारे जाते हैं। और जैनियों में भी असंख्य त्रस तथा स्थावर जीवों की हिंसा प्रतिदिन प्रत्येक स्थान में होती है। इस हिंसा को भी धर्म का कारण मानकर मूर्ति-पूजक जैनियों ने सम्यक्त्व को दूषित किया है। ५. मूर्ति-पूजा ही के कारण जैन मुनियों में चारित्र सम्बन्धी शिथिलता फैली यहाँ तक कि उग्रविहारी मुनि भी मठाधीश बनकर वैभवशाली बन बैठे। इस विकार को नष्ट करने के लिए ही धर्मप्राण लोकाशाह को क्रांति मचानी पड़ी। आज भी बहुत से साधु अपना * देखो ‘प्रभावक' चरित्र तथा कुमारपाल चरित्र। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ************空********* ** श्रमण कर्त्तव्य-चारित्र-धर्म भूलकर मूर्ति-पूजा के कारण आरम्भ और आस्रव वर्द्धक उपदेश देकर आप्त आज्ञा का उलंघन करते हैं, जिसके कतिपय नमूने आगे दिये जायेंगे। इन मन्दिरों और मूर्तियों के कारण कई प्रकार के अनर्थ हुए हैं। मन्दिरों और मूर्तियों में रहे हुए धन वैभव के कारण अनार्य लोगों ने भारत पर चढ़ाई करके देश को बरबाद कर दिया, अछूतों की पशुओं से भी बदतर दशा कर डाली, इसी कारण से दिगम्बरों में अपने को उच्च समझने वाले लोग दस्सों को अछूत समझकर मन्दिरों में नहीं आने देते हैं। अन्धविश्वास और पाखण्ड प्रचार में मूर्ति-पूजा ही अग्रस्थान रखती है। अतएव संसार का जितना अपकार मूर्तिपूजकों ने किया, उतना दूसरों ने नहीं। और जिन सुधारक नेताओं ने मूर्ति-पूजा की भयंकरता देखकर इसका बहिष्कार किया, उन्होंने वास्तव में संसार का उपकार किया है, संसार को बड़ी भारी हानि से बचाने का प्रयत्न किया है। ऐसा करके उन्होंने धर्म के नाम से फैले हुए पाखण्ड का नाश कर धर्म सेवा देश सेवा और संसार सेवा का महान् लाभ प्राप्त किया है। ऐसे स्पष्ट हानि लाभ के कारणों को उल्टा बताने वाले सुन्दर मित्र कैसे सत्य वक्ता हैं? यह पाठक स्वयं समझलें। (८) शाश्वती प्रतिमाएँ और सूर्याभदेव सूत्रों में देवलोक की जिन प्रतिमाओं का वर्णन है, उनके शरीरों का भी वर्णन है, वे शाश्वती प्रतिमाएँ हैं, राज्याभिषेक प्रसङ्ग पर देवता उनकी पूजा करते हैं, यह पूजा पद्धति भी परम्परानुसार होती है। इस विषय का विशेष वर्णन उर्ध्वलोक सम्बन्धी "रायपसेणइय Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा 多多多多多多多多多多多多多多多多多字***麥麥麥本來平安本來來來來來來李李李李*本 सूत्र" और तिर्छ लोक सम्बन्धी “जीवाभिगम' सूत्र में मिलता है, जो भाई सामान्य बुद्धि वाले या गुरु गम बिना इन प्रकरणों को देखता है वह प्रायः भ्रम में पड़ जाता है, तथा मूर्ति-पूजक लोग भी ऐसे प्रकरणों को लेकर जनता में भ्रम फैलाया करते हैं। श्री ज्ञानसुन्दरजी ने अपने "मूर्ति-पूजा के प्राचीन इतिहास के प्रकरण ३ में शाश्वती मूर्तियों का वर्णन कर सूर्याभदेव की मूर्ति-पूजा का प्रमाण दिया है" और इस प्रकार मूर्ति-पूजा में धर्म होने और मूर्ति-पूजा भगवदाज्ञा युक्त होने पर जोर दिया है, किन्तु जो लोग समझदार हैं जिन्होंने गुरुओं के समीप सूत्रों का स्वाध्याय कर उनकी वास्तविकता को समझ लिया है? वे कभी भी इनके चक्कर में नहीं आते, यहाँ हम इसी विषय में कुछ विचार करते हैं। . श्री ज्ञानसुंदरजी के कथन में विचारणीय केवल तीन बाते हैं। १. देवलोक स्थित प्रतिमायें तीर्थंकरों की है। २. सूर्याभदेव ने मूर्ति पूजा की, इसलिए सभी को करना चाहिये। ३. मूर्तिपूजा जिनाज्ञा युक्त धर्मकरणी है। खास कर इन तीन बातों पर ही मतभेद है, यहाँ हम इन तीनों विषयों पर पृथक् २ विचार करते हैं। (१) देवलोक की प्रतिमाएं तीर्थंकर प्रतिमा नहीं है देवलोक की प्रतिमायें केवल “जिन प्रतिमायें" कहलाने से ही तीर्थंकर प्रतिमायें नहीं हो सकती, क्योंकि जिन शब्द के अनेक अर्थ हैं। आचार्यों और ग्रन्थकारों ने इतने अर्थ तो मान्य किये हैं। (१) (हिन्दी विश्वकोष पृ० ३०६ अष्टम भाग) ___ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ . शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ******************* ************************ जिन- (सं० पु०) जि-नक्-। १ जिनेन्द्र। ये अर्हत्, तीर्थंकर, सर्वज्ञ, जिनेश्वर, वीतराग, आप्त आदि नाम से प्रसिद्ध हैं। "तीर्थंकर" देखो। २ बुद्ध। ३ विष्णु। ४ सूर्य (त्रि०) ५ जित्वर, जीतने वाला। जिन- (अ० पु०) मुसलमान भूत “जिन्द'' देखो। (२) (अभिधान राजेन्द्र कोष पृ० १४५६ चतुर्थ भाग) जिन- पु०। जयति-निराकारोति राग द्वेषादिरूपा नरातीनिति जिनः। केवलिनि, विशे० । जिन्मः सामान्य केवलिनः । प्रज्ञा० १ पद। राग द्वेषादि शत्रु जेतारो जिना भवस्थ केवलिनः। पा०। चतुर्दशपूर्विणो जिनाश्च केवलिनः चतुर्दशपूर्विणश्च। उत्त० ५ अ० । गच्छा निर्गतसाधुविशेषे च। स्था० ३ ठा० । ऋषभादिके चतुर्विंशति संख्या के तीर्थंकरे च। सूत्र० १ श्रु० ६ अ०। जिनकल्पिकेच। “अक्खोब्भो होइ जिनचिएणो" जिनः श्रुतावधिमनः पर्याय केवल ज्ञान वन्तो जिन कल्पिकाश्च तैश्चीर्णः आचरितो जिन चीर्णः। पञ्चा० ४ विव० । “जिनवर वसहस्सवद्धमाणस्स" रागादिजयाजिनाः अवधिमनः-पर्यवोपशान्तमोहाः क्षीणमोहाः तेषां मध्येवराः प्रधानाः सामान्य केवलिनः । संथा० । “जिणाणं जावयाणं।" "जिनोऽर्हद् बुद्ध विष्णुषु" (हेमचन्द्राचार्य अनेकार्थ संग्रह २-३७८) अर्हन्तो (तीर्थकरो) पि जिनश्चैव, जिनः सामान्य केवली। कंदर्पोऽपि जिनश्चैव, जिनो नारायणो हरिः। (हैमी नाम माला) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ************* ** ********* * * ***** सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराज स्तथागतः । समन्तभद्रो भगवान्मारजिल्लोक जिजिनः । (अमरकोश) इसके सिवाय नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव-भेद से भी जिन चार प्रकार के हैं। कोशकार भी शब्दों के वही अर्थ देते हैं जिनका प्रयोग होता हो, या हुआ हो, बिना प्रयोग किये हुए अर्थ को वे देते ही नहीं। साहित्य में 'जिन' शब्द को 'अर्हत्' 'केवली' के सिवाय 'बुद्ध' 'विष्णु' (या नारायण) कंदर्प आदि अर्थों में भी लिया है अतः कोषकारों ने भी वे अर्थ किये हैं। इसलिए जिन शब्द का अर्थ केवल तीर्थंकर ही मानना उचित नहीं, किसी भी शब्द का अर्थ प्रकरण के भावों के अनुकूल किया जाए तो अनर्थ नहीं होता, नहीं तो महान् अनर्थ हो जाता है। प्रस्तुत विषय में वे जिन प्रतिमायें तीर्थंकर प्रतिमा नहीं मानी जाती, क्योंकि - (अ) वे शाश्वत हैं। (आ) उनके नेत्रों में लाल रेखायें हैं। (इ) उन्हें वस्त्र धारण कराये गये हैं। (ई) पूजन विधि सरागी देव जैसी है। (उ) शरीर वर्णन उल्टा है। (ऊ) आसपास की मूर्तियें भी साधु साध्वी की नहीं हैं। (ए) निर्धारित चार ही नाम दिये हैं। उक्त कारणों पर विस्तृत विचार किया जाता है - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ********************************************** (अ) मूर्तियों का शाश्वत पन अनन्त चौबीसी बीत गई, आज तक जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन सबका जन्म हुआ और निर्वाण भी हुआ, भविष्य में भी इसी प्रकार होगा, लाखों पूर्वो तक विद्यमान रहने पर भी जन्म और निर्वाण होता ही है, आज तक कोई शाश्वत नहीं रहा। शाश्वत वस्तु सदा, सर्वदा विद्यमान रहती है, उसकी न तो उत्पत्ति होती है और न नाश। तीर्थंकर तो अमुक नाम से जन्म लेते हैं, व निर्वाण को भी प्राप्त होते हैं, अतएव वे शाश्वत नहीं हो सकते। जब तीर्थंकर नाम रूप से शाश्वत नहीं होते, तब उनकी मूर्ति कैसे शाश्वत हो सकती है? सिद्ध हुआ कि देवलोक की चार नामवाली मूर्तिये शाश्वत होने से वे तीर्थंकर की नहीं है। (आ) अरुण-नेत्र आँखों की रक्तता या लाल रेखायें सरागियों के होती है, क्योंकि ये संसारी होकर काम-क्रोध युक्त होते हैं, यह तो सभी जानते हैं कि क्रोधी की आँखें लाल होती है, इधर "रायपसेणइय' और "जीवाभिगम" दोनों सूत्रों में “अंतो लोहियक्खपडिसेगाओ" कहा है जिसका अर्थ "लोहिताक्ष (लालरङ्ग की) रत्नमय आँखों की रेखायें हैं" ऐसा होता है और वीतरागी तीर्थंकर प्रभु के श्वेत नेत्र होते हैं, क्योंकि वे निर्वीकारी हैं, उववाई और रायपसेणइय इन दोनों सूत्रों में तीर्थंकर प्रभु महावीर के शरीर का वर्णन है, जिसमें उनकी आँखों के विषय में कोयासिय धवल पत्तलच्छे' अर्थात् उनकी “विकसित श्वेत कमल के समान श्वेत और पतली आँखें" लिखा है। इस प्रकार नेत्र सम्बन्धी विरुद्धता हार्दिक भावों की विरुद्धता प्रकट करती है, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा इसलिये “अरुण नेत्र' अर्थात् लालरेखायुक्त सराग भाव को बताने वाली ये प्रतिमायें तीर्थंकर की प्रतिमा नहीं मानी जा सकती। (इ) वस्त्र-परिधान जैनागमों में तीर्थंकर को वस्त्र रहित बतलाया है और सभी जैनी यह मानते हैं कि तीर्थंकर वस्त्र धारण नहीं करते। हाँ, दीक्षित होते समय इन्द्र प्रभु के कन्धे पर एक देवदूष्य वस्त्र रखता है। जो वैसा ही पड़ा रहता है, प्रभु उसे सम्हाल कर पहिनते नहीं, या गिर जाने पर उठाते भी नहीं, इस प्रकार सभी तीर्थंकरों के वस्त्र रहित रहने का कल्प है। जब तीर्थंकर प्रभु वस्त्र पहिनते ही नहीं, नग्न ही रहते हैं, और वस्त्र पहिनने वाले तीर्थंकर नहीं माने जाते, तब वस्त्र पहिनने वाली मूर्ति तीर्थंकर की किस तरह मानी जा सकती है। सूत्र "रायपसेणइय" और "जीवाभिगम' में स्पष्ट उल्लेख है कि - "देवदूसजुयलाई नियंसेई" अर्थात् “देव दूष्य वस्त्र पहिनाये" फिर ऐसी प्रतिमा तीर्थंकर की कैसे हो सकती है? इसके समाधान में "सुन्दर" मित्र कहते हैं कि - "प्रतिमा को वस्त्र पहिनाये नहीं, किन्तु चढ़ाये हैं। और साथ ही स्व० पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज पर आक्षेप भी कर बैठे हैं, देखिये सुन्दर मित्र का लेख - “सूत्र में वस्त्र चढ़ाना लिखा है पर ऋषिजी ने वस्त्र पहिनाये लिख दिया है पर यह लिखते समय इतना ही विचार नहीं किया कि गोशीर्षचन्दन का लेपन कर वस्त्र कैसे पहिनाये? ऐसा तो एक विवेकशून्य मनुष्य भी नहीं करते हैं तो वे महाविवेकी देव क्यों करेंगे। वास्तव में वस्त्र चढ़ाये अर्थात् अर्पण किये। जैसे आज भी पूजा . में वस्त्र अर्पण किया जाता है जिसको अङ्ग लुहने कहते हैं।" (पृ० ५६ का फुट नोट) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव *********************安********************** इस प्रकार सुन्दर मित्र ने बिना विचारे मनमें जो आया सो लिख डाला है किन्तु वास्तव में यह अज्ञानता प्रदर्शन ही है, क्योंकि सूत्र में स्पष्ट रूप से गोशीर्ष चन्दन का लेप करने के बाद ही वस्त्र पहिनाना लिखा है, सुन्दर मित्र "नियंसेई" शब्द का अर्थ चढ़ाना करते हैं पर स्वयं टीकाकार श्री मलयगिरि ने इस शब्द का अर्थ “परिधापयति" करके परिधान करवाना-पहिनाना-किया है और इन्हीं मूर्तिपूजक समाज के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् पं० बेचरदासजी भाषांतर करते हुए उक्त विषय में लिखते हैं कि - "देव दूष्य युगल पहेराव्यां" (रायपसेणइय सुत्त नो सार पृ० ६३) बस, हो गया निर्णय? यदि और भी अधिक स्पष्टीकरण चाहिए तो लीजिये, हम यह सिद्ध करते हैं कि गोशीर्ष चन्दन का लेप करने के बाद वस्त्र पहिनाना ही शास्त्र सम्मत है, देखिये - १. इसी रायपसेणइय सुत्त में सूर्याभदेव के वस्त्र परिधानाधिकार में निम्न मूल पाठ है - "तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणिय परिसोववन्नंगा अलंकारिय भंडं उवट्ठवेंति, तएणं से सूरियाभेदेव तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए सुरभीए गंधकासाईएगायाइंलूहेतिलूहित्ता सरसेणंगोसीस चंदणेणं गायाइंअणुलिंपतिअणुलिंपित्तानासानीसास वायबोज्झं चक्खुहरं वन्न फरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियन्ति कम्मं आगास फालिय समप्पभं दिव्वं देवदूस जुयलं नियंसेति' Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************************************* ___ उक्त मूल पाठ का भाषान्तर पं० बेचरदासजी पृ० ६१ में इस प्रकार करते हैं - “पछी तेना सामानिक सभ्य देवोए तेनी समक्ष त्यां बधी अलङ्कार सामग्री उपस्थित करी, पहेला तो न्हाएलो होवाथी तेणे सुकोमल अङ्ग लूछणा द्वारा पोतानां अङ्गों लूछयां, तेना उपर सरस गोशीर्ष चन्दन नो लेप को अने त्यारबाद एकज फूंके उड़ी शके तेवु घोड़ा नी लाल जेवू नरम, सुन्दर वर्ण अने स्पर्शवालुं अने जेने छेड़े सोनुं जड़ेलु छे तेवू स्फटिक जेवू उजलु धोलुं देवदूष्य युगल तेणे पहेर्यु।' ___इसके सिवाय १ आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी के दीक्षा उत्सव के वर्णन में, २-३ श्री जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में चक्रवर्ती भरतेश्वर महाराज के स्नान वस्त्रपरिधानाधिकार और प्रथम जिनेश्वर के निर्वाणाधिकार में, ४ उववाई सूत्र के सम्राट् कोणिक के स्नान के बाद वस्त्र पहिनने के वर्णन में और ५ ज्ञाता धर्मकथा अ० १ में, इत्यादि अनेक स्थानों पर यही वर्णन है कि गोशीर्ष चन्दन का लेप करने के बाद वस्त्र पहिने, और वस्त्र पहिनने में “नियंसेति" शब्द ही आया है। क्या अब भी सुन्दरजी की अज्ञता में कुछ सन्देह है? सुन्दर मित्र! देखिये मूर्ति को वस्त्र पहिनाना आपके श्री विजयानन्द सूरिजी भी स्वीकार करते हैं यथा - “जिस समय द्रोपदी ने जिन प्रतिमा की पूजा करी तिस समय में जिन प्रतिमा को वस्त्र पहिराने का रिवाज था सो हम मन्जूर करते (हिन्दी सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० १००) कहिये, महात्मन्! अब तो आपके मन की मुराद मिट्टी में मिली? जरा पहिले ही विचार से काम लिया होता तो सुज्ञ जनता में आपकी मूर्खता तो जाहिर नहीं होती? हैं Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ************* ***** *** . सुन्दर मित्र ! गोशीर्ष चन्दन का लेप शरीर को शांति पहुँचाने व शीतल रखने के कारण किया जाता था, यह कोई उबटन नहीं था जिसे धोकर साफ करने की जरूरत पड़े यदि इतना भी ज्ञान आप में होता तो आपका "ज्ञानसुन्दर” नाम निरर्थक सिद्ध नहीं होता । महदाश्चर्य तो इस बात का है कि श्री ज्ञानसुन्दरजी तो फिर भी मातृ भाषा के शुद्ध ज्ञान से रहित हैं इसलिए अपनी अज्ञता के कारण इनसे कोई मनकल्पित अनर्थ भी हो जाय, पर आगमोद्धारक, आचार्य देव कहाने वाले श्री सागरानन्दसूरिजी ने भी अपने वाजिंत्र सिद्ध चक्र पाक्षिक वर्ष ७ अंक ६ में सूर्याभ की मूर्ति पूजा का वर्णन करते हुए इस शब्द का अर्थ वस्त्र चढ़ाना लिखा है, और यही आचार्य • इस शब्द का जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति और आचारांग के पाठ देते हुए पहिनाना अर्थ करते हैं, क्या, पक्षान्धता की भी कोई सीमा है? यदि "नियंसेति" का अर्थ चढ़ाना ही हो तो इन लोगों को यह भी मानना चाहिये कि स्वयं सूर्याभ ने और भगवान् महावीर व भरतेश्वर कोणिक आदि ने भी वस्त्र नहीं पहिने पर अपने पैरों में चढ़ा लिये ? जबकि इन्हीं के मान्य टीकाकार मूर्ति को वस्त्र पहिनाना स्वीकार करते हैं तब ये आज कल के महान् आचार्य (?) पक्षपात के चक्कर में पड़कर इस प्रकार अनर्थ करने लग जायँ, यह कितनी हास्यजनक बात है ? इस प्रकार स्पष्ट सिद्ध हो गया कि सूर्याभ ने मूर्ति को वस्त्र पहिनाये थे और तीर्थंकर वस्त्र नहीं पहनते, अतएव यह प्रतिमा तीर्थंकर की नहीं है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ४१ (ई) पूजन-विधि ___ तीर्थंकर प्रभु पूर्ण त्यागी महापुरुष हैं, वे सचित्त तो ठीक पर अनावश्यक अचित्त वस्तु को भी नहीं छूते, उनकी पूजा मन वचन और शरीर से ही होती है, यदि कोई उन्हें अचित्त पानी से स्नान कराना चाहे, अक्षत चढ़ावें, द्रव्य भेंट करें, आभूषण पहिनाने का प्रयत्न करे तो वे कभी भी स्वीकार नहीं करते। यदि कोई अनजान होने से इस प्रकार की भक्ति करना चाहे तो वे उसे रोकते हैं। प्रभु स्वयं इस प्रकार की पूजा स्वीकार नहीं करते थे और उन जगदुपकारी प्रभु ने अपने साधु साध्वियों को किसी भी प्रकार की सचित्त वस्तु के छूने को मना किया है। यदि सुसाधुओं से अनजान अपने में ऐसा हो जाय तो मालूम होने पर वे प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होते हैं, जब शरीरधारी और साक्षात् प्रभु ही इस प्रकार की पूजा को स्वीकार नहीं करते, तो उनकी मूर्ति को तो ऐसी पूजा की जरूरत ही क्या? यदि शरीरधारी साधु जङ्गल में हों और प्यास के मारे उनके प्राण सुख रहे हों, तब भी वे प्राण देना स्वीकार कर लेंगे पर पास के सचित्त पानी से भरे हुए जलाशय से पानी नहीं लेंगे, ऐसी हालत में अचेतन-जड़-ऐसी तीर्थंकर मूर्ति के लिए तो ऐसी पूजा उचित हो कैसे हो? और सूर्याभ ने तो सरागी देवों की मूर्ति की तरह जल, फूल, अक्षत, धूप आदि से आरम्भ वर्द्धक पूजा की है, अतएव ये मूर्तियें तीर्थंकर की नहीं होनी चाहिये। यदि आप वर्तमान की तीर्थंकर मूर्ति की पूजा का उदाहरण देकर उन मूर्तियों को तीर्थंकर मूर्तिये कहें, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यह तो आपने शायद इसी कथानक का अनुकरण किया है। क्योंकि आप अपनी पूजा पद्धति में इन्हीं का प्रमाण देते हैं, इसलिये आपका कथन अनुचित और हमारी युक्ति न्याय सङ्गत है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव शरीर वर्णन में भिन्नता विश्वोपकारी महान् आत्माओं के शरीर का वर्णन शिख-नख अर्थात् मस्तक से लेकर पैरों तक क्रम से होता है और अन्य मनुष्यों का वर्णन “नख-शिख' अर्थात् पैरों से लगाकर मस्तक तक उल्टे क्रम से होता है। भगवान् महावीर के शरीर का वर्णन "उववाई" और "रायप्रसेणी" सूत्र में “शिख-नख” से हैं, किन्तु इन प्रतिमाओं का वर्णन "नख-शिख' से है, इसलिए ये प्रतिमायें तीर्थंकर की प्रतिमा नहीं मानी जातीं। प्रतिमा-परिवार तीर्थंकर प्रभु के गणधर, पूर्वधर, लब्धिधर आदि हजारों साधु और साध्वियों का परिवार होता है किन्तु नाग, भूत, यक्षादिकों का नहीं, और इन प्रतिमाओं के परिवार में (पास में) दो दो नाग भूत और यक्ष प्रतिमायें हैं, इसलिए भी ये प्रतिमायें तीर्थंकर की नहीं सिद्ध होतीं। यदि यहाँ यह कहा जाय कि इन प्रतिमाओं के सामने जो नाग भूतादि की प्रतिमा हैं वह सेवा में करबद्ध खड़ी हैं इससे इन जिन प्रतिमाओं का महत्त्व है तो यह भी अनुचित है क्योंकि तीर्थंकर प्रभु की सेवा में नाग भूतादि तो क्या वैमानिक देवों के बड़े-बड़े इन्द्र भी खड़े रहते हैं, तब इन मामूली (साधारण से साधारण) देवों का महत्त्व ही क्या? और सो भी सूर्याभ विमान में, स्वयं सूर्याभ से भी वे नाग भूतादि देव हल्की कोटि के हैं, तो वहाँ इनका महत्त्व कुछ भी नहीं है। वहाँ तो बड़े-बड़े इन्द्रों की प्रतिमा होनी चाहिये थी अतएव सिद्ध हुआ कि वे जिनप्रतिमाएँ तीर्थंकर प्रतिमायें नहीं हैं। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा नाम-निश्चितता तीर्थंकरों के लिए यह कोई नियम नहीं कि इनके अमुक अमुक नाम ही होना चाहिये, ये किसी भी नाम से हो सकते हैं। हाँ ये महापुरुष हैं इसलिये इनके नाम गुण निष्पन्न तो होते हैं। इधर देवलोक में जहाँ भी प्रतिमायें हैं वे सभी चार नामों की ही हैं, जहाँ १०८ प्रतिमायें हैं वे भी सिर्फ इन चार नामों की ही हैं। इससे भी यही सिद्ध होता है कि ये प्रतिमायें तीर्थंकर की नहीं है, क्योंकि तीर्थंकर तो २४ होते हैं और सभी भिन्न-भिन्न नाम के, फिर यहाँ चार ही नाम की मूर्तियें क्यों ? और ये नाम भी शाश्वत क्यों? इसके उत्तर में ज्ञानसुन्दरजी पृ० ४७ में लिखते हैं कि - "ये चार नाम शाश्वत हैं, हर एक चौबीसी में इन चार नाम के तीर्थंकर होते ही हैं इसीलिए देवलोक में इन चार नाम की ही प्रतिमायें हैं ।" इनकी उक्त तर्क भी मनगढ़त ही प्रतीत होती है, क्योंकि इसके लिए आपने कोई प्रमाण नहीं दिया न आज तक कहीं किसी आगम में ऐसा प्रमाण देखने में ही आया है, अतएव प्रमाण शून्य बात का मूल्य ही क्या ? दूसरा जब हम समवायांग सूत्र में भविष्यत् उत्सर्पिणी काल में होने वाले तीर्थंकर की पूरी नामावली देखते हैं तब उसमें तो इन ( ऋषभ वर्द्धमान, चन्द्रानन, वारिसेन) चार नामों में से एक भी नाम नहीं है फिर इनकी तर्क के मिथ्या होने में क्या न्यूनता है ? मैं सुन्दर मित्र से पूछता हूँ कि यदि किसी चौबीसी में २० - २२ या २३ तीर्थंकर हो चुके हों और उनमें उक्त चारों नाम में से एक भी नहीं हुए हों और २४ वें तीर्थंकर अवतार लेकर गृहस्थ वास में हो उनका नाम इन चार नामों से भिन्न हो तो क्या नाम भिन्नता के कारण ही वे तीर्थंकर होने से वंचित रह जायँगे ? नहीं ४३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ******** कदापि नहीं । यहाँ नाम धाम की कोई बाधा नहीं है, यह तो केवल मूर्ति मति महानुभावों का मतमोह ही है । अतएव विमानवासी देवों में और तिर्छे लोक में जहाँ भी जिन प्रतिमायें हैं वे सभी जगह अधिक संख्या में होते हुए भी केवल निर्धारित चारों नाम की होने के कारण तीर्थंकर की नहीं है, जबकि भविष्यत् उत्सर्पिणी काल में होने वाले २४ तीर्थंकरों की नामावली में इनमें से एक का भी नाम नहीं है तब सुन्दरजी की तर्क ठहर ही कैसे सकती है ? इतने विशद विचार से यह स्पष्ट हो गया कि देवलोक स्थित प्रतिमायें तीर्थंकर प्रतिमा नहीं है । ४४ (२) सूर्याभ साक्षी की अनुपादेयता सुन्दर बंधु ने मूर्ति पूजा में धर्म और इसे आगम आज्ञा युक्त ठहराने के लिए सूर्याभ की साक्षी देकर अपनी कमजोरी ही प्रकट की है, क्योंकि सूर्याभ देव का यह कार्य कोई धार्मिक कार्य नहीं किन्तु विमान सम्बन्धी संसार व्यवहार का कार्य है। संसार में रहा हुआ सम्यग्दृष्टि जीव सांसारिक व्यवहार का भी पालन करता है साधारण मनुष्य ही नहीं पर गृहस्थावस्था में रहे तीर्थंकर प्रभु भी अपने माता पिता को नमस्कार करते हैं, चक्रवर्ती पन में चक्ररत्नादि की पूजा और अन्य आवश्यक व्यवहारों का यथा समय पालन करते हैं, (साधु अवस्था में नहीं) इसी प्रकार सूर्याभदेव भी देवपने में उत्पन्न होने पर वहाँ के विमानगत परम्परानुसार चले आये आचार का पालन किया। इसमें धर्म मानने की कोई बात ही नहीं है । जिस प्रकार वर्तमान समय में देशी राज्यों के नरेश दशहरे के अवसर पर ढाल, तलवार, बन्दूक, तोप, घण्टा, नक्कारा, निशान Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा *水水 が 水氷水************* ******** (ध्वजा) हाथी, घोड़ा और मुख्यद्वार आदि की पूजा करते हैं। व्यापारी लोग दिवाली के अवसर पर कलम, दवात, बही, सुपारी के बनाये हुए गणेश और द्रव्य आदि की पूजा करते हैं, उसी प्रकार सूर्याभ देव ने भी अपने राज्याभिषेक के समय उन प्रतिमाओं और नाग, भूत, यक्ष प्रतिमाओं तथा द्वार, तोरण, नागदन्ता, बावड़ी आदि अनेक वस्तुओं की पूजा की है, इसी से स्पष्ट हो जाता है कि यह क्रिया धार्मिक नहीं है। यदि सूर्याभ के इस कृत्य को धार्मिक माना जाय तो बहुत सी बाधायें उत्पन्न होती हैं, जिसमें मुख्य यह है कि यदि मूर्ति पूजा में धर्म है तो बताइये द्वार, शाखा, तोरण, नागदन्ता, और बावड़ी आदि की पूजा में भी आपको धर्म मानना चाहिये भूत नागादि की मूर्तियों की पूजा को भी धर्म में सम्मिलित करना चाहिए, और तो और इस प्रकार मानने पर धर्म का महत्त्व कुछ भी नहीं रहेगा, बल्कि संसार के भैरव, भवानी, पीर, भूत यक्षादि की मूर्तियों का पूजना भी धर्म माना जायगा। इस प्रकार इतना अन्धेर खाता चलेगा कि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व में कुछ भी भेद नहीं रहेगा। .. ___यदि यह कहा जाय कि सूर्याभ देव ने जैसे मूर्ति की पूजा की है, वैसे अन्य वस्तुओं की पूजा नहीं की, अतएव अन्य मूर्तियों और वस्तुओं की पूजा में धर्म नहीं माना जा सकता तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि सूर्याभ ने और वस्तुओं की भी पानी, पुष्प, पुष्पमालायें और धूप से पूजा की है, इस बात को आपके टीकाकार भी स्वीकार करते हैं, देखिये - "चैत्यवृक्षस्य द्वार वदर्चनिकां करोति xxx पूर्वस्य मुखमण्डपस्य दक्षिण द्वारे पश्चिमस्तम्भ पंत्तयोत्तर पूर्वद्वारेषु क्रमेणोक्तरूपां पूजा विधाय।" Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ************************************** इस प्रकार सभी वस्तुओं की पूजा की जाना सिद्ध है। यदि आप उसे पूजा नहीं माने तो बताइये, सूर्याभ को उन वस्तुओं को पानी की धारा देने, चन्दन से अर्चने, फूल चढ़ाने, मालायें पहिनाने और धूप देने की क्या जरूरत थी? कहना नहीं होगा कि यह सब पूजा ही थी, अतएव इन वस्तुओं की पूजा में भी आपको धर्म मानना चाहिये। ___महानुभाव! सूर्याभ की यह सब क्रियायें राज्याभिषेक के समय वहाँ की परम्परानुसार जीत-व्यवहार को अदा करने की थी इससे धर्म मान लेना या धार्मिकता का रङ्ग चढ़ाना किसी प्रकार उचित नहीं है। ... श्री ज्ञानसुन्दरजी ने सूर्याभ की इस प्रतिमा पूजन को धार्मिक करणी बताने के लिए कुछ युक्तियें दी हैं। यहाँ हम संक्षिप्त में वे युक्तियाँ भी बता देते हैं। १. वे प्रतिमायें पद्मासन से ध्यानस्थ हैं इसलिए तीर्थंकर - प्रतिमायें हैं। २. सूर्याभ ने "नमुत्थुणं" के पाठ से उनकी स्तुति की अतएव ये मूर्तियें तीर्थंकर की थी। ३. इस पूजा का फल शास्त्रकार ने साक्षात् तीर्थंकर वन्दन संयम पालन के फल के बराबर हित, सुख यावत् मोक्ष तक कहा है। ४. जीताचार की करणी में भगवान् ने आज्ञा दी है। ५. सूर्याभ सम्यग्दृष्टि और भव्य है, अतएव उसकी मूर्ति पूजा उपादेय है। उक्त पाँचों युक्तियों पर निम्न विचार किया जाता है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४७ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा **** *************************学学** १. सुन्दर मित्र ने लिखा है कि "वे मूर्तियें पद्मासन से ध्यान लगाकर बैठी है अतएव ऐसी प्रतिमायें सिवाय तीर्थंकर के अन्य की नहीं हो सकती।" इस विषय में हमारा समाधान यह है कि सूत्र में कहीं भी नहीं लिखा कि “वे मूर्तिये ध्यानस्थ कायोत्सर्ग मुद्रा से बैठी है, सूत्र में तो सिर्फ पर्यङ्कासन से बैठने का ही वर्णन है, फिर बिना किसी आधार के सुन्दर मित्रजी ने “ध्यान लगाकर बैठी' ऐसा कैसे लिख मारा? दूसरी बात यह है कि आज भी अजैन मूर्तियें पर्यङ्कासन से बैठी हुई कई स्थानों पर मिलती है, वैष्णवों के कई मन्दिरों के ऊपर पर्यङ्कासन से उनके ऋषियों की मूर्तिये बैठी दिखाई देती है, इतना ही नहीं अजमेर के म्युजियम में तो एक प्राचीन बुद्ध मूर्ति पर्यङ्कासन से और वह भी कायोत्सर्ग मुद्रा से बैठी हुई है। फिर सुन्दरजी केवल पर्यंङ्कासन शब्द से ही उसे अर्हत् मूर्ति मान ले, और अपनी ओर से उसे ध्यान लगाकर बैठी हुई (पृ० ४६) बता दें, यह प्रत्यक्ष मत मोह नहीं तो क्या है? २. दूसरी युक्ति “नमुत्थुणं' विषयक है, इस विषय में यह समाधान है कि सूर्याभ ने मूर्ति की नमुत्थुणं से स्तुति नहीं की। प्रतिमा की स्तुति तो उसने १०८ गाथाओं द्वारा ही की, और फिर उस स्थान से ७-८ पांव पीछे हटकर नमुत्थुणं कहा, देखिये वह मूल पाठ : "अट्ठसय विसुद्धगन्थजुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहिं संथुणइ संथुणित्ता सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ पच्चोसक्कित्ता" आदि। स्पष्ट हुआ कि सूर्याभ ने मूर्ति की १०८ गाथाओं से स्तुति की और फिर वहाँ से पीछे हटकर बाद में "नमुत्थुणं' कहा, इससे यह Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ********************************************* समझना सरल है कि “नमुत्थुणं'' मूर्ति को नहीं पर सिद्धों को है। दूसरी बात-"नमुत्थुणं' जो कहा वह सिद्धों की स्तुति के लिये कहा*, उसके अन्तिम वाक्य में भी यही बात है कि “सिद्धिगइनाम धेयं ठाणं संपत्ताणं" इसलिये यह स्तुति सिद्धगति प्राप्त सिद्धों की ही की गई। और णमुत्थुणं जो है वह भाव तीर्थंकरों की स्तुति का भी पाठ है, प्रमाण में इनके मूर्ति-पूजक लेखकों के मन्तव्य देखिये "भाव जिनेश्वर नी स्तुति माटे कहेवाता शक्रस्तव मां योग मुद्रा राखवी।" (श्री सागरानन्द सूरिजी-सिद्ध-चक्र वर्ष ७ अङ्क ४ ता० २१-११-३८) “प्रचलित शक्रस्तव पर्यन्त ना पाठनो विषय विविध विशेषणो थी विभूषित एवी भाव अरिहंत प्रभुनी स्तुति छे'. अने एना पछी नी गाथा द्रव्य अरिहंत अने भाव अरिहंत नी वंदना रूप छ।" (प्रो० हीरालाल रसिकदास कापड़िया, "जैन सत्य प्रकाश" वर्ष २ अङ्क १२ पृ० ६०० का नमुत्थुणं ने अङ्गे शीर्षक लेख) अतएव सिद्ध हो गया कि "नमुत्थुणं जिनेश्वर की स्तुति है, और सूर्याभ देव ने इससे सिद्ध प्रभु-भाव जिनेश्वर-की ही स्तुति की है, स्थापना-मूर्ति की नहीं। ३. तीसरी युक्ति में सुन्दर मित्र ने लिखा है कि सूर्याभ की मूर्तिपूजा को शास्त्रकार ने हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी और मोक्षकारी होना बताई है। इसमें सुन्दरमित्रजी भोले भाइयों की आँखों में धूल डालने का प्रयत्न करते हुए लिखते हैं कि - "सूर्याभ के इन प्रश्नों के उत्तर में शास्त्रकार फरमाते हैं कि'- (पृ० ६१) * नमुत्थुणं को शक्रस्तव भी कहते हैं। tional Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा *******中中中中中中中中中中***************************** बस इसी में इन महानुभाव की चालाकी है। इस एक लाइन में इन महात्मा ने “शास्त्रकार" यह शब्द अज्ञों की आँखों और हृदय पट पर धूल डालने के कुविचार से रक्खा है, क्योंकि सूर्याभ का उत्तर शास्त्रकार ने नहीं, बल्कि उसी की सामान्य परिषद् के देवों ने दिया है। सुन्दर साहब की इस चतुराई (?) का मुख्य कारण यही है कि यह फल देवों के मुख से नहीं होकर शास्त्रकार के ही मुख से होना बताया जायगा, तो फिर किसी को कुछ कहने की जगह ही नहीं रहेगी। हां, सुन्दरजी! साधु कहाकर भी कुटिलता से बाज नहीं आये। इसके सिवाय सुन्दर मित्र ने इस कुटिलता को जनता के हृदय में ठीक तरह से जमा देने के उद्देश्य से एक कोष्टक बनाकर मूर्ति-पूजा, तीर्थंकर वन्दन और संयम पालन तीनों का एक समान फल होना शास्त्र सम्मत बताया है। यहाँ हम इनके इस कुचक्र का छेदन करने के लिये उसी प्रकार का शास्त्र सम्मत एक कोष्टक बनाकर जनता के सामने रखते हैं मूल की तीर्थंकर वंदन फल | संयम पालन फल धन रक्षा फल | मूर्ति-पूजा फल एयेणं पेच्च भवेय |हियं, सुहं, खमं, | पच्छा पुराए । हियाए, सुहाए, णिस्सेयसं अणु | वि हियाए सुहाए खेमाए, णिस्सेयसाए | गामियं खेमाए निस्से- | खमाए निस्सेअणुगामियत्ताए यसाए अणुगा- | यसाए आणुगाभविस्सई। मियत्ताए भवि- मित्तयाए भविस्सई। स्सति। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ***************************************** अनुवाद इस भव और पर- |हित कर्ता, सुख | पीछे और पहिले पहले व पीछे .. भव में हित कर्ता, | कर्ता, क्षेम कर्ता, | हित कारी, हितकारी सुखकारी सुख कर्ता, क्षेम कल्याण कर्ता, | सुखकारी, क्षेम-| क्षेमकारी कर्ता, कल्याण मोक्षकर्ता साथ | कारी, कल्याण- कल्याणकारी व कर्ता, मोक्ष कर्ता, | आने वाला होता | कारी मोक्षकारी | साथ आने और साथ आने | है। (आचारांग | साथ आने वाला होता वाला होगा। जन | अ०८ आप्त कथित) वाला होता है। | है। (रायप्रसेणी समूह से कहा हुआ भगवती श.२-१/ देव वचन और सूत्रकार से स्कन्दक वचन | आप्त आज्ञा सम्मत द्वारा धनलोभी | रहित) (उत्त० अ०२६) की भावना।) पाठक सुन्दरजी के दिये हुए कोष्टक और हमारे इस कोष्टक को मिलाकर देखेंगे तो इसमें रहा हुआ भेद स्पष्ट मालूम हो सकेगा। हमारे उक्त कोष्टक से पाठक सहज ही में समझ जायँगे कि प्रभुवन्दन और चारित्र पालन का फल हित-सुख क्षेम और मोक्षकर स्वयं सर्वज्ञ प्रभु ने बतलाया और शास्त्रकारों ने सूत्र रूप ग्रहण किया किन्तु जिस प्रकार धन रक्षा का फल सूत्रकार की ओर से नहीं पर धनलोभी-द्रव्यासक्त-प्राणी की स्वतंत्र मान्यता बताई है। उसी प्रकार मूर्ति पूजा का फल भी सूत्रकार की ओर से नहीं होकर सामान्य परिषद् के देवों का है। सो भी इहलौकिक शांति के लिये न कि पारलौकिक आत्मकल्याणार्थ! जिस प्रकार वर्तमान समय में जन्मोत्सव, विवाहोत्सव, या विदेश गमन के समय कितने ही देशों में भावि शांति के लिये-निर्विघ्न कार्य पूर्ण रोने की भावना से-देव पूजा की Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ५१ ****************************学学************ जाती है। व्यापारी व्यापार प्रारंभ करते समय शुभ मुहूर्त देखकर भावि लाभ की आशा से सांसारिक देवों को मनाते हैं। उसी प्रकार सूर्याभ ने भी अपनी उत्पत्ति के बाद अपनी आधीनता में रहे हुए देव, देवी, विमान आदि पर निष्कण्टक अधिकार बनाये रखने व जीवन लीला को सुखपूर्वक चलाने आदि की भावना से पूर्व परम्परागत आचार के अनुसार क्रिया की, उसी के लिए प्रश्न किये और उसी के उसे हित-सुख आदि शब्दों में उत्तर मिले यह बिलकुल सहज है। देवों ने जो भी हित सुखादि फल बताये हैं वे केवल सांसारिक दृष्टि से ही हैं, न कि धार्मिक विचार से। ऐसे सीधे व सरल प्रकरण को जबरदस्ती अपनी मान्यता की युक्ति में घसीटना केवल पक्षपात पूर्ण हृदय का काम है। यदि सुज्ञ पाठक ध्यान पूर्वक इस विषय के मूल पाठ को देखेंगे तो उन्हें मालूम होगा कि मूल पाठ से ही इसका समाधान हो सकता है। धन रक्षा और मूर्ति-पूजा के फल में पहले व पीछे हित-सुखकर आदि जितने कल्याणकर शब्द आये हैं और प्रभु वंदन विषय में पेच्चपरभव-भावी जन्म-में सुखकर हितकर शब्द आये हैं, इसी (पच्छा और पेच्चा) अर्थात् “पीछे और परभव' शब्द से ही यह विषय स्पष्ट हो जाता है। धन रक्षा और मूर्ति पूजा फल के लिए “पच्छा" शब्द है, इससे मतलब आज से पीछे इसी जन्म तक से है, अर्थात् धनरक्षा से आज से जन्म पर्यन्त हित सुख अर्थात् आनन्द मिलता है, उसी प्रकार मूर्ति पूजा से भी आज से पीछे इह जन्म पर्यंत हित सुख अर्थात् निर्विघ्न रूप आनन्द मिल सकता है। और तीर्थंकर वंदन से तो “पेच्चा" अर्थात् परभव में भी आनन्द मिलता है। परभव में आनन्द तभी मिलेगा जब आत्मा ने कल्याणकारी कृत्य किये हों। बस ___ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ***************** *** ********** स्पष्ट है कि जिस प्रकार तीर्थंकर वंदन और चारित्र पालन का फल परभव में कल्याणकारी है उसी प्रकार धन रक्षा या मूर्ति पूजा का फल नहीं । यद्यपि सुज्ञ जनों के लिए हमारा इतना समझाना ही पर्याप्त है फिर भी सुन्दरजी की चतुराई को चूर-चूर करने के लिए यहां इन्हीं के अभिमत कुछ प्रमाण दे दिये जाते हैं जिससे किसी को कुछ शङ्का करने की जगह ही न रहे। सुन्दर मित्र ने मूर्ति पूजा और चारित्र का फल बिलकुल समान ही बताया है, किन्तु सुन्दर संमत ( मूर्ति पूजक) ग्रन्थकार ही इनके उक्त कथन से सर्वथा विरोधी हैं, देखिये निम्न प्रमाण - " दव्वथओ भावथओ, दव्वथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ । अनिउण मइवयणमिणं, छज्जीवहिअं जिणा विंति ॥ १६२ ॥ छज्जीवकाय संजमु दव्वथए सो विरुज्झई कसिणो । तो कसिण संजम विऊ पुप्फाइं न इच्छति ॥ १६३॥ अर्थ - द्रव्यस्तव और भावस्तव यदि ऐसा कहा जाय कि द्रव्य स्तव बहुत गुणवाला है तो यह कथन बुद्धि की अनिपुणता ( बुद्धिमंदता ) ही जाहिर करता है, क्योंकि तीर्थंकर महाराज छह काय जीवों के हित को कहते हैं और छह काय जीवों की रक्षा द्रव्यस्तव में सम्पूर्ण रुद्ध होती है, इसलिए सम्पूर्ण संयम के जानकार मुनि पुष्पादि को नहीं चाहते ।। १६२-१६३ ।। (आवश्यक हारिभद्रीय चतुर्विंशतिस्तव) यहाँ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने द्रव्यस्तव मूर्त्ति पूजा को संयम विरोधिनी बताकर ऐसी प्ररूपणा करने वाले को मंद बुद्धि कहा है 'और देखिये - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ५३ 李************ ***********本本来水水******* लाखमां अंशे पण नथी आवतुं अने तेथी तेवी पूजा आदि ने छोड़ी ने पण भाव धर्म रूपी चारित्र अङ्गीकार करवामां आवेछ।" (श्री० सागरानन्द सूरिजी-दीक्षानुं सुंदर स्वरूप पृ० १४७) इसके सिवाय महानिशीथकार ने भी मूर्ति पूजा का निषेध कर चारित्र पालन पर जोर दिया है यहाँ तक कहा है कि - चारित्रवान् साधु मन्दिर पर पाँव भी नहीं दे। अब इतने पुष्ट प्रमाणों पर से सुन्दर मित्र से पूछते हैं कि - महात्मन्! क्या अब भी आपका अज्ञान दूर नहीं हुआ? क्या अब भी आप मूर्ति पूजा और चारित्र पालन को एक ही कोटि में रक्खेंगे? जबकि स्वयं मूर्ति पूजक आचार्य चारित्रपालन के सामने मूर्ति पूजा को एकदम तुच्छ गिनते हैं तब आप ही बताइये कि आपका कथन सत्य या आपके विद्वान् आचार्यों का? यदि आपकी मान्यतानुसार जो फल मूर्ति पूजा का है वही संयम पालन का हो तो फिर सर्व त्यागी होकर साधु बनने की आवश्यकता ही क्या है? स्पष्ट हुआ कि मूर्ति पूजा का फल मोक्ष नहीं है, न ऐसा शास्त्रकार का ही कथन है, हाँ यह सुंदर हृदयी सुंदरजी की चालाकी युक्त प्रपञ्च जाल तो अवश्य है। सुंदर बन्धु यदि इसी हियाए सुहाए आदि पाठ पर टीकाकार का मत भी देख लेते तो शायद इस प्रकार का साहस नहीं करते, इस पाठ के विषय में टीकाकार स्पष्ट लिखते हैं कि - "इह प्राक्तनो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वः भूयानपि च पुस्तकेषु वाचना भेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति क्वापि सुगमोऽपि यथावस्थित वाचनाक्रम प्रदर्शनार्थ लिखितः।" ___ इसी विषय में भाषांतरकार पं० बेचरदासजी दोसी पृ० ८८ के फुटनोट ८७ में लिखते हैं कि - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव *************** * ************* * ___ "टीकाकार लखे छे के “आस्थले पुस्तकों मां घणोय वाचना भेद-पाठ भेद छे अने तेमानो केटलोक तो प्राय: अपूर्व छे, ते थी शिष्यों ने सन्मोह तो थवानो पण ए नथाए ते माटे अहिं एक सुगम पाठ अमे आपेलो छे' मारी समज मां फेर न होय तो जे हकीकत ने आश्री ने जैन समाज मां मोटो मतभेद प्रवर्ते छे ते हकीकत ने लगतो आ पाठ भेद लागे छे, आ पाठ भेद बाबत खूब विचारी ने तत्व शोध थाय तोज जैन समाज मां शांति प्रवर्ते ए ध्यान मा राखवानुं छे।" मित्र! समझ गये टीकाकार के आशय को? वे कहते हैं कि यहां (हियाए सुहाए आदि पाठ में) पाठ भेद बहुत हैं, जिससे शिष्यों को सन्देह होगा, इसलिए यहां हम सुगम पाठ रखते हैं, और आप ही की मूर्ति पूजक समाज के विद्वान् भाषांतरकार पं० बेचरदासजी इसी पर से कहते हैं कि जैन समाज में भारी मतभेद चल रहा है। जिस पाठ को ही आपके टीकाकार महाराज सन्देह जन्य बता रहे हैं उसी पर आपका उछल कूद मचाना और वह भी एकदम उन्मार्ग की ओर यह कहाँ तक उचित है? विज्ञ पाठक समझ गये होंगे कि सुन्दर मित्र की युक्ति केवल भोली जनता को भ्रम में फंसाने की प्रपञ्च जाल मात्र है। ४. सुन्दर मित्र ने एक युक्ति यह भी पेश की है कि “जब आप सूर्याभ की मूर्ति पूजा को जीताचार कहते हैं तो जीताचार के लिए तो भगवान् ने स्वयं सूर्याभ को आज्ञा दी हैं, इस हेतु से मूर्ति पूजा में प्रभु आज्ञा पालन रूप धर्म है ही" इसके समाधान में हमारा कथन है कि - जब सूर्याभ प्रभु महावीर की सेवा में उपस्थित होकर अपना नाम, गोत्र सुनाकर वन्दन नमस्कार करता है। इनके उत्तर में प्रभु फरमाते हैं कि हे सूर्याभ! यह तुम्हारा पुराना जीताचार है यावत् Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ५५ ***************************************** भवनपत्यादि के देव अरिहंतो को वन्दन नमस्कार कर अपने नाम गोत्र सुनाते हैं आदि, इसमें प्रभु ने केवल वन्दन नमस्कार और नाम गोत्र सुनाने को जीताचार कहा है और इसी की आज्ञा प्रदान की है, न कि मूर्ति पूजा रूप सांसारिक जीताचार की। जीताचार भी दो प्रकार के होते हैं, १. सांसारिक और २. धार्मिक सूर्याभ का मूर्ति पूजा रूपी जीताचार सांसारिक हैं, इसमें प्रभु की आज्ञा है ही नहीं, यदि इसमें भी आप प्रभु आज्ञा मानेंगे तो प्रभु आज्ञा और धर्म अधर्म में कुछ भी अन्तर नहीं रहेगा, क्योंकि सूर्याभ ने तो जीताचारानुसार नाग भूतादि की प्रतिमा, बावड़ी, नागदन्ता द्वार और ध्वजा आदि की भी जल, फूल, चन्दन और धूप से पूजा की है फिर यह भी धार्मिक जीताचार में माना जायगा। अतएव सांसारिक जीताचार को धार्मिकता का रूप देना और वन्दन नमस्कार तथा नाम गोत्र उच्चारण रूप धार्मिक जीताचार की अनुमति में इसे घसीट लेना शुद्ध हृदयी सुज्ञों का कार्य नहीं है। श्री सुंदरजी मूर्ति मोह में इतने मस्त हो गये कि सत्यासत्य का भान ही गंवा बैठे, आप पृ० ५६ में लिखते हैं कि - "जिन प्रतिमा की द्रव्य भाव पूजा कर सूर्याभ भगवान् महावीर देव को वन्दन करने को जाता है।" सुन्दरजी का मतलब है कि - मूर्ति पूजा के साथ ही सूर्याभ प्रभु वंदन को जाता है किन्तु यह कथन बिलकुल मिथ्या है। पूजा तो जन्मे बाद ही की थी और वन्दन नमस्कार तो उसके बाद कालांतर में किया, इससे उसका क्या सम्बन्ध? और सूत्र में वन्दन नमस्कार का वर्णन तो पहले आया, और पूजा का बहुत आगे बढ़ कर आया है, फिर एक से दूसरे का सम्बन्ध ही क्या? क्या इसमें भी कोई सुन्दर रहस्य है? Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव *************************************** ५. सुन्दर मित्र ने एक युक्ति यह दी है, कि “सूर्याभ देव सम्यग्दृष्टि और भव्य है और सम्यग्दृष्टि अन्य देव को पूजते नहीं इसलिए उसकी मूर्ति पूजा उपादेय है" यह कथन भी बिना सोचे समझे हैं क्योंकि सांसारिक व्यवहार पालने से धार्मिकता में कोई बाधा नहीं है, संसार में रहा हुआ सम्यक्त्व को शुद्ध रख सकता है, जबकि आपके कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य साधु दशा में रहे हुए भी शिव-शंकर-जैसे अजैन देव की मूर्ति की स्तुति कर सकें, अविरति देवों का स्मरण-ध्यान और आराधन कर सकें, रात्रि को स्थान छोड़कर बाहर जाकर देव देवियों को बलि दे सकें, साधु साध्वी दिन में दो दो बार अविरति देवों की स्तुति कर सकें, तो गृहस्थ सम्यक्त्वी किसी विशेष परिस्थिति में संसार व्यवहार के अदा करने के लिए मिथ्यात्वी देवों का लौकिक अर्थ पूजनादि करे तो इसमें सम्यक्त्व को क्या बाधा है? और देवलोक में सभी देव तो सम्यक्त्वी है ही नहीं, जैसे यहाँ कई मत के मनुष्य रहते हैं वैसे देवलोक में भी कई मत के देव रहते हैं, और स्वर्ग में प्रतिमायें तो केवल ये चार प्रकार की ही हैं जिसे सभी देवता पूजते होंगे, इससे भी यही सिद्ध होता है कि इन प्रतिमाओं का पूजना धार्मिक दृष्टि से नहीं है, धार्मिक दृष्टि से हो तो फिर मिथ्या दृष्टि देव उन्हें क्यों पूजने लगें? इसलिए सूर्याभ का यह कृत्य लौकिक उद्देश्य से है, और लौकिक आवश्यक व्यवहारों का पालन करता हुआ भी शुद्ध श्रद्धा वाला गृहस्थ अपनी सम्यक्त्व को निर्मल रख सकता है। अतएव यह युक्ति भी कुयुक्ति ही सिद्ध हुई। इस प्रकार सूर्याभ देव का उदाहरण जनता के सामने रखकर उन्हें मूर्ति पूजा में फंसाना ठीक नहीं है। मूर्ति पूजा धर्म व आत्मकल्याण Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा **: का अङ्ग नहीं है, न इसके लिए प्रामाणिक सूत्रों में प्रभु आज्ञा है फिर खाली कथाओं की ओट लेकर मनमाने आशय जोड़कर वितंडावाद फैलाना सुज्ञजनों और आत्मार्थियों का कार्य नहीं है। सूर्याभ साक्षी के लिए मूर्ति पूजक समाज के श्री हुकुममुनिजी भी आपसे असहमत हैं, देखिये “जे लोको सुरीआभ देव नो तथा ध्रुपदी (द्रौपदी, ले०) प्रमुखनों अधिकार देखाडीये छीयें परन्तु ते करणीमां विचार घणो छे शामाटे के बिजे देवता प्रमुख घणा देवे, पूजा देवपणे उपन्या ते वखत करी छे, पण तेने भगवाने समकिति कहया नथी, ते तो मिथ्यात्वी छे, अने ते देव नवा उपने एटले सर्वे पुजा करे एवं सूत्र जोतां मालुम पड़े छे, परन्तु कंइ समकिती मिथ्यात्वी नो नियम रह्यो नथी, तेम कंइ फरीथी पूजा करवानो अधिकार कोई ने छे नहिं ।" ५७ (अध्यात्म प्रकरण अन्तर्गत तत्त्वसारोद्धार पृ० ४१० ) इसके सिवाय मूर्ति पूजक प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् पं० बेचरदासजी दोशी, अपने " रायपसेणइय सुत्त” प्रवेशक के पृ० २१ लखते हैं "हुं समजुं छं त्यां सुधी आ सूत्र नो स्वाध्याय करनारे राजा पएसी चित्त शुद्धीकरण ने ज ध्यान मां राखवानुं छे, ए सिवाय धर्म ने नामे hair वधे रीते ए सूत्र नो उपयोग करवो घटित लागतो नथी । " मूर्ति पूजक समाज के एक प्रसिद्ध विद्वान् का भी जब यह मत है और वे भी राजा प्रदेशी के आत्म कल्याण को ही लक्षित करने का कहते हैं, जिसका आशय बिलकुल स्पष्ट है कि - जिस प्रकार प्रदेशी राजा ने धार्मिक जीवन में प्रवेश कर व्रत, नियम, तप, स्वाध्याय, क्षमा, अनासक्ति आदि द्वारा आत्म कल्याण किया और पूर्व के निविड़ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाई ५८ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव **李孝容***************李李李***安*****学举** कर्म वृन्दों का छेदन कर एका भवतारी हुआ, उसी प्रकार सबको करना चाहिये किन्तु सुन्दर मित्र मूर्ति के चक्कर में पड़कर कुछ और ही मतलब निकालते हैं, देखिये - ___"अहा! अहा!! नरभव में प्रदेशी राजा की दृढ़ श्रद्धा और अटूट क्षमा। बाद प्रदेशी राजा का जीव देवलोक में सूर्याभदेवपने उत्पन्न होता है और उत्पन्न होते ही कैसी भावना? मुझे पहले क्या करना चाहिए? पीछे क्या करना चाहिये।" आदि ... सुन्दरजी सूर्याभ देव की इस भावना के उद्भव होने के कारण धर्म बताकर उससे मूर्ति पूजा में धर्म बतलाना चाहते हैं, किन्तु सुन्दर मित्रजी को यह मालूम नहीं है कि - तत्काल के उत्पन्न हुए सूर्याभ ने अपनी स्थिति के योग्य कार्य करने का मार्ग ढूंढने को यह विचार किया है, वास्तव में नूतन परिस्थिति उत्पन्न होने पर सभी लोग यही सोचते हैं कि हमें यहाँ क्या करना चाहिये? पहले व पीछे हमें क्या हितकारी, सुखकारी होगा? इसी तरह सूर्याभ ने भी जन्म लेते - सज्ञान होते, यह विचार किया कि मुझे यहाँ पहले क्या करना चाहिये, और पीछे क्या? पहले व पीछे क्या हितकर सुखकर होगा? इस प्रकार की परिस्थिति में मार्ग निकालने के विचारों को भी सुन्दर मित्र धर्म का परिणाम बता कर, देवताओं के कहने से परम्परानुसार की हुई पूजा को धर्म मनवाने का प्रयत्न करते हैं यही तो महदाश्चर्य है? क्या सुन्दरजी? आप यह बतलाने का कष्ट स्वीकारेंगे कि प्रदेशी राजा ने अपने धार्मिक जीवन में कभी मूर्ति पूजा की थी या कभी मूर्ति के दर्शन भी किये थे? आप क्या आपके अनेकों विद्वान् आचार्य भी नही। बता सकते, क्योंकि जब मूल में ही नहीं तो लावें कहाँ से ? जब सूर्याभ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ******** के पूर्व भव प्रदेशी राजा के जन्म में की हुई धर्म करणी ( कि जिसके प्रभाव से महान् पापों का नाश कर सूर्याभदेव पने उत्पन्न हुआ है) में मूर्ति पूजा का नाम ही नहीं है, तब उसका विचार वो सूर्याभ पने उत्पन्न होने पर क्यों करने लगा ? यदि एक इसी विषय पर ठंडे हृदय से विचार किया जाय तो सहज ही में यह मालूम हो सकेगा कि सूर्याभ के इन विचारों से धार्मिकता का कोई सम्बन्ध नहीं, पर नूतन परिस्थिति में अपने योग्य आवश्यक कार्य क्षेत्र ढूंढने की भावना है। पूर्व भव की धर्म करणी में मूर्ति पूजा को नाम मात्र भी स्थान नहीं होने से उसको उसके संस्कार भी नहीं है। अतएव सूर्याभ के इस कृत्य को आप ही के श्री हुकुममुनिजी के मन्तव्यानुसार लौकिक कृत्य मानकर मिथ्या हठ को छोड़ देना चाहिये । उभय मान्य आगमों में मूर्त्ति पूजा की कहीं भी प्रभु आज्ञा नहीं है, न किसी प्रामाणिक श्रावक या साधु के जीवन इतिहास में ऐसा उल्लेख है, फिर खाली कथाओं की और वह भी मिथ्या ओट लेने में लाभ ही क्या है? (३) मूर्ति-पूजा और जिनाज्ञा उक्त प्रकार से सूर्याभ सम्बन्धी सभी युक्ति व तर्कों पर विचार करने के पश्चात् हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यदि थोड़ी देर के लिए हमारे सुन्दर मित्र के कथनानुसार देवलोक स्थित प्रतिमाओं को तीर्थंकर प्रतिमायें भी मानलें तब भी किसी प्रकार की बाधा नहीं है, क्योंकि यह तो अखिल जैन समाज की मान्यता है कि अन्य कलाओं की तरह चित्रकला भी अनादि है और चित्रकार अपनी या अन्य की इच्छित वस्तु का चित्र बना सकता है, इसी तरह तीर्थंकर प्रभु की भी मूर्ति बनाली जा सकती ५६ **** Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० दाढ़ा-पूजन *客來水本中****本字本**李李***本本本本來乎乎乎乎乎本本本卒卒卒卒卒卒中 है, तीर्थंकर प्रभु के सेवक-भक्त-अनन्यरागी तो देव और इन्द्र तक होते हैं इसलिए उनकी मूर्ति तो वे सुन्दर से सुन्दर और ऊँचे से ऊँचे . पदार्थ की बना सकते हैं, जब चित्र कला अनादि है और तीर्थंकर के रागी देवेन्द्र जैसे भी होते हैं तब यदि रागी व्यक्ति अपने प्रिय श्रद्धेय | और पूज्य की रागभाव में आकर मूर्ति बनवाले तो इसमें कौनसी बड़ी बात है? पर यह याद रहे कि इस प्रकार की बनवाई हुई मूर्ति और उसकी पूजा धर्म में शुमार नहीं हो सकती, न कथाओं के प्रमाण भी। विवादग्रस्त विषय में उपादेय होते हैं। ऐसे स्थान पर तो आप्त आज्ञा रूप विधि विधान ही कार्य साधक होते हैं, यदि किसी मूर्ति पूजक बन्धु में हिम्मत हो तो उभय मान्य मूल आगमों के वैसे प्रमाण प्रस्तुत करें, अन्यथा मूर्ति पूजा में धर्म है तथा यह जैनागम सम्मत है ऐसा कहना केवल उन्मत्त प्रलाप के समान ही ठहरेगा। दाढ़ा-पूजन श्री ज्ञानसुन्दरजी ने तीसरे प्रकरण पृ० ५१ में तीर्थंकर की दाढ़ों का उल्लेख कर उनकी पूजन में आत्मकल्याण बताया, और इस तरह मूर्ति पूजा में धर्म मनवाने का प्रयत्न किया है। किन्तु यह प्रयास भोले बन्धुओं को भ्रम में डालने के समान ही है। क्योंकि अस्थि-पूजा जैन समाज को मान्य ही नहीं है। ___ और जो इन्द्रादि देव तीर्थंकर की दाढ़ा लेते हैं तथा वंदनादि करते हैं, वे आत्मकल्याणार्थ नहीं, न उनके इस कृत्य को शास्त्रकार ने आत्मकल्याणकारी माना है। शास्त्रकार ने तो सूत्र में देवताओं की भावना का निर्देश मात्र किया है, जैसे कि Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************************************** "केइ जिणभत्तीए, केइ जीअमेअंतिकट्ट, केइ धम्मातिकट्ट गेण्हति।" (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बाबू पत्र १४५) इसमें स्पष्ट बताया है कि कितने ही देव जिन भक्ति से, कितने ही परम्परागत आचार से और कितने ही धर्म जानकर ग्रहण करते हैं, यह बात आपने भी हमारे सामने पृ० ५२ में रक्खी है, किन्तु इसके आशय का एक अंश पकड़कर आपने अनर्थ कर डाला, आपने जीताचार, भक्ति भाव, और धर्मभाव, इन तीनों का आशय भिन्न २ नहीं बताया, यही आपकी खूबी है। जबकि समुचे देवों में एक हिस्सा भक्ति-राग वाला, दूसरा जीताचार मानने वाला, और तीसरा धर्म मानने वाला है तब दो हिस्से की उपेक्षा कर एक ही को पकड़कर प्रपञ्च चलाना कहाँ की बुद्धिमानी है? सुन्दर मित्र! जब देवों के भी दाढ़ा लेने में भिन्न भिन्न विचार हैं तब आप उसमें एकान्त धर्म ही कैसे बतलाते हैं ? वास्तव में दाढ़ा पूजा से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है, धर्म नायक-तीर्थंकर देव की दाढ़ा होने मात्र से वे जड़ दाढ़ाएँ पूजनीय वन्दनीय नहीं हो सकतीं, इसलिए जिन देवों ने उन दाढ़ाओं को धर्म समझकर ग्रहण किया हो या जो धर्म मानकर वन्दते पूजते हों, उनकी मान्यता ठीक नहीं पाई जाती। वास्तव में यह भी राग का ही अविवेक है। क्योंकि यदि हड्डियों के ग्रहण करने या वन्दने पूजने में आत्मकल्याण रहा होता तो प्रभु के अनेकों गणधर, पूर्वधर, श्रुतधर, साधु साध्वियें और लाखों श्रावक श्राविकायें भी प्रभु की अस्थियें लेकर वन्दना, स्तुति, पूजाआदि करते या उन्हीं हड्डियों के स्थापना तीर्थंकर (आपके स्थापनाचार्य की तरह) बनाकर रखते जबकि किसी भी साधु या साध्वी या श्रावक श्राविका ने अस्थि पूजा में धर्म नहीं माना न गणधरों ने ही धर्म मानने Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ दाढ़ा-पूजन का आदेश किया, तो ये मूर्ति भक्त महानुभाव हड्डी पूजा में धर्म बताकर क्यों भ्रम फैलाते हैं? आश्चर्य नहीं कि ऐसे ही प्रचार से जैन गृहस्थों में भी मरे हुए की हड्डियें तीर्थ के जलाशय में डालने का रिवाज चला हो? जबकि गृहस्थ अपने माता-पिता की हड्डियों को सम्हाल कर अच्छे भाजन में रक्खे और उन्हें कालान्तर में गङ्गा आदि नदी में डाल कर अपने कर्त्तव्य का पालन होना समझे, उन्हें तो हम मिथ्या क्रिया करने वाले कहें और हम खुद हड्डियों की पूजा में धर्म होना माने यह कहाँ का न्याय है? सुन्दर मित्र यदि दीर्घ दृष्टि से सूत्राशय पर विचार करते, या सद्गुरु के समीप समझते तो स्पष्ट मालूम होता कि - ये क्रियायें मुख्यतः जीताचार और रागभाव से ही की जाती है, जैसे कि १. तीर्थंकर प्रभु का निर्वाण जानकर इन्द्रादि देवता मनुष्य लोक में आते हैं और तीर्थंकर के शव को देखकर "विमणे णिराणंदे अंसुपुण्ण-णयणे" अर्थात् शोक युक्त, आनन्द रहित और अश्रु पूर्ण नेत्र वाले होते हैं। यह स्पष्ट आर्तध्यान-जो कि इष्ट वियोग से होता है और रागभाव का द्योतक है। सारांश यह कि इन्द्रादि देवों का यह शोक करना रागभाव में-भक्ति के अतिरेक में संमिलित है। २. इसके बाद इन्द्र ने प्रभु के शव को स्नान कराया, शरीर को चन्दन से अर्चित किया। इससे भी धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं। हाँ राग और पूज्य पुरुष के शव का बहुमान (लौकिक व्यवहार से उत्कृष्टता पूर्वक करने) का ही उद्देश्य है। ३. इसके बाद स्वयं सौधर्मेन्द्र प्रभु को वस्त्र और अलंकार पहिनाता है। और भवनपत्यादि अन्य देव गणधरादि साधुओं को वस्त्र और आभूषण पहिनाते हैं, बतलाइये यह कौनसी धर्म करणी है? जो Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************************* प्रभु दीक्षित होने के दिन से निर्वाण पर्यन्त वस्त्र नहीं पहिनते हों, उन्हें निर्वाण पश्चात् वस्त्र पहिनावे और विशेष में आभूषण भी, क्या ऐसी भक्ति उचित है ? इसे शुद्ध भक्ति कहें या भक्ति का अतिरेक अर्थात् राग रंजित भक्ति ? ६३ ****** बस इसी रागभाव का ही परिणाम है, आर्त्तध्यान करना, शव को स्नानादि कराकर वस्त्राभूषण पहिनाना और इसी का फल है अस्थि पूजा । वास्तव में इन्द्रादि देव जीताचार और प्रभु के प्रति अनन्य राग से ही ये क्रियायें करते हैं किन्तु आत्मकल्याण रूप धर्म के निमित्त नहीं, इसके लिए भी प्रमाण देखिये - जब सौधर्मेन्द्र को अवधिज्ञान से यह मालूम होता है कि तीर्थंकर का निर्वाण हो गया तब वह विचार करता है कि - "तं जीअमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवराइणं तित्थगराणं परिणिव्वाण महिमं करित्तए । " उक्त सूत्र पाठ की वृत्ति करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं कि"तत् तस्माद्हेतोः जीतंकल्पः आचार एतद्वक्ष्यमाणवर्त्तते अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां अतीत वर्त्तमानाऽनागतानां शक्राणा मासनविशेषाधिष्टातृणां देवानांमध्ये इन्द्राणां परमैश्वर्य युक्ताणां देवेषुराज्ञां कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानानां तीर्थकराणां परिनिर्वाण महिमां कर्तुं । " (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बाबू ० पत्र १३८) यहां शक्रेन्द्र केवल परंपरागत चले आते हुए जीताचार को जानकर ही निर्वाण क्रियादि करने की तैयारी करता है जो बिलकुल है । हमारा भी यही कहना है कि दाढ़ा पूजनादि क्रिया लौकिक Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ दाढ़ा-पूजन ******************************************全书 (सांसारिक) व्यवहार की है। लोकोत्तर (आत्मकल्याण की) नहीं। और जो देवता धर्म समझ कर दाढ़ें ले जाते हों तो वैसे धर्म भी तो कई (ग्राम धर्म, देशधर्म, कुलधर्म आदि) भेदों में विभक्त हैं अतएव इसे आत्म कल्याणकारी धर्म नहीं समझें। यदि देवों ने इस क्रिया में आत्मकल्याणकारी धर्म माना हो तो यह मिथ्या है और देवों में सभी शुद्ध श्रद्धावाले तो होते ही नहीं जैसे मनुष्य लोक में धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, लौकिक को लोकोत्तर और लोकोत्तर को लौकिक मानने वाले होते हैं, वैसे देवलोक में देव भी होते हैं। जैसे मनुष्यों में कितने ही भोले भाई व्यावहारिक क्रियाओं में भी धर्म मानने लग जाते हैं, वैसे देवलोक में के देव भी तीर्थंकरों की दाढ़ायें पूजने में धर्म मानते हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि वृत्तिकार तो यहाँ तक लिखते हैं कि देवता चक्रवर्ती की हड्डियें भी ले जाते हैं देखिये - __ "आस्तां त्रिजदाराध्यानां तीर्थकृतां योग-भृच्चक्रवर्ति नामपि देवाः सक्थि ग्रहणं कुर्वंतीति।" ___(जम्बूद्वीप प्र० बाबु० पत्र १४५) कहिये यह भी कोई धर्म है? कहाँ तक बताऊँ, टीकाकार ने तो यहाँ तक बता दिया कि चिता की राख तक को विद्याधरादि मनुष्य ले जाते हैं, बताइये यह भी कोई धर्म है या धर्मान्धता? क्या इसे भक्ति का अतिरेक नहीं कह सकते? अवश्य यह अन्ध भक्ति ही है। यदि देवों की सभी करणी आपके लिए उपादेय है तो आपको चाहिए कि चक्रवर्ती की भी मूर्ति बनाकर पूजें तथा अपने गुरु की हड्डी राख आदि लाकर उसी तरह पूजते रहें। जिस प्रकार सूत्रों में अनेक स्थानों पर यह वर्णन आया है कि दीक्षित होने वालों के माता पितादि दीक्षा समय में दीक्षितों के Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ***************************水*************** बाल (केश) अच्छे वस्त्र में लेकर उन्हें यत्न से रखते थे। तथा उन्हें आदर के साथ रखकर समय-समय पर देखते और उन पुत्रादि को याद करते थे यह उनके मोह की प्रबलता थी। उसी प्रकार यहां भी भक्ति का अतिरेक है वे केश रखते थे, ये दाढ़ायें या अस्थियें रखते हैं। वे पुत्र के राग से ऐसा करते थे, ये प्रभु की भक्ति से ऐसा करते हैं। यद्यपि अन्तर दोनों में बड़ा भारी है, तथापि उपादेय तो एक भी नहीं है। . सुन्दर मित्र! जिनेन्द्र के प्रति सच्ची भक्ति जिसे हो वह तो उन धर्मावतारों की आज्ञा का पालन करना ही अपना मुख्य कर्तव्य समझेगा। ऐसी भक्ति ही उसे कल्याणकारी होगी। जैनत्व इसी में है दाढ़ा पूजन में नहीं। जो धर्म गुण पूजा को अग्रस्थान देता हो, जिसमें व्यक्ति पूजा की अपेक्षा उच्च व्यक्तित्व ही उपादेय माना हो, क्या वह धर्म कभी व्यक्ति की हड्डी और राख की पूजा को महत्त्व देगा? कदापि नहीं। __बन्धुवर! यदि हड्डी पूजा जैनों को उपादेय होती तो आज सारी जैन समाज अस्थि पूजक हो जाती, क्योंकि जैनी के लिए जैसे देव पूज्य हैं वैसे गुरु भी पूज्य हैं। इस तरह गुरु की हड्डियें भी पूजा पा लिया करती। किन्तु गुण पूजकों के लिए वह प्रथा उपादेय नहीं होने से ही समाज में नहीं चली। अन्त में आपसे यही कहना है कि मूर्ति के चक्कर में पड़ कर जड़ पूजा को प्रोत्साहन मत दो और ज्ञेय विषय को उपादेय मत बनाओ। अन्यथा आपका यह मत मोह भव भ्रमण का कारण बन जायगा। गुण पूजकों को जड़ पूजक बनाने का प्रयत्न करना यह सरासर मिथ्यात्व है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भरतेश्वर के मूर्त्ति निर्माण की असत्यता ************** *************** (१०) भरतेश्वर के मूर्ति निर्माण की असत्यता ६७ में लिखा है कि सुन्दर मित्र ने पृ० " श्री भरत चक्रवर्ती ने अष्टापद पर्वत पर चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस मंदिर बनाकर तीर्थंकरों के शरीर वर्ण चिह्न युक्त मूर्तियाँ उन मंदिरों में स्थापना की, सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने उनकी रक्षा की, सम्राट रावण मंदोदरी ने वहां जाकर भक्ति की, गणधर गौतम स्वामी ने उस महान् तीर्थ की यात्रा की, ऐसा उल्लेख जैन शास्त्रों आज भी विद्यमान है।' "" - सुन्दर मित्र का उक्त कथन भी केवल औपन्यासिक ढङ्ग के कहानी ग्रन्थों के आधार पर ही है। क्योंकि चक्रवर्ती महाराजा भरतेश्वर का वर्णन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में उपलब्ध है, जिसमें उनके स्नान, मंजन, वस्त्रादि परिधान, दिग्विजय तथा शीश महल में केवलज्ञान प्राप्त करने आदि का तो विस्तृत कथन है, किन्तु मन्दिर के लिए एक शब्द भी नहीं है। ऐसी हालत में कथा ग्रन्थों का यह मूर्ति पूजा का प्रमाण पौराणिक गपोड़ा ही पाया जाता है। ऐसे ही सगर, रावण और गौतम स्वामी के कथन का हाल है ऐसे वर्णनों को केवल अन्ध श्रद्धालु भक्त ही ऐतिहासिक कह सकते हैं। विचारशील सज्जन तो ऐसी बातों से इनके पक्ष को कभी उपादेय नहीं कह सकता। इससे अधिक और क्या कहें ? हां इस जगह मूर्ति पूजक श्री लाभविजयजी का एक प्रश्न सुन्दर मित्र के सामने रख देते हैं - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ************ हैं? . दें? जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********************************** “२७-भरतचक्री ने अष्टापद पै बिंब भराये, कौन सिद्धांत में . स्थानकवासी हमसे प्रश्न करते हैं सो बताइये क्या उत्तर ( स्तवनावली पृ० १२८ का प्रश्न २७ वां) देखें सुन्दर मित्र श्री लाभविजयजी के प्रश्न का क्या उत्तर देते हैं ? ६७ (19) श्रेणिक और मूर्त्ति - पूजा श्री ज्ञानसुंदरजी ने पृ० १२७ में लिखा है कि - " पट्टावली में स्पष्ट लिखा है कि कलिंग से राजा नंद जैन मूर्ति को मगध में ले गया, वह मूर्ति मगधदेश महाराजा श्रेणिक ने स्थापित की थी.... महाराजा श्रेणिक प्रतिदिन १०८ सुवर्ण यव (अक्षत) बनवाकर तीर्थंकरों की मूर्ति के सामने स्वास्तिक करते थे..... महाराजा श्रेणिक ने इस अपूर्व भक्ति से ही तीर्थंकर नाम कर्मोपार्जन किया..... यह कार्य आत्म-कल्याण एवं धर्म कार्य साधन का एक खास अङ्ग था, इसलिये भगवान् महावीर ने उसे न तो मना किया न किसी अन्यत्र स्थान पर इस कार्य साधन का विरोध किया, अतः यह समझना कोई कठिन कार्य नहीं कि भगवान् महावीर भी इस कल्याणकारी कार्य में सहमत थे। सुन्दर मित्र जिस पट्टावली का उदाहरण देकर श्रेणिक को मूर्ति पूजक ठहराते हैं, वह शायद मूर्ति पूजकों में ही आदर पात्र और प्राचीन मानी जाती होगी ? किन्तु मैं इनसे पूछता हूँ कि क्या आपकी यह पट्टावली सूत्रों से भी प्राचीन और अधिक प्रमाणिक है ? नहीं, कदापि नहीं। सूत्रों के सामने इसका मूल्य फूटी कौड़ी का भी नहीं । और सूत्रों में जहाँ-जहाँ श्रेणिक, उसकी रानियों, और पुत्रों का वर्णन Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्रेणिक और मूर्ति पूजा **公家来学学会¥*****交******李李************* मिलता है वहाँ-वहाँ उसके प्रभु वंदने, प्रश्नादि पूछने, अमारी पडह फिराने आदि का उल्लेख तो स्पष्टाक्षरों में मिलता है, उसकी रानियों के दीक्षा का वर्णन, पुत्रों का त्यागी होना, कोणिक की प्रभु भक्ति, और युद्ध आदि का वर्णन तो प्रचुरता में मिलता है, किन्तु किसी भी वर्णन में मंदिर बनवाने या मूर्ति पूजा करने का नाम निशान भी नहीं मिलता। ऐसी सूरत में सुन्दर प्रमाण असत्य प्रमाणित होने में शङ्का ही क्या हो सकती है? इससे सिवाय श्रेणिक को हमेशा १०८ स्वर्ण जौ से मूर्ति पूजा करने वाला लिखना भी मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों का पौराणिक सत्य (झूठ) से कम नहीं है। यदि इन लोगों की बात पर थोड़ासा विचार किया जाय तो यह हास्य जनक ही सिद्ध होंगी, क्योंकि - एक तरफ तो ये लोग महानिशीथ में ऐसा फल विधान करते हैं कि मूर्ति पूजा करने वाला बारहवें स्वर्ग में जाता है। इधर श्रेणिक को नित्य १०८ स्वर्ण यव से पूजने वाला बताते हैं, इस हिसाब से तो श्रेणिक को स्वर्ग में ही जाना चाहिये, जबकि मामूली फूलों और चावलों से पूजने वाला भी बारहवें स्वर्ग में पहुंच सकता है तो सोने के यव से पूजने वाला कम से कम प्रथम स्वर्ग में तो जाना चाहिए? किन्तु जब हम इन्हीं लोगों के ग्रन्थों को देखते हैं तो ये महानुभाव सम्राट श्रेणिक को नरकगामी बताते हैं। कहिये मूर्ति पूजा का कैसा फल मिला? यह उलट फेर कैसा? * मूर्ति पूजक ग्रन्थकार यह लिखते हैं कि - जब प्रभु महावीर ने श्रेणिक को भविष्य में नरकगामी होने वाला कहा, तब वह खेद प्रकट करता हुआ प्रभु से नरक निवारण का उपाय पूछने लगा। प्रभु ने उत्तर में चार उपाय बतलाये यथा ___ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************* ६६ ****** १. तू एक भी नवकारसी तप करले । २. तेरी कपिला नाम की दासी अपने हाथों से मुनि को दान दे। ३. काल सौरिक कसाई एक दिन के लिए भी हिंसा बन्द कर दे । ४. पूर्णिया श्रावक की एक सामायिक भी तू खरीद ले । इस प्रकार नरक निवारण के चार उपाय प्रभु ने बताये (जो कि उससे होने असम्भव थे ) अब यहां यह विचार होता है कि यदि मूर्ति पूजा भी नरक निवारण और स्वर्ग प्रदान करने का कारण होती, इसमें आत्म कल्याण होता तो क्या प्रभु श्रेणिक को यह उपाय नहीं बताते ? क्या प्रभु इस उपाय को भूल गये थे ? स्वर्ग नहीं तो पुनः मानव भव ही सही, यदि इतना भी लाभ मूर्ति पूजा से होता तो प्रभु अवश्य बताते कि जिससे श्रेणिक का कुछ तो भला होता । वह तो प्रभु का अनन्य भक्त था, फिर उसे ऐसा उपाय क्यों नहीं बताया ? वास्तव में सम्राट श्रेणिक सामायिक या छोटा सा प्रत्याख्यान करने के लिए सर्वथा अयोग्य थे वे मन पर काबू नहीं कर सकते थे, उनसे व्रत नियम के बन्धन में रहते नहीं बनता था, इसी से उनका निविड़ पाप कर्म छेदित नहीं हो सका। जब वे आत्म-कल्याण की करणी के अयोग्य थे तब आत्मकल्याण की साधन कही जाने वाली आपकी मूर्ति पूजा से उनका उद्धार क्यों नहीं हुआ? आप तो उन्हें १०८ स्वर्ण जसे पूजने वाला मानते हैं, फिर उनका नरक क्यों न रुका ? इसके सिवाय सुन्दर मित्र कहते हैं कि - "जिन स्वर्ण जौ को कुक्कुट खा गया था और जिनके कारण सोनी ने मेतार्य मुनि को महान् ********* * जबकि ज्ञानसुन्दरजी मूर्ति पूजा में दान, शील, तप और भावरूप चारों तरह का धर्म मानते हैं। (मू० पू० प्रा० इ० पृ० २६४ ) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्रेणिक और मूर्ति पूजा ****************************************** कष्ट दिया था, वे स्वर्ण जौ राजा श्रेणिक ने इसी मूर्ति पूजा के लिए बनाये थे। यह कुयुक्ति भी सुन्दर महात्मा ने विचित्र लगाई, शायद स्वर्ण जौ और किसी काम में ही नहीं आते होंगे? आज भी ऐसे कई आभूषण देखे जाते हैं कि जिनमें युगल जौ जुड़े हुए पाये जाते हैं। फिर भी यह कथा मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों की ही बनाई हुई है। किसी प्रामाणिक सूत्र की तो है ही नहीं और हमारे साधुमार्गी महात्मा भी शायद इसी को लेकर कुछ कथा करते हों, या चौपाई में गाते हों, जिनका की उल्लेख सुन्दर मित्र ने किया है। फिर भी सुन्दर मित्र की यह तो केवल कल्पना ही है कि वे वही जौ थे जो श्रेणिक के पूजा करने के लिए बनाये गये थे। अतएव इसमें भी कोई सार नहीं है। आगे सुन्दरजी कहते हैं कि-"इसी (मूर्ति पूजा) से श्रेणिक ने तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया।" यह भी केवल मनमानी कल्पना है क्योंकि मूर्ति पूजा से तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होना किसी भी जगह नहीं लिखा है। हाँ सूत्रोल्लिखित अर्हन् भक्ति, शासन (प्रवचन) प्रभावना, अमारी पडह, शुद्ध श्रद्धान आदि कार्य श्रेणिक के महान् पुण्यशाली थे कि जिससे तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होना सर्वथा सम्भव है। ऐसी दशा में ऐसे कार्यों की उपेक्षा कर जबरदस्ती मूर्ति को अड़ा देना सत्यप्रिय महानुभावों का कार्य नहीं है। स्वयं मूर्ति पूजक समाज के आगमोद्धारक आचार्य श्री सागरानन्द सूरिजी अपने “सिद्धचक्र' पाक्षिक वर्ष ७ अङ्क ४ ता० २१-११३८ के “तीर्थ यात्रा संघ यात्रा' शीर्षक लेख के पृ० ६२ प्रथम कालम में लिखते हैं कि - "कृष्ण महाराज अने श्रेणिक महाराज के जेओ एक नोकारसी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ************************ सरखा पच्चक्खाण ने करवा पण भाग्यशाली थइश क्या होता तेपण आवती चौवीसी मां जे जिनेश्वर नी पदवी थी अलंकृत थशे ते सर्व प्रभाव शासन नी प्रभावना नोज छे । " इसमें शासन प्रभावना से तीर्थंकर गोत्र पाना स्वीकार किया गया है जो कि यज्ञ याग रूप हिंसात्मक समय में जैनधर्म के अहिंसा सिद्धान्त की अमारी प्रवर्तन से भारी प्रभावना करना है। यह प्रभावना किसी भी तरह कम नहीं है, आज भी पर्युषण पर्वाधिराज तथा महावीर जयंती आदि पर्वों पर कई शहरों में तथा देशी राज्यों में पलतियें (अगते) रखवाकर अमारी प्रवर्तन द्वारा शासन प्रभावना की जाती है। बस श्रेणिक महाराजा की सूत्रोल्लिखित अहिंसा प्रवर्तन रूप शासन प्रभावना ही यदि तीर्थंकर गोत्र का अधिक कारण है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु मूर्ति पूजा तो शासन प्रभावना का कारण नहीं, अपितु यह अन्ध श्रद्धा एवं पाखण्ड प्रभावना का कारण होकर प्रभु विरोधिनी भक्ति होने से शासन की अवलेहना कराने वाली है, इसलिए आपका मूर्ति पूजा से तीर्थंकर गोत्र उपार्जन करने का कथन भी सत्य से सर्वथा दूर है । सुन्दरजी कहते हैं कि भगवान् ने इस कार्य का विरोध नहीं किया, इसलिए यह पाया जाता है कि भगवान् महावीर मूर्ति पूजा से सहमत थे" जबकि यह कथन ही झूठ है, तब यह प्रश्न ही कहाँ रह गया कि भगवान् इसका विरोध करें ? यदि कोई व्यक्ति नियम विरुद्ध कार्य ही नहीं करें, तो उसे उसके वृद्धजन क्यों टोंकने लगे ? बस इसी तरह समझ लो कि जब श्रेणिक मूर्ति पूजक ही नहीं, तो फिर भगवान् मूर्ति पूजा से उसे रोकें किस प्रकार ? ७१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रेणिक और मूर्ति पूजा ************本子李李李李李李李李李李***李***卒卒卒中 __इसके अलावा भगवान् को मूर्ति पूजा से सहमत बताना या भी पक्ष व्यामोह ही है, क्योंकि भगवान् के ऐसे कोई भी शब्द नहीं, जो मूर्ति पूजा का समर्थन करते हों। उल्टा प्रभु ने तो धर्म के लिए स्थावर प्राणियों तक की हिंसा को आत्म के लिए अहितकारी कहा है| और मूर्ति पूजा में त्रस, स्थावर की हिंसा प्रत्यक्ष सिद्ध है इसलिए यह कार्य प्रभु आज्ञा से विरुद्ध तो अवश्य है। सुन्दर मित्र ने बिना किसी प्रमाण के प्रभु को मूर्ति पूजा से सहमत बता दिया, यह एक आश्चर्यजनक बात है, इतना ही नहीं, सुन्दर भाई ने तो यहां तक लिख डाला है कि - "महावीर मूर्ति पूजा के विरोधी नहीं पर कट्टर समर्थक थे।" (जैन ध्वज ता० १७-८-३७ वर्ष ४ अं० २० पृ० ५). ___ बात यह हुई कि-श्री रामकृष्ण माथुर एम. ए. ने “भारत वर्ष का इतिहास" नामक एक पुस्तक लिखी, जो आनन्द पुस्तकमाला कानपुर से प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक सरकारी स्कूलों में भी पढ़ाई जाती है। इसमें जैनधर्म के सम्बन्ध में लिखते हुए लेखक ने लिखा है कि - "महावीर मूर्ति पूजा के विरोधी थे" बस, इसी के उत्तर में श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज ने "जैनधर्म के विषय में जनता का भ्रम' शीर्षक लेख में बिना किसी आधार के उक्त शब्द लिख डाले हैं, जो कि उन्मत्त प्रलाप से कम नहीं है। यों तो कल से दया दान के विरोधी भी यदि कह दें कि भगवान् महावीर दया दान के कट्टर विरोधी थे, तो ऐसे बाल वचनों का प्रभाव ही क्या हो सकता है? बस इसी तरह सुन्दर मित्र के उक्त शब्द जैन मान्यता के विरुद्ध होने से निरर्थक बकवाद है। आश्चर्य तो यह है कि एक तरफ इन्हीं मूर्ति पूजक महानुभावों के महा मान्य उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी हमारी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ****本学学术交学求学学****李*********安********年****空** मान्यता का खण्डन करते हुए “प्रतिमा शतक" के २० वें श्लोक में लिखते हैं कि - सावधं व्यवहारतोपि भगवान् साक्षात् किलानादिशत्। बल्यादि प्रतिमार्चनादि गुणकृत् मौनेन संमन्यते॥ अर्थ - श्री वर्द्धमान स्वामी बलिदान अने प्रतिमार्चन विगेरे व्यवहार थी सावध छे तेथी तेने साक्षात् आदेश नहीं करता ते गुणकारी छे, एम मौन धारण करी प्रवर्ताव छ। (पृ० ३७) इस तरह प्रतिमा पूजन भगवान् महावीर कथित नहीं होना स्वीकार करते हैं, और दूसरी तरफ साहसी सुन्दरजी महाराज बिना ही किसी प्रमाण के भगवान् को मूर्ति पूजा के समर्थक लिख रहे हैं। यह सरासर मिथ्यावाद, मत मोह में मस्त हृदय का है। अतएव अधिक उद्योग की आवश्यकता नहीं। पाठक स्वयं समझ लें। (१२) चम्पा नगरी और अरिहन्त चैत्य ___ मिस्टर ज्ञान सुन्दरजी ने अपनी पुस्तक “मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास' के चौथे प्रकरण पृ० ६९ में लिखा है कि - “जहाँ जैनों की बस्ती हो वहाँ आत्म-कल्याण का साधन, जैन मन्दिर मूर्तियों का होना स्वाभाविक है। जैनागमों में नगरों का वर्णन किया वहाँ भी इस बात को अच्छी तरह से बतलाया है कि नगरों के मुहल्ले-मुहल्ले में अरिहंतों के मन्दिर हैं, हम यहाँ पर श्री उत्पातिक सूत्र में चम्पा नगरी के वर्णन में आये हुए अरिहंतों के मंदिरों का उल्लेख कर देते हैं।" Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ चम्पानगरी और अरिहन्त चैत्य ********************************** **京*** फिर पृ० ७० में पाठ और लोंकागच्छीय अमृतचन्द्र सूरि कृत टब्बार्थ दिया है, जो अक्षरशः उद्धृत किया जाता है। "आयारवंत चेइया जुवइ विविह सण्णिविट्ठ बहुला अरिहन्त चेइय जणवएसंणिवट्ठ बहुला।" (इतिपाठांतर) टब्बार्थ जिण नगरीइ आकारवंत-सुन्दाकार चैत्यप्रासाद देहरा छाइ। वैश्याना विविध नाना प्रकार संनिवट्ठ पाडा छेइ बहुला कहतां घणां तीण नगरी छई, अरिहन्तना चैत्य प्रासाद देहरा घणा छई (पाठान्तर)।" उक्त पाठ और टब्बार्थ पर से यह नहीं मालूम होता कि इसमें कितना अंश पाठ का है, ओर कितना पाठान्तर का। इस पर से तो यही जाना जाता है कि सारा अवतरण ही पाठान्तर का हो। परन्तु खोज करने पर यह पता लगा कि इस पाठ में से केवल “अरिहंत चेइय जणवइ विसण्णिविट्ठ बहुले” इतना अंश पाठान्तर का है, सभी नहीं। इस जगह यह जिज्ञासा भी पैदा होती है कि इस प्रकार पाठ और पाठान्तर के भेद को हटाकर दोनों को शामिल कर देने की करतूत किसने की? क्या अमृतचन्द्रजी ने, या सुन्दर मित्र ने? इसका समाधान हमारे पास नहीं क्योंकि अमृतचन्द्राचार्य वाली प्रति हमारे सामने नहीं है। इसलिए हम इस विषय में दोनों में से किसी एक को दोषी नहीं ठहरा सकते। फिर भी इतना तो अवश्य कहेंगे कि इसमें सुन्दर मित्र की करतूत भी कम नहीं है, क्योंकि यदि सुन्दरजी ने अमृतचन्द्रजी वाली प्रति से यह पाठ लिखा है, तब इन्हें यह तो सोचना चाहिए था कि इस पाठ में पाठान्तर का अंश कितना है? यदि इस पर से पूरी छानबीन कर काम किया जाता तो यह घोटाला तो नहीं होता? सम्भव है सुन्दर मित्र Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ७५ ****** ********* ********* **** ने जान बूझकर भोले बन्धुओं को भ्रम में डालने के लिए यह चाल चली हो ? अस्तु, अब हम यहाँ मूर्ति पूजकों की प्रसिद्ध आगम प्रकाशिनी संस्था आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित प्रति के अनुसार पं० भूरालाल कालीदास द्वारा प्रकाशित उववाई सूत्र का मूल पाठ यहां उद्धृत करते हैं। “आयारवंत चेइयजुवई विविह सण्णिविट्ठबहुला उक्कोडियागाय गंठिभेय" आदि । - (पृष्ठ २) इस प्रति में मूल पाठ के साथ सुन्दर मित्र का दिया हुआ पाठान्तर है ही नहीं। सिर्फ टीका में टीकाकार ने इस सूत्र की व्याख्या करने के साथ पाठान्तर होना बताया है, जो निम्न प्रकार है - पाठान्तरं " "आकारवन्ति - सुन्दराकाराणि आकारचित्राणि वायानि चैत्यानि-देवतायतनानि युवतीनां च - तरुणीनां पण्यतरुणी नामिति हृदयं, यानि विविधानि सन्निविष्टानि - सन्निवेशनानि पाटकास्तानि बहुलानि बहूनि यस्यां सा तथा ‘अरिहन्त चेईयजणवईविसण्णिविट्ठबहुले' ति ( पृ०३) इस प्रकार पाठान्तर को मूल पाठ में नहीं मिलाकर अलग टीका में ही रखा है, मूल पाठ की टीका और टब्बार्थ से यह साबित नहीं होता कि यह वर्णन "जैन मन्दिरों" का है, क्योंकि " आकार वंत चैत्य" का अर्थ दोनों ने सुन्दर आकार वाले देवायतन ही किया है और देवायतन तो पहले भी नाग, भूत, यक्ष, वैश्रमणादि अनेक प्रकार होते थे । इसके सिवाय " आकारवंत चैत्य" इन दो शब्दों से नाट्य भूमि, सभा भवन ( टाउन हॉल) आदि कई अर्थ हो सकते हैं, शायद इसी शङ्का से टीकाकार महाराज ने सुन्दर देवायतन अर्थ करके छोड़ दिया किन्तु इसके बाद साथ वाले पाठ पर दृष्टि डालने पर तो और भी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पानगरी और अरिहन्त चैत्य ********************************* आश्चर्य होता है, क्योंकि सुन्दराकार चैत्यों के साथ यह "जुवईविविह सण्णिविट्ठबहुला" पाठ कैसा? टीकाकार महाराज ने इसका अर्थ, किया कि - "युवतीनां च तरुणीनां पण्यतरुणीनामिति हृदयं, यानि विविधानि सन्निविष्टानि सन्निवेशनानि पाटकास्तानि बहुलानि बहु नि यस्या सा।” अर्थात्-युवती वेश्याओं के अधिकता से है निवास स्थान जहाँ पर, सुन्दर मन्दिरों के साथ वैश्याओं के निवास स्थान का क्या सम्बन्ध?. मालूम होता है कि ये आकारवंत चैत्य, मंदिर नहीं, पर या तो कोई नाट्यशाला, गानशाला आदि हों, या फिर सार्वजनिक आराम स्थान- बगीचे ( गार्डन) हों, या फिर सभा स्थान आदि हों, कि जहाँ नाटक देखने, गाना सुनने, या टहलने को जनता विशेष रूप से आती हो और इसीलिए ऐसे स्थानों के समीप (लोगों का अधिक आवागमन, वह भी आमोद प्रमोद के लिए होता हो) वेश्याओं ने अपने निवास बनाये हों जिससे रसिक लोगों का ध्यान सरलता से अपनी ओर खींचा जा सके। इसके सिवाय उस जमाने में चैत्यों में गान, वादन, नृत्य, नाटक, कई प्रकार के खेल तमाशे भी होते थे, जिसका वर्णन इसी उववाई के पूर्णभद्र चैत्य के सम्बन्ध में लिखा हुआ है तथा मूर्ति पूजक समाज के प्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदासजी अपने " रायपसेणइय सुत्त नो सार" पृ० ७ के चैत्य वर्णन में टिप्पण नं० १६ में लिखते हैं कि - १६ चैत्यनुं आ वर्णन जोतां ते भारे गम्मतनुं स्थान पण होय एम लागे छे, केटलीक कथाओं मां चैत्य ने 'जुगारीओनो अखाड़ो' 'युवान युवतीओनां मीलननुं स्थान' 'अभिसारिकाओनुं संकेतस्थान' ए रीते वर्णवेलु' छे, ते उपर्युक्त वर्णन जोतां बन्ध वेसे एवं छे । यद्यपि यह वर्णन शहर के बाहर के चैत्य का है, तथापि शहर के भीतर के चैत्य में भी ऐसे कार्य प्राथमिक कोटिके या सुधरे हुए ढङ्ग के ७६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ७७ **** होते हों तो कोई आश्चर्य नहीं। संभव है कि ये आकारवंत चैत्य और पूर्ण भद्र चैत्य मिलते जुलते ही हों। इस प्रकार आकारवंत चैत्य की व्याख्या न तो टीकाकार ने स्पष्ट की, न टब्बाकार ने ही। मालूम होता है इस चम्पा वर्णन से ही मूर्ति पूजक महानुभावों के हृदय को आघात पहुँचा हो, क्योंकि जब चम्पा जैसी जैन पुरी का शास्त्रकार वर्णन करे और उसमें जैन मन्दिरों का नाम तक भी नहीं हो, यह कितनी विचारणीय बात है ? बस, इसी को लेकर शायद " अरिहंत चेइय" इत्यादि पाठ की सृष्टि होकर पाठान्तर के बहाने पुस्तकों में पहुँचाया गया हो, जिसका स्पष्ट यही आशय है कि किसी तरह मंदिर मूर्ति जनता के गले में डाल देना । पाठकों को हमारे कथन पर अविश्वास नहीं हो, इसके लिए एक और प्रमाण भी यहाँ देता हूँ । मूर्ति पूजक समाज के साक्षर पं० बेचरदासजी दोशी ने " रायपसेणइय सुत्त" का संशोधन और अनुवाद करके प्रकाशित किया है, उसके प्रथम सूत्र में " आमल कम्पा” नगरी का वर्णन करते हुए कोष्टक में औपपातिक सूत्र का वह पाठ भी दिया है जिसमें " आकारवंत चैत्य" का पूरा वर्णन है, किन्तु इस पाठ में आपका पाठान्तर वाला पाठ तो है ही नहीं तथा इसी 'रायपसेणइय सुत्त' की टीका करते हुए टीकाकार मलय गिरि आचार्य ने यावत् शब्द से औपपातिक सूत्र के पाठ की टीका दी है, उसमें भी कथित अरिहंत चैत्य वाला पाठान्तर नहीं दिखाई देता । अतएव स्पष्ट मालूम होता है कि इस पाठान्तर का जन्म - चम्पा वर्णन में आर्हत् मंदिरों का नाम नहीं होने के कारण ही हुआ है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पानगरी और अरिहन्त चैत्य ********* हमें आश्चर्य तो सुन्दर मित्र की सुन्दर बुद्धि पर होता है कि वे मूल पाठ के " आकारवंत चैत्य" का ही अर्थ जिन मन्दिर करते हैं, देखिये ७८ ******* " उववाई सूत्र में चेइया - चैत्य का अर्थ ज्ञान न करके यक्ष का मंदिर किया है तो वास्तव में जैन मंदिर था । " ( पृ० ६६) मालूम नहीं होता कि सुन्दरजी ने किस आधार से यहाँ जैन मंदिर अर्थ किया, जबकि आपके टीकाकार और टब्बाकार ही इस विषय में मौन पकड़ रहे हैं, तब आप ऐसा हठ क्यों पकड़ रहे हैं, क्या मंदिर मूर्ति के मोह के कारण ही न? इसके सिवाय सुन्दर मित्र श्री अमृतचन्द्रजी के गुणगान और स्व. पूज्य श्री अमोलकऋषि जी महाराज साहब की निंदा करते पृ० ७० से लिखते हैं कि - "लोकागच्छाचार्य - अमृतचन्द्र सूरि 'अरिहंत चेइया' पाठ मूल में लिखकर उसे पाठान्तर बतलाते हैं यह आपका भव भीरू पना है कि सूत्र में था जैसा लिख दिया, तब ऋषि जी ने मूल पाठ से उस पाठ को निकाल कर फुट नोट में रख दिया । " जैसा सुन्दर मित्र ! आपने पाठान्तर को पाठ में मिला देने वाले अमृतचन्द्रजी की तो प्रशंसा कर दी, क्योंकि उनका प्रयत्न आपके मन भाता हुआ था, किन्तु आप यह बताइये कि आप ही के ये आगमोदय समिति के आगमोद्धारक और पं० भुरालालजी, पं० बेचरदासजी, जिन्होंने आपके प्रिय इस पाठान्तर को मूल पाठ में एक तिलभर भी स्थान क्यों नहीं दिया? और टीकाकार ने इसका निर्देश टीका करते हुए ही क्यों किया ? इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि यह वस्तु मूल के साथ रहने की नहीं है । इसलिए इतने प्रमाणों से यह पाठान्तर फुटनोट में Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ७६ रखकर पूज्यपाद अमोलकऋषि जी महाराज ने कोई अनुचित कार्य नहीं किया। हाँ, श्री अमृतचन्दजी तो मूल में पाठान्तर को मिलाने वाले होने से दोषी अवश्य हैं। आप भले ही उनकी प्रशंसा करें, उन्होंने तो ऐसा प्रयत्न किया कि जिससे पाठ और पाठान्तर का पता ही नहीं चल सके, इसलिए न्याय दृष्टि से यह धोखे बाजी है और ऐसी धोखे बाजी की प्रशंसा करने वाले भी...... ___मैं ऊपर बता चुका हूँ कि उववाई सूत्र में सुन्दराकार चैत्य के साथ युवती वेश्याओं के निवास का भी वर्णन आता है, जो मूर्ति पूजक विद्वानों को बहुत खटकता है। इसी का एक प्रमाण यहाँ पाठकों के सामने रखता हूँ। मूर्ति पूजक समाज की “आक्षेप निवारिणी समिति” की ओर से प्रकाशित होने वाली “जैन सत्य प्रकाश" नामक मासिक पत्रिका में श्री दर्शनविजय जी ने स्था० समाज के खिलाफ एक लेख माला प्रकाशित की थी, जिसका नाम था "जैन मंदिर" इस लेख माला में प्रथम वर्ष के तीसरे अङ्क पृ० ७६ में आपने उववाई सूत्र का पाठ निम्न प्रकार से दिया है। "आयारवंत चेइय विविह सन्निविट्ठ बहुला" इस मूल पाठ में से महामना श्री दर्शनविजय जी महाराज “जुवई" शब्द को बिलकुल हड़प कर गये, क्योंकि यह युवती अर्थ को बताने वाला है और इसका तात्पर्य "वेश्याओं" के निवासों से है, ऐसा टीकाकार का मन्तव्य है। ऐसा शब्द और वह भी महात्मा दर्शनविजय जी के मत से जिन मंदिरों के साथ, भला इसे वे कैसे सहन कर सकते हैं? चट से निकाल कर अलग फेंक दिया ___ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० पूयणवत्तिय ******************** ****************** और निर्भय बन गये। यह है इन महानुभावों को मूर्तिमति करतूतों का ज्वलंत प्रमाण * इन मन्दिरों और मूर्तियों के फंदे में फँसकर इन लोगों ने मूल की कैसी दशा बिगाड़ी है, यह उक्त प्रमाण के देखने पर स्पष्ट हो जाता है। अब पाठक ही सोचें कि क्या इस प्रकार धोखेबाजी चलाने से इनकी जड़ पूजा प्रमाणित हो जायगी? हरगिज नहीं। कदापि नहीं। न इस तरह पाठ प्रक्षेप से ही पाखण्ड चल सकता है। (१३) पूयणवत्तियं श्रीमान् सुंदरजी ने चौथे प्रकरण के पृ०७१ में लिखा है कि - "भगवान् महावीर की मौजूदगी में आपके भक्त लोग आपकी पुष्पादि से पूजाकर आत्म-कल्याण करते थे और इस विषय का शास्त्र में उल्लेख भी मिलता है जरा ध्यान लगाकर देखिये - अप्पेगइया वंदणवत्तियं, अप्पेगइया पूयणवत्तियं। (उववाई सूत्र) इस प्रकार उववाई सूत्र का नाम लेकर श्री ज्ञानसुन्दरजी भगवान् महावीर-जो कि सचित्त वस्तु को छूते भी नहीं थे, का पुष्पों से पूजा करने का कहते हैं और प्रमाण में उववाई सूत्र का उक्त पाठ बड़े साहस * केवल दर्शन विजयजी में ही नहीं बल्कि आचार्य श्री विजयलब्धि सूरिजी ने भी “जैन सत्य प्रकाश' वर्ष १ अंक ७ पृ० २०८ में “संतबालनी विचारणा" लेख में इस पाठ में से “जुवई" शब्द निकाल कर अपनी साहुकारी (तस्करवृत्ति) का परिचय दिया है। यह है इन लोगों की सैद्धांतिक सत्यता, मतमोह में पड़कर सैद्धांतिक चोरियां कर डालना तो इन लोगों के बायें हाथ का खेल हो गया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा से पेश करते हैं । किन्तु यह प्रयास भी बिना सोचे समझे किया गया है, यद्यपि 'वंदणवत्तियं' का अर्थ वंदना करना और 'पूयणवत्तियं' का अर्थ पूजा करना होता है । तथापि पूजा करना इस शब्द मात्र से यह तात्पर्य नहीं निकला कि "फूलों से ही पूजा की जाती हो' इसके लिए सुन्दर मित्र को जैन साधुओं का कर्त्तव्य ध्यान में रखते हुए "प्रश्न व्याकरण” प्रथम संवरद्वार में दया के ६० नाम में के "पूजा" विशेषण को ध्यान से समझना चाहिए। यदि सर्व प्रथम सुंदर जी यही सोचते कि जैन तीर्थंकर सचित्त हो या अचित्त किन्तु बाह्य वस्तुओं की पूजा ग्रहण नहीं करते। (हाँ उनके उपयोग में आने वाली वस्तुएं जैसे आहार, पानी आदि तो ग्रहण करते हैं । किन्तु केवल पूजा निमित्त ही चढ़ाई जाने वाली वस्तु ग्रहण नहीं करते ) तब सचित्त वस्तु तो ग्रहण करें ही कैसे ? दूसरा “प्रश्न व्याकरण" में दया को पूजा के नाम से पुकारा है और फूलों से पूजने में फूलों के जीवों की हिंसा होती है अर्थात् दया नहीं रहती। जब दया ही नहीं रहती तो फिर जैन सूत्रानुसार वह पूजा ही कैसे कही जा सके? स्पष्ट हुआ कि फूलों से पूजा करने का कथन जैन दृष्टि से बाहर है । उववाई सूत्र के उक्त शब्द का आशय भाव-पूजा-मानसिक भक्ति से हैं । प्रश्न व्याकरण में "पूजा" शब्द की टीका करते हुए मूर्ति-पूजक अभयदेव सूरिजी लिखते हैं कि - " पूया - पूजा ( पवित्रा) अथवा भावतो देवताया अर्चनम् ।" ८१ **** जब इन्हीं के टीकाकार महोदय पूजा का अर्थ 'भाव से देवता का अर्चन' करना बतलाते हैं, तब सुन्दर मित्र पूजा शब्द मात्र से फूलों को क्यों तुड़वाते हैं? इस प्रकार तो इसी शब्द से आप जल, चन्दन, केशर, धूप, दीप, अक्षत और द्रव्य आदि वर्तमान की समस्त पूजा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूयणवत्तियं 李安求字中李*****中空学会学术字*********茶************空中 सामग्री ले सकते हैं? किन्तु ऐसा करना अनर्थ परम्परा खड़ी करना है। वास्तव में यही ठीक है कि न तो स्वयं वीतराग प्रभु महावीर पुष्पादि से की हुई पूजा को स्वीकार करते थे, न स्वयं के उपयोग के लिए सचित्त वस्तु छूते थे। इतना ही नहीं अपने श्रमण वंशजों को भी प्रभु ने सचित्त वस्तु छूने की मनाई कर दी, जो आज पर्यन्त चली आती है। जब स्वयं वीर प्रभु सचित्त वस्तु का स्पर्श ही नहीं करते, तब उनकी भक्ति करने वाले प्रभु को मान्यता और आज्ञा के विरुद्ध सचित्त फूलों से उन की पूजा कर ही कैसे सकते हैं? पाठक स्वयं सोच लें। सुन्दर मित्र ने 'अप्पेगइया' आदि पाठ देकर 'लोंकागच्छ' के नाम धारक मूर्ति-पूजक यतियों का किया हुआ फूलों से पूजने का अर्थ पेश किया है, किन्तु यह अर्थ केवल मनः कल्पित है। यतियों ने ऐसा अर्थ करके जैन मान्यता और आगम की अवहेलना की है। चालू विषय में सुन्दर मित्र ने पृष्ठ ७२ में लिखा है कि - "श्रीमान् ऋषिजी को पूछा जाय कि “वंदणवत्तियं" का अर्थ तो आपने वन्दना, स्तुति कर दिया, जिसको आप भाव पूजा मानते हो। फिर “पूयणवत्तिया' का क्या अर्थ होता है? यदि आप भाव पूजा ही कहोगे तो आपके अनुवाद में पुनरुक्ति दोष आवेगा" आदि। वास्तव में सुन्दरजी में अज्ञता पूरी तरह से छाई हुई है। अभी तो सुन्दर मित्र द्रव्य भाव का भेद ही नहीं समझ सके हैं। क्योंकि द्रव्य पूजा उसे ही कहते हैं जो बाह्य रूप से हो जैसे - शरीर से झुककर नमन करना, कचन से स्तुति करना, ये द्रव्य पूजा है और मन से प्रभु के चरणों में अपने को अर्पित कर देना, बहुमान करना, प्रभु की अनन्त ज्ञानादि शक्ति पर विश्वास रखना और आज्ञाओं को हृदय में स्थापन करना है मानसिक भक्ति-भाव-पूजा किन्तु भाव शब्द जो कि मानस Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ८३ ****************** ***** का दूसरा नाम है, नहीं समझने वाले सुंदरजी शरीर और वाणी को ही मानस-भाव का रूप देते हैं । और अपनी अज्ञता दूसरों के शिर लादते हैं ? आश्चर्य है कि विद्वान् (?) सुन्दरजी किस बल पर आक्षेप करने को तैयार हुए हैं। महात्मन्! भावयुक्त भक्ति नमस्कार रूपी द्रव्य भक्ति से पृथक् है । देखिये इसी उववाई सूत्र का कोणिक वंदन अधिकार जिसमें स्वयं सूत्रकार ने भक्ति के तीनों भेद पृथक् २ इस प्रकार बताये हैं - “तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ तंजहा काइयाए वाइयाए माणसियाए, काइयाए ताव संकुइ अग्गहत्थपाद सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणणं पंजलिउडे पज्जुवासइ, वाइयाए जं जं भगवं वागरेइ एवमेअं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिहमेअं भंते! इच्छिअमेअ भंते! पडिच्छिअमेअं भंते! इच्छियपडिच्छियमेअं भंते! से जहेयं तुब्भे वदहं अपडिकूलमाणे पज्जुवासति, माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिव्वधम्माणुरागरत्तो पज्जुवासइ ।” सूत्र ३२ कहिये सुन्दरजी! सम्राट कोणिक जो कि श्री वीर प्रभु का अनन्य भक्त था, उसने भी प्रभु की फूलों से भक्ति नहीं की, केवल मन, वाणी और शरीर से ही भक्ति की । भक्ति के तीनों प्रकार सूत्रकार ने स्पष्ट बतला दिये, इनमें आपकी प्रिय ऐसी पुष्पों से पूजा तो है ही नहीं । कहिये फिर आपका फूलादि से पूजने का सिद्धांत कहाँ गायब हो गया ? जो कणिक राजा भगवान् पर अपनी अनन्य भक्ति के कारण सदैव प्रभु के समाचार मँगवाया करता था, इसी काम के लिए उसने कुछ सेवक भी रख छोड़े थे । भगवान् के समाचार सुनकर वह अत्यन्त Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूयणवत्तियं प्रसन्न होता था । इस प्रसन्नता में वह समाचार देने वाले को भारी पारितोषिक देता था । ऐसे परमोपासक राजेन्द्र भी प्रभु को दो कोड़ी के (बिना कीमत के - खुद के बगीचे के ) फूल भी नहीं चढ़ा सका । क्या इस भक्ति को वह नहीं जानता था ? या आप जैसे गौतमावतार राजा की सलाह देने वाले वहाँ नहीं थे? फिर क्या कारण है कि कोणिक ने फूलों से प्रभु पूजा नहीं की? सुन्दर मित्र ! इतना ही नहीं सम्राट कोणिक जब प्रभु वंदन को अपने स्थान से धूमधाम पूर्वक निकला था, तब उसके पास फूल जरूर थे, किन्तु समवसरण के निकट आते ही उसने फूलों को दूर कर दिया, देखिये वहाँ का सूत्र पाठ " सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए" ८४ टीका · "पुष्पादिसचेतनद्रव्य त्यागेन" कहिये मित्र ! अब तो स्पष्ट हुआ ? क्या अब भी आपका व लोकागच्छिय मूर्त्तिपूजक यतिजी का अनर्थ टिक सकता है? सुन्दरजी! आप यह नहीं समझ लें कि केवल कोणिक ने ही फूलों से पूजा नहीं की, किन्तु जैनागमों में अनेक राजा, महाराजा सेठ सेनापति आदि के प्रभु वंदन और भक्ति करने के अनेक वर्णन आये हैं। उन सब में यही बतलाया है कि-उन्होंने प्रभु का आगमन सुनकर प्रसन्नता प्रकट की, शीघ्रता से स्नान मंजनादि किये, वस्त्राभूषण से सुसज्जित हुए, फूल मालाएँ पहिनी और प्रभु वंदन को गये । वन्दन, नमस्कार किया, वाणी श्रवण की यथा शक्ति व्रत प्रत्याख्यान किये। जिन वचनों में अटल श्रद्धा की। धर्म के रङ्ग में अच्छी तरह रंग गये। किन्तु किसी एक ने भी प्रभु की फूलों से या अचित्त चावलों से ही पूजा की हो ऐसा अनेकों कथानकों में से किसी एक में भी नहीं मिलता। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******************************************** इसके सिवाय मेरे विचार से सुन्दरजी के समान सारी मूर्तिपूजक समाज के विद्वानों की मान्यता भी नहीं होगी। क्योंकि ऐसे ही प्रकरण पर विचार करते हुए श्री विजयानन्द सूरि “सम्यक्त्व शल्योद्धार" पृ० १०३ में लिखते हैं कि - “भगवान् भाव तीर्थंकर थे, इस वास्ते तिनकी वंदना स्तुति वगैरह ही होती है और तिनके समीप सतरां प्रकारी पूजा में से वाजिंत्र पूजा, गीत पूजा तथा नृत्य पूजा वगैरह भी होती है चामर होते हैं इत्यादि जितने प्रकार की भक्ति भाव तीर्थंकर की करनी उचित है उतनी ही होती है, और जिन प्रतिमा स्थापना तीर्थंकर है, इस वास्ते तिनकी सतरां प्रकार आदि पूजा होती है।" उक्त मंतव्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव तीर्थंकरों की पूजा फूलों से नहीं हो सकती। जब मूर्ति पूजक विद्वान् भी इस बात में अभी एक मत नहीं है, और यह बात जैन सिद्धान्त की विरोधिनी भी है। ऐसी हालत में मूर्ति के मोह में मस्त बने हुए सुन्दर मित्र बिना सोचे समझे अपना ही हठ फैलाते रहें तो इस के लिए दूसरा उपाय ही क्या है? सुन्दर मित्र! जरा कानों के पर्दे खोलकर सुनो। जैन श्रद्धान में वास्तविक पूजा वही मानी गई है कि जिसके द्वारा आत्मा हल्की होकर ऊर्ध्वगमन की ओर अग्रसर हो, जिसमें लाभ ही लाभ हो, किसी भी पर प्राण को किञ्चित् भी दुःखदायी न हो। ऐसी ही पूजा जैन शासन को मान्य है। ऐसी पूजा पद्धति को स्वीकार करने वाले ही शुद्ध श्रद्धावान् हैं। इसके विपरीत जो पर प्राणों को लूटकर प्रभु पूजा करने का कहते हैं - मानते हैं वे वास्तव में जैन सिद्धान्त का घोर विरोध करने के साथ अपने आराध्य पूज्य की आज्ञाओं को ठुकराते हैं। व्यर्थ में पर प्राणों को लूटकर अपनी आत्मा को भारी बनाते हैं और ऐसे हिंसाकारी कृत्यों में Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूयणवत्तियं प्रभु-पूजा मानकर शुद्ध श्रद्धा से वंचित रहते हैं ऐसे लोग प्रभु भक्त नहीं, पर कपूत की तरह प्रभु का अपमान करने वाले हैं। ८६ मान्यवर सुन्दरजी ! प्रभु की सच्ची पूजा फूलों से पूजने में नहीं, किन्तु उनकी आज्ञा पालन करने में है । जरा आंखें खोल कर अपनी ही समाज के विद्वानों के निम्न वाक्य पढ़िये - "इहाँ सर्व जो भाव पूजा है सो जिनाज्ञा का पालना है। " (विजयानन्द सूरि रचित जैन तत्त्वादर्श पृ० ४१६ ) "पूजा एटले तेओनी आज्ञा नुं पालन ।” ( श्री हरिभद्रसूरि, जैन दर्शन पृ० ४१) जब जिनाज्ञा पालन रूप ही पूजा मानी गई तब ऐसी पूजा में फूल, फल, पानी, अग्नि आदि की हत्या को स्थान ही कहाँ रहा? अतएव स्पष्ट हुआ कि जो लोग सचित्त वस्तुओं का उपयोग कर पूजा करते हैं, करवाते हैं, वे प्रभु पूजक नहीं किन्तु प्रभु के अपमान कर्त्ता हैं। श्रीमान् सुन्दरजी ने इस बात को पुष्ट करने के लिए समवसरण की पुष्प वृष्टि का उदाहरण दिया है। किन्तु यदि श्री सुन्दरजी अभिनिवेश को छोड़कर शान्त चित्त से विचार करते तो " रायपसेणइय ” सूत्र से इसका अच्छा स्पष्टीकरण हो सकता था। वहाँ स्पष्ट बताया गया है कि देवताओं ने अपनी वैक्रिय लब्धि द्वारा पुष्पों के बादल बनाये और उसी बादल में से वैक्रिय से किये हुए फूलों की वर्षा की। यदि वहाँ के जलज स्थलज शब्द से ही भ्रम हुआ हो तो यह भी व्यर्थ है क्योंकि यह जलज स्थलज शब्द उपमा में लिया गया है। जैसे वे फूल कैसे थे तो जैसे जल स्थल में उत्पन्न हुए फूल हैं वैसे । जिस प्रकार " शक्रस्तव " में " पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीआणं पुरिसवर गंधहत्थीणं" ये पाठ उपमा दर्शक है, उसी प्रकार उक्त उजल स्थलज शब्द भी है। इसी - *** Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ८७ ******************************************* प्रकार “रायपसेणइय" के मूल पाठ में वैक्रिय समुद्धात कर पुष्प वर्षा करने के प्रसंग से फूलों को तोड़कर पूजने का कहना मिथ्या ही है। यदि वे फूल जल स्थलोत्पन्न होते तो वैक्रिय से विकुर्वणा करने का नहीं कह कर जन्माभिषेक आदि प्रसङ्गों में बताये अनुसार “साहरण' करने का ही उल्लेख होता। ___ समवसरण के फूलों की सचित्तता के विषय में तो स्वयं मूर्तिपूजक विद्वान् ही अभी एक मत नहीं हैं। कुछ लोग उन पुष्पों को सचित्त ही मानते हैं, किन्तु बहुत से विद्वान् उन्हें अचित्त भी मानकर सचित्त मानने वालों से पूछते हैं कि यदि सभी फूल सचित्त मानोगे तो हजारों साधु साध्वी समवसरण में थे। उनको तो समवसरण में पैर रखना ही मुश्किल हो जायगा। इसलिए समवसरण में दोनों तरह के फूल मानने चाहिए। इस प्रकार मतान्तर है जिसका वर्णन “प्रवचन सारोद्धार" में किया गया है तथा “सेन प्रश्न' के उल्लास ३ प्रश्नोत्तर ३८ में भी सचित्त और अचित्त दोनों तरह के फूल माने हैं। पं० बेचरदासजी दोसी ने “रायपसेणइय सुत्त” की टिप्पण में इस विषय के कुछ मतान्तर देकर सचित्त मानने वाले मत को सत्य समझाने के लिए यज्ञ की हिंसा का उदारण देकर एक कटाक्ष फेंका है। अतएव जब मूर्ति पूजक समाज के विद्वान् ही अभी एकमत से समवसरण के फूलों को सचित्त मानने को तैयार नहीं है। तब आप हमें किस मुंह से सचित्त फूल बताते हैं? जो कि सूत्र आशय से सर्वथा विपरीत है। आपके पूर्वाचार्यों ने जो उन पुष्पों को अचित्त के साथ सचित्त भी बताया है उसका विशेष कारण मूर्ति पूजा से गठबन्धन होने का ही हो सकता है। इसलिए दोनों तरह की बातें करते हैं किन्तु वास्तव में सूत्र देखते तो पता लगता कि समवसरण में वैक्रिय से बनाकर ही पुष्प बरसाये गये थे Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ पृयणवत्तियं ******************************************* और वैक्रिय के पुद्गल अचित्त होने से हिंसा होती नहीं तथा ये पुष्प वर्षा भी किसी विशेष प्रसंग पर ही होती है, सदैव नहीं। इसके सिवाय ये बरसाये हुए पुष्प प्रभु पर गिरते हों यह भी प्रमाणित नहीं होता। प्रभु पर तो अशोक वृक्ष की गहरी छाया रहती थी, जिससे ऊपर से गिरने वाले पुष्प नीचे बैठे हुए प्रभु पर नहीं आ सकते थे। आश्चर्य तो इस बात का होता है कि जो जैन श्रमण किसी भी प्राणी का किसी भी करण योग से अहित नहीं चाहते और अपने को हिंसा के सर्वथा-नौकोटि से त्यागी होना बतलाते हैं वे ही यदि इन मूक जीवों के जानी दुश्मन बन हत्या करने का गला फाड़कर उपदेश दें और उसमें धर्म बतावें तो पानी को आग और अमृत को विष कहने में अतिशयोक्ति ही क्या है? अपने मनः कल्पित पाखण्ड को जनता के गले मढ़ने में ये लोग अकरणीय कृत्य भी कर डालते हैं। पाठकों की विशेष जानकारी के लिए मूर्तिपूजक आचार्य विजयानंद सुरिकृत “सम्यक्त्व शल्योद्धार" का एक अवतरण यहां दे दिया जाता है, आप मूर्तिपूजा में पुष्पों को होती हुई हिंसा को भी दया का जामा पहिनाते हैं, जरा ध्यान पूर्वक पढ़िये - . "पुष्प पूजा से तो उन श्रावकों ने उन पुष्पों की दया पाली है विचारों कि माली फूलों की चंगरे लेकर बेचने को बैठा है। इतने में कोई श्रावक आ निकले और विचारे कि पुष्पों को वेश्या ले जावेगी तो अपनी शय्या में बिछाकर ऊपर शयन करेगी और उसमें कितनीक की कदर्थना भी होगी कोई व्यसनी ले जावेगा तो फूल के गुच्छे गजरे बनाकर सूंघेगा, हार बनाकर गले में डालेगा या मर्दन करेगा कोई धनी गृहस्थी ले जावे तो वो भी उनका यथेच्छ भोग करेगा और स्त्रियों के शिर में गूंथे जावेंगे तो इत्र के व्यापारी ले जावेंगे तो फुलेल वगैरह Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा बनाने में उसकी बहुत विडंबना करेंगे इत्यादि अनेक विडंबना की संभावना को दूर करने के लिए और अरिहंत की भक्ति रूप शुद्ध भावना के निमित्त वह पुष्प श्रावक खरीद कर के जिन प्रतिमा को चढ़ावे तो उससे अरिहंत देव की भक्ति होती है और फूलों की भी दया पलती है, हिंसा क्या हुई ? (सम्यक्त्व शल्योद्वार पृ० १८० ) इस प्रकार भोगियों की ओट लेकर ये जोगी लोग फूलों के प्राणों के दुश्मन बनते हैं। विजयानंद सूरि की तर्क भी अजब प्रकार की है । वे भोले भाइयों को यों समझाना चाहते हैं कि हमारे श्रावकों ने माली से फूल खरीद कर उनकी दया कर ली और भोगी लोग ताकते ही रह गये | वाह महात्मन्! अच्छा झांसा दिया? आपके भगवान् को फूल चढ़ जाने से भोगी लोगों को फूल ही नहीं मिलेंगे ? क्या मैं आपसे यह पूछ सकता हूं कि आप माली से फूल खरीद करवा कर अधिक हिंसा तो नहीं करवा रहे हैं? क्योंकि इससे तो माली का रोजगार अधिक चलेगा और वो अधिक फूल पैदा करके बेचेगा । वह आपके भक्तों को भी देगा और भोगियों को भी देगा। इस तरह आप तो कदाचित् दुगुनी हत्या करवाने वाले माने जाओगे। बेचारे फूलों पर तो डबल आपत्ति आ गई। महानुभाव! वास्तव में आपके हृदय में फूलों के जीवों के प्रति दया के भाव थे तो आपका कर्त्तव्य था कि आप भोगियों को समझा कर उनसे फूलों की रक्षा करते और इसी से उनकी रक्षा हो सकती थी । किन्तु आपने तो रक्षा के बहाने उल्टी मार चला दी, यहाँ तो रक्षक सो ही भक्षक वाली कहावत घटित होती है। क्या महात्मन् ? जरा यह भी तो बतला दीजिये कि निम्न आज्ञायें ८६ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूयणवत्तियं ******************** **************** ** आपने अपने "जैनतत्त्वादर्श' ग्रन्थ में प्रदान की हैं, क्या ये भी दया से प्रेरित होकर की हैं? जैसे कि - “पत्र, बेल, फूल प्रमुख की रचना करनी xxx शतपत्र, सहस्र पत्र, जाइ, केतकी, चम्पादिक विशेष फूलों करी माला मुकुट सेहरा फूल घरादि की रचना करे।" . (पृ० ४०५) . “फूल घर कदलिघरादि महा पूजा करे।" (पृ० ४७३) "सुन्दर-अङ्गी, पत्र-भंगी, सर्वांगाभरण, पुष्पगृह, कदलीगृह, पूतली पाणी के यंत्रादि की रचना करे।” (पृ० ४७४) यहाँ कुछ प्रश्न करने की इच्छा होती है, अतः निम्न प्रश्न मूर्ति पूजक विद्वानों की सेवा में पेश किये जाते हैं। यथा - (१) क्या माली से खरीदे हुए फूलों से दया होती है, वैसे वृक्ष, लता से तोड़कर चढ़ाने में भी दया होती है? (२) आपके मन्दिरों के समीप तथा दूर फूलवारी रहती है। जिसमें से फूल तोड़कर पूजा के काम में लिये जाते हैं, तो क्या इसमें भी दया ही होती है? (३) आपके कल्प सूत्र में एक कथा आई है, उसमें लिखा है कि एक नगरी में बौद्ध मतानुयायी राजा ने जैनियों को पूजा के लिए फूल नहीं लेने दिये। जिससे दश पूर्वधर श्री वज्रस्वामी आकाश मार्ग से अन्य देशों में पहुँचे और वहाँ से लाखों फूल तुड़वा कर ले आये तो क्या यह भी दया का ही कार्य हुआ? इसमें हिंसा तो नहीं हुई ? ___(४) जिस प्रकार फूलों से पूजने में आपने दया बतलाई, उसी प्रकार जल, फल, धूप, दीप आदि से पूजने में भी दया है क्या?क्योंकिजल न्हाने, धोने और गुदा तक धोने के काम में आता है। फल को भी लोग काटकूटकर खाते हैं, कीड़े भी सड़ा देते हैं। अग्नि पर कोई खाना . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ****************************************** पकाता है तो कोई आमिष पकाता है। इस प्रकार सभी जीवों की विडंबना होती है। इसलिए जिस प्रकार फूलों की दया बताई, उसी प्रकार इन जीवों की भी दया होनी चाहिए? (५) पत्र, बेल, कदली फव्वारा आदि से महा पूजा करने में भी दया होती होगी क्या? श्री विजयानंदजी तो अब संसार में नहीं रहे। इसलिए मेरे प्रश्न का उत्तर उनके वंशज या श्री ज्ञानसुन्दरजी को ही देना चाहिए। अब तो गुरुओं की कृपा से वैदिक लोगों की भी चोंच खुल जायगी। पहले जैनी लोग उनके प्राणी यज्ञ को हेय दृष्टि से देख कर उन पर आक्षेप करते थे। पर अब यदि यह फूलों का हाल उन्हें मालूम हुआ तो वे भी तपाक से कह देंगे कि जिस प्रकार आप फूलों को भोगियों की विडंबना से बचाकर भगवद् भक्ति में लगाकर दया करते हैं उसी प्रकार हम भी पशुओं को अन्य म्लेच्छों के पेट में पड़ने से बचाकर यज्ञ में होम कर उन्हें स्वर्ग में भेजना चाहते हैं जिसे उन पर दया होती है। पक्षान्धता क्या नहीं कराती? अभिनिवेश में छके हुए लोग विष को भी अमृत कहते नहीं डरते। अस्तु, एक तरफ तो पुष्पा से पूजना पुष्पों की दया होना कही गई, अब दूसरा सिद्धान्त श्री विजयानंद सूरिजी का और देखिये - “सचित्त वस्तु अर्थात् जीववाली वस्तु फूल, फल, बीज, गुच्छा पत्र, कंद, मूलादिक तथा बकरा गाय सूअरादि इनको तोड़े, छेदे, भेदे, काटे सो जीव अदत कहिये, क्योंकि फूलादिक जीवों ने अपने शरीर के छेदने भेदने की आज्ञा नहीं दिनी है जो तुम हमको छेदो भेदो इस वास्ते इसका नाम जीव अदत्त है।" (जैन तत्त्वादर्श पृ० ३२७) ___ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ चमरेन्द्र और मूर्ति का शरण ******************************************* पाठक महोदय! देख लिया आपने? दोनों बातों में कितना अन्तर है? दोनों सिद्धान्त एक ही महात्मा के हैं। एक में हिंसा कारी विधान तो दूसरे में उसका निषेध। कैसा परस्पर विरोध? वास्तव में पक्ष व्यामोह चाहे सो करा लेता है। ___ हमारे इतने प्रयास से पाठक समझ गये होंगे कि जैन सिद्धान्त सचित्त और सावद्य पूजा का कदापि प्रतिपादन नहीं करता। श्री सुन्दरजी और विजयानंदजी ने जो भी हिंसाकारी बातें लिखी है वो केवल कपोल कल्पना ही है। जबकि प्रभु आज्ञा में ही धर्म माना जाता है और श्री सुन्दरजी ने भी “मेझरनामे' में इस बात को स्वीकार की है। तब प्रभु आज्ञा रूप प्रमाण क्यों नहीं पेश किये जाते? क्यों व्यर्थ ही अर्थ का अनर्थ किया जाता है? (१४) चमरेन्द्र और मूर्ति का शरण श्री ज्ञानसुन्दरजी ने चौथे प्रकरण के पृ० ७३ में लिखा है कि - "चमरेन्द्र ऊर्ध्व लोक में जाता है तब अरिहंत अरिहंत की प्रतिमा और भवितात्मा अनगार का शरणा लेकर ही जाता है" आदि। इसका उत्तर यह है कि - श्री मद्भगवती सूत्र श० ३ में चमरेन्द्र के ऊर्ध्व लोक में जाने का कथन है वहाँ यह बताया गया है कि जब चमरेन्द्र प्रथम स्वर्ग में गया तब निम्न शरणा लेकर गया, यथा - तंसेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं नीसाए सक्कं देविंद देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए.......सूत्र २७। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा अर्थात् - चमरेन्द्र विचार करता है कि मुझे श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की नेश्राय लेकर शक्रेन्द्र की अत्त्याशातना करने जाना ही श्रेयस्कर है। इसके बाद जब शक्रेन्द्र के भय से सौधर्म देवलोक से भागकर चमरेन्द्र पुनः लौटा तो श्री वीर प्रभु जो उस समय छद्यस्थावस्था में थे, उन्हीं की शरण में आया और उसके पीछे शक्रेन्द्र का वज्र भी और उसके पीछे शक्रेन्द्र अपने फेंके हुए वज्र को यह जानकर पुनः खींचने को दौड़े कि - तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं ६.३ **** अणगाराणय अच्चासायणाए । सूत्र ३१ अर्थात् - मेरे इस कार्य (वज्र फेंकने) से तथा रूप के अरिहंत भगवंत और अनगार की अत्याशातना होगी, यह बड़े दुःख का विषय है। पाठक देखेंगे कि - इन तीनों बातों में मूर्ति का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। न तो चमरेन्द्र ने सौधर्म देवलोक में जाते समय मूर्ति की शरण ली, न आया तब मूर्ति के शरण में और न शक्रेन्द्र ने मूर्ति की आशातना मानी, चमरेन्द्र ने जाते समय छद्मस्थ अरिहंत महावीर प्रभु की ही शरण ली थी, आया भी उन्हीं की शरण में और शक्रेन्द्र ने अत्त्याशातना भी अरिहंत भगवंत और अणगार महाराज की ही मानी । फिर मूर्ति का अडङ्गा क्यों बताया जाता है? यदि इनतीनों स्थलों पर शांत चित्त से विचार किया जाय तो यह बात सहज ही समझ में आ सकती है कि इसमें मूर्ति का अडङ्गा लगाने वाले केवल हठाग्रही ही हैं। इसके सिवाय ये लोग इसके पूर्व का एक पाठ यह पेश करते हैं कि - णणत्थ अरिहंते वा, "अरिहंत चेइयाणि वा " अणगारे वा भावियप्पणो । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ चमरेन्द्र और मूर्ति का शरण ***************************************** और इसका अर्थ करते हैं कि - इसके सिवाय अरिहंत, अरिहत प्रतिमा, भवितात्मा अणगार। इस प्रकार “अरिहंत चैत्य' शब्द लेकर उसका अर्थ अर्हन्मूर्ति करके मूर्ति की पूजा करना आगम सम्मत बतलाते हैं, यह प्रयास इनका सर्वथा विफल ही है कयोंकि यहाँ अर्हन्-चैत्य का मूर्ति अर्थ करना असंगत है। चमरेन्द्र प्रभु महावीर की शरण ग्रहण करके ही सौधर्म कल्प गया था और भयभीत होने पर आया भी उन्हीं प्रभु की शरण में, इसके सिवाय शक्रेन्द्र ने भी अरिहंत, भगवंत और अनगार बस इन ही की अत्याशातना मानी है। इस विषय में यहाँ सरल बुद्धि से यह समझना चाहिए कि - . एक तो उस समय इस भारतवर्ष में कोई साक्षात् भाव अरिहंत थे ही नहीं। प्रभु महावीर भी छद्मस्थावस्था में द्रव्य तीर्थकर थे इसलिए अरिहंत जो कि भाव निक्षेप है उनकी अनुपस्थिति में द्रव्य अरिहंत की शरण ली गई इसलिए यह “अरिहंत चेइयाणि वा” अधिक पद. लगाने की आवश्यकता हुई। दूसरा जब छद्मस्थ तीर्थंकर (अरिहंत) की ही शरण लेकर गया और पुनः वापिस उन्हीं के शरण में आया तो फिर छद्मस्थ अरिहंत की शरण भी तो पृथक् बतलाना आवश्यक है न? बस इसी उद्देश्य से यह अरिहंत चैत्य शब्द छद्मस्थ अरिहंतों की शरण बतलाने के लिए रखा गया है। किन्तु मूर्ति की शरण कहना मिथ्या है, यदि मूर्ति की शरण ही चमरेन्द्र को इष्ट होती तो वह उसी सौधर्म देवलोक की शाश्वती मूर्ति जो कि उसके अत्यन्त निकट थी, छोड़कर और अपनी जानको जोखिम में डालकर मनुष्य लोक जैसे अत्यन्त दूर स्थान पर प्रभु महावीर के आश्रय में क्यों जाता? Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह५ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************************************** इससे हमारे मूर्तिमति मित्र कहते हैं कि - मूर्ति की शरण क्यों जाय जिसकी शरण लेकर गया हो उसी की शरण जाना चाहिए। किन्तु इनका यह कथन भी अयोग्य है क्योंकि जब कोई व्यक्ति विकट परिस्थिति में फंसा हो तो वह अपनी शान्ति और रक्षा के लिए सबसे सरल, सहज और अत्यन्त निकट आश्रय को ही ढूंढता है। यद्यपि उसका उद्देश्य अपने घर या अन्य किसी उच्च आश्रय स्थान पर पहुँचने का होता है, तथापि जब वह जानता है कि विपत्ति का पहाड़ सिर पर मंडरा रहा है और कुछ क्षणों में अपने पूर्व लक्ष्य को छोड़कर अपने अत्यन्त ही निकट के किसी निरापद आश्रय को ढूंढ़ता है। विचार करो कि - एक मनुष्य नदी के उस पार जाना चाहता है। वह नदी के उस पार पहुँचने के लिए प्रस्थान भी कर चुका है। उसका ध्येय मात्र है उस पार पहुँचना। किन्तु यदि वह नदी पार करते करते थक जाता है, श्वास फूल जाता है, भुजायें ऐंठ जाती हैं तब अपनी जान बचाने के लिए पास ही के किसी आलम्बन को ढूँढ़ता है, उस समय वह किनारे का लक्ष्य छोड़कर पास ही के किसी टीले पत्थर या पेड़ आ दे का सहारा खोज कर उसी का आश्रय लेगा, जब उसकी थकान दूर होगी तब वह आगे बढ़ेगा। अतएव सरल बुद्धि से समझिये कि यदि चमरेन्द्र को मूर्ति की शरण लेनी इष्ट होती तो वे अपनी खतरनाक परिस्थिति में अत्यन्त निकट स्थान वाली मूर्ति को छोड़कर इतनी दूर कदापि नहीं आता। अतएव मूर्ति की शरण कहना ठीक नहीं है। अरे भाई! मूर्ति स्वयं अपना ही रक्षण नहीं कर सकती, जिससे बेचारी को ताले में बन्द रहना पड़ता है, भक्त लोग मूर्ति की रक्षा के लिए सशस्त्र पहरेदार रखते हैं, इतना होते हुए भी चोरियाँ हो ही जाती Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ चमरेन्द्र और मूर्ति का शरण ******************************************* हैं। भला ऐसी मूर्ति जो अपना ही रक्षण आप न कर सके और दूसरों के आश्रय में रहे, वह क्या किसी के लिए शरण भूत हो सकतीहै? कदापि नहीं। स्पष्ट सिद्ध हुआ कि मूर्ति की शरण बतलाना एकदम मिथ्या है। शक्रेन्द्र ने जब यह सोचा कि - सौधर्म स्वर्ग में चमरेन्द्र अरिहंत और अनगार महाराज के नेश्राय बिना नहीं आ सकता है तब उन्हें विचार हुआ कि - तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं, अरहंताणं, भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए। ____यहाँ शक्रेन्द्र ने अरिहंत, भगवंत और अनगार महाराज की अत्याशातना ही मानी है। इसमें अर्हत चैत्य शब्द नहीं होने से सुन्दरजी ने सोचा कि इससे हमारे मूर्तिमत को बाधा पहुँचती है और इस पाठ से कहीं हमारे मूर्ति पूजक कुछ शङ्का नहीं उठा लें, इसलिए सुन्दर मित्र ने यह कहकर जाल फैलाया है कि - "अरिहंत की आशातना में ही अरिहंत मूर्ति की आशातना का समावेश है।" ___ यह सुन्दर चाल भी विचित्र है। यदि अरिहंत शब्द में मूर्ति का समावेश हो जाता है तो सुन्दर मित्र अरिहन्त चैत्य शब्द के लिए क्यों व्यर्थ का कुतर्क करते हैं? किन्तु नहीं, सुन्दरजी जहाँ अरिहंत चैत्य होगा वहां तो अरिहंत शब्द में मूर्ति होना नहीं मानकर अरिहंत चैत्य शब्द से मूर्ति अर्थ मानेंगे और जहाँ नहीं होगा अरिहंत शब्द में ही मूर्ति मानकर केवल उसी शब्द से मूर्ति की वन्दना, पूजा भी मान लेंगे। यह प्रत्यक्ष पक्ष व्यामोह है, सुन्दरजी को अत्याशातना के स्थान पर अरिहंत चैत्य नहीं होने से अरिहंत शब्द ही से मूर्ति की आशातना मानकर अपना काम चला लेना पड़ा। किन्तु सुन्दर बन्धु को यह भी मालूम नहीं है कि आगम में तेंतीस प्रकार की आशातना बतलाई है, उसमें भी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ६७ ****本*****************子********字中李*******卒* अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, यावत् सर्वप्राण, भूत, जीव सत्त्व तक की आशातना मानी है, इन तेंतीस बोलों से एकेन्द्रिय प्राण भूतादि की भी आशातना मानी, किन्तु इसमें भी मूर्ति की तो कोई भी आशातना नहीं बतलाई, फिर सुन्दर मित्र का कथन मिथ्या होने में क्या कसर है? __सुन्दर मित्र! संसारी जीवों के शरण भूत जिन चार पदों का निर्देश किया गया है उसमें सारी जैन समाज एक मत है, क्या उसमें भी आपकी मूर्ति को स्थान है? नहीं, कदापि नहीं देखिये। चत्तारिसरणंपवज्जामि-अरिहंतासरणंपवज्जामि, सिद्धा सरणं पवज्जामि, साहु सरणं पवज्जामि, केवलि पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। इस सर्व मान्य और संसार रत जीवों के शरणभूत सिद्धान्त में भी मूर्ति को स्थान नहीं है। अतएव सुन्दरजी का प्रयत्न विफल ही है। सुन्दरजी ने छद्मस्थ अरिहंत को साधु पद में बताकर भवितात्मा अनगार में उनका समावेश होना लिखा और अरिहंत चैत्य को मूर्ति के लिए सुरक्षित रख लिया, यह व्यर्थ की खींचतान है। इन्हें समझ लेना चाहिए कि छद्मस्थ अरिहंत को अरिहंत चैत्य शब्द से पृथक् बतलाने का खास कारण यह है कि चमरेन्द्र इन्हीं छद्मस्थ अरिहंत का शरण लेकर सौधर्म स्वर्ग गया था और आया भी इन्हीं की शरण में। यहाँ छद्मस्थ अरिहंत प्रभु महावीर ही मुख्य एवं आश्रयभूत पुरुष हैं, अतएव इनसे विशेष सम्बन्ध होने के कारण यह पद अधिक लगाया गया है, किन्तु सूत्र रहस्य से अनभिज्ञ सुन्दरजी को यह बात मालूम कैसे हो? श्री सुन्दरजी! जिस प्रकार वैयावृत्याधिकार में सूत्रकार ने आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रुग्ण, बाल आदि को मात्र साधु पद में ही Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमरेन्द्र और मूर्त्ति का शरण नहीं गिनाकर पृथक् पृथक् गिनाया है इसका भी खास कारण यही है कि वैयावृत्य के पात्रों का स्पष्ट ज्ञान हो जाय, इसी प्रकार आश्रय दाता छद्यस्थ अरिहंत के लिए उक्त शब्द पृथक् रखना स्वाभाविक हैं। इसके सिवाय यदि सुन्दर कथनानुसार उक्त शब्द का मूर्ति अर्थ मान भी लें तो भी कोई बाधा नहीं है क्योंकि जिस प्रकार पहले देशी राज्यों में धर्म स्थानों की इतनी मर्यादा थी कि वहाँ पहुँचने वाला अपराधी जब तक वहाँ रहता गिरफ्तार नहीं किया जाता, अथवा जैसे किसी एक महात्मा के दो भक्त हैं, यदि दोनों के आपस में तकरार हो गई हो और उनमें से किसी ने वहाँ महात्मा के नामकी दुहाई (शपथ) दे दी, हो तो वहाँ भी झगड़ा आगे बढ़ने से रुकना संभव है । हमारे इस प्रांत में एक ऐसा डाकू था कि यदि उसे कोई “मामा" कह दे तो फिर वह उसकों लूटता नहीं था । इस तरह मात्र नाम या मकान से भी असर होना पाया जाता है, जिस राजा के राज्य में रहते हों उसकी दुहाई देने से भी पहले बहुत बचाव हो जाता था । इस तरह नाम मात्र ही माने उसके लिए असर कारक हो सकता है तो इस तरह मूर्ति हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु इसमें आत्मिक कल्याण मानना तो सचमुच विचार शून्यता है * और ऐसे प्रमाण देना ही अनुचित हैं। आशा है सुन्दरजी इस पर गहरा विचार कर अपने पकड़े हुए हठ को छोड़ेंगे। ६८ * अरिहंत चैत्य शब्द के लिए यहाँ यह भी संदेह होता है कि जिस प्रकार उपासक - दशांग, उववाई का अंबड़ाधिकार तथा चम्पा वर्णन में गड़बड़ी हुई है और पाठ प्रक्षिप्त हुए हैं, उसी तरह यहाँ भी तो ऐसा नहीं हुआहो ? क्योंकि चारों स्थलों में शब्द एक समान ही हैं। तीन स्थलों की चालाकियें तो पकड़ली गई किन्तु यदि शोधक विद्वान् खोज करेंगे तो संभव है इस स्थल के विषय में भी कुछ पता लगे । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ६६ (१५) देवाणं-आसायणाए मि० ज्ञानसुन्दरजी ने अपने पोथे के पृ० ७५ में लिखा है कि - आप खुद भैरव वगैरह की मूर्ति को पूठ देकर नहीं बैठते हो आपके सब साधु साध्वी प्रतिदिन दो वक्त प्रतिक्रमण करते समय कहते हैं कि - "देवाणं आसायणाए, देवीणं आसायणाएं" इसको जरा सोचो एवं समझो कि उन देव देवी की पाषाणमय मूर्तियों की आशातना की हो तो मिच्छामि दुक्कडं स्वयं आपको देना पड़ता है, जब मूर्ति की आशातना का इतना बड़ा पाप है तो उसकी भक्ति का पुण्य होना तो स्वतः सिद्ध है इसमें सवाल ही क्या हो सकता है ? मिस्टर सुन्दरजी का उक्त कथन भी विचार शून्यता का है। क्योंकि “देवाणं आसायणाए, देवीणं आसायणाए" का तात्पर्य देवी-देवता की पाषाणमय मूर्ति से नहीं है। सूत्र में ३३ प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है, उसमें अरिहंत से लेकर साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, इहलोक, परलोक, धर्म, देव, मनुष्य युक्त लोक, काल, सूत्र, सूत्रदाता, सर्वप्राणी, भूत, जीव, सत्त्व इनकी भी आशातना बताई गई है तो क्या सुन्दर हिसाब से सभी आशातनाओं का मतलब मूर्ति से ही है? सुन्दरजी! कुतर्कों से बाज़ आओ, ये आशातनाएं मूर्ति से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखती, "न देवाणं आसायणाए" का तात्पर्य ही मूर्ति आशातना का है। क्यों बेचारे भोले भोंदुओं को भ्रम में डालते हो? "देवाणं आसायणाएं" का मतलब देवताओं का अस्तित्व नहीं स्वीकार ने से या उनके अवर्णवाद बोलने से ही है, किन्तु मूर्ति से नहीं। “ठाणाङ्ग सूत्र में भी दुर्लभ बोधि होने के पांच Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० देवाणं-आसायणाए ***************** ******************** कारणों में सम्यग्दृष्टि देवताओं का अवर्णवाद बोलने को दुर्लभ बोधि कहा है किन्तु मूर्ति की आशातना तो वहाँ भी नहीं कही, फिर सुन्दर कथन के थोथेपन में क्या कसर है? और वैसे तो चाहे कोई भी क्यों न हो, निंदा या आशातना तो किसी की भी नहीं करना चाहिए। निंदा बुरी है, इसे सभी बुरी कहते हैं, किन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि वस्तु स्थिति का सत्य एवं स्पष्ट निर्देश करना निंदा नहीं है। मिथ्या को मिथ्या और झूठ को झूठ कहना निंदा नहीं पर सत्य की रक्षा है। पाप को पाप कहने वाला निंदक नहीं होकर धर्म की रक्षा और धर्म का पालन करने वाला कहा जाता है। अतएव आपका तर्क व्यर्थ ही ठहरता है। जबकि - प्रशंसा और वंदन नमस्कार सद्गुण है तो क्या भैरवभवानी, चण्डी-मण्डी आदि को आप वंदन नमस्कार करेंगे? उनकी प्रशंसा करेंगे? अजैन, बाबा, जोगी, सन्यासी, फ़कीर आदि की प्रशंसा और वन्दन नमस्कार करेंगे क्या वैसे ही वेश्या, शिकारी, जुआरी, कुत्ता, सिंह शूकर आदि को भी वंदनादि करेंगे क्या? नहीं, वहाँ आप स्वयं ऐसा करना अस्वीकार करेंगे। इसी प्रकार जरा सरल बुद्धि से यह भी समझिये कि - यद्यपि निंदा नहीं करना सर्व मान्य सिद्धान्त है, तथापि प्रशंसा तो हर किसी की नहीं की जा सकती, उसी प्रकार जैसे को तैसा कहना कोई निंदा या बुराई नहीं है। ज्ञान सुन्दर जी! कितने ही मूर्तिमति ऐसे भी कुतर्क करते हैं कि"तुम्हारे पिता के चित्र को नमस्कार करो अगर नमस्कार नहीं करो तो पैरों तले रोंदौ" यह कथन भी अज्ञता का है। हमारा तो यह सिद्धान्त है कि हमारे पूज्य पिता श्री हमारे पूज्य हैं। उनका चित्र नहीं, किन्तु मैं आपके कुतर्क के खण्डन में आप ही से पूछता हूँ कि - आप किसी अन्य Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १०१ ****************************************** धर्मानुयायी सुज्ञ को कहें कि भाई! तुम्हारे धर्म के विपरीत श्रद्धान वाले अमुक पुरुष को वंदना नमस्कार करो। जब वह “ना” कहे तो फिर कहो कि - तुम उसे नहीं मानते हो तो जूते मारो, फिर देखिये वह आपको क्या जवाब देगा? यही कि महाशय! आप भी अच्छे निकले, भला मैं वन्दना क्यों करने लगा और जूते भी क्यों मारने लगा? यह कहाँ की बुद्धिमानी है? अतएव ऐसा कुतर्क करने वालों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि - जिनको आदर नहीं दिया जाता, उनका अपमान भी नहीं किया जाता, गुण निष्पन्न वस्तु को ही यथोचित आदर दिया जाना चाहिए। हम भी मूर्ति को वंदन नमस्कार नहीं करते हैं, उसी प्रकार अपमान भी नहीं करते हैं किन्तु वस्तु स्वरूप का वर्णन करते जैसे को तैसा अवश्य कहते हैं। इसमें मान अपमान की कोई बात नहीं है, वस्तु के सत्य स्वरूप को प्रकट करना सत्याग्रह एवं धर्म रक्षा है। इस सिद्धान्त को अच्छी तरह समझ कर द्वेष बुद्धि को छोड़ देना चाहिए। (१६) आनन्द-श्रमणोपासक श्री ज्ञानसुन्दर जी ने चौथे प्रकरण के पृ० ७८ से आनन्द श्रमणोपासक विषयक कलम चलाते हुए लिखा है कि - "आनंद श्रावक ने मन्दिर बनवा कर मूर्तियें स्थापित की थी और मूर्ति पूजा करता था ऐसा उपासक दशांग के “अरिहंत चेइयाई" शब्द से और समवायांग सूत्र से प्रमाणित होती है। ___मित्र ज्ञानसुन्दरजी के इस प्रकार के लेख से पाया जाता है कि - ये जड़ पूजा के रंग में पूरे रंगे हुए हैं, इसी से जहाँ एक बूंद तक नहीं हो वहाँ महासागर दिखाने जैसी व्यर्थ चेष्टा करते हैं। क्योंकि उपासक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ आनंद-श्रमणोपासक दशांग सूत्र के आनन्दाधिकार में तो ठीक पर सारे सूत्र में कहीं भी किसी श्रावक के मूर्ति पूजने का नाम निशान तक नहीं है। फिर सुन्दर मित्र क्यों व्यर्थ में आकाश पाताल एक कर रहे हैं? आनंद श्रावक ने मन्दिर बनाये या मूर्ति पूजा की या संघ निकाल कर यात्रा की, ऐसा कथन सूत्र में तो अणुमात्र भी नहीं है। इस विषय में मूर्ति पूजक लोग जो कुछ भी कहते हैं, कल्पना कहानी मात्र है। मूर्ति-पूजा के समर्थक श्री ज्ञानसुन्दरजी ने आनंद श्रमणोपासक को मूर्ति-पूजक ठहराने के लिए आनंद की त्याग प्रतिज्ञा का अवतरण दिया है, यहाँ हम उस स्थल का प्राचीन प्रति के आधार से शुद्ध पाठ देते हैं। ‘णो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिई अण्णउत्थिर वा, अण्णउत्थिय देवयाणि वा, अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि "चेइयाइं" वंदित्तए वा णमंसित्तए वा, पुव्विंअलाणत्तेणं आलवित्तए वा, संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥' ___ यह आनंदाधिकार का शुद्ध पाठ प्राचीन प्रति के अनुसार है इसमें आनंद श्रावक ने त्याग कोटि की प्रतिज्ञा करते हुए कहा है कि - हे प्रभो! आज पीछे मुझे अन्ययूथिक (जैन के सिवाय अन्य मतावलम्बी) को अन्ययूथिक देव को और अन्ययूथिक के ग्रहण किये हुए साधुओं को वंदन नमस्कार करना, उनके बोलाने के पहिले ही बोलना, बारम्बार बोलना, अशनादि देना, बारम्बार देना नहीं कल्पता है। इस सूत्र में मूर्ति पूजने या नहीं पूजने का नाम भी नहीं है, किन्तु मूर्ति-पूजक बन्धुओं के पूर्वज आनंद के सारे अध्ययन में मूर्ति का नाम ____ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********** भी नहीं देखकर अपनी मूर्ति-पूजा रूपी कही जाने वाली धर्म करणी को प्रमाण शून्य समझने लगे, तब उन लोगों ने इस पाठ में एक शब्द और अपनी ओर से बढ़ा दिया, जहाँ प्राचीन प्रति में " अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि चेइयाई” वाक्य है वहाँ " अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि "अरिहंत" चेइयाइं पाठ बना दिया अर्थात् इस सारे वाक्य में “अरिहंत” शब्द अधिक प्रक्षिप्त कर दिया और अर्थ करने लगे कि . १०३ - " अन्यतीर्थियों के ग्रहण किये हुए अरिहंत चैत्य अर्थात् “जिन प्रतिमा" इसे आनंद को वन्दनादि करना नहीं कल्पे । " इस विषय में थोड़ासा विचार किया जाता है। आज जितनी भी प्राचीन और प्राचीन से प्राचीन प्रतियें उपासक दशांग की मिलती हैं, उनमें यह बढ़ाया हुआ (अरिहंत) शब्द है ही नहीं, मेरे जानने में आया है कि जैसलमेर के प्राचीन शास्त्र भंडार में उपासकदशांग की ताड़ पत्र पर लिखी हुई एक प्रति है यह बहुत प्राचीन है इसमें भी " अरिहंत" शब्द नहीं है १. एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से प्रकाशित उपासक दशांग सूत्र में तो "अरिहंत चेइयाइं" ये दोनों शब्द नहीं है । इस विषय में इस सूत्र के अनुवादक महोदय प्रो० ए. एफ. रुडोल्फ होर्नल साहब ने एक नोट लिखकर यह बताया है कि - प्राचीन प्रतियों में "अरिहंत" शब्द नहीं है और "चेइयाणि” शब्द यद्यपि प्राचीन पुस्तकों में है तथापि यह शब्द भी टीका से लेकर मूल में मिलाया हुआ पाया जाता है। २. श्वे० मूर्ति पूजक समाज के समर्थ विद्वान् पं० बेचरदासजी दोसी ने “भगवान् महावीर ना दश उपासको" नामक ग्रन्थ गुजराती भाषा में लिखा है (जो उपासक दशांग का अनुवाद है) उसमें Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आनंद-श्रमणोपासक आनंदाधिकार के इस पाठ का अर्थ पृ० १४ में इसी एशियाटिक सोसायटी की प्रति के अनुसार इस प्रकार दिया है। “आज थी अन्य तीर्थीको ने अन्य तीर्थिक देवताओं ने अन्य तीर्थ के स्वीकारेलाने, वन्दन अने नमन करवूमने कल्पे नहीं।" ३. स्वयं सुंदर मित्र ने भी अपने मूर्ति-पूजा के प्राचीन इतिहास के चौथे प्रकरण पृ० ८० में यही पाठ दिया है उसमें भी यह “अरिहंत' शब्द नहीं है। इसके सिवाय पृ० ८१ में यह लिखकर कि “अरिहंत शब्द के लिए कई प्रतियों में होने पर भी आप इनकार करते हो।" स्वीकार किया है कि "अरिहंत शब्द कई प्रतियों में नहीं भी है।" यदि सभी और प्राचीन प्रतियों में “अरिहंत" शब्द होता तो सुन्दर मित्र "कई प्रतियों में होने पर" ऐसा कदापि नहीं लिखते। ____ अतएव सिद्ध हुआ कि - आनंद प्रतिज्ञा में “अरिहंत" शब्द मूर्ति पूजकों ने अधिक बढ़ा दिया है और इसका मुख्य आशय मूर्तिपूजा को आनंद प्रकरण में मिलाने का ही है किन्तु हमारे पूजक बन्धुओं की यह करामात भी यहाँ व्यर्थ ही सिद्ध हुई। इनके इस प्रक्षिप्त शब्द से भी इनका अभिष्ट सिद्ध नहीं हो सका और इस “अरिहंत" शब्द के होते हुए भी अर्थ तो प्रकरण सङ्गत “साधु" ही अनुकूल हुआ। क्योंकि- .. . इस प्रतिज्ञा से आनन्द का यह आशय है कि मैं अन्य तीर्थिक अन्य तीर्थिकदेव और अन्य तीर्थिकों के ग्रहण किये हुए साधुओं को वन्दना नमस्कार आहार, जल, खादिम, स्वादिम नहीं दूंगा, वारम्बार भी नहीं दूंगा। बुलाने से पहले बोलूंगा भी नहीं आदि आदि यह विषय स्वयं अपनी शक्ति से यह बता रहा है कि यह प्रतिज्ञा मनुष्य से सम्बन्ध रखने वाली है। अलाप संलाप मनुष्य से ही होता है, आहारादि भी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********************************** १०५. ********** मनुष्य को दिया जाता है। मूर्ति से तो इन बातों का सम्बन्ध ही नहीं है। हाँ यदि इसमें धूप, दीप, नैवेद्य, पत्र, फल-फूल, जल, अक्षतादि चढ़ाने की बात होती, आरती उतारने की प्रतिज्ञा होती, दर्शन-पूजन का कहा गया होता तब तो विचार को कुछ अवकाश भी होता, किन्तु सूत्र में तो स्पष्ट मनुष्यों के खाने पीने की आवश्यक वस्तुओं और भक्ति का उल्लेख किया गया है, फिर ऐसे स्थल पर प्रकरणानुकूल " साधु" अर्थ नहीं करके मूर्ति अर्थ करने वाले किस प्रकार सुज्ञ कहे जा सकते हैं? सुन्दर मित्र ने ऐसे उत्तर पर यह भी कुतर्क की है कि "जो साधु जैन से भ्रष्ट होकर अन्य तीर्थी बन गया है वह तो अन्य तीर्थी में गिना जा चुका है फिर उसे पृथक् बताने की क्या आवश्यकता है?" इस विषय में सुन्दरजी को समझाया जाता है कि साधु दो प्रकार के होते हैं, एक तो गृहस्थावस्था से साधु अवस्था में आते हैं, दूसरे किसी समाज के साधुओं में से निकल कर किसी दूसरे समाज के साधुओं में मिल जाते हैं । यहाँ इनकी भिन्नता बताने का कारण भी है । वह यह है कि - जो गृहस्थावस्था से अन्य समाज के साधु बन हैं वे तो स्वाभाविक तौर से अपना काम करते रहते हैं जैन समाज का उनसे अधिक परिचय नहीं होता, अतएव उनके पास स्वभाव से ही आना-जाना नहीं होता है । किन्तु जो जैन साधुत्व से भ्रष्ट होकर अन्य समाज में मिल जाता है उसका साधारण जैन गृहस्थ समुदाय से परिचय भी अधिक रहता है । उस परिचयाधिक्य के कारण कोई जैन गृहस्थ उसके पास जाय तो वो स्वयं गृहस्थ के पास आकर परिचय बढ़ा कर अपना मिथ्या जाल फैलावे तो उससे बचने के लिए यह भिन्न और स्वतंत्र स्थान (वाक्य) रखा गया है और इसका होना भी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आनंद-श्रमणोपासक ******************************************** आवश्यक है, क्योंकि ऐसे भागे हुए लोग पूर्व समाज के लिए अधिक हानि कारक हैं। यह तो सभी जानते हैं कि साधुमार्गी समाज के लिए हानिकारक जितने अन्य मूर्ति पूजक नहीं उतने यह भागे हुए आत्मारामजी बुरेरायजी आप खुद और पीछे के कान्हजी तथा भ्रष्ट पंचक आदि हैं। इन लोगों ने अपना पूर्व परिचय का जाल फैलाकर और उन लोगों में घुस-घुस कर बहुतों को श्रद्धा भ्रष्ट कर दिया है। आप भी सं० १९६५ के चातुर्मास में ब्यावर में इस कूट नीति का अनुसरण कर चुके हैं। बस इसी कारण से अन्य तीर्थी के ग्रहण किये हुए से परहेज रखने की आनंद ने प्रतिज्ञा ली थी और उस समय उसकी आवश्यकता भी थी, क्योंकि उस समय जमाली गोशालक ने अपनी-अपनी खीचड़ी अलग पकाना प्रारम्भ कर दिया था। उनमें जितने भी साधु साध्वी आदि थे प्रायः जैन साधु संस्था में से गये हुए थे, इसलिए उनसे परिचय नहीं बढ़ाकर उनसे घृणा करना भी समाज रक्षकों का मुख्य कर्त्तव्य था, जिसका ज्वलंत प्रमाण सकडाल पुत्र श्रावक का गोशालक के प्रति अनादर भाव है। इसलिए उसने गौशालक को अपने घर चले आने पर भी मान नहीं दिया। यह अन्य तीर्थी को या उसमें मिल जाने वालों को आदर आदि नहीं देने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतएव ऐसी शङ्का को तनिक भी स्थानं नहीं है। हमारे मूर्ति-पूजक भाई “अरिहंत चेइयाइं" से जिन प्रतिमा अर्थ करके यह कहते हैं कि “आनंद को अन्य तीर्थकों की ग्रहण की हुई जिन मूर्ति को वन्दनादि नहीं कल्पता है।" किन्तु यह कथन भी असत्य और युक्ति से शून्य है, क्योंकि जिन मूर्ति किसी के ग्रहण कर लेने मात्र से अपूज्य या अवन्दनीय नहीं हो जाती, न मूर्ति के ही रूप में परिवर्तन होता है चाहे, जैन उसकी पूजा करे या अजैन किन्तु इससे Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १०७ ******李李**李********李李李李李李***本***空********* उसमें किसी प्रकार की भिन्नता नहीं होती। हाँ साधु तो अन्य के ग्रहण कर लेने से अवन्दनीय हो सकता है, क्योंकि जैन मात्र के लिए गुरु पद में पंच महाव्रतादि मूल और उत्तरगुण युक्त मुनि ही वन्दनीय पूजनीय है और अन्य तीर्थी के ग्रहण कर लेने से (अन्य समाज में मिल जाने से) साधु में ये गुण नहीं रहते हैं, वे जैन दृष्टि से शुद्ध सम्यक्त्व से भी रहित हो जाता है। अतएव अवन्दनीय अवश्य है, किन्तु मूर्ति के लिए तो यह बाधा है ही नहीं मूर्ति तो जहाँ होगी वहाँ एक ही रूप में होगी फिर अन्य के ग्रहण कर लेने मात्र से मूर्ति अछूत क्यों और कैसे हो सकती है? जिस प्रकार तीर्थंकर प्रभु और अनगार महात्मा अन्य सामाजिकों के वन्दन नमन करने पर भी जैन के लिए वन्दनीय पर्युपासनीय रहते हैं, उसी प्रकार मूर्ति भी आप के हिसाब से रहनी चाहिए। ___ साधु के अन्य समाज में मिल जाने पर उसको श्रद्धा जैनधर्म और सिद्धांतों पर नहीं रहती, वह जैनत्त्व को ही हेय समझता है, इसलिए जैनियों के लिए तो वह अवश्य अवंदनीय है। किन्तु मूर्ति तो जैनियों के अधिकार में होने पर भी जड़ है और अन्य के अधिकार में जाने पर भी जड़ ही रहती है ? जिन मूर्ति को यदि अन्य तीर्थी ग्रहण कर ले और उसे अपना देव मानकर वन्दे पूजे तो यह तो मूर्ति-पूजकों के लिए प्रसन्नता की बात होनी चाहिए? क्योंकि वे लोग जैनियों के देव को मूर्ति पूजकर मूर्ति-पूजकों के हिसाब से जिनोपासक होते हैं अतएव इसमें मूर्ति की अपूज्यता की बाधा क्यों होनी चाहिए? . ___कितने ही मूर्ति-पूजक लोग यहाँ यह तर्क करते हैं कि - "जिस प्रकार सम सूत्र मिथ्या दृष्टि के हाथ में जाने से विषम हो जाते हैं उसी प्रकार जिन मूर्ति भी अन्य के अधिकार में जाने से अवंदनीय हो जाती हैं।" किन्तु यह कथन भी अज्ञता का है, क्योंकि सूत्र Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आनंद-श्रमणोपासक ********* ************************** (पुस्तक रूप) स्वयं अन्य तीर्थी के हाथ में जाने से विषम नहीं बन जाते, सूत्र तो सम ही हैं और सम ही रहते हैं, किन्तु सम-विषमता तो पाठक की योग्यता पर निर्भर है। पाठक यदि विषम मति (मिथ्यादृष्टि) होगा तो वह सम सूत्र का अर्थ भी उल्टा विषम कर डालेगा और पाठक समदृष्टि होगा तो सत्य अर्थ करेगा अतएव सूत्र की सम विषमता पाठक की योग्यता की अपेक्षा रखती है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सूत्र स्वयं विषम बन जाय। जैसे कि कोई सूत्र सम सूत्र है और वो विषम दृष्टि वाले के हाथ में है तो उस विषम दृष्टि वाले के लिए उसके विपरीत अर्थ लगाने के कारण विषम हो सकता है किन्तु वही सूत्र उसी समय किसी समदृष्टि सुज्ञ के हाथ में जायगा तो वह उसका सम अर्थ ही करेगा अतएव सिद्ध हुआ कि सूत्र तो सम ही है विषम नहीं, किन्तु सम विषम तो पाठक की बुद्धि का परिणाम ही है। मिथ्यादृष्टि या विषम मति के हाथ में जाने मात्र से सूत्र अमान्य नहीं हो जाते यदि ऐसा ही हो तो आपके लिए आज प्रायः सभी सूत्र अमान्य और विषम होने चाहिए क्योंकि आज जितने भी मुद्रित सूत्र हैं, वे प्रायः अजैनों के हाथ से मुद्रण होते हैं अजैन लोग ही उठाकर गाड़ियें भरकर प्रेस से लाते हैं अनेकों पुस्तकालयों में सूत्र साहित्य हैं वो अजैनों के हाथ में भी जाता है। अनेकों हस्तलिखित सूत्र अजैनों की लेखनी से लिखे गये हैं। आज प्रचलित भाषाओं में सूत्रों का अनुवाद होकर सैकड़ों अजैनों के हाथ में पहुंच चुके हैं। इसलिए सरल बुद्धि से यह समझो कि सूत्र स्वयं विषम नहीं हैं, किन्तु सम विषम का मतलब पाठकों की योग्यता से ही है। - आप एक औषध को देखिये, यदि समझदार वैद्य उस औषध को किसी रोगी के उपयुक्त समझ कर उसे उचित अनुपान के साथ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १०६ *************************************** देगा तो वह लाभकारी होगी किन्तु उसी औषध को कोई अनाड़ी ऊँट-वैद्य बिना मर्ज समझे ही किसी रोगी को दे डालेगा तो वही औषध लाभ के बदले हानि कारक होगी इसमें औषध का कोई दोष नहीं है, यदि दोष है तो उस मूर्ख वैद्य का है, जो न रोग को समझता है न औषध के गुण दोष को, बस इसी प्रकार सूत्रों के विषय में भी समझिये इसमें भी दोष सूत्र का नहीं किन्तु पाठक की योग्यता का ही है। अतएव आपकी कुतर्क हवा हो गई, केवल अजैन या विषम दृष्टि के हाथ में जाने या उसके पढ़ लेने मात्र से ही सूत्र अमान्य नहीं होते वे पुनः हमारे पास आ जाने से हम उसका स्वाध्याय करते हैं, उसी प्रकार मूर्ति भी अन्य के अधिकार में जाने मात्र से या अन्य तीर्थी के पूज लेने से ही अपूज्य नहीं हो जाती। यदि ऐसा ही है तो आपके मध्य भारत में मक्षी के पार्श्वनाथ की मूर्ति भी अवन्दनीय अपूजनीय होनी चाहिए क्योंकि उस पर दिगम्बरों का भी अधिकार है, वे भी अपनी विधि से वंदते पूजते हैं और वे तो वन्दते पूजते समय श्वेताम्बरों की की हुई पूजा को ही उतार फेंकते हैं, मूर्ति के नेत्र निकाल लेने के बाद ही पूजते हैं, इसलिए आपके हिसाब से तो वो मूर्ति भी अवन्दनीय होनी चाहिए? इसी तरह मेवाड़ प्रान्त की केशरियाजी की मूर्ति भी आपके लिए अमान्य होनी चाहिए, क्योंकि उसे भी अजैन और भील लोग तक अपना देव मानकर पूजते हैं, भील लोग उस मूर्ति को केशारयानाथ या रिषभदेव की मूर्ति नहीं कहकर कालिया बाबा की मूर्ति कहते हैं और मानते पूजते हैं, पण्डे लोग जो वैष्णव हैं उन्होंने उस मूर्ति को अपना देव होना बताकर उस पर अपना अधिकार जमाकर आपके अधिकार से इनकार किया है। अतएव उसे भी आपको नहीं वंदना पूजना चाहिए। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० आनंद-श्रमणोपासक ********************* ********************* वास्तव में बात तो यह है कि जिस प्रकार सूत्र किसी अजैन के पढ़ लेने मात्र से जैनियों के लिए अमान्य नहीं हो जाते, उसी प्रकार मूर्ति भी किसी के अधिकार में जाने या किसी के वन्दने पूजने मात्र से अवन्दनीय नहीं हो सकती। इसलिए सरल बुद्धि से यह समझो कि आनंद श्रमणोपासक की प्रतिज्ञा मूर्ति विषयक नहीं किन्तु साधु विषयक है। मूर्ति पूजक लोग जिन मूर्ति को देव पद में मानते हैं, स्वयं सुन्दर मित्र ने भी यह स्वीकार किया है कि - १. अरिहंतों के चैत्य (मंदिर मूर्ति) को आशातना करना अरिहंतों की ही आशातना है। (पृ०७६) २. अरिहंतों की मूर्ति अरिहंत पद में और सिद्धों की सिद्ध पद (पृ० २६३) ३. मूर्ति अरिहंत और सिद्धों के शरणा में है। (पृ० २६३) ४. जो अरिहंतों की मूर्ति की आशातना है वह ही अरिहंतों की आशातना है। (पृ० २६३) अतएव सिद्ध हुआ कि - मूर्ति पूजक मूर्ति को देव पद में मानते हैं और न्य यूथिक देव जब अवन्दनीय हुए तो उसके साथ उनकी मान्य मूर्ति भी अवन्दनीय हुई यह स्वतः सिद्ध है, इसके लिए पृथक् स्थान रोकने की आवश्यकता नहीं। पृथक् स्थान जो रखा गया है वह अन्य यूथिक परिगृहित साधु के लिए ही है। जिसका मुख्य कारण पहले बतला दिया है। सुन्दर जी की योग्यता चालू प्रकरण में सुंदर मित्र ने स्वयं अज्ञ होते हुए भी स्वर्गवासी आगमोद्धारक शांत स्वभाव परम पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज पर अनुचित हमले किये हैं। हम यह नहीं कहते कि पूज्य श्री के Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ****************** अनुवाद में अशुद्धि नहीं है, किन्तु हमारा यहाँ यह कहना है कि - यहाँ सुंदरजी ने जो अशुद्धि बताई है उसमें सुंदर मित्र की ही मूर्खता है। सुंदर मित्र पृष्ठ ८१ में लिखते हैं कि - “ऋषिजी को पूछा जाय कि आपने अनुवाद में जैनके भ्रष्टाचारी साधु लिखा है उसमें साधु तो शायद आप 'चेइआणि वा' का अर्थ कर दिया होगा, परन्तु जैन यह किस शब्द का अर्थ किया है? और आगे आप साधु के साथ भ्रष्टाचारी शब्द जोड़ दिया है यह किस मूल पाठ का अनुवाद है क्योंकि आपके मूल पाठ में तो यह दोनों (जैन और भ्रष्टाचारी) हैं ही नहीं फिर आपने यह कल्पना कर उत्सूत्र भाषित्व का वज्र पाप शिर पर क्यों उठाया?” आदि १११ इस प्रकार अज्ञता प्रदर्शित कर सुन्दरजी अपनी योग्यता बता रहे हैं, किन्तु यदि शांत बुद्धि से विचार किया जाय तो जो अर्थ शास्त्रोद्धारक महर्षि ने किया है, यह योग्य ही है, क्योंकि मूल पाठ में " अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि चेइयाई” शब्द आया है। जिसका शब्दार्थ होता है“अन्य तीर्थी के ग्रहण किये हुए साधु” केवल इसी शब्दार्थ पर से यह विशेषण अच्छी तरह से लग सकते हैं, जैसे कि "अन्य यूथिक - जैन के सिवाय अन्य तीर्थी, परिगृहित - ग्रहण किये हुए, चैत्य साधु” जिन अन्य तीर्थीकों ने जैन के साधु को ग्रहण कर लिया है वो जैन के हिसाब से तो भ्रष्ट साधु ही हुआ, अतएव भ्रष्टाचारी विशेषण उचित ही है। दूसरा यहां परमार्थ भी जैन के साधुओं को ही ग्रहण करने का है, अन्य को नहीं, क्योंकि अन्य समाज के साधुओं का तो समावेश प्रथम वाक्य में ही हो गया। अतएव जो भी विशेषण इस विषय में दिये गये हैं वे उचित ही है और यदि आपको मान्यतानुसार यहाँ अरिहंत शब्द मान भी लिया जाय तो भी कोई हानि नहीं है, - Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आनंद-श्रमणोपासक ***************************************** इसका भी उक्त अर्थ ही होता है, किन्तु यह शब्द नहीं होने पर भी यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है फिर इस शब्द की आवश्यकता ही क्या? अतएव कुतर्क करना छोड़कर सत्य अर्थ को मान्य करने की सरल बुद्धि को स्थान दीजिए। आगे चलकर आप फिर मूर्खता पूर्ण बात लिखते हैं - __“अरिहंत और जैन एक है या भिन्न २ हैं? यदि आपको प्रतिमा ही नहीं मानना है तो फिर अरिहंत का साधु कहने में क्या हर्ज था xxx पर इतनी अकल आवे कहाँ से?" अक्लमंद सुन्दरजी! मूर्खता का प्रदर्शन तो स्वयं कर रहे हैं, एक बच्चा तक जानता है कि अरिहंत और जैन एक नहीं, किन्तु भिन्न हैं। एक है उपास्य तो दूसरा है उपासक, अरिहंत हैं देव तो जैन है उन देव का उपासक, इस सीधी और सरल बात को भी नहीं समझने वाले सुन्दरजी की सुन्दर बुद्धि की बलिहारी है, क्या यह मूर्खता का प्रत्यक्ष ताण्डव नहीं है? हाँ अरिहंत और जिन को एक लिखते तब तो कोई बात नहीं थी, पर विद्वता का मिथ्या घमण्ड कर अन्य की निंदा करने में निपुण सुन्दर मित्र के कलुषित हृदय में तो काली वस्तु भरी है, सुंदरजी के इस सुंदर (?) पोथे में ऐसी तो कई अनर्थ कारक अशद्ध वस्तुएँ हैं कोई पृष्ठ ऐसा नहीं निकलेगा कि जो शुद्ध हो, कहीं शब्द ही अशुद्ध तो कहीं प्रयोग अशुद्ध, पाया जाता है कि पोथे की असल प्रति में तो अनगिनत की अशुद्धियां होगी, किन्तु अन्य अजैन या जैन परिभाषा से अनभिज्ञ किसी से कुछ शुद्धि अवश्य कराई है तो भी यह तो अवश्य है कि भाषा का प्रयोग एकदम अशुद्ध है, जो किसी भी हिंदी के साधारण ज्ञाता से छुपा हुआ नहीं है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ११३ * ******************************************** जबकि-आनन्दाधिकार और सारे उपासक दशांग में भी मूर्तिपूजा का नाम निशान तक नहीं है, तब सुन्दरजी को अपने मिथ्या पक्ष को पुष्ट करने के लिए निम्न दो कुतर्क उठाने पड़े हैं, जो पृष्ठ ७८, ७६ से पाये जाते हैं, तद्यथा - १. सूत्र संक्षिप्त कर दिये गये। २. समवायांग में उपासक दशांग की नोंध में श्रावकों के मूर्ति पूजा का कथन है। यह दो कुतर्क सुंदरजी ने उठाए हैं, किन्तु पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह दोनों कुतर्क सुंदरजी के निजी नहीं है, किन्तु विजयानन्द सूरि के “सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० ८५” के हैं, विजयानंद सूरि ने यह तो स्वीकार कर लिया है कि-उपासक दशांग सूत्र में मूर्तिपूजा का पाठ नहीं है किन्तु सुंदरजी तो उनसे भी बढ़कर कुतर्की हैं देखिये, विजयानंद जी का स्पष्ट कथन - “यद्यपि उपासक दांग में यह पाठ नहीं है क्योंकि पूर्वाचार्यों ने सूत्रों को संक्षिप्त कर दिया है तापि समवायांग में यह बात प्रत्यक्ष है।" इससे भी सिद्ध हुआ कि उपासक दशांग सूत्र में मूर्ति पूजा का पाठ नहीं है। अब आनन्द श्रमणोपासक की काल्पनिक (आदरणीय) प्रतिज्ञा को भी देखिए - "कप्पई मे समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गह कंबल पाद पुच्छणेणं पीढफलगसिज्जा संथारेणं ओसह भेसज्जेणं पडिलाभेमाणे विहरित्तए।" अर्थात् आनन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि “मुझे श्रमण निग्रंथ को प्रासूक एषणिक आहारादि प्रतिलाभते हुए विचरना कल्पता है।" Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आनंद-श्रमणोपासक **************************************** आशा है कि अब तो सुंदरजी आनन्द श्रावक को मूर्ति-पूजक मानने की धृष्टता नहीं करेंगे। अब सुंदर मित्र ने और विजयानन्द जी ने किये दो कुतर्कों पर विचार करते हैं। सूत्र संक्षिप्त होने की कुयुक्ति सुन्दर मित्र और विजयानंदजी ने उपासकदशांग में श्रावकों के मूर्ति पूजन का कथन न होने में सूत्रों का संक्षिप्त होना बतलाया है, यद्यपि सूत्र संक्षिप्त होने की बात ठीक है, तथापि ऐसे विषय में सूत्रों के संक्षिप्त होने का अडंगा लगाना अनुचित है। क्योंकि - सारे उपासकदशांग में आनन्द श्रावक का प्रथम अध्ययन ही ऐसा है कि जिसने सारे सूत्र के तृतीयांश पृष्ठ रोक लिए हैं, शेष दो भाग में नौ श्रावकों का वर्णन है। आनन्दाधिकार में उसकी ऋद्धि, धन, क्षेत्र, वास्तु, दास-दासी, पशु और परिवार का कथन सविस्तार है आनंद ने किस प्रकार प्रभु दर्शन धर्मोपदेश श्रवण और व्रतग्रहण किये, अतिचार टाले, पौषध शाला में गया, एकादश प्रतिज्ञा का पालन किया, अवधिज्ञान उत्पन्न होना, गौतमस्वामी का आनंद से सम्मिलन होना, सम्वाद होना, आनंद का प्रश्न करना, गौतम स्वामी को शङ्का होना, प्रभु का शङ्का निवारण करना, गौतम स्वामी का आनन्द से क्षमा याचना, आनन्द का स्वर्ग गमन करना आदि बातों का जिसमें ठीक ठीक प्रतिपादन किया गया हो, यहां तक कि - आनंद को पानी कैसा पीना, घी एवं चांवल कैसे खाना, वस्त्र कैसे पहिनना, आभूषण कौनकौन से पहिनना, दंतधावन किस वस्तु से करना आदि बातें स्पष्ट बताई गई हो, वहाँ केवल मूर्ति स्थापित करने या मन्दिर बनवाने या पूजा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ११५ * ***************************************** करने का कथन नहीं होने मात्र से ही सूत्र के संकुचित होने की मिथ्या डींग मारना, सरासर हठधर्मी पन ही है। ... यदि आनंद मन्दिर निर्माण करवाता या मूर्ति स्थापित करता या दर्शन पूजन करता, या कभी संघ निकालकर यात्रा करता तो गणधर महाराजा अवश्य इसकी भी नोंध लेते? विस्तृत रूप से नहीं तो थोड़े से शब्दों में ही सही, पर कुछ न कुछ वर्णन तो अवश्य मिलता? आश्चर्य की बात है कि जो (मूर्ति-पूजा) पद्धति धर्म का मुख्य अंग मानी जाती हो और उसके लिए आदर्श धर्मात्मा उपासकों के जीवन विस्तार में बिन्दु विसर्ग तक नहीं मिले यह क्या थोड़े विचार की बात है? इससे तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस समय मूर्ति पूजा में धर्म मानने की जैन श्रद्धा नहीं थी। न वे श्रावक वयं ही मूर्ति पूजा में धर्म मानते थे। यदि उनकी श्रद्धा सुन्दरजी के मतानुसार होती तो वे आदर्श श्रावक अवश्य ऐसी क्रियाएं करते और उनकी जीवनी में इसकी नोंध भी अवश्य होती? : यह हरगिज नहीं हो सकता कि मामूली बातों का सूत्रकार वर्णन करे और आवश्यक बात को छोड़ दे। अतएव सूत्र संकुचित होने की कुयुक्ति भी अनुचित है। इसके अतिरिक्त संकुचित का अर्थ है विस्तृत के विस्तार को घटाकर थोड़ा कर देना,जो वस्तु दश या बीस शब्दों में बताई गई हो उसे एक या दो शब्दों में ही बताकर संक्षिप्त कर देना। किन्तु संकुचित के माने किसी वस्तु को ही उड़ा देना नहीं होता, संकुचित या संक्षिप्त में तो वस्तु का सद्भाव अवश्य रहता है। इस हिसाब से भी यदि विस्तृत रूप से नहीं तो संक्षिप्त रूप से मूर्ति पूजा का वर्णन दो चार वाक्यों में तो अवश्य होना चाहिए था, किन्तु जब मूर्ति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आनंद- श्रमणोपासक ******** पूजा के लिए सूत्र को पूर्व से लेकर पश्चिम तक टटोल लिया जाय तो एक शब्द तो दूर एक अक्षर भी नहीं मिलेगा। यह स्थिति स्पष्ट बता रही है कि उपासक दशांग में मूर्ति पूजा का नाम निशान भी नहीं हैं। इसलिए सुन्दर बन्धु को चाहिए कि आप संकुचित कर देने की कुयुक्ति को छोड़कर बस यही कह दीजिये कि सूत्रकार या संकलन कर्त्ता ने मूर्ति पूजा के पाठ को ही "छोड़ दिया" यही शब्द आपके लिए ठीक है । क्योंकि संकुचित शब्द तो वस्तु के सद्भाव को स्थान देता है अतएव आपको चाहिए कि आप संकुचित शब्द को निकाल कर "छोड़ दिया" शब्द लगा दीजिये और इसमें हानि ही क्या है, यह तो आपके घर की रीति ही है। आपके विजयानंद सूरिजी ने भी सम्यक्त्व शल्योद्धार में ऐसा किया है जरा वह भी देख लीजिये - " सूत्र में पांडवों ने संथारा करा यह अधिकार है और उद्धार कराया यह अधिकार नहीं है" इससे यह समझना कि " इतनी बात सूत्रकार ने कमती वर्णन करी है । " (हिन्दी सम्यक्त्व शल्योद्धार चतुर्थावृत्ति पृ० १५७) बस सुन्दर मित्र आप भी यह कह दीजिये कि - आनंद के मूर्ति पूजा की बात सूत्रकार ने कमती वर्णन की है, या छोड़ दी है किन्तु आनंद ने मूर्ति पूजा तो की थी। महाशय ! इस प्रकार के मिथ्या प्रयत्न ही आपको व आपके सूरियों को अभिनिवेशी घोषित करते हैं । जितने विषय समवायांग में उपासक दशांग की नोंध लेते हुए बताए हैं वे सभी विषय उपासक दशांग में मौजूद हैं, हाँ पहले विस्तृत रूप से होंगे, व अब संक्षिप्त रूप से है किन्तु हैं सभी विषय । अतएव उक्त कुयुक्ति एक दम मिथ्या है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ११७ ********************************************** समवायांग के नाम से भ्रम आगे चल कर आपने व विजयानंदजी ने समवायांग सूत्र में आनंद श्रावक के मूर्ति पूजा का हाल होना बतलाया है। यह भी मिथ्या चेष्टा है क्योंकि समवायांग में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है, जिस बात पर आप अपना आधार समझते और समझाते हैं वही बात (वही मूल पाठ जो आपने दिया है) लिखकर आपका भ्रम जाल का छेदन किया जाता है। देखिये - ___ “से किं तं उवासगदसाओ? उवासगदसासुणं, उवासयाणं, नगराइं, उज्जाणाई, चेइयाई, वणखंडा, रायाणो, अम्मापियरो, समोसरणाइं, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय, परलोइय, इड्डि विसेसा, उवासयाणं, सीलव्वय, वेरमणं गुण, पच्चक्खाण, पोसहोववास पडि वज्जियाओ, सूयपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, पडिमाओ उवसग्गा, संलेहणाओ, भत्तपच्चक्खाणाई, पावोगमणाई, देवलोगगमणाई, सुकुल पच्चाया, पुणो बोहि लाभो, अंतकिरियाओ, आघविज्जति।" अर्थ - उपासक दशांग में क्या है? उपासक दशांग में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता, पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक, पारलौकिक, ऋद्धि विशेष का कथन है और उपासकों के शीलव्रत, वेरमणव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास व्रत, सूत्र ग्रहण तपोपधान, उपासक प्रतिमा, संल्लेषणा, भक्त प्रत्याख्यान, पादोपगमन करना, देवलोक गमन, उच्च कुल में जन्म, पुनः बोधिलाभ, अन्तक्रिया करना यह वर्णन किया गया है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आनंद-श्रमणोपासक ************************************** सुंदर मित्र! इस नोंध में तो कहीं भी मूर्ति पूजने मंदिर बनवाने आदि का नाम निशान तक नहीं है फिर आप व्यर्थ का झंझट क्यों मचाते हैं? क्या आप इस वर्णन के "चेइयाई" शब्द पर तो आपत्ति नहीं कर रहे हैं? इसी पर तो आप लोगों ने बल दिया है। किन्तु आपका यह प्रयत्न भी विफल है, क्योंकि इसी शब्द के आगे पीछे का सम्बन्ध देखने पर कोई भी सुज्ञ इस शब्द का अर्थ श्रावकों के जिन मन्दिर नहीं करेगा, इस शब्द के साथ ही यह वर्णन है कि - "नगराणंउज्जाणाइंचेइयाइवणखंडारायाणो।" अर्थात् - "उपासकों के रहने के नगर, उद्यान, व्यंतरायतन, वनखंड राजा" इसका यह मतलब नहीं कि वे नगर, उद्यान, व्यंतरायतन, वनखंड राजा आदि उन उपासकों के खुद के स्वतंत्र थे किन्तु इसका यह तात्पर्य है कि उपासक दशांग में जो उपासक जहाँ रहते थे वहाँ के नगर, उद्यान, व्यंतरायतन, वनखंड राजा आदि का वर्णन है। यदि सुन्दर हिसाब से चैत्य शब्द का अर्थ जिन मन्दिर हो और वो चैत्य उपासकों के खुद के बनाये हुए माने जाय तो फिर सुन्दर बन्धु को नगर, उद्यान, वनखंड, राजा, धर्माचार्य धर्मकथा आदि भी उपासकों के खुद के बनाये हुए मानने चाहिए? किन्तु ऐसा मानना ही अनुचित है विशेष तात्पर्य तो वहाँ है जो ऊपर बताया गया है, विशेष स्पष्टता के लिए आनन्दाधिकार का निम्न पाठ देखिये - ___“वाणिये गामे नामं नयरे होत्था वण्णओ। तस्स वाणियगामस्स नयरस्स बहिया उत्तर पुरत्थिमे दिसीभाए "दुइपलासए नामंचेइए।" तत्थं वाणियगामे नयरे जियसत्तु राया होत्था वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे आणंदे नाम गाहावइ अड्ढे जाव अपरिभूए।" Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ११६ ***************************************** अर्थात् - वाणिज्य ग्राम नामक नगर था, वर्णन योग्य उस वाणिज्य ग्राम नगर के पूर्वोत्तर दिशा भाग में दुतिपलास नामक चैत्य (व्यंतरायतन) था। उस वाणिज्य ग्राम नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था वर्णन योग्य, उस वाणिज्य ग्राम में आनन्द नामक गाथापति रहता था वह समृद्ध यावत् अपराभवित था। जो नोंध समवायांग में नगर आदि के विषय में आई है वह इसी विषय की है, इसमें चैत्य का नाम “दुतिपलास' कहा है। यह दुतिपलास नामक चैत्य कोई जिनमन्दिर या मूर्ति नहीं किन्तु व्यंतरायतन ही है, ऐसे नगरी के वर्णन के साथ आये हुए चैत्यों का अर्थ टीकाकार अभयदेव सूरि ने भी यही किया है। देखिये - _ "चेइएति-चितर्लेप्यादि चयनस्य भावः कर्मवेति चैत्यं संज्ञा शब्दत्वाद् देव बिम्बम् तदाश्रयत्वात् तद् गृहमपि चैत्यं तच्चेह "व्यंतरायतनम्" नतु भगवता मर्हतायतनम्।" इसी प्रकार समवायांग सूत्र में ज्ञाता धर्मकथा सूत्र की नोंध के चैत्य शब्द का भी टीकाकार ने इसी प्रकार व्यंतरायतन अर्थ किया है। देखिये.. चैत्यं-व्यंतरायतनं। आगमोदय समिति पत्र १०८ सूत्र १४१। यही अर्थ उपासक दशांग के चैत्य शब्द का भी है, क्योंकि एकसा सम्बन्ध होने से टीकाकार ने आगे ऐसे शब्दों की टीका नहीं की, फिर विजयानन्दजी और सुन्दर मित्र क्यों मिथ्या अडंगा लगाते हैं? क्या सुन्दर मित्र आप टीकाकार से भी अधिक आगे बढ़कर अनर्थ तो नहीं कर रहे हैं? बतलाइये आप झूठे या आपके टीकाकार ? महाशय! अनर्थ करते लजाइये, कुछ परभव का भी भय रखिये यदि उस समय जिन मन्दिर-तीर्थंकर मंदिर होते तो प्रभु उनमें ही ठहरते, उन्हें छोड़कर Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० आनंद-श्रमणोपासक ***************** ****************** यक्षायतन-व्यंतरायतन में नहीं ठहरते, किसी भी प्रामाणिक सूत्र में यह नहीं लिखा है कि कभी प्रभु तीर्थंकर मन्दिर में उतरे हों, ठहरे हों, फिर आपका यह अनर्थ कैसे मान्य हो सकता है? और आपके ही टीकाकार महाराज ने तो ऐसे चैत्य शब्द का अर्थ व्यंतरायतन ही किया है और विशेष में अर्हत् मन्दिर होने का निषेध ही कर दिया है। क्या अब भी आपकी बोलती बन्द नहीं होगी? और देखिये सुन्दर मित्र ! जिस प्रकार उपासक दशांग की नोंध में "चेइयाई” शब्द आया है, उसी प्रकार यही शब्द अन्तकृत दशांग अनुत्तरोपपातिकदशांग की नोंध में भी आया है। इन सूत्रों में साधुओं काही वर्णन है, तो क्या आपके सुन्दर हिसाब से साधुओं के मन्दिर या साधुओं के बनाये जैन मन्दिर अर्थ होगा? कदापि नहीं । फिर आगे बढ़िये, विपाक सूत्र की नोंध लेते हुए दुःखविपाक के विषय में भी यही बताया गया है कि - "दुह विवागाणं णगराइं उज्जाणाइं "चेइयाई” ।” अर्थात् - दुःखान्त विपाकों के नगर, उद्यान, चैत्य थे । कहिये मित्र! क्या उन दुखान्त विपाक - अनार्यों म्लेच्छों के भी जैन - आर्हत् मन्दिर थे, या उन्होंने भी तीर्थंकर मन्दिर बनवाये थे ? क्योंकि पाठ तो सभी जगह इसी तरह एक समान है, फिर यहाँ आप अनार्यों के आर्हत् मन्दिर क्यों नहीं मानते हैं? किन्तु हठ भी तो कोई चीज हैं। यहाँ तो आप जिन मन्दिर नहीं मानंगे, और उन आदर्श श्रमणोपासकों को जबरदस्ती मूर्ति पूजक सिद्ध करने के लिए वहाँ अपनी इच्छा से ही अनर्थ ठोक देंगे, यह सरासर अभिनिवेश मिथ्यात्व है। हमारे इतने कथन से आपकी समवायांग की ओट तो गिरकर चूर चूर हो गई, अब हम आपकी लचर दलील से उपासक दशांग के Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १२१ ********次***********半******************** "अरिहंत चेइयाई" पाठ में के प्रक्षिप्त अरिहंत शब्द का भी रहस्योद्घाटन करते हैं देखिये - यदि मूर्ति पूजकों व आपके मतानुसार उपासक दशांग सूत्र के आनन्दाधिकार में “अरिहंत चेइयाइं" शभ्द ही होता तो ये लोग इसे छोड़कर खाली "चेइयाई" के लिए समवायांग की ओर नहीं लपकते? जो कि केवल नगरी के वर्णन के साथ आया है??? अतएव सिद्ध हुआ कि उपासक दशांग का “अरिहंत" शब्द “क्षेपक" ही है। उपासक दशांग में जहाँ नगरी के वर्णन के साथ चैत्य शब्द आया है वहाँ सब जगह व्यंतरायतन अर्थ को ही बताता है, देखिये - "पुण्णभद्देचेइए।कोट्ठग्गचेइए।गुणसिलएचेइए।" आदि इन सभी चैत्यों से आप किसी प्रकार भी जैन मन्दिर या तीर्थंकर मूर्ति अर्थ नहीं कर सकते। अतएव निवेदन है कि कृपा कर अनर्थ करना छोड़ कर और उत्सूत्र भाषण का प्रायश्चित्त लेकर आत्मा को भारी पाप से बचाइये। वे आदर्श श्रमणोपासक कभी भी मूर्ति पूजक नहीं थे, न आप या आपके कोई विद्वान् उन्हें मूर्ति पूजक सिद्ध कर सकते हैं। (१७) अंबड परिव्राजक और मूर्तिपूजा ___ औपपातिक सूत्र के ४० वें सूत्र में अम्बड़ परिव्राजक का चरित्र वर्णन किया गया है। उसमें भी आनन्द श्रमणोपासक की तरह लगभग मिलता जुलता एक पाठ है, जिसको लेकर हमारे मूर्ति पूजर बन्धु श्री ज्ञानसुन्दरजी अम्बड को मूर्ति पूजक ठहराने का प्रयत्न करते हैं। ___ पाठकों को यह स्मरण रखना चाहिये कि श्रीमद् जम्बू स्वामी के Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अंबड परिव्राजक और मूर्ति पूजा *******李李李李****李李李李李李李李李***安安安安安安安**** निर्वाण के कुछ वर्षों के बाद ही शिथिलाचार ने जैन श्रमण समाज में शनैः शनैः प्रवेश करना प्रारम्भ कर दिया, होते होते यहाँ तक स्थिति बिगड़ी कि अधिकांश लोग नाम के साधु और गुण से गृहस्थों से भी कितनी ही बातों में गये गुजरे हो गये, फिर भी सुसाधुओं का (जो कि बिलकुल स्वल्प संख्या में रह गये थे) मंद-मंद प्रचार जारी था, जिससे शिथिलाचारी लोगों को भय बना रहता था। जब वे किसी नवीन पद्धति को शुरु करते तो उनके मन में यह शङ्का उठा करती कि कहीं भक्त लोग सुविहित साधुओं से हमारी पोल नहीं जानले, इसलिये जहाँ तक हो सका वे लोग सुविहित मुनियों का उन भक्तों को संसर्ग ही नहीं होने देते, फिर भी ये लोग पूर्ण रूपेण निर्भय नहीं हो सके, क्योंकि इन्हें आगमों का भी भय था, कभी किसी ने पूछ लिया कि महाराज आप अमूक प्रकार का आचरण करते हैं यह किस शास्त्रानुसार है? तो इसके लिये भी इन्हें तैयारी करनी थी। बस इसी स्वार्थ पोषण के लिये आगमों में भी हेर फेर और नूतन प्रक्षेप शुरु हुआ, इस प्रकार आगमों की असलियत बिगाड़ने में स्वार्थ पिपासु महानुभावों ने कुछ भी कमी नहीं की। बस फिर क्या था, तीर्थंकर प्रभु के आगमों की साक्षी बताकर भाग्यशाली भद्र भक्तों से मनचाही क्रियायें करवाई जाने लगीं। इस प्रकार कई शताब्दियों के लम्बे समय तक हमारा आगम साहित्य शिथिलाचारियों के कब्जे में रहा, और जब धर्म प्राण लोंकाशाह ने क्रियोद्धार कर समाज की सड़ान को दूर किया और अनाचार वर्द्धक मूर्ति पूजा को जैनागम विरुद्ध घोषित किया, तब लगभग ३०-४० वर्ष बाद मूर्ति पूजक विजयादान सूरि के हृदय में खलबली मच गई, इन्होंने आगम शुद्धि के बहाने अपना पक्ष मजबूत करने के लिए अनेक प्रकार से कई बार पाठ परिवर्तन किये। श्रीमान् लोकाशाह के स्वर्ग Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********************** गमन के थोड़े वर्षों बाद फिर से शिथिलाचार ने जोर पकड़ा और इसी पुण्य पवित्र आत्मा के वंशजों में से कुछ लोग अलग निकलकर उसी ढर्रे में फिर से फंस गये। जिन मन्दिर मूर्तियों का श्रीमान् लोकाशाह ने आगमाधार से बहिष्कार किया था, उन्हीं मन्दिर मूर्तियों का उसी युग प्रधान के वंशज अपनी शिथिलता और स्वार्थ पोषण के लिए आदर करने लगे। उस समय श्रीमान् लोकाशाह का जो भी कुछ आगम साहित्य होगा वो भी उन्हीं के हाथ में चला जाना स्वाभाविक है । इस प्रकार बहुत बड़े लम्बे समय से साहित्य सामग्री मूर्ति पूजक और शिथिलाचार वालों के हाथ में रही। क्रियोद्धार के बाद हमारे साधुमार्गी जैन समाज के पास जो भी साहित्य सामग्री आने लगी वो उन्हीं लोगों के पास से । अतएव ऐसी सामग्री से ही काम चलाना पड़ा। कुछ वर्षों से साहित्य क्षेत्र में भी जनता की रुचि बढ़ी, कई अन्वेषकों ने प्राचीन प्रतियों की शोध कर शुद्ध संस्करण प्रकाशित किये जिससे बहुत समय से घुसी हुई कई भ्रान्तियां दूर हुई। जिस प्रकार आनन्द श्रमणोपासक के अधिकार में " अरिहंत " शब्द का अधिक बढ़ाया जानां सिद्ध हो गया, और उस विषयक भ्रान्ति दूर हो गई, इसी तरह इस अंबड अधिकार में भी कुछ गोलमाल हुआ हो तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि दोनों का यह प्रकरण इस विषय में मिलता जुलता है, औपपातिक सूत्र का अम्बड़ विषयक पाठ सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० ८५ में श्री विजयानन्द सूरि ने निम्न प्रकार से दिया है - "अंबडस्स परिवायगस्स नोकप्पर अण्णउत्थिए वा, अण्णउत्थिय देवयाणि वा अण्णउत्थिय परिग्गहियाइं अरिहंत चेइयाई वंदित्तए वा नमसित्तए वा णणणत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइआणि वा । " १२३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबड परिव्राजक और मूर्ति पूजा और आगमोद्धारक स्वर्गीय पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज साहब ने भी अपने अनुवादित उववाई सूत्र पृ० १६३ में ऐसा ही पाठ दिया है, किन्तु जब हम आगमोदय समिति से प्रकाशित इसी सूत्र के पत्र ६७ के दूसरे पृष्ठ पं० ४ से इसी पाठको देखते हैं तो हमारी इस पाठ " विषयक उक्त शङ्का वास्तविक मालूम देती हैं। देखिये वह पाठ 66 'अम्मडस्स णो कप्पइ अण्णउत्थिया वा अण्णउत्थिय देवयाणि वा अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि वा चेइयाइं वंदित्तएवा, णमंसित्तए वा, जाव पज्जुवासित्तए वा णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाई वा । " इस पाठ में और ऊपर बताये हुए दोनों पाठों में एक महत्वपूर्ण अन्तर है, सम्यक्त्व शल्योद्धार और हैदराबाद से प्रकाशित उववाई में अम्बड़ की अकल्पनीय और कल्पनीय दोनों प्रतिज्ञाओं में दोनों स्थानों पर “अरिहंत चेइयाई” पाठ है किन्तु आगमोदय समिति की प्रति में केवल एक ही स्थान पर " अरिहंत चेइयाइं" पाठ है, और एक में आनन्द पाठ की तरह केवल "चेइयाइं" शब्द ही है। १२४ ************ इसी प्रकार विक्रम सं० १६६४ में सूरत से प्रकाशित उववाई सूत्र में भी पाठ है। इस पर से स्पष्ट हो गया कि अम्बड़ सम्बन्धी उक्त पाठ में केवल एक स्थल पर ही " अरिहंत चेइयाई” पाठ है, दोनों जगह नहीं, स्व० पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज साहब ने शायद ऐसी ही प्रति का अनुसरण किया, जो शुद्ध नहीं हो । अस्तु, हमारे विचार से यह पाठ और भी शोध खोज मांगता है, क्योंकि अब तक पूरी शोध नहीं हो सकी है। जब पूरी पूरी शोध होगी तब न Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १२५ ******************************************* जाने कितने ही गुल खिलेंगे। फिर भी उववाई सूत्र का यह पाठ मूर्ति पूजा को तो स्थान देता ही नहीं है, क्योंकि अम्बड श्रमणोपासक ने इस पाठ में यही प्रतिज्ञा की है कि - "मुझे अन्ययूथिक, अन्ययूथिक देव, और अन्ययूथिक परिग्रहीत चैत्य को वन्दना नमस्कारादि करना नहीं कल्पता है, किन्तु अरिहंत और अरिहंत चैत्य को वन्दनादि करना कल्पता है" इसमें अकल्पनीय निषेध प्रतिज्ञा में १ अन्य यूथिक २ अन्ययूथिक देव ३ अन्ययूथिक परिग्रहीत चैत्य को वन्दनादि करना छोड़ा है सो आनन्द श्रावक के समाधान की तरह सर्वथा उचित है, और इस चैत्य का अर्थ साधु ही प्रकरण सङ्गत है। (देखो आनन्द प्रकरण) और कल्पनीय (आदरणीय) प्रतिज्ञा में केवल दो पद वंदनीय रक्खें:- १ अरिहंत २ अरिहंत चैत्य, यहाँ अरिहंत चैत्य का अर्थ साधु ही उपयुक्त है, क्योंकि यदि यहाँ मूर्ति अर्थ किया जाय तो सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि-क्या अम्बड़ के लिए अरिहंत के सिवाय गौतमादि गणधर पूर्वधर और लब्धिधर आदि साधु साध्वी वन्दनीय पूजनीय नहीं थे? अवश्य थे, क्योंकि प्रभु ने अम्बड़ को श्रमणोपासक कहा है, जो श्रमणोपासक होकर श्रमणवर्ग की सेवा भक्ति नहीं करे वह श्रमणोपासक ही कैसा? यदि पक्षपात वश आप “अरिहंत चैत्य" का अर्थ मूर्ति करो तो बस अम्बड़ के लिए केवल अरिहन्त और उनकी पाषाणमय प्रतिमा ही वन्दनीय रही, गणधर और साधु साध्वी नहीं और इस प्रकार वह श्रमणोपासक ही नहीं रहा। अतएव कुतर्क और अनर्थ करना छोड़ दीजिये, और अम्बड़ को पाषाण मूर्ति के बजाय प्रभु के जीते जागते चैत्य (स्मारक) साधु भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करने वाला मानकर उसे मूर्ति उपासक की अपेक्षा शास्त्रानुसार श्रमणोपासक ही रहने दीजिये। यहाँ हम प्रकरणोचित एक दो प्रश्न कर लेना भी उचित समझते हैं ___ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ तुंगिका के श्रमणोपासक ****************************************** (१) सुन्दर मित्र ने पृ० ७६ में अरिहंत शरण शब्द में ही अरिहन्त मूर्ति मानली, और आगे चलकर एक स्थल पर तीर्थंकर गोत्र के २० बोलों में प्रथम बोल अरिहन्त पद आराधन में ही उनकी मूर्ति को भी सम्मिलित कर लिया, तब हम इन्हें कहते हैं कि - भगवन्! यहाँ भी यही चाल चलिये न। जिससे अरिहन्त पद में ही आप अपने सन्तोष के लिये उनकी मूर्ति भी मानलो, इससे दूसरा अर्हन् चैत्य पद साधुओं के लिए स्वतन्त्र रह जाय, इस तरह आपका भी हिसाब ठीक बैठ जाय, याने अम्बड़ जिनोपासक के साथ मूर्ति उपासक भी हो सके, और श्रमणोपासक भी। इससे उनकी श्रमणोपासकता तो नहीं मारी जाय, कहो उतरी गले? (२) क्यों भगवन्! खाली “चैत्य' शब्द हो उसका अर्थ भी जिनमूर्ति और “अरिहन्त चैत्य” हो उसका भी अर्थ जिनमूर्ति, यह गड़बड़ाध्याय कैसा? कुछ स्पष्ट तो होना चाहिए? यदि अरिहन्त चैत्य से ही जिनमूर्ति अर्थ होता हो तो बिना अरिहन्त के जहाँ सिर्फ “चैत्य" शब्द ही हो वहाँ तो यह अडंगा नहीं लगाना चाहिए? कहिये है मन्जूर। महानुभाव! जब तक हार्दिक सरलता नहीं लाओगे तब तक आत्मकल्याण कदापि नहीं होने का। याद रखिये आपका यह “मरुधर केसरी' पन कहीं संसार में रुलाने वाला नहीं बन जाय। (१८) तुंगिका के श्रमणोपासक श्रीमद् भगवती सूत्र श० २ उ० ५ में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों का वर्णन है। जिसका संक्षिप्त सार यह है कि एक बार तुंगिया नगरी में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्य स्थविर भगवान् ५०० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ***************** श्रमण परिवार सहित पधारे जब तुंगिया के श्रावकों ने ये समाचार सुने तो हर्षित हुए, और वलिकर्म आदि करके स्थविर भगवन्त की सेवा में उपस्थित हुए । सेवा भक्ति के पश्चात् संयम तप आदि विषय में प्रश्न पूछे, स्थविर भगवन्तों ने समाधान किया, श्री गौतमस्वामीजी ने इस विषयक प्रभु महावीर से प्रश्नोत्तर किये। १२७ ****** इस वर्णन में उन श्रावकवर्गों के लिए यह लिखा है कि वे स्थविर भगवन् की सेवा में उपस्थित हुए जब पहले स्नान " बलिकर्म" किया और वस्त्राऽलङ्कार परिधान कर फिर घर से निकलें। उक्त प्रकरण में स्नान के साथ जो "बलिकर्म" शब्द आया है उसी को लेकर हमारे मूर्ति पूजक बन्धु उन श्रमणोपासकों को मूर्ति पूजक बता रहे हैं और श्री ज्ञानसुन्दरजी ने भी अपने मूर्ति पूजा के इतिहास के चौथे प्रकरण पृ० ८६ में लिखा है कि - " आत्म कल्याण की अभिलाषा रखने वाले वे श्रावक खास तीर्थंकरों की मूर्ति की ही पूजा करते थे इतना ही क्यों पर श्रावकों के तो ऐसे अटल नियम भी होते हैं कि वे बिना तीर्थंकरों की पूजा किये मुँह में अन्न जल तक नहीं लेते हैं। इस प्रकार मनमानी लेखनी चलाकर भोली जनता को भ्रम में फंसाने का प्रयत्न किया है। बड़े आश्चर्य की बात है कि जहाँ एक बूंद पानी नहीं हो वहाँ महासागर होने का निष्फल झांसा (धोखा ) देते इन महानुभावों को कुछ भी संकोच नहीं होता, पाठकों को सावधान होकर सोचना चाहिए कि-बलिकर्म शब्द जो कि स्नान शब्द के साथ ही आया है, और जो स्नान की विस्तृत विधि को संक्षिप्त में बताने वाला है। केवल इसी से तीर्थंकर मूर्ति की पूजा करना कैसे सिद्ध हो सकता है? पाठकों Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ तुंगका के श्रमणोपासक ************************************** को समझने में सरलता हो इस कारण इसी शब्द विषयक उभय मान्य आगमों के कुछ प्रमाण उद्धृत किये जाते हैं, यथा (१) ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र अ० २ में धन्य सार्थवाह की पत्नी सुभद्रा सन्तान प्राप्ति के लिए नाग देव की पूजा करने को पुष्प, गंध, माला और अलङ्कारादि पूजा सामग्री लेकर अपने घर से निकली, और राजगृही नगरी के मध्य में होती हुई पुष्करणी बावड़ी पर आई, बावड़ी पर आकर पूजन सामग्री को वहीं किनारे पर रख दिया फिर पानी में उतर कर जल मञ्जन किया, स्नान " वलिकर्म" किया। बाद में पानी से गीली साड़ी सहित निकली और पूजा के लिये कमल और पत्र ग्रहण कर बाहर आई। वहाँ से पूजन सामग्री जो वह घर से लाई थी उठाकर नाग घर में गई और नागदेव की पूजा की । उक्त प्रकरण पर दीर्घ दृष्टि डालने से सहज ही मालूम हो सकेगा कि बलिकर्म अर्थ- देव पूजा नहीं है। यदि ऐसा ही होता तो भद्रा पुष्करिणी में प्रवेश करने के पूर्व पूजा सामग्री बाहर रखकर पुष्करिणी में क्यों जाती और जलक्रीड़ा करते हुए बिना पूजन सामग्री के किस प्रकार कर सकती ? यहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि बलिकर्म स्नान विशेष ही है । भद्रा ने पूजन सामग्री बाहर रखकर बावड़ी में जाकर स्नान बलिकर्म किया और बाद में भीगे वस्त्र सहित पुष्प पत्र तोड़े फिर रखी हुई पूजन सामग्री लेकर नाग घर में गई और पूजा की। यहाँ एक बालक भी समझ सकता है कि पूजन और बलिकर्म परस्पर एक नहीं पर भिन्न भिन्न हैं । जैन आगमों में जहाँ स्नान का कथन है वहाँ बहुतसी जगह "हाया कयबलिकम्मा" ये शब्द साथ ही आये हैं, अतएव इस प्रकार आये हुए बलिकर्म का मतलब स्नान की विस्तृत विधि को संक्षिप्त बताना ही है यह प्रमाण स्पष्ट कर देता है कि पूजा और बलिकर्म भिन्न वस्तु है । - Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************************ ( २ ) इसी ज्ञाता धर्मकथा सूत्र के ८ वें अध्ययन में भगवती मल्लिकुमारी के विषय में लिखा कि वे स्नान कर यावत् बहुत खोजी के साथ कुंभराजा के समीप आई यहाँ भी यावत् शब्द से बलिकर्म का भी ग्रहण होता है। जिसका अर्थ मूर्ति पूजा किसी भी सूरत में नहीं हो सकता, क्योंकि अर्हन् प्रभु गृहस्थावस्था में रहने पर भी न तो किसी देव को नमस्कार करते हैं और न किसी मूर्ति की पूजा ही करते हैं। अतएव इसका मूर्ति पूजा अर्थ असत्य ही ठहरा। (३) उक्तः सूत्र के १६ वें अध्ययन में द्रोपदी के विषय में भी ऐसा ही पाठ है और साथ ही यह लिखा कि द्रोपदी मज्जन घर में गई वहाँ स्नानादि कर वस्त्र पहिने, फिर वहाँ से जिनघर गई और मूर्ति पूजा की। यहाँ द्रोपदी ने स्नान बलिकर्म पहिले व मूर्ति पूजा बाद में की। इस पर से भी बिलकुल स्पष्ट हो गया कि स्नानगृह (गुसलखाने) में द्रोपदी ने स्नान विशेष ही किया था, मूर्ति पूजा नहीं। क्योंकि स्नानगृह कोई मन्दिर या मूर्ति का स्थान तो था ही नहीं और द्रोपदी ने तो स्नान बलिकर्म करने के बाद वस्त्र पहिने और फिर वहां से पूजा करने गई । १२६ ***** श्री सुन्दरजी द्रोपदी के विषय में यह युक्ति लगाते हैं कि यहाँ " कयबलिकम्मा" से मतलब - “घरदेरासर की पूजा करने से है" पर यह कथन भी मिथ्या है क्योंकि यहाँ "घर देरासर" का तो कोई जिक्र ही नहीं है। क्या मूर्ति पूजक लोग गुसलखाने में ही "घर देरासर" रखते हैं? क्योंकि द्रोपदी ने मज्जन घर में प्रवेश करने के बाद स्नान बलिकर्म किया और वस्त्र पहिने फिर बाद में मज्जन घर से निकली। इससे तो इनके हिसाब से गुसलखाने में ही मन्दिर होना चाहिए? क्या कुतर्कों का भी कुछ ठिकाना है? (४) रायपसेणइय सुत में केशीश्रमण मुनिराज ने प्रदेशी राजा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुंगका के श्रमणोपासक ****************************************************** को कहा कि “जब तू स्नान बलिकर्म करके देव पूजने को जावे" यहाँ स्नान और बलिकर्म के बाद देव पूजन बतलाया इससे भी स्पष्ट हुआ कि बलिकर्म देवपूजा नहीं है, देवपूजा इससे भिन्न है अतएव सिद्ध हुआ कि स्नान शब्द के साथ आया हुआ बलिकर्म शब्द स्नान के विस्तार को ही बताने वाला है। १३० (५) इसी सूत्र में आगे चलकर केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी को वन जीवी * लोगों का दृष्टान्त दिया, उसमें बताया कि वे लोग वन में कष्ट लेने गये, वहाँ बड़ी अटवीं में उन्होंने स्नान बलिकर्म किया। यदि यहाँ भी देवपूजा कहो तो इस पर से यह प्रश्न होता है कि जंगल में उन्होंने किस की पूजा की ? वहाँ किसी मन्दिर मूर्ति का होना तो संभव ही नहीं। क्योंकि यह एक बड़ी अटवी है, अतएव कयबलिकम्मा कर अर्थ यहाँ भी स्नान विशेष ही है। (६) दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की दशवीं दशा में यह उल्लेख है कि जब श्रेणिक राजा और चिल्लण देवी के रूप सौन्दर्य को साधुसाध्वियों ने देखा तो इन दोनों के ऐश्वर्य वैभव और सुखोपभोग के प्रति उनका ध्यान आकर्षित हुआ वे अपने मन में उसके सुखोपभोग का स्मरण इस प्रकार करने लगे. - 'आश्चर्य है कि श्रेणिक राजा अत्यन्त ऐश्वर्य सम्पन्न होकर सम्पूर्ण सुखों का अनुभव करने वाला है और स्नान बलिकर्म कौतुक मङ्गल और प्रायश्चित कर सब तरह के आभूषणों से भूषित हो चिल्लणादेवी के साथ सर्वोत्तम काम भोगों को भोगता हुआ विचरता है । हमने ऐसा देवों में भी नहीं देखा । यदि हमारे तप संयम का फल हो तो हमें भी भविष्य में ऐसे उत्तम भोग प्राप्त हो । " * वन की लकड़ियों को बेंचकर आजीविका करने वाले । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १३१ ***************************************** उक्त उल्लेख में केवल सुखोपभोग सम्बन्धी ही वर्णन है इसमें धर्म व्यवहार या आचारादि विषयों को किचित् भी स्थान नहीं किन्तु यहाँ भी स्नान के साथ “बलिकर्म" शब्द आया है, इस पर से एक साधारण से साधारण बुद्धि वाला भी समझ सकता है कि इस विषय में देव पूजा अर्थ करने वाले केवल मतमोही ही हैं। क्योंकि स्नान बलिकर्म कर वस्त्रालङ्कार से विभूषित हो रानी के साथ भोग भोगने में देव पूजा का सम्बन्ध ही क्या? यहां देव पूजा तो एक मूर्ख भी नहीं मानता। (७) इसी प्रकार विपाक सूत्र के दूसरे अध्ययन में राजा के स्नान बलिकर्म करने के बाद वेश्यागमन करने के लिए जाने का उल्लेख है और अ० ४ में सुसेण प्रधान का भी ऐसा ही उल्लेख है, इन स्थलों पर विचार करने से भी इन मूर्ति पूजक बन्धुओं का किया अनर्थ प्रकट हो जाता है, इन्हें इतना भी भान नहीं कि- देव-पूजा और वेश्या-गमन में क्या सम्बन्ध? स्नान विशेष तो सर्वथा उचित है, क्योंकि स्नान तो स्वभाव से ही कामोद्दीपक है। ___इस प्रकार उक्त प्रमाणों पर विचार करते मरुधर केशरी महानुभाव की हवाई दीवार एकदम टूट जाती है। सुन्दर मित्र स्वयं जानते होंगे कि जहाँ स्नान का विस्तृत वर्णन है वहाँ तो इस कयबलिकम्मा (बलिकर्म) शब्द को स्थान ही नहीं मिला है। जिसके लिए औपपातिक सूत्र में सम्राट कोणिक का विस्तृत स्नानाधिकार और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में चक्रवर्ती महाराजा भरतेश्वर का स्नान वर्णन, जैन जनता में प्रसिद्ध है और जहाँ स्नान को संक्षिप्त में ही बताया है वहीं प्रायः स्नान बलिकर्म कहा है, फिर पक्षपात में पड़कर क्यों अनर्थ करते हैं? जबकि इनके टीकाकार भी इन्हीं तुंगिया के श्रमणोपासकों के “बलिकर्म' को बलिकर्मयै 'स्वगृह देवतानां' कहकर गृहदेव की पूजा करना बताते Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुंगिका, के श्रमणोपासक ********************************************** १३२ - %D " HTETTE TRY हैं। जिसका मतलब गृह सम्बन्धी सांसारिक देव से है, न कि तीर्थंकर की मूर्ति वाले घर देरासर से। इस विषय में एक दो प्रमाण भी लीजिये (१) मूर्ति पू० मुनि वीरपुत्र श्री आनन्दसागरजी ने स्व अनुदित विपाक सूत्र पृ० ३०० में 'कयबलिकम्म' का अर्थ निम्न प्रकार से लिखते हैं - "गृह सम्बन्धी देव पूजन की" (२) भगवती सूत्र के इसी वर्णन में बलिकर्म का अर्थ भाषांतरकार y. पूजक दिन SHROONLOD जान रदास प्रकार से गोत्र'देवी नें पूजन करी" (खंड १ पृ० २७६) (३) और इसी खंड के पीछे दिये हुए कोष के पृ० ३६१ कॉलमें २ में बलिकर्म शब्द का अर्थ "गृह-गोत्र देवी - पूजन" किया है!(४) इसके अलावा स्वयं सुंदर मित्र (आप) ने ही अपने इस पोथे के ८६ वें पृ में तुंगिया के श्रमणोपासकों के विषय में भर्गवी का पाठ देकर उसका टब्बार्थः दिया, उसमें भी बलिकर्म का अर्थ “आपणा घरना देवता ने कीधा बलिकर्म जेणे लिखा है। जब मूर्ति पूजक मत से ही बंलिकर्म अर्थ-गृह (सांसारिक) देव की पूजा होता है तब सुन्दर बन्धु इसे तीर्थंकर की मूर्ति पूजा में क्यों घसीटते हैं? क्या मूर्ति मोह के प्रबल असर से ही? सुन्दर मित्र यहाँ एक युक्ति लगाते हैं कि - “तुंगिया नगरी के श्रावक अपने धर्म में इतने दृढ़ श्रद्धा वाले थे कि किसी आपत्ति काल में भी किसी देव दानव का स्मरण न को अर्थात् सहायता नहीं इच्छे, इस हालत में यह कहना कहाँ तक ठीक है कि बिना, किसी आफत और अपने पूज्याचार्य देव के वन्दन समय तुंगिया नगरी के श्रावकों ने कुल देवी की पूजा की अर्थात् यह कहना सरासर अन्याय एवं असंगत है।" Tag: Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा .१३३ ***** *********** श्री सुन्दरजी की यह युक्ति भी अनुचित है, क्योंकि सूत्र में जो 'असहेज देवासुर नाग" आदि पाठ कहा है, उसका तो यह मतलब है कि वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में पक्के आस्तिक थे, उन्हें धर्म से डिगाने को देवदानवादि भी समर्थ T ये नहीं थे, अ और न किसी की सहायता चाहते थे, तथा कर्म परिणाम को मानने वाले थे। इस पाठ से सांसारिक व्यवहार को अदा करने में कोई बाधा नहीं हैं ऐसे श्रमणोपासक भी गृहस्थावस्था में रहने के कारण पूर्व परम्परानुसार सांसारिक देवों की पूजा करे यह स्वाभाविक बात है। इससे इनकी सम्यक्त्व को किसी प्रकार की बाधा नहीं होती दृढ़ सम्यक्त्त्री आवश्यक संसार व्यवहार अदा करते हुए भी अपनी सम्यक्त्व को सुरक्षित रख सकते हैं। कुछ प्रमाण भी लीजिये - (१) भरत चक्रवर्ती महाराजा ने दृढ़ सम्यक्त्वी होते हुए भी चक्ररत्न, गुफा, द्वार आदि की पूजा की। और देवों की आराधना किरने के लिए तप किया। (२) शांति, कुंथु, अरह, इन तीनों तीर्थंकरों ने चक्रवतीपन में भरत की तरह परिस्थिति के अनुसार चक्ररत्नादि की पूजा की। (३) अरक श्रमणोपासक ने नावा की पूजा की, और बलि भी चढ़ाई। (४) अभयकुमार ने धारिणी देवी का दोहन पूर्ण करने (लौकिक कार्यार्थ) तेला किया। (५) कृष्ण वासुदेव ने भी अपने छोटे भाई की उत्पत्ति के लिए तपश्चर्या कर देवाराधन किया। ये प्रमाण तो गृहस्थ सम्यक्त्वी श्रावकों के हैं, किन्तु मूर्ति पूजक साधु तो मूर्ति के कारण शिथिल होकर साधु धर्म के विपरीत अविरति देवों का स्मरण, ध्यान, स्तुति, नमस्कारादि करते हैं, देखिये - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ********* सिद्ध की। तुंगका के श्रमणोपासक (६) श्री हेमचन्द्राचार्य ने - (क) पद्मिनी रानी को नग्न खड़ी रखकर उसके सामने विद्या (योगशास्त्र प्रस्तावना) **** (ख) शिव-शंङ्कर की स्तुति की । (प्र० च० ) (ग) रात्रि को उपाश्रय से निकल कर शहर के बाहर गये और देव देवियों को बल बाकुल चढ़ाये । (प्र० च० ) (७) जिनदत्त सूरि आदि अनेक आचार्यों ने देवाराधन कर चमत्कार बताये। (८) वर्तमान के चतुर्थ स्तुति मानने वाले सभी साधु सदैव प्रतिक्रमण में दोनों समय अविरति देवों की स्तुति कर साहाय्य माँगते हैं। जब मूर्ति पूजक साधु ही मुनिधर्म के विपरीत देव साहाय्य की प्रार्थना करते हैं तब गृहस्थ करे उसमें बाधा ही क्या हो सकती है ? हम तो केवल यही कहते हैं कि किसी तरह की सहायता मांगे बिना भी सांसारिक आवश्यक व्यवहार को अदा करने के लिये सम्यक्त्वी श्रावक गृहदेव की पूजा करे तो उसमें उसकी सम्यक्त्व को कोई बाधा नहीं है, और इस प्रकार यदि आपके टीकाकार और अन्य विद्वानों के मतानुसार उन श्रावकों को सांसारिक गृह देवता की पूजा करने वाले भी माने जाये तो भी आपको तो निराश ही होना पड़ता है, क्योंकि आपकी तीर्थंकर मूर्ति को पूजने का तो वहाँ किञ्चित् मात्र भी आधार नहीं है, फिर कुतर्की बनकर उत्सूत्र प्ररूपणा करके क्यों आत्मा को भारी बनाया जा रहा है? क्या परभव से एकदम निर्भय हो गये ? सुन्दर मित्र ! जो भी आपके विद्वानों ने बलिकर्म का अर्थ गृहदेव पूजा किया है, किन्तु यह अर्थ भी सभी जगह संगत नहीं हो सकता, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा 卒*************好**************************** क्योंकि ऐसे कई प्रकरण हैं, जहाँ स्नान विशेष अर्थ ही होता है, जो हम पहले लिख चुके हैं, संक्षेप में फिर भी देखिये - (१) भद्रा सार्थवाही ने पहले जलाशय में जल क्रीड़ा की, स्नान बलिकर्म किया, फिर पूजन सामग्री लेकर पूजा की, अतएव देवपूजा और बलिकर्म भिन्न भिन्न हुआ। (२) तीर्थंकर किसी की भी मूर्ति नहीं पूजते और भगवती मल्लिकुमारी ने बलिकर्म किया, अतएव यह भी स्नान विशेष ही है। (३) द्रौपदी ने प्रथम स्नानगृह में स्नान बलिकर्म किया, बाद में वहाँ से निकल कर देव पूजा करने गई, यहाँ दोनों की परस्पर भिन्नता आपके मत को बाधक है। (४) केशी श्रमण ने प्रथम स्नान बलिकर्म, और बाद में देव पूजन के लिये जाने का कहा, यह स्पष्ट आपको विफल मनोरथ ठहराता है। ___ (५) वनजीवी लोगों ने भारी जङ्गल में स्नान बलिकर्म किया, ऐसे अरण्य में मन्दिर मूर्ति के अभाव से आपका अर्थ असंगत ठहरता है। (६) सुखोपभोग के वर्णन में जहाँ कि देव पूजा की किञ्चित भी आवश्यकता नहीं, इस शब्द का प्रयोग हुआ, यह प्रत्यक्ष आपको हठवादी बतलाता है। (७) वेश्यागमन के पहले स्नान बलिकर्म तो संगत हो सकता है पर देव पूजा तो नाम मात्र को भी नहीं। अतएव यहाँ भी बलिकर्म का अर्थ स्नान विशेष ही समझो। (८) इसके सिवाय कई स्थानों पर स्नानगृह (गुसलखाने) में प्रवेश कर स्नान बलिकर्म करने, और फिर वस्त्र पहिनकर बाहर निकलने का वर्णन मिलता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि बलिकर्म अर्थ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ तुंगिका के श्रमणोपासक ******************************李***客來平平平平平平 देव पूजा नहीं क्योंकि बलिकर्म स्नानगृह में किया जाता है जहाँ कि देव मूर्ति या मन्दिर का कोई सम्बन्ध नहीं। - इस प्रकार बलिकर्म अर्थ से गोत्र देवता के पूजन का अर्थ भी असंगत ठहरता है। आप ही के समाज के विद्वान् पं० बेचरदासजी दोशी की जिन्होंने पहले भगवती सूत्र में यही अर्थ किया है वे भी अभी इस अर्थ में सन्देह करते हैं, देखिये उनके हाल ही के (सं० १९६४ के) अनुवादित और शुद्ध किये हुए “रायपसेणइय सुत्त नो सार" पृ० २६ का फुट नोट नं०५६ - “कोई गृहस्थ ज्ञानी पासे धर्म सांभलवा जाय के राज दरबार मां जाय त्यारे “बलिकर्म' करीने जाय-एवा अनेक उल्लेखों जैन आगमों मां विद्यमान छे, पण ए बलिकर्म शुं छे? ते सम्बन्धी स्पष्ट माहिती मलती न थी, “पोत पोताना गृहदेवो पासे बलि चडाववी-निवेद्य धर-भेंट धरवी" एवो बलिकर्म नो अर्थ टीकाकारे आपेलो छे, आमां “गृह देवता" कोण अने तेनो शुं स्वरूप-ए प्रश्न उभो रहे छ।' इस प्रकार गृह देवता की पूजा करने का अर्थ स्वयं आपके विद्वानों को ही शङ्कास्पद है, तब ऐसी सूरत में और हमारे ऊपर बताये हुए प्रमाणों से आपके कुतर्क का उन्मूलन होकर मूर्ति पूजा की सैद्धान्तिक कमजोरी स्पष्ट होने में खामी ही क्या है? - चालू प्रकरण में सुन्दर मित्र की एक युक्ति पर थोड़ा सा विचार कर लेना आवश्यक समझता हूँ। आपने इसी प्रकरण के ८७ वें पृष्ठ में लिखा कि - "स्नान के बाद पीठी (तेल आटा मिश्रित मालिश) करी xxx क्या कोई समझदार व्यक्ति स्नान करने के बाद मालिश करते होंगे? कदापि नहीं।" . जो हमारे विचार से भी यह युक्ति कुछ उपादेय मालूम हुई, किन्तु Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १३७ .. ..... विशेष विचार करने पर यह भी पाया गया कि शायद समय समय की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियाँ हो, किसी समय किसी वस्तु का उपयोग पहले होता हो, और किसी समय पीछे, आज भी बहुत से ऐसे हैं जो स्नान के बाद शिर में तेल डालकर मलते हैं, और बहुत से स्नान के पूर्व ही। इस तरह विचार कर ही रहे थे कि हमारी दृष्टि श्री दशाश्रुतस्कन्ध के एक पाठ पर पड़ीं, जिससे हमारी धारणा मजबूत हुई, देखिये वह पाठ “सव्वाओ कसाय-दंत कटु-पहाण-मद्दणविलेवण" आदि (दशा ६) यहाँ प्रथम स्नान और फिर मर्दन और बाद में विलेपन बतलाया है, इस सूत्र पाठ से तो सन्देह ही नहीं रहता और हमारी धारणा को ही पुष्टि मिलती है कि पूर्वकाल में इस प्रकार की भी प्रथा थी, शायद इसके पढ़ लेने से सुन्दर मित्र की शङ्का भी दूर हो जायगी? हमारा सुन्दर मित्र से यही कहना है कि - भाई! बिलकुल "केशरी' (?) ही मत बन बैठो। मिथ्या प्रपञ्चों द्वारा जाल फैलाकर भोंदू भेड़ियों में केशरी कहलाना कोई बड़ी बात नहीं है, आप तो क्या आपके सैकड़ों विद्वानों की भी शक्ति नहीं, जो मूर्ति पूजा को धर्मकृत्य और आगम आज्ञा युक्त सिद्ध कर सके इस प्रकार कथाओं और शब्दों की मिथ्या ओट लेने से समझदारों के सामने आपका पाखण्ड किसी भी तरह ठहर नहीं सकता। अरे, जिस क्रिया को धर्म का मुख्य अङ्ग कहा जाय, जो वर्द्धमान भाषित बताई जाय, उसके लिये उसी के प्रचारक वर्द्धमान आज्ञा का एक शब्द भी नहीं बताकर इधर उधर हाथ पैर पटकें, यह कितना निर्बलता और निर्लज्जतापूर्ण हठधर्मिता हैं। क्या अब भी सुन्दर मित्र सीधे मार्ग पर आयेंगे? Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ चारण मुनि और मूर्त्ति पूजा ***************************** (१९) चारण मुनि और मूर्त्ति पूजा *********** भगवती सूत्र श० २० उ०६ में भगवान् श्री वीर प्रभु से श्री गौतम स्वामीजी प्रश्न करते हैं कि "जंघाचारण, विद्याचारण मुनियों की तिर्यग्गति की शक्ति कितनी है ?” उसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया है कि " विद्याचरण मुनि एक उत्पात में मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण करे और वहाँ चैत्य वंदन करके दूसरे उत्पात् में नन्दीश्वरद्वीप में समवसरण करे, वहाँ चैत्य वंदन कर स्वस्थान आवे और चैत्य वंदन करे ।” आदि इस वर्णन में से श्री ज्ञानसुन्दर जी चैत्य वन्दन शब्द को पकड़ करमूर्ति - पूजा सिद्ध करना चाहते हैं और लिखते हैं कि - " यात्रार्थ चारण मुनि गये हों और अन्य भव्यों के यात्रा करने के भावों में वृद्धि हो, इस गरज से शास्त्रकारों ने इसका वर्णन किया हो तो यह है भी यथार्थ कारण शक्ति के होते हुए तीर्थयात्रा करना क्या साधु और क्या श्रावक सब का यह प्रथम कर्त्तव्य है । इसी उद्देश्य को लक्ष में रखकर असंख्य भावुकों ने बड़े-बड़े संघ निकाल कर यात्रा की है ।" आदि ( पृ०१५) प्रथम तो यह बात ही मिथ्या है कि- "कोई चारण मुनि यात्रार्थ गये हों" क्योंकि सूत्र में तो केवल शक्ति का परिचय बताया है, यह नहीं लिखा कि कोई मुनि वहाँ मूर्ति पूजा करने या वंदना नमस्कार करने गया हो । उल्टा सूत्र में तो इस प्रकार अपनी शक्ति का उपयोग करने (लब्धि फोड़ने ) गले को आज्ञा भंजक कहा है, पर यदि कोई सुनी हुई को देखने की इच्छा से आज्ञा विरुद्ध भी शक्ति का दुरुपयोग करके Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************** जावे और बिना आलोचना प्रतिक्रमण के काल कर जावे तो उसे भगवद् आज्ञा का विरोधी बतलाया है। जब भगवती के इस प्रकरण से ही ऐसी प्रवृत्ति के लिए निषेधात्मक ध्वनि निकलती है तब सुन्दर मित्र का उक्त कथन तो साफ झूठ ही ठहरता है कि - " अन्य भव्यों के भावों में वृद्धि हो और वे यात्रा करने जायं, इस गरज से शास्त्रकार ने वह वर्णन किया" ऐसे सीधे साधे प्रकरण को ही उल्टा बताने लगे, उन्हें किस प्रकार समदृष्टि माना जाय? महानुभाव सूत्र में आये हुए "चेइयाई वंदई" का भावार्थ भगवद् स्तुति से हे, मूर्ति वंदन से नहीं, चैत्य वंदन भी स्तुति का दूसरा अर्थ है। देखिये १३६ ******* "जेकर मूर्ति न मिले तो पूर्व दिशा की तरह मुख करके वर्तमान तीर्थंकरों का चैत्य वंदन करे ।" (विजयानंद सूरि लि० जैनतत्त्वादर्श पृ० ३०१ ) इस प्रकार भाव तीर्थंकरों के परोक्ष वंदन को भी चैत्यवंदन कहा है और भगवती सूत्र के उक्त प्रकरण का भी यही आशय है। जिस प्रकार मूर्ति पूजक साधु उपाश्रय में रहे हुए प्रातः सायं दोनों समय प्रतिक्रमण में चैत्य वंदन करते हैं वह भी बिना मूर्ति के परोक्ष वंदन ही होता है इसी प्रकार उक्त प्रकरण के लिए भी ऐसा मान लेना न्याय संगत होगा । हमारी इस युक्ति से मू० पू० आगमोद्धारक श्री सागरानंद सूरिजी भी सहमत होते हुए अपने “सिद्धचक्र" वर्ष ७ अङ्क २ ता० २३-१०-३८ के पृ० ३६ के "सागर समाधान" शीर्षक से लिखते हैं कि - "जंघाचारण आदि मुनिओं पण नंदन आदि मां नमुत्थुणं आदि थी भाव जिन आदिना वंदनो करे छे ।। " Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० NOTE मान आरमात्त पजा BALLAH . . . ...- ATE कहिये अब तो उतरी गेले? यद्यपि आगे चलकर इन्हीं सूरिजी ने मूर्ति वंदने को भी लिखा है और यहाँ भी आदि शब्द रखकर अपनी गुंजाइस रखली है तथापि हमारी युक्ति को पुष्ट करने में उक्त मन्तव्य पर्याप्त हैं। इसके सिवाय आपने भी पृ० १०२ में निम्न प्रकार से लिखा है कि - "शायद ऋषिजी ज्ञानी के गुणानुवाद को चैत्य वंदन ही समझते ही क्योंकि चैत्यं वदन में भी उन्हीं ज्ञानी तीर्थंकरों के गुणानुवाद ही आते हैं तो यह तो ठीक भी है, विद्याचारण, जंघाचारण मुनिवरों ने नंदन वन, पाण्डक वन, नन्दीश्वर, रुचक, मानुषोत्तर और स्वस्थान (जहाँ से गये थे) के मन्दिरों में जाकर चैत्य वंदन (ज्ञानी तीर्थंकरों का गुणानुवाद) किया था, इसमें हमारा मतभेद भी नहीं है।" पाठक समझ गये होंगे कि तीर्थंकर स्तुति की चैत्यं वन्दन सुन्दर मित्र ने भी माना है, जो कि हमारी युक्ति का पूर्ण रूप से आदर है। उक्त अवतरण मैं सुन्दर मित्र ने जो यह लिखा कि “मन्दिरों में जाकर" . ....... . ya n : ... यातना यह लि मित्र काम क्याकि मूल में कहीं भी ऐसे शब्द नहीं है कि "चारण मुनि मन्दिरों में जाकर चैत्य वंदन करें" अंतएवं ऐसी कपोल कल्पनों पर अधिक लिखने की आवश्यकता ही नहीं। ___ इसके सिवायं मानुषोत्तर पर्वत और रुचक पर्वत पर तो शाश्वती मूर्तिये भी नहीं हैं ऐसी सूरत में मूर्तियों को वंदने को जाने की आपकी दलील ठहर ही कैसे सकती है? और जहाँ शाश्वती मूर्तिये हैं, वे देवों के आधीन होकर उन्हीं के पूजनीय हैं, क्योंकि वे उन्हीं से सम्बन्ध रखती हैं, अर्थात् उन्हीं के वंश परम्परा से पुजाती हुई देवमूर्तियें हैं, तीर्थंकर प्रतिमा नहीं। (अधिक स्पष्टता के लिए सूर्याभ प्रकरण देखों) sayret - ....--. - . . . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा अतएव यह बात भी असंगत हुई, हमारे विचार से वहाँ जाने का मुख्य कारम नंदनवनादि की सैर करने का ही हो सकता है क्योंकि यह भी एक छद्मस्थता की पलटती हुई चंचल विचारधारा का परिणाम है, जब कोई मुनि जहाँ जाकर वन की सैर कर विश्राम लेते हों, तब यह सोचना स्वाभाविक है कि वास्तव में ज्ञानियों ने इन स्थानों की जो रचना बताई है वह यथातथ्य है। इस प्रकार सर्वज्ञ के प्रति विशेष श्रद्धा होना और इससे वहाँ स्तुति का भी होना संभव है। इस प्रकार इस प्रकरण का भाव पाया जाता है जो कि ऐसा करने वालों को आज्ञा भंजक बताने वाले सूत्र से स्फुट हो जाता है। यदि कोई यहाँ यह युक्ति दे कि वह आलोचना मार्ग दोष-निवृत्ति की है, तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि सूत्र में स्पष्ट " तस्स ठाणस्स अणालोइय" कहा है, जिसका अर्थ " उस स्थान की आलोचना नहीं करने से है, न कि मार्ग-दोषनिवृत्ति से । अतएव सिद्ध हुआ कि यह क्रिया ही आज्ञा विरुद्ध है। इसके सिवाय इसी प्रकरण पर से आप यह लिख बैठे हैं कि - शक्ति होते हुए तीर्थयात्रा करना क्या साधु और क्या श्रावक सबैका यह परम कर्तव्य है। इसी उद्देश्य को लक्ष में रख कर असंख्य भावुकों ने बड़े-बड़े संघ निकाल कर यात्रा की है। ( पृ० ६५) हाँ चलाते जाईये, खूब चढ़ा चढ़ा कर भोले भावुकों को पहाड़ों में भटकाइये, इसी में गुरु लोगों की पौ बारह है, मनमाने माल उड़ाना इसी में मिलता है। महाराज! ऐसी धर्म करणी तो भगवान् महावीर भी DR. My - नहीं बता सके, किन्तु मित्र सुन्दरजी। यहाँ तो आप चारण मुनियों के सहारे से यात्रा करना और संघ निकाल कर नायक बनने का फल निकाल रहे हैं, पर मेझरनामे” में आपने यह क्या लिख दिया १४१ 31 ******** Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारण मुनि और मूर्ति पूजा ***** पाछलदीधुं थाप ॥२१॥ "ते वखते संघ नहीं कह्यो, पासत्थाए हो? (मेझर नामा ढाल २३) कहिये मित्र ? यह क्या माजरा है? एक स्थान पर तो आप ( पृ० ६५ में) संघ निकाल कर यात्रा करने की प्रेरणा करते हैं इसे पवित्र कार्य बताकर इसमें लाभ होना भी लिखते हैं और मेझरनामें में स्वयं आप ही संघ निकालने की प्रवृत्ति को नूतन और शिथिलाचारियों की चली हुई बताते हैं, यह क्या बात है ? क्या यहीं मूर्ति की स्थापना करते-करते मत्तमोह में मस्त तो नहीं हो गये कि जिससे अपनी पूर्व बात का ध्यान ही न रहा? वास्तव में पक्षपात मनुष्य के ज्ञान का लोप कर देता है। १४२ आगे चलकर इसी ६५ वें पृष्ठ पर स्थानांग सूत्र का उदाहरण देकर यह लिखते हैं कि - " इस पाठ में जिन प्रतिमाओं का नाम ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिसेण जो तीर्थंकरों के शाश्वत नाम हैं उन्हीं तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बतलाई हैं जिनके नाम की माला एवं जाप हमारे स्थानकवासी भाई हमेशा करते हैं उन्हीं की मूर्तियों को वन्दन नमस्कार करने में वे लोग शरमाते हैं यही तो एक आश्चर्य की बात है अर्थात् अज्ञान की बात है।" सुन्दर मित्र ने यहाँ भी खूब प्रपञ्च रचा है क्योंकि इनका यह लिखना एकदम झूठ है कि - स्थानकवासी देवलोक स्थित मूर्तियों के नाम की माला फिराते हैं यद्यपि सुन्दर मित्र यह जानते हैं कि स्थानकवासी समाज इन शाश्वती प्रतिमाओं को तीर्थंकर की होना नहीं मानता, और न तीर्थंकर की मूर्ति के नाम की माला ही फिराई जाती है फिर भी इस प्रकार इनका लिखना, मायायुक्त मिथ्या होकर जनता को भ्रमजाल में फंसाने के दुष्ट अभिप्राय से ओत प्रोत है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा सुन्दर मित्र ! शरम तो आप लोगों को आनी चाहिये, जो मोक्ष प्राप्त तीर्थंकरों को भी सचित्त जल, फल, फूलादि चढ़ाने और मूर्ति के आगे माथा रगड़वाने की मूर्खता प्रदर्शित करते हैं। हमें शरमाने की आवश्यकता ही क्या? हमतो ऐसी लज्जाजनक क्रिया से सर्वथा दूर ही रहते हैं । *** १४३ इसके सिवाय आपने द्वीपसागर पन्नति का उद्धरण देकर साथ ही यह भी समाधान कर दिया कि ठाणांग सूत्र में इसका उल्लेख हैं, और इस विषय में यह भी लिखा है कि आप अपने पूर्वज लोकागच्छ के यतियों से प्रश्न करें।" आदि महानुभाव! आपको स्थानांग सूत्र का प्रमाण देने का कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं और न इस प्रमाण से आप हमें द्वीपसागर पन्नति को मानने का आग्रह ही कर सकते हैं क्योंकि यद्यपि सूत्रोल्लिखित सभी शास्त्र हमें मान्य हैं, तथापि हम इसलिए इन सूत्रों को सम्पूर्ण रूप से प्रमाणित नहीं मानते हैं कि इनमें समय के फेर से अनिष्ट परिवर्तन बहुत हुआ है, ये शास्त्र जैसे पहले थे, वैसे इस समय नहीं रहे, इस विषय में आगे चलकर एक स्वतन्त्र प्रकरण से हम विशेष रूप से समझावेंगे। आप हर जगह लोंकागच्छीय मूर्ति पूजक यतियों के अर्थों को प्रमाण में देते हैं तथा उन्हें हमारे पूर्वज बताते हैं यह आपकी पूरी सज्जनता है जबकि हम यह सिद्ध कर चुके और सभी जानते हैं ि वर्तमान लोंकागच्छीय यति श्रीमान् लोकाशाह के वंशज नहीं पर उस धर्मवीर के सिद्धान्त से एकदम बहिष्कृत हैं। क्योंकि उस पुण्यात्मा की श्रद्धा मूर्ति पूजा में बिलकुल नहीं थी, और ये लोग मूर्ति पूजक हैं। फिर ऐसे लोगों का (जो आपके ही समान हैं) सहारा लेना और शुद्ध साधुमार्गी क्रियापात्र मुनियों को उनके वंशज बताना, दिन दहाड़े डाका डालने के समान है। दुनिया जानती है कि स्था० समाज के Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ द्रौपदी और मूर्ति पूजा .. सुसाधुओं की बराबरी के गृहस्थ जैसे यति तो क्या पर आपकी समाज के साधु भी नहीं कर सकते, फिर आपकी यह सज्जनता (?) एक राजपूत्र को डाकू के वंशज कहने के बराबर है। आपके इस सज्जनता पूर्ण व्यवहार के लिए आपको बारबार धन्यवाद (?) है। ..... सुन्दर मित्र! मूर्तिमोह में मस्त होकर मायाचार का सेवन मत करो। ये मूर्तिये आपको हर्गिज तारने वाली नहीं हैं। यदि आत्मकल्याण प्रिय है तो इस माया को हृदय से निकालकर समभाव पूर्वक संयम पालन करो। अन्यथा परभव में पश्चात्ताप करना पड़ेगा। (२०) द्रौपदी और मूर्ति-पूजा श्री ज्ञानसुन्दरजी ने चौथे प्रकरण के पृ० १०३ से सती द्रौपदी को अर्हत् प्रतिमा पूजने वाली बताकर हमें भी मूर्ति पूजा करने की प्रेरणा साथ ही सत्य को दबाने की कोशिश भी की। किन्तु जनता की जानकारी के लिये हम द्रौपदी का पूर्व सम्बन्ध संक्षेप में बताकर बाद में वस्तु स्थिति को स्पष्ट करेंगे। इस कारण "श्री ज्ञाताधर्म कथांग सूत्र के १६ वें अध्ययन में विस्तार पूर्वक कथन है कि - "धर्मरुचि नाम के तपोधनी महात्मा को मासिक तपश्चर्या के पारणे के दिन नाग श्री नाम की ब्राह्मणी ने कटु तुम्बिका के हलाहल समान आहार बहिराया। जिसके सेवन से उन महान् तपोधनी को दारुण वेदना होकर उनके प्राण पखेरु उड़ गये। तपस्वी हत्या के कारण नागश्री के पति ने उसे घर से निकाल दिया। नागश्री भिखारिणी हुई और अशुभ कर्मोदय से भयंकर रोगिणी बनकर मृत्यु पाकर नस्क में मई। लरक सम्बन्धी महान् वेदना को भोगती हुई और Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा अनेकों भव करती हुई, भटकती भटकती मनुष्य भव को प्राप्त हुई । वहाँ सुकुमालिका नामकी बालिका के नाम से पहिचानी जाने लगी, दुःख से दुःखी हो चारित्र ग्रहण किया, कुछ ही समय बाद चारित्र से पतित होकर शिथिलाचारिणी बनी। गुरुणी ने सुकुमालिका आर्या को अपने से पृथक् कर दिया। इस प्रकार चारित्र विराधना करती हुई एक बार एक वेश्या को पांच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करते देखकर यह निदान किया कि "यदि मेरी करणी का फल हो तो मैं भी इसी प्रकार पाँच पति के साथ विपुल भोग भोगती हुई विचरूँ" । इस प्रकार निदान कर बिना आलोचना प्रायश्चित्त लिये विराधिका हो मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग में गई। वहाँ से द्रौपदी पने उत्पन्न हुई । यौवनावस्था के प्राप्त होने पर उसके लिये स्वयंवर रचा गया। उस समय स्नानादि से निवृत्त होकर जिन घर गई, वहाँ जिन प्रतिमा की पूजा कर स्वयंवर मण्डप में गई। निदान के प्रभाव से और सभी राजा महाराजाओं को छोड़कर पाण्डव पुत्र के गले में वरमाला डालकर पाँचों भाइयों की पत्नी बनी। इस प्रकार द्रौपदी का संक्षिप्त कथानक है। इसमें "केवल जिन प्रतिमा की पूजा की" इतना मात्र होने पर बिना ही कुछ सोच विचार किये ये लोग मूर्ति पूजा सिद्ध करने चले हैं इस विषय में इन भाइयों की ओर से सामने आती हुई निम्न बातों पर विचार करना है। १. द्रौपदी श्राविका थी । २. द्रौपदी की पूजी हुई प्रतिमा तीर्थंकर की थी । ३. द्रौपदी ने नमुत्थुणं से स्तुति की थी । खासकर उक्त तीन युक्तियाँ हमारे सामने प्रस्तुत की जाती हैं, और हमसे द्रौपदी की जैसे पूजा करने का अनुरोध किया जाता है अब हम तीनों युक्तियों पर क्रम से विचार करते हैं. - १४५ *** Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ द्रौपदी और मूर्ति पूजा . ... क्या द्रौपदी विवाह के समय श्राविका थी? द्रौपदी के सुकुमालिका आर्यिका भव के निदान और उससे होने | वाले फल विपाक पर यदि सूक्ष्म दृष्टि डाली जाय तो मालूम होगा कि द्रौपदी विवाह के पूर्व श्राविका होने के योग्य नहीं थी, क्योंकि वह पूर्व भव में भोग लालसा की इतनी इच्छुक हुई थी कि उसने कोड़ी के लिए रत्न बेच देने की तरह भोग कामना की पूर्ति के लिये चारित्र रूपी धन की कमाई को खो डाला था और उसी कामना से मरकर देवलोक में गई, पुनः मनुष्यभव पाकर द्रौपदी पने उत्पन्न हुई यहाँ उसका निदान (पूर्व कामना) पूर्ण होने का था। जैन आगम के जानकार भलीभांति समझते हैं कि - निदान वाले जीव का जब तक निदान पूर्ण नहीं हो जाय (फल नहीं मिल जाय) तब तक वह सम्यक्त्व से वंचित-जैनधर्म से दूर-ही रहता है, हाँ यदि मंदरस का निदान हो तब तो वह फल प्राप्त होने के बाद धर्म के सम्मुख हो सकता है, पर बिना फल प्राप्ति के तो सम्मुख नहीं हो सकता। इधर विवाह के समय भी द्रौपदी के विषय में शास्त्रकार लिखते हैं कि “पुव्वकय नियाणेण चोइजमाणि' अर्थात् पूर्व कृत निदान से प्रेरित हुई अतएव विवाह हो जाने के पूर्व ही द्रौपदी को श्राविका कहने वाले जैन आगम से अनभिज्ञ ही कहे जा सकते हैं। इसके सिवाय समकितसार के रचयिता श्रीमद् ज्येष्ठमल्लजी महाराज साहब अपने इसी ग्रन्थ में लिखते हैं कि "ओघ नियुक्ति सूत्र की आचार्य श्री गंध हस्तिकृत टीका में द्रौपदी को एक संतान प्राप्ति के बाद सम्यक्त्व प्राप्त होना बताया है" इससे भी यही सिद्ध होता है कि Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ******************** ********** विवाह के पश्चात् जब द्रौपदी का पूर्वकृत निदान पूर्ण हो जाता है, तब वह जिनोपासिका होने के योग्य बनती है। विवाह के पूर्व द्रौपदी की मानसिक स्थिति व्यक्ति के जीवन वृत्तान्त से ही उसकी योग्यता का पता लग जाता है। द्रौपदी के सुकुमालिका भव के निदान और द्रौपदी के भव में उसकी पूर्ति पर विचार करने से ही यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि द्रौपदी की मानसिक स्थिति विवाह के पूर्व धर्म के सम्मुख होने योग्य नहीं थी। सज्ञान - यौवन अवस्था में प्रवेश करते ही पूर्व संस्कार के उदय से वह विपुल सुख भोग की अभिलाषिणी हुई हो, यह बिलकुल स्वाभाविक है और उसी के फल स्वरूप एक साथ वह पाँच पति की पत्नी बनी, बस इसी बात का विचार करने वाला द्रौपदी को कौमार्य जीवन में ही श्राविका मानने की भूल नहीं कर सकता । और सोचिये पुरुष के अधिक पत्नियों का होना तो आगमों से भी मालूम हो सकता है, पर किसी ने किसी भी प्रामाणिक आगम में यह पढ़ा कि किसी श्राविका ने एक साथ एक से अधिक पति बनाये हों ? तो इसका उत्तर नकारात्मक ही होगा। अतएव द्रौपदी का एक साथ पाँच पतियों का वरण करना ही स्पष्ट बता रहा है कि वह भोग • लालसा को बहुत समय से और अधिक प्रमाण से चाहने वाली होनी चाहिये । इस प्रकार पक्षपात रहित ठंडे मस्तिष्क से विचार किया जाय तो यही तथ्य निकलेगा कि - द्रौपदी के पूर्व संस्कार ही ऐसे थे कि जिसके कारण वह सज्ञान होते ही विपुल एवं विस्तीर्ण भोगों को प्राप्त करने की इच्छुक हुई । ऐसी स्थिति में विवाह के पूर्व साधारण तौर पर भी धर्म के सम्मुख होना कठिन है, तब निदान रूप कर्म से आच्छादित - १४७ - Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी और मूर्त्ति पूजा हुई आत्मा के लिए तो कहना ही क्या ? स्पष्ट हुआ कि विवाह के पूर्व द्रौपदी जिनोपासिका होने के योग्य नहीं थी । (२) १४८ क्या द्रौपदी ने तीर्थंकर प्रतिमा की पूजा की थी ? जब यह स्पष्ट हो चुका कि - पाणिग्रहण के समय द्रौपदी सम्यक्त्व से रहित थी, तब यह समझना एकदम सहज हो गया कि उसकी पूजी हुई मूर्ति भी तीर्थंकर की मूर्ति नहीं थी। क्योंकि तीर्थंकर को देव मानकर तो सम्यक्त्वी ही वन्दते पूजते हैं, तब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि - द्रौपदी की पूजी हुई मूर्ति को “जिन प्रतिमा " सूत्र में ही बताया है, फिर इस जिन प्रतिमा को तीर्थंकर की प्रतिमा नहीं माना जाय तो किसकी मानी जाय? इसके समाधान में कहा जाता है कि - 'जिन' शब्द के कई अर्थ होते हैं, जिनमें से कुछ हम सूर्याभ प्रकरण में दे चुके हैं, वहाँ श्री हेमचन्द्राचार्य के हेमी नाम माला का एक यह भी अर्थ है कि "कंदर्पोपि जिनोश्चैव” अर्थात् कंदर्प- कामदेवको भी जिन कहते हैं और यह अर्थ इस प्रकरण में बिलकुल उपयुक्त है क्योंकि द्रौपदी को निदान प्रभाव से कामदेव ही अधिक रुचता था वैसे कामदेव को भी जिन कहा जाय तो यह भी एक दृष्टि से योग्य ही है क्योंकि इसकी उपासना करने वाले अनन्त जीव हैं, अनन्त प्राणियों पर इसका अधिपत्य है। यहाँ तक कि पशु पक्षी से लेकर मनुष्य और देव तक इसके वशीभूत हैं बड़े बड़े ऋषि मुनि भी इसके झपेटे को सहन करने में अशक्त ठहरे, अधिक जाने दीजिये । स्वयं मूर्ति पूजा के प्राचीन इतिहास के लेखक श्री ज्ञानसुन्दरजी (आप) भी इसके प्रभाव में ऐसे फँसे कि बहुत से सद्गृहस्थों को भी मात कर दिया जिसके लिए Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ... जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************学产学学术学************** अनेक घटनाओं में से केवल एक "प्रेम के झरने' वाली घटना तो सुप्रसिद्ध है। बस इसी के झपेटे में द्रौपदी भी आ चुकी थी, सो भी इस भव से ही नहीं, किन्तु पर भव से, ऐसी दशा में पूर्व संस्कारों के उदय से द्रौपदी इस जिन (काम) देव की मूर्ति की पूजा करे तो यह सर्वथा सम्भव है इसलिए एक प्राचीन प्रमाण भी देख लीजिये। विजय गच्छ के श्री गुणसागर सूरि ने विक्रम सम्वत् १६७२ में “ढाल सागर" नाम के एक काव्य ग्रन्थ की रचना की, उसके खंड ६ ढाल ११५ के दोहे में द्रौपदी के पूजनीय आराध्य देव का खुलासा इस प्रकार है - “करि पूजा “कामदेवनी" भांखे द्रुपदी नार। देव दया करी मुझने भलो देजो भरथार॥८॥" उक्त दोहे से हमारे कथन की अच्छी तरह से पुष्टि हो गई, यह मन्तव्य वास्तव में प्रकरण के अनुसार है, यदि यहाँ यह अर्थ न माना जाय तो बताइये ऐसा कौनसा स्थल है जहाँ श्री हेमचन्द्राचार्य का जिन शब्द का कामदेव अर्थ उपयुक्त हो सके? . इस विषय में सुन्दर मित्र ने एक तर्क यह भी उठाया है कि कामदेव तो अनंग है, फिर अनंग (अङ्ग रहित) की मूर्ति कैसे बनाई जा सके? यह शङ्का ठीक है, पर यदि संसार व्यवहार पर जरा दृष्टि डाली जाय तो यह शङ्का भी नहीं रहने पाती, आप यह तो जानते हैं कि सिद्ध अरूपी है फिर भी मूर्ति पूजक उनकी भी मूर्ति बनाते हैं। जैनी लोग जिनवाणी को सरस्वती कहते हैं, फिर भी आपके मूर्ति पूजक लोग सरस्वती की भी मूर्ति बनाते देखे गये हैं, इसी प्रकार कामदेव की भी मूर्ति बने तो सन्देह नहीं, अजी सन्देह किस बात का? सत्य ही है, इच्छा हो तो एक प्रमाण भी लीजिये - ww Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० द्रौपदी और मूर्ति पूजा ***京*****空****本空************** ******** मथुरा के म्युजियम में कंकाली टीले से निकली हुई प्राचीन मूर्तियों में कामदेव की भी एक मूर्ति है। इसके विषय में “मथुरा के संग्रहालय में" नामक परिचय पुस्तिका के चित्र परिचय पृ० १५ पं० १ से चित्र नं० २० के परिचय में लिखा है कि - “२० भगवान् कामदेव या कुसुमायुध की मिट्टी की मूर्ति (नं० २६६१) पुष्प माल्याभरणों से अलंकृत पुष्पित भूमि में खड़े हुए कामदेव के दाहिने हाथ में पंचबाण और बांये में कोदण्ड है।" बस अब आपको और क्या चाहिए? विश्वास न हो तो स्वयं पधारकर दर्शन कर आइये। आपकी शङ्का दूर हो जायगी और आप भी शायद द्रौपदी के विषय में अपने विचार बदलकर उसकी पूजा को तीर्थंकर पूजा नहीं मानेंगे। लग्न प्रसंग में मूर्ति पूजा का कारण सुन्दर बन्धु ने इसी पुस्तक के मूर्ति पूजा विषयक प्रश्नोत्तर पृ० २७१ में लिखा है कि - “लग्न जैसे रङ्ग राग के समय भी अपने इष्ट को नहीं भूली तो दूसरे दिनों के लिए तो कहना ही क्या था। धर्मी पुरुषों की परीक्षा ऐसे समय ही होती है।" आदि ... इस प्रकार द्रौपदी के लग्न प्रसंग की पूजा को धर्म भावना युक्त बतलाते हैं किन्तु इन्हें जरा विचार करना चाहिये कि - एक तो द्रौपदी निदान कर्मवाली थी दूसरे निदान कर्म के कारण प्रबल भोग इच्छा वाली थी, और ऐसी लम्बे समय की इच्छित कामना के पूर्ण होने का समय भी उसी दिन का था, ऐसी हालत में भला कौन विचारक द्रौपदी को उस समय धर्म भावना वाली कह सकेगा? संयोग और संस्कार ही Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १५१ ****************************************** उसे उस समय भोग भावना वाली सिद्ध कर रहे हैं, और इसी के चलते द्रौपदी ने भावी अखंड सौभाग्य और प्रचुरता से भोग सामग्री मिलने की कामना से ही पूजा की है, तथा ऐसी कामना कामदेव जैसे से ही की जा सकती है, धर्मदेव से नहीं। अतएव सिद्ध हुआ कि द्रौपदी की पूजी हुई मूर्ति तीर्थंकर की नहीं थी। विवाह प्रसंग के समय कामदेव की स्थापना व पूजा पहले प्रचुरता से होती थी। एक प्रमाण मूर्ति पूजक श्री वर्धमान सूरि के सं० १४६८ के रचे हुए आचार दिनकर का देखिये - "पर समये गणपति कन्दर्प स्थापनं। गणपति कन्दर्प स्थापनं सुगमं लोकप्रसिद्धं।" (विभाग १ विवाह विधि पत्र ३३) द्रौपदी विवाह के पूर्व परसमय-अजैन थी। और पर समय में विवाहोत्सव पर कन्दर्प पूजा पहले बहुतायत से सर्वत्र होती थी यह इस प्रमाण से सिद्ध हो गया। इतना ही नहीं प्रतिष्ठा जैसे धार्मिक कहे जाने वाले कृत्य में भी कंदर्पादि को याद किया गया है। देखो आचार दिनकर विभाग २ प्रतिष्ठा विधि। इसके सिवाय जरा लोक व्यवहार को भी देखिये - . मालवा, मेवाड़, मारवाड़ आदि प्रान्तों में यह रिवाज है कि विवाहोत्सव के प्रारम्भ से ही अजैन और मिथ्यादृष्टि ऐसे देवों की पूजा वर और वधू दोनों ओर से की जाती है, मालवे प्रान्त में विवाह के प्रारम्भ में ही कुम्हार के घर महिलाएँ धूमधाम से जाती है और उसके चाक (बरतन बनाने के चक्र) की पूजा करती हैं उकरड़ी (कूड़े कर्कट का ढेर) आदि की पूजा वर वधू से कराई जाती है। गजानन के चित्र Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ द्रौपदी और मूर्ति पूजा **************************************Y के सम्मुख वर वधू को बिठा कर पाणिग्रहण विधि कराई जाती है, वरवधू को ग्राम देवता भैरव भवानी, चंडी, शीतला, हनुमान, नाग, भूत आदि की पूजा वन्दनादि करनी पड़ती है। और इस प्रकार जैन मन्दिरों में भी जाते हैं, इन सबका प्रधान कारण दाम्पत्य जीवन सुखमय एवं वृद्धिमय होने की भावना ही है, अन्य नहीं। आपकी जैन विवाह पद्धति से तीर्थंकर मूर्ति स्थापन कर उसकी पूजा करके विवाह किया जाय, तो भी इसमें धर्म का कोई खास सम्बन्ध नहीं। यह सब सांसारिक कार्य है, क्योंकि इन पूजाओं में याचना मुख्यतः सांसारिक सुखों की होती है। जैसा कि आचार दिनकरकार ने जैन विवाह विधि में विधान किया है। ऐसी क्रियायें मूर्ति पूजा में धर्म नहीं मानने वाले वर वधू भी प्रचलित रूढ़ि के कारण करते हैं, ऐसी क्रियायें वर्तमान में ही होती है, ऐसा नहीं समझें। बल्कि पूर्वकाल में भी प्रकारान्तर से किसी न किसी रूप में होती थी। गजसुकुमार के पाणिग्रहण के लिये सौमिल हवन के लिए जङ्गल में लकड़ी लेने गया था और भी आगमोल्लिखित कथानक विवाह के समय हवन होने की रूढ़ि को बता रहे हैं और आचार दिनकरकार कन्दर्पादि पूजा का उल्लेख करते हैं। इन सबका धर्म से कोई खास सम्बन्ध नहीं है, ये सब संसार कामना से ओतप्रोत हैं, आप स्वयं ऐसे प्रसंग को रागरङ्ग का समय बता रहे हैं, भला ऐसे समय और वह भी द्रौपदी जैसी निदान कर्मवाली अर्थात् प्रधान भोग प्राप्ति की कामना वाली युवती के लिए धर्म भावना का होना कैसे माना जा सकता? जबकि उसी समय पूजा के बाद के पाठ में ही द्रौपदी की मानसिक अवस्था को बताने वाला सूत्र पाठ द्रौपदी को “पुव्वकय नियाणेणं चोईजमाणि' बताकर उसे भोग कामना वाली घोषित कर रहा है, तब आपकी युक्ति ठहर ही कैसे सकती है? सिद्ध हुआ कि द्रौपदी की Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********************************************* पूजा से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं था और इस प्रकार द्रौपदी की पूजी हुई मूर्ति भी तीर्थंकर की नहीं थी । (3) क्या द्रौपदी ने नमुत्थु से स्तुति की थी? द्रौपदी को श्राविका और उसकी पूजी हुई मूर्ति को तीर्थंकर प्रतिमा सिद्ध करने के लिए श्रीमान् सुन्दरजी ने एक दलील यह भी पेश की कि "द्रौपदी ने उस मूर्ति की नमुत्थुणं के पाठ से स्तुति की, ऐसा ज्ञाता सूत्र के मूल पाठ में स्पष्ट लिखा है। इससे द्रौपदी का श्राविका और प्रतिमा का अर्हन् प्रतिमा होना स्वतः सिद्ध है।" इसके समाधान में कहा जाता है कि - १५३ महाशय ! यह तो आप भी इसी पुस्तक के पृ० २५ में स्वीकार कर चुके हैं कि हमारी विस्तीर्ण साहित्य सामग्री कालबल से आक्रमणकारियों द्वारा बहुत कुछ नष्ट हो गई इसके बाद आपको यह भी समझाया जाता है कि जो भी साहित्य बचकर रहा था वह समय की विषमता के कारण शिथिलाचारी, चैत्यवासी या चैत्यवादी यतियों के अधिकार में रहा, वह समय सुविहितों के लिए तो इतना निकृष्ट था कि कितने ही शहरों और गांवों में ये यति लोग उन चारित्र पात्र संयतों को आने ही नहीं देते थे, यदि कोई भूला भटका साधु उधर आ जाता तो भारी शहर में भी उन्हें ठहरने के लिए स्थान ही नहीं मिलता । यति लोग उन्हें बहुत तंग करते, इस विषय में एक दो प्रमाण भी देखिये (१) आवखते पाटण मां चैत्यवासियों नुं प्राबल्य हतुं ते एटला सुधी के तेमनी संमति सिवाय सुविहित साधु पाटण मां रही न होता ( प्रभावक चरित्र पर्यालोचना पृ० ८५) सकता । - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ द्रौपदी और मूर्ति पूजा ******************************************* (२) श्रीपत्तन (पाटण) मां चैत्यवासी आचार्यों सुविहित साधुओं ने त्यां रहेवा न देतां विघ्न करे छे। (प्रभावक चरित्र भाषांतर पृ० २५६) इस प्रकार यति लोगों ने सुविहितों पर भारी जुल्म किया था, इतना ही नहीं इनके जुल्म से आगम साहित्य भी वंचित नहीं रह सके। इसमें भी उन लोगों ने इच्छित परिवर्तन कर दिया, आप स्वयं अपने "मेझरनामे" की २२ वीं ढाल में लिखते हैं कि - "अजित शांति ना अंत मां, गाथा हो? मिलावी साथ। गा० १५ मंदितु सूत्र सिद्ध दंडके, जयवीयराय हो गाथा दीधी भेल। गा० १७ प्रत्यक्षपाठ सिद्धांत मां, ते लोपी हो? माने कल्पित । गा० २५ इस प्रकार सूत्रों में भी कई प्रकार का परिवर्तन कर डाला है फिर भी कुछ कुछ यति लोग शिथिल होते हुए भी आगमों को जैसे के तैसे रखने के विचार वाले भी थे। उनके पास जो प्रतियें रहीं वे तो शायद शुद्ध रह सकी हों, पर स्वार्थी और मतमोही के पास वाली प्रतियों में अवश्य गड़बड़ हुई है, प्रस्तुत विषय में ज्ञाता धर्मकथांग के द्रौपदी सम्बन्धी नमुत्थुणं आदि पाठ भी काल बल से मूल में जा विराजा है, आज वर्तमान समय में भी ज्ञाता सूत्र की प्राचीन प्रतियें उपलब्ध है, जिनमें कि नमुत्थुणं आदि पाठ बिलकुल नहीं है। यह बात केवल हम ही कहते हैं ऐसा नहीं समझें, किन्तु स्वयं आप ही के मूर्ति पूजक टीकाकार श्री अभयदेव सूरि द्रौपदी सम्बन्धी पूजा के पाठ की टीका करते हुए लिखते हैं कि - "जिण पडिमाणं अच्चणं करेइति" एकस्यां वाचनाया मेतावदेव दृश्यते "वाचनान्तरेतु" आदि देख लिया सुन्दरजी? आप ही के टीकाकार महाशय केवल बारह अक्षर वाले पाठ को ही मूल में स्थान देकर बाकी के लिए Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा १५५ वाचनान्तर में होना लिखकर टीका ही में रखते हैं, मूल में नहीं और प्राचीन प्रतियें भी यही बताती हैं कि इन बारह अक्षरों के सिवाय मूल पाठ में नमुत्थुणं या सूर्याभ साक्षी आदि कुछ भी नहीं है फिर मूर्ति पूजा के रंग में रंगे हुए महानुभावों के प्रक्षिप्त किये हुए अधिक पाठ को प्रमाण में देकर अपना मत दूसरों पर लादना यह कहाँ का न्याय है? वास्तव में देखा जाय तो लोंकागच्छीय यतियों ने और आगमोदय समिति के आगमोद्धारक ने द्रौपदी विषयक नमुत्थुणं आदि अधिक पाठ मूल में बढ़ाकर आगम की असलियत को बिगाड़ने के अलावा अपने ही टीकाकार के मंतव्य का विरोध किया है । सुन्दर मित्र ! हमारी समाज ने नमुत्थुणं आदि पाठ निकाला नहीं, पर मूर्ति पूजकों ने ही मूल सूत्र में अधिक बढ़ा दिया है अतएव आपका तर्क इतने मात्र से टूट गया। इसके सिवाय आपने इस विषय में हमारी ओर के श्री मज्येष्टमल्लजी महाराज और श्री हर्षचन्दजी महाराज की पुस्तकों का प्रमाण देकर णमोत्थुणं आदि पाठ की असलियत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, अब उस पर विचार करते हैं - समकित सार का पाठ हम पहले बता चुके हैं कि हमारा साहित्य बड़े लम्बे समय से मूर्तिपूजक यतियों के हाथ में रहा और श्रीमान् लोकाशाह ने जब मूर्ति पूजकों को वीरधर्म रहित घोषित किया तब आगमों में भी मूर्ति पूजकों को फेरफार करने की आवश्यकता दिखाई दी और परिवर्तन कर भी डाला । इसके बाद सुविहित - सुसाधुओं की वृद्धि का समय आया, जिस निकृष्ट काल में ये महानुभाव नाम मात्र के थोड़े से रह गये थे । ये 1 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ द्रौपदी और मूर्ति पूजा ***定*本*************空***********年*****本本中 फिर समय की अनुकूलता से अधिक परिवार वाले होते गये और जैन शासन का (श्रमण संघ का) सृष्टि में प्रभाव बढ़ाते गये। ऐसे समय आवश्यकता पड़ने पर जैसी आगम प्रतियें इन्हें मिली, उन्हीं से काम चलाते गये। पाठक भूले नहीं होंगे कि ऐसी प्रतियों में अधिकता उन्हीं यतियों के हथकंडों से दूषित हुई प्रतियों की थी, बस उन्हीं पर विश्वास रखकर कार्य चलाना पड़ा। श्री मज्येष्ठमल्लजी महाराज ने समकितसार में भी ऐसी ही किसी दूषित प्रति का उपयोग किया हैं क्योंकि प्राचीन प्रतियों और टीका से यह तो सिद्ध हो गया कि मूल पाठ में नमुत्थुणं आदि अधिक पाठ नहीं है। एक तटस्थ मूर्ति पूजक भी प्राचीन प्रतियों और टीका के देखने पर यही निर्णय देगा कि-वास्तव में नमुत्थुणं आदि पाठ पीछे से भूल में मिलाया गया है फिर यह मानने में शङ्का ही क्या है कि मज्येष्ठमलजी महाराज ने किसी दूषित प्रति का ही उपयोग किया हो? मित्र सुन्दरजी! आपका समाधान तो समकितसार का दूसरा भाग ही कर देता है आप जरा आँख खोलकर निम्न अवतरण को पढ़िये - “पूजा करवा गई ते ठेकाणा नो पाठ एक घणी मुद्दत नी लखाएली ज्ञाताजी ना मूल पाठ मां तो नीचे लखवा मुजब छे - "जिण पडिमाणं अच्चणं करेइ करेइत्ता" “ए पाठ सिवाय मूल मां नमोत्थुणं या चैत्यवंदन या प्रदक्षिणा या तिक्खुत्तो इत्यादिक सूरियाभ देवनी भलामणनो किंचित पाठ नथी, कारण के दिल्ली शहर मां उदयचन्दजी जति छे तेमनी पासे छसो वरस नुं ज्ञाता सूत्र लखाएलुं छे तेमज कनैयालालजी गृहस्थ पासे घणा वरसो ऊपर लखाएली जुनी ज्ञाता छे, ते बे सूत्रो नो पाठ परस्पर मलतो छे, एटलुंज नहीं पण ते सूत्रो त्यांज हाजर छे, माटे आकांक्षा वाला Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा 李********** ********************本**** ओए जोइ लेवं, त्यार पछी नी लखावट मां आवेली थोड़ा वरसों नी ज्ञाताजी नी प्रतो मां आवडो फेर थयो छे, तो तेमां थयेलो फेरफार कल्पित संभवे छे।" (समकितसार भाग २ पृ० ३८) और देखिये - “वली आ ठेकाणे कहेवानु जे ज्ञाताजी नी नवी प्रतो मां वाचनांतरे द्रौपदी ना अधिकारे नमोत्थुणं नो पाठ जोवा मां आवे छे, परन्तु श्री भरुच शहेर ना भंडार मां ताडपत्र ऊपर लखेली ज्ञाताजी सवा आठ से वरसनी छे ते मध्ये पण कयबलिकम्मा ना प्रश्नोत्तर मां लख्या प्रमाणे पाठ छे, माटे जुना पुस्तको ना आधार थी मालम पड़े छे के विशेषण पाठ छे ते कल्पनाकरी नाख्यो जणाय छ।" (समकितसार भाग २ पृ० ५१) उक्त समकितसार भाग २ के उल्लेख से यह स्पष्ट हो गया कि प्रथम भाग में श्री मज्येष्ठमल्लजी महाराज ने जो पाठ दिया है, वह प्रक्षिप्त पाठवाली ज्ञाता से ही दिया है और बाद में अन्वेषण से जो प्राचीन प्रतियें उन्हें मिली हैं, उस पर से उन महानुभाव ने दूसरे भाग में इसका स्पष्टीकरण कर दिया है, इससे तो श्री मज्मेष्ठमल्लजी महाराज के शुद्ध एवं सत्यमानस का परिचय मिलता है उन महात्मा ने प्रथम जैसा देखा वैसा ही लिख दिया, उसमें अपनी ओर से कुछ भी न्यूनाधिक नहीं किया और जब बाद में उन्हें मालूम हुआ कि पहले जो पाठ दिया है वह ठीक नहीं है, तो सत्य मालूम होने पर पूर्व के पाठ का निराकरण कर दिया। सुन्दर बन्धु! वास्तव में प्राचीन प्रतियों में “नमुत्थुणं' आदि अधिक पाठ नहीं है। मैंने स्वयं दिल्ली में लाला मन्नूलालजी अग्रवाल के पास ज्ञाता सूत्र की प्राचीन प्रति देखी, जो बहुत जीर्ण थी, उसमें आपका बताया हुआ अधिक पाठ है ही नहीं और यह वही प्रति है Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ द्रौपदी और मूर्ति पूजा **会********本***************本求学李**本书中 जिसका उल्लेख समकितसार भाग-२ में किया गया है। इसके सिवाय किशनगढ़ (राजपूताने) में भी एक प्राचीन प्रति है उसमें भी नमुत्थुण आदि वर्द्धित पाठ नहीं है। इस पर से आपको समझ लेना चाहिए कि समकितसार प्रथम भाग में दिया हुआ पाठ अशुद्ध है। इस पर से आपका अभिष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। श्रीमान् हर्षचन्द्रजी म. के नाम से झूठा प्रचार इसके सिवाय आपने श्रीमान् हर्षचन्द्रजी महाराज लिखित "श्रीमद् राजचन्द्र विचार निरीक्षण" नामक पुस्तक का कुछ अवतरण देकर द्रौपदी विषयक नमुत्थुणं पाठ सिद्ध करना चाहा है, यह भी आपका प्रपंच मात्र है क्योंकि श्रीमान् हर्षचन्द्रजी महाराज ने तो वहाँ द्रौपदी की मूर्ति पूजा को धर्म मानने का स्पष्ट रूप से खण्डन किया है तथा उसी पृष्ठ में कुछ ही आगे बढ़कर यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि - “पण ए जग्याए ज्ञाता सूत्र मां द्रौपदी ना अधिकारे हालनी केटली प्रतिओं मां थोड़ो पाठ प्रक्षेप थयो होय एम केटलीक जुनी प्रतिओं मां जोतां मालूम पड़े छ।” (श्रीमद् राजचन्द्र विचार निरीक्षण पृ० १६) ___कहिये मित्र! हो गया आपके प्रपंच का खण्डन? इस प्रकार किसी एक अंश को पकड़ कर मिथ्या प्रचार करना क्या साधुओं का कार्य है? आपने भी जनता को चक्कर में डालने का मार्ग तो अच्छा पकड़ा, पर जब कोई अन्वेषक खोजकर विचार पूर्वक निर्णय करे, तब आपकी चालाकी प्रकट होते देर नहीं लगती। इस प्रकार द्रौपदी के कथानक की ओट लेकर मूर्ति पूजा को धर्म कृत्य बताना और इसे आगम प्रमाण कह कर भोली भाली जनता को भ्रम में डालना आत्मार्थी पुरुषों का कार्य नहीं है। ___ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १५६ ***************************************** जबकि स्वयं मूर्ति पूजक टीकाकार इसी द्रौपदी के कथानक पर विचार कर लिखते हैं कि - "नच चरितानुवाद वचनानि विधि निषेध साधकानि भवंति।" तब आपका कथानकों की ओट लेकर उससे आचार विधान बताना, सो भी मनःकल्पित युक्तियों से, यह कहाँ तक ठीक है? कथाओं की ओट के विषय में यहाँ हम इतना ही लिखकर अगले स्वतंत्र प्रकरण से सप्रमाण विशेष विचार करेंगे, किन्तु सुन्दर मित्र को अपने ही टीकाकार महात्मा के उक्त शब्दों पर विचार कर अपना हठवाद छोड़ देना चाहिए, इसी में भलाई है। (२१) कथाओं के उदाहरण हमारे मूर्ति पूजक बंधु अपनी मान्यता को आगमोक्त एवं महावीर प्ररूपित सिद्ध करने के लिए हमारे सामने कथाओं के उदाहरण पेश किया करते हैं। जहाँ जिस किसी मूर्ति पूजक से इस विषय में प्रमाण माँगा जाता है तब तुरन्त ये लोग गर्व पूर्वक सूर्याभ विजयदेव और द्रौपदी आदि के कथानकों को पेश करते हैं और मन में यह समझते हैं कि हमने प्रमाण पूर्वक मूर्ति पूजा की सिद्धि कर दी। इसी तरह चैत्य या बलिकर्म शब्द पर भी ये लोग उछल कूद मचाते हैं, हमारे प्रतिपक्षी मिस्टर ज्ञानसुन्दर जी ने गर्व पूर्वक ऐसे ही प्रमाण दिये हैं। यद्यपि सुन्दर बन्धु ने कथाओं के प्रमाण दिये, फिर भी बिना खिंचतान व अर्थ का अनर्थ किये। ये महानुभाव अपना मनोरथ पूर्ण नहीं कर सके। कहीं शब्दों का अर्थ मनःकल्पित किया तो कहीं भाव ही उल्टा बताया। ___ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कथाओं के उदाहरण ********************本*******本本学中**** वंश परम्परा से चले आते हुए जीताचार के कारण या भावी भोग, जीवन के सुखमय होने के लिए, किये गये कृत्यों को बिना किसी पुष्ट प्रमाण के धार्मिक कृत्य बता दिया, ऐसे ही चैत्य और बलिकर्म शब्द मात्र से या प्रक्षिप्त पाठों से भोले भक्तों को भ्रम में डालने का प्रयत्न किया, किन्तु ऐसा एक भी प्रमाण नहीं दिया कि जिस में आगमोक्त आचार विधान का उल्लेख हो या सर्वज्ञ प्ररूपित हो। इस प्रकार के उद्योग से सुज्ञ पाठक तो शीघ्र समझ जाते हैं कि यहाँ प्रमाण के नाम पर शून्य ही है। जो कृत्य धर्म का मुख्य अंग माना जाता हो, जो महावीर प्ररूपित कहा जाता हो, जिसे सुन्दरजी या अन्य महान् आचार्य मोक्ष का प्रमुख मार्ग कहते हों और उसी के लिए आगम प्रमाण में विधि वाक्य के नाम पर एक अक्षर भी नहीं मिला, यह मत मोहियों के लिए कितनी लजा की बात है? सुन्दर मित्र! कथाओं के पात्र स्वतंत्र होते हैं, उनकी परिस्थिति, उनके विचार आदि सभी स्वतंत्र होते हैं, वे अपनी स्थिति योग्यता जवाबदारी आदि को लक्ष्य में रखकर जो भी कार्य करें, वह सबके लिए उपादेय नहीं होता न ऐसे उदाहरणों से कोई सिद्धान्त ही बन सकता है, कई बहुजन मान्य उत्तम पुरुषों के जीवन में भी कभी कभी ऐसी घटनायें हो जाती हैं कि उनके अनुयायी भी उसका अनुकरण नहीं करते, उदाहरण के तौर पर देखिये - (१) श्री रामचन्द्र जी माया मृग के पीछे दौड़े और भ्रम में पड़कर सीताजी को छोड़कर वन में चले गये। इधर सीताजी को रावण ले ऊड़ा, इस पर नीतिकार कहते हैं कि - "ननिर्मिता केन न दृष्ट पूर्वा, न श्रुयते हेममयी कुरंगी। तथापितृष्णरघुनन्दनस्य, विनाशकाले विपरीत बुद्धिः। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १६१ *******************京********************* अर्थात् - सोने की मृगी किसी ने बनाई नहीं, देखी नहीं, सुनी नहीं, तो भी तृष्णावश श्री रामचन्द्र जी उसे लेने को दौड़े, यह विनाश के समय बुद्धि की विपरीतता ही है। श्री रामचन्द्रजी मर्यादा पुरुषोत्तम और आदर्श पुरुष माने जाते हैं उन्होंने मायावी मृग के पीछे दौड़ने की भूल की, क्या उनका उदाहरण लेकर सभी को ऐसी भूल करनी चाहिये? - (२) चरितानुयोग (कथाओं) का प्रमाण देने वाले सुन्दर महाशय के पूर्वज प्रभाविक आचार्यों में से आचार्य वप्पभट्टी ऊँटनी पर सवार हुए, सूराचार्य हाथी पर चढ़ बैठे, गोविन्दाचार्य ने मन्दिरों में वेश्याओं का नाच करवाया और भी कई प्रभाविक आचार्य इस कोटि के हुए (प्रभाविक चरित्र) इनके उदाहरण से सुन्दर बन्धु को भी वाहनारूढ़ होना चाहिए और मन्दिरों में वेश्याओं को नचाकर धर्म प्रभावना बढ़ाने के साथ-साथ उन वेश्याओं का भी उद्धार (स्वर्ग, मोक्ष, प्रदान) करना चाहिए। (३) सूर्याभ और विजय देव ने भूत, नाग, यक्षादि की मूर्तियें पूजी। द्वार, शाखा, तोरण, वापिका, नागदन्ता और ध्वजा आदि की भी पूजा की तो मूर्ति पूजकों को भी ऐसी क्रियायें करनी चाहिए और उसमें भी धर्म मानना चाहिए? .. (४) द्रौपदी ने पांच पति एक साथ किये, फिर भी सती कहलाई इसका उदाहरण लेकर आज कोई युवती दो या तीन पति ही करले और अपने को सती सिद्ध करने के लिए इसी षष्टमांग के द्रौपदी वर्णन की साक्षी आपके सामने पेश करे तो आप स्वयं कथाओं के अनुकरण करने वाले होने से उस युवती के सामने किस प्रकार बोल सकते हो? ___ अधिक कहाँ तक लिखा जाय, समझदार तो संकेत मात्र में समझ जाते हैं। फिर भी सुन्दरजी महात्मा की सुन्दर जाल का छेदन Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कथाओं के उदाहरण ***** **************************** करने के लिए इन्हीं (मूर्ति पूजक) के मान्य कुछ प्राचीन और अर्वाचीन प्रमाण दिये जाते हैं - (१) नच चरितानुवाद वचनानि विधि निषेध साधकानि भवंति अन्यथा सूरिकाभादि देव वक्तव्य तायां बहूनां शस्त्रादि वस्तूनामर्चनं श्रूयते। (ज्ञाता सूत्र की टीका-आगमोदय समिति पत्र २११) (२) चरितानुवादरूपं प्रवर्तकं निवर्तकं च न भवतीति । ___ (सेन प्रश्न आगमोदय समिति पत्र ८) (३) “आर्य रक्षिताचार्ये तेमां चरणकरणानुयोगज व्याख्या मां कर्त्तव्य पणे कहेल छे तेमां शेष त्रण अनुयोगो छे पण तेने व्याख्या कर्तव्य पणे नथी कही।" (विशेषावश्यक भाषांतर आगमो० स० भा० २ पृ० २३१) (४) चरितानुवाद एटले शुं? भूलवू जोइतुं नथी के चरितानुवाद ए विधिवाद न थी, चरितानुवाद अने विधिवाद मां आकाश पाताल नुं अन्तर छे, अमुक माणसे अमुक काम कर्यु एटले आपणे ते करवुज जोइए अथवा आपणे ते करी शकीए एम माननारा के कहेनाराओं खरेखर सैद्धांतिक आज्ञाओं नुं महान् अपमान करे छ। (श्री विद्याविजयजी लि. समय ने ओलखो भाग १ पृ० २१५) (५) श्री शांतिविजयजी “सांझ वर्तमान' दैनिक पत्र के ता० ११-७-२६ के अंक में “बम्बई जैन संघ में चालू चर्चा' शीर्षक लेख के पेरेग्राफ द में लिखते हैं कि - “चरितानुवाद सर्वव्यापी नहीं, विधिवाद सर्व व्यापी कहा और विधिवाद बलवान है। शास्त्रार्थ के बखत विधिवाद का सबूत देना पड़ेगा। (चेलेंजोनी पोकलता पृ०७) (६) यही शान्तिविजय जी "रिसाला मजहब ढुंढिये' पृ० १० में लिखते हैं कि - ___ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १६३ **************** ********************* ___ "दूसरे जंबुस्वामी वगेरा शख्सों का जो बयान फरमाया यह चरितानुवाद की बात है, चरितानुवाद उसका नाम है कि जिस तरह एक शख्स ने अपनी जिंदगी तैर किइ हो, विधिवाद उसका नाम है कि जो २ हुक्म तीर्थंकर का है उसको मंजूर करना, विधिवाद आम फिरके पर कायम होता है, चरितानुवाद एक शख्स पर होता है।" .. (७) आपके सम्प्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदासजी का मत भी देखिये - ___“जो व्यक्तिओ ना आचरणो उपर थीज आचारो नुं विधान दर्शावातुं होय तो पछी आचारना के विधिना ग्रन्थों ने जुदा रचवानीशी जरूर छे? कथानुयोग थीज बधा विधि विधानो तारवीशकाता होय तो चरण करणानुयोग नो वधारो करवो व्यर्थ जेवो छे, सारा के नरसां आचरणो करनारानी कथाओं उपरथी जो ते ते आचारो नुं वंधारण बंधातु होत तो नीति ना ग्रन्थों के कायदा ग्रन्थोनी जरूर शामाटे पड़े? . मारुं तो एम मानवु छे के ज्यारे आचार ना ग्रन्थो जुदाज रचवामां आव्या छे-आवे छे अने तेमां प्रत्येक नाना मोटा आचारोनुं विधान करवा मां आव्युं छे-आवे छे, ते छतां तेमांजे विधानो नो गंध पण न जणातो होय ते विधान ना समर्थन माटे आपणे कथाओं ना ओठांलइए के कोई ना उदाहरणो आपीए ते बाबत ने हुँ तमस्तरण सिवाय बीजा शब्द थी कही शकतो नथी।" (जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि पृ० १२७) मित्र ज्ञानसुंदरजी! उक्त सात प्रमाण तो आप ही की मूर्ति पूजक समाज के दिये हैं अब एक प्रमाण दिगम्बर सम्प्रदाय का भी देखिये, पं० परमेष्ठीदासजी न्यायतीर्थ लिखते हैं कि - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाओं के उदाहरण "प्रथमानुयोग का कथा रूप कथन आज्ञा नहीं मानी जा सकती कारण कि जिसने जैसा किया वैसा ही कथा में लिखा जा सकता है। (चर्चासागर समीक्षा पृ० २०१ ) उपरोक्त प्रबल एवं अकाट्य प्रमाणों से यह भली भांति सिद्ध ह गया कि चरितानुवाद ( कथाओं) के प्रमाण विधिवाद में किसी काम के नहीं, फिर ऐसी हालत में कि जहाँ मतभेद हो वहां तो सिवाय विधिवाद के अन्य कथाओं आदि के प्रमाण देने वाले विद्वानों के सन्मुख पराजय को ही प्राप्त होते हैं। १६४ सुन्दर मित्र ! हम तो फिर भी आपको इतना भी कहते हैं कि यदि आप कथाओं के प्रमाण देवें तो भी ऐसे प्रमाण देवें कि जो विधिवाद सम्मत हो। जिसके लिए विधिवाद का प्रबल सहारा हो । जो आचार विधान में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाता हो यदि ऐसा प्रमाण हो या आपके प्रमाणों में विधिवाद का कुछ भी सहारा हो तो आप प्रसन्नता पूर्वक पेश कीजिये, किन्तु बिना विधिवाद की सहायता के चारित्रमार्ग में बाधक ऐसी मूर्ति पूजा किसी भी तरह उपादेय नहीं हो सकती। मित्रवर! जब आप स्वयं ही अपने मेझरनामे की २५ वीं ढाल में इस प्रकार लिखते हैं कि - - " सूत्र सूयंगडांग मां कह्यु, आज्ञा बाहर हो ? बधुं आल पपाल ||६ ॥ " और इसी "मेझरनामे " की २३ वीं ढाल के तात्पर्य में साफ लिख दिया कि "धर्म छे ते वीतरागनी आज्ञा मां छे, अने आज्ञा थी न्यूनाधिक करवुं ते तो अधर्मज छे।" - Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १६५ *************************************** सुन्दरजी! फिर आज्ञा से एकदम रहित ऐसी मूर्ति पूजा के लिए क्यों व्यर्थ के प्रपंच करते हो? आपने तो अपने इसी पोथे के पृ० १५६ में यहाँ तक प्रपंच कर डाला कि - “अन्यथा केवल कहने मात्र से कि - हाँ, मूर्ति पूजा पूजा प्राचीन तो है पर......इस थोथी उक्ति से कोई भी काम नहीं चल सकता।" .. क्यों मित्र! फिर यह प्रपंच जाल क्यों? सत्य कहिये, आपने इस बिन्दु अङ्कित रिक्त स्थान में क्या रहस्य छिपा रखा है? क्या मैं इस रिक्त स्थान की पूर्ति कर दूं? लीजिये, आपने जो रहस्य छुपा रखा है वह मैं ही प्रकट किये देता हूँ। मेरे विचार से आपने इस रिक्त स्थान में "प्रभु आज्ञा नहीं है" यही वाक्य छुपा रखा है, इसके सिवाय और हो ही क्या सकता है? क्योंकि हमारी ओर से आप लोगों के मिथ्या तर्कों पर आपसे प्रभु आज्ञा रूप प्रमाण मांगा जाता है और ऐसा प्रमाण आपके पास है ही नहीं। इसीलिए आपको प्रपंची बनना पड़ा, किन्तु सुन्दरजी आप एकबार क्या हजार बार भी प्रपंच करें, तो भी आपसे या आपके मूर्तिपूजक आचार्यों से मूर्ति पूजा की आगम आज्ञा कभी भी सिद्ध नहीं हो सकती। हाँ इस प्रपंच जाल से भोले भक्तों को तो भ्रम में डाल सकते हैं और इस प्रकार आप व आपके भक्त भव भ्रमण को तो अवश्य बढ़ा सकते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि एक तरफ तो आप स्वयं आज्ञा युक्त क्रिया में ही धर्म मानते हैं और आज्ञा से बाहर की करणी को सर्वथा व्यर्थ बताते हैं, किन्तु दूसरी ओर मूर्ति पूजा के चक्कर में पड़कर आज्ञा धर्म को थोथी युक्ति बताते हैं। क्या आपका ऐसा कहना अपने ही वचनों से (स्व वचन विरोध रूप दूषण से) दूषित नहीं है? Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ लोंका-गच्छीय यति *******************学学********************* आशा है कि अब आगे पर आप ऐसी हरकतों से बाज आकर निंदकपन से वंचित रहेंगे। पाठकगण! देख लिया आपने तमाशा? यही मरुधर केशरी (श्री ज्ञानसुंदर जी) एक तरफ तो आज्ञा में ही धर्म और आज्ञा से बाहर अधर्म मानते हैं और दूसरी तरफ स्थानक वासियों के ऊपर अपने द्वेष के कारण तथा मूर्ति पूजा पक्ष के पक्षपाती होने के कारण उसी प्रभु आज्ञा के लिए थोथे बनते हैं, जबकि इन्हीं महानुभाव के पक्षकार कथानकों की ओट लेने को मिथ्या प्रपंच प्रकट कर आज्ञा रूपी प्रमाण को ही पुष्ट प्रमाण मानते हैं, तब सुन्दर बाबा की बौखलाहट का मूल्य ही क्या है? अतएव खुलमखुल्ला यह सिद्ध हो गया कि मतभेद और आचार विधान के मामलों में कथाओं की ओट लेने वाले जनता को उन्मार्ग की ओर धकेलने और द्वेष फैलाने वाले भयङ्कर जन्तु हैं। (रर) लोका-गच्छीय यति श्री ज्ञानसुन्दरजी ने कई स्थानों पर यह प्रश्न किया है कि - “आप पूर्वज लोंकाशाह के गच्छ के यतियों का किया हुआ अर्थ आप नहीं मानते हो तब आप लोंकाशाह के अनुयायी कैसे हो सकते हो?" - इसके सिवाय स्थानकवासी समाज को लोंका-गच्छीय मूर्ति पूजक यतियों के लिए हुए अर्थों का प्रमाण मानने का आग्रह भी हर स्थान पर किया गया है, इस विषय में हमारा सुन्दर मित्र से यही कहना है कि - महानुभाव! आपकी यह माया जाल भोले भाइयों या निरक्षर Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा *************************************** बाइयों में भले फैल जाय किन्तु जो साक्षर हैं जो विचार व बुद्धि से काम लेते हैं, उनके आगे आपका सारे प्रयत्न निष्फल ही जाते हैं। आपको यह तो मालूम ही होगा कि - श्रीमान् लोकाशाह मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे, मूर्ति पूजा के विरुद्ध उन्होंने प्रबल प्रचार किया था, यह बात आप अच्छी तरह जानते और लिखते हैं। आपका मूर्तिपूजक समाज भी यह स्वीकार करता है, हमारी भी यह मान्यता है कि पतनोन्मुखी जैन समाज जो कि अपने शिथिलाचारी, स्वार्थी, अगुवाओं की करतूतों के कारण रसातल को जा रहा था, तब इस पुण्य भूमि पर धर्म प्राण लोकाशाह का प्रादुर्भाव हुआ। उस पुण्यात्मा ने जब जैन सिद्धान्तों का अवलोकन कर मनन किया तो उन्हें यह स्पष्ट मालूम हुआ कि वर्तमान में इन कहे जाने वाले जैन साधुओं में साधुत्व का तो नाम ही नहीं है किन्तु यह दल अधिकांश में परम पवित्र जैन धर्म के सत् सिद्धान्तों का घातक, प्रभु आज्ञा भंजक, शिथिलाचारी, स्वार्थ पीपासु और धर्म के नाम से झूठा पाखण्ड चलाने वालों का है मूर्ति पूजा जिसके लिए आगम आज्ञा का अणु मात्र भी सहारा नहीं है, उसे अपना स्वार्थ पूर्ति का प्रबल साधन होने से केवल इसी में धर्म बता रहे हैं, इसके द्वारा जनता को अन्धविश्वास में डालकर अपना उल्लू सीधा करते हैं और धर्म के विशेष तत्त्व जो कि आत्म-कल्याण के मुख्य साधन हैं उन्हें स्वार्थवश दबा बैठे हैं। जैनागमों के मनन से उस वीरपुत्र को जब समाज की वर्तमान दशा का भान हुआ तब उस परम क्रान्तिकार-धर्म सुधारक, धर्मप्राण लोंकाशाह ने सिंह गर्जना कर सर्व प्रथम धर्म घातक, पाखंडवर्धक, अन्धविश्वास की जननी, शिथिलाचार की पोषक ऐसी मूर्ति पूजा के विरुद्ध आवाज उठाई। भद्र और सुज्ञ जनता ने उस बुलन्द आवाज को सुना, पाखण्ड की दिवालें हिल उठी Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोका-गच्छीय यति और भूकम्प की तरह कम्पित होकर बहुत सी धराशायी हो गई। बच खुची भी अपना भविष्य अन्धकारमय देखने लगी, उसी धर्मवीर के स्वर्ग गमन के पश्चात् उसी के वंशज पुनः शिथिलाचार में फंस कर बाद में मूर्ति पूजक हो गये हैं। भला वे अब श्रीमान् लोकाशाह के वंशज कैसे हो सकते हैं? आप ही सोचिये कि कहाँ तो उस महान् आत्मा का मूर्तिपूजा विरोध और कहां उनके वंशज कहे जाने वाले लोंका गच्छीय यतियों का मूर्तिपूजा स्वीकार ? क्या अब भी वे श्रीमान् धर्म सुधारक लोंकाशाह के अनुयायी बनने का दावा कर सकते हैं? कदापि नहीं । १६८ ******* सोचिये ? एक सद्गुणी सेठ के दो पुत्र ही सेठ का व्यवहार उच्च और आदर्श हो, कालान्तर में सेठ का स्वर्गवास हो जाने पर एक पुत्र तो अपने पूज्य पिता के आदर्श को सम्मुख रखकर तदनुसार व्यवहार करे, व दूसरा अपने पिता के आदर्श को ठुकराकर उनके नाम को कलङ्कित करने वाले विरोधी कार्य करे, दिवाला निकाल दे तो, आप ही बताइये कि इन दो में कौन सुपुत्र कहलाने योग्य है ? प्रथम पुत्र ही न ? कहने की आवश्यकता नहीं कि दूसरा पुत्र कुपुत्र और कुलकलङ्क है। बस इसी तरह जरा सरल बुद्धि से यह समझिये कि जिन यतियों ने श्रीमान् धर्मक्रांतिकार लोकाशाह की आज्ञा के विरुद्ध, मान्यता के विरुद्ध शिथिल बनकर मूर्तिपूजा को स्वीकार किया है, वे वास्तव में उक्त दान्त के दूसरे कुपुत्र की श्रेणि के हैं और आज भी कितने ही लोकागच्छ के यति ऐसे भी हैं जो मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, वे तो अलबत्ता प्रथम श्रेणि के सुपुत्र की तरह श्रीमान् लोकाशाह के अनुयायी और वंशज कहे जा सकते हैं। जो लोग स्वयं मूर्तिपूजक हैं वे अपने मन्तव्य की सिद्धि लिये Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १६६ ***************************************** अपने ही समान मूर्तिपूजकों के किये हुए अनर्थों को हमारे सामने पेश करे, यह कहाँ तक उचित हैं? सुन्दर मित्र को सोचना चाहिये कि आखिर लोंकागच्छ के यति (जो मूर्ति पूजा करते हैं) भी तो मूर्ति पूजक हैं, फिर उनके किये विपरीत अर्थों को सामने लाते आपको शरमाना चाहिए, वे कदापि श्री लोकाशाह के अनुयायी नहीं है। (२३) स्थापनाचार्य का मिस्या अंडगा श्री ज्ञानसुन्दरजी पृ० १०८ में स्थापनाचार्य रखने की आवश्यकता बतलाते हुए लिखते हैं कि - ___ “प्रतिक्रमण सामायिकादि धर्म क्रिया करने के समय स्थापनाचार्य की भी परमावश्यकता है, यदि स्थापना न हो तो क्रिया करने वाला आदेश किसका ले? इसके सिवाय स्थापनाचार्य के लिए आप शास्त्रीय प्रमाण पेश करते हैं वह भी देखिये - । “दुवालसावत्ते कितिकम्मे प० तं० दुउणयं जहाजायं, कितिकम्मं बार सावयं चउसिरं तिगुत्त चादुपवेसं एग् निक्खमणं।" ___ सुन्दर मित्र ने उक्त पाठ स्थापना रखने की सिद्धि में पेश किया है, किन्तु उक्त पाठ में एक भी अक्षरं ऐसा नहीं जो स्थापना का नाम भी बताता हो, फिर सुन्दर जी के मिथ्या प्रपंच में सार क्या निकला? सुंदर मित्र ने उक्त पाठ के नीचे लोंका-गच्छीय यतियों की ओर से किया हुआ टब्बार्थ दिया उसमें बिना ही मूल के "गुरुनी थापना For Private &.Personal.Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० स्थापनाचार्य का मिथ्या अंडगा ********************************************** कीजे' लिखा है और अन्त में यह भी लिखा है कि “एह समवायांग वृत्ति नो भाव" किन्तु यह अर्थ बिलकुल निर्मूल है, इससे मूल का कोई सम्बन्ध नहीं है, न वृत्तिकार ने ही स्थापना का उल्लेख किया है, देखो समवायांग के उक्त पाठ की श्री अभयदेवसूरिकृत वृत्ति का अवतरण - "दुवालसावत्ते किइकम्मे" त्ति द्वादशावर्त कृतिकर्म-वन्दनकप्रज्ञप्तं, द्वादशावर्त्ततामेवास्यानुवदन् शेषांश्चतद्धर्मानभिधित्सुःरूपकमाह-'दुओणए' त्यादि, अवनतिखनतम्-उत्तमान प्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवन्तेयस्मिंस्तदद्वयवनतं,तत्रैकंयदा प्रथममेव इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए' त्ति अमिधायाव ग्रहानुज्ञापनायावन मतीति, द्वितीयं पुनर्यदाऽवग्रहानुज्ञापनायैवावनमतीति, यथाजातंश्रमणत्वभवनलक्षणंजन्माश्रित्ययोनिनिष्क्रमणलक्षणं च, तत्र रजोहरण मुखवस्त्रिका चोलपट्टमात्रया श्रमणो जानो रचितकरपुटस्तुयोन्या निम्रत एवंभूत एव वन्दते तदव्यतिरेकाद्वा यथा जातं भण्यते, कृतिकर्म-वंदन 'बारसावयं' ति द्वादशावर्त्ता:-सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापार विशेषाः यतिजनप्रासद्धाः यस्मिस्तद द्वादशावर्त तथा 'चउसिरं' ति चत्वारि शिरांसि यसिंमस्तच्चतुः शिरः प्रथम प्रविष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्य शिरोद्वय पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना तथा 'तिगुत्तं' ति तिसृभिर्गुप्तिभिगुप्तः Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************ पाठान्तरेपि तिसृभिः (श्रद्धाभिः) गुप्ति भरेवेति तथा 'दुपवेसं' ति द्वौ प्रवेशो यस्मिंस्तद् द्विप्रवेशं तत्त्व प्रथमोऽवग्रहमनुज्ञाप्य प्रविशतो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति 'एगनिक्खमणं' ति एकं निष्क्रमणमवग्रहादावश्यिक्या निर्गच्छतः, द्वितीयवेलायां ह्यवग्रहान्न निर्गच्छति, पादपतित एवं सूत्र समापयतोति ।" ( आगमोदय समिति पत्र २३ ) इस वृत्ति में भी स्थापना का नाम निशान तक नहीं है फिर समझ में नहीं आता कि मूर्तिपूजक लोंका - गच्छीय यतियों ने किस आधार स्थापना का उल्लेख कर डाला? १७१ वृत्ति और इसी टब्बार्थ के बाद के कथन से तो साफ-साफ गुरु को वंदन करना ही सिद्ध होता है, देखिये सुन्दरजी के दिये हुए प्रमाण का अवतरण पृ० १०६ से - " गुरु न पगे वंदणा कीजे, 'अहोकायं काय' ए पाठ कही विहुवाला थइ १२ बारा आवर्त यथा चोसरो ४ बेवला गुरु ने पगे मस्तक नमाड़िये | आदि - इस प्रकार खुल्लम-खुला गुरु वन्दन स्वीकार किया गया है। इतना होते हुए भी सुन्दर मित्र अनर्थ का सहारा लेकर स्थापनाचार्य मनवाने का दुराग्रह करते हैं यह कहां तक उचित है ? हम स्पष्ट और साहसपूर्वक कहते हैं कि जिनागमों में किसी भी स्थान पर स्थापनाचार्य रखने का विधान नहीं है, न स्थापना से आदेश लेने का ही उल्लेख है, यही नहीं चौथे पांचवें और छठे गुणस्थान वर्तियों के चरितानुवाद में भी यह बात नहीं है। देखिये निम्न प्रमाण (१) जब शक्रेन्द्र को प्रभु के "केवल्य कल्याण" आदि का - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ स्थापनाचार्य का मिथ्या अडगा ******************************************** अवधिज्ञान द्वारा मालूम होता है तब वह सिंहासन छोड़ता है और सात आठ कदम ईशान कोण की तरह आगे बढ़कर भूमि पर बैठता है, बाद में मस्तक झुकाकर वन्दना-स्तुति करता है, किन्तु वहाँ भी स्थापना का उल्लेख नहीं है। इसके सिवाय वहाँ एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि ऐसे धार्मिक कार्यों के समय में शक्रेन्द्र मूर्तियों के पास जाकर वन्दनादि नहीं करता किन्तु सभा स्थान के समीप ही स्तुति करता है, इससे यह स्पष्ट हो गया कि उन मूर्तियों और उनकी पूजा से धर्म का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। (२) उपासक दशांग, भगवती, ज्ञाता रायप्रसेनी आदि सूत्रों में श्रावकों की धर्मकरणी का कथन है, उसमें बताया गया कि वे पौषधशाला में जाकर प्रतिक्रमण, पौषध, उपवासादि तप, संलेषणा आदि क्रियायें करते, किन्तु किसी को भी स्थापना की आवश्यकता पड़ी हो या किसी ने रखी हो, यह नाम मात्र उल्लेख भी नहीं है। यही नहीं अंतकृतदशांग में सुदर्शन श्रेष्ठि का इतिहास बताया गया है, जो प्रभु वन्दन को शहर के बाहर जाता है और रास्ते में उसे अर्जुन से उपसर्ग होता है, वह वहीं आलोचना प्रतिक्रमण कर सागारी अनशन कर लेता है, किन्तु वहाँ भी स्थापना की आवश्यकता नहीं हुई। (३) भगवती, ज्ञाता, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, विपाक आदि सूत्रों में साधुओं की धर्मकरणी और अनशन आदि का उल्लेख है वहाँ भी बिना स्थापना के उनका काम हुआ, बल्कि निरर्थक ऐसी स्थापना की उन्हें आवश्यकता ही नहीं हुई, यहां तक कि उनके काल कर जाने पर साथ वाले सहायक मुनि उनके भंड उपकरण लेकर प्रभु के पास आये, ऐसा उल्लेख तो मिलता है किन्तु उनमें भी स्थापनाचार्य का तो नाम मात्र भी नहीं है। ___ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १७३ 來來來來來來來***客來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來安本本次交本次 उक्त तीन प्रकार के प्रमाणों में सारे आगमों के ऐतिहासिक महात्माओं और श्राद्धवों के इतिहास का सार आ गया, जिसमें सैंकड़ों इतिहास साक्षी हैं, किन्तु किसी एक में भी स्थापना का उल्लेख नहीं है, अतएव सिद्ध हुआ कि स्थापनाचार्य का अडङ्गा मूर्तिमति महानुभावों की अनोखी सूझ का ही फल है। सुन्दर मित्र पूछते हैं कि “स्थापना नहीं होने पर सामायिक प्रतिक्रमणादि में आदेश किसका ले” इसके उत्तर में कहा जाता है कि जब तक गुरु आदि ज्येष्ठ उपस्थित हों तब तक तो उन्हीं की आज्ञा ली जाती है और उनकी अनुपस्थिति में शास्त्रानुसार क्रिया करने में प्रभु की आज्ञा चाही जाती है, जैसे कि “अनशन स्थल पर जाकर अनेक मुनियों ने और सुदर्शन आदि श्रावकों ने कहा है कि - नमस्कार हो अरिहन्त भगवन्त को, नमस्कार हो धर्माचार्य को, आप यहाँ नहीं हो, किन्तु जहाँ हो वहाँ से सब जानते देखते हो, मैं आपकी आज्ञा से अमुक व्रत या क्रिया करता हूँ" आदि ऐसे प्रमाण बहुत से सूत्रों में मौजूद हैं बस इसी माफिक हम भी करते हैं। हमें स्थापना की कोई आवश्यकता नहीं, हम स्थापना को निरर्थक समझते हैं बल्कि हमारी तो यह मान्यता है कि - जो स्थापनाचार्य को रखकर उनसे आज्ञा मांगते हैं वे छोटे बच्चों के समान हैं, जो पत्थर के गोल मोल गणेश बिठाकर उनसे लड़ मांगते हैं। क्या सुन्दर जी यह समझाने की कृपा करेंगे कि इनके जड़ स्थापनाचार्य किस तरह आदेश देते हैं? चैतन्यधारी मनुष्य तो आदेश दे सकता है, पर जड़ से आदेश तो जड़ोपासक ही पा सकते होंगे? सुन्दर मित्र! आप और आपके अन्य मूर्तिपूजक साधुओं ने स्थापनाचार्य का व्यर्थ सहारा लेकर साक्षात् आचार्यों की भी उपेक्षा कर Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ स्थापनाचार्य का मिथ्या अंडगा *学家***************************李*******本**本平 दी, इससे खिन्न होकर आप ही की मूर्ति पूजक समाज के आचार्य सागरानंद सूरिजी 'तप अने उद्यापन' नाम की पुस्तक में लिखते हैं कि “आचार्य भगवंतो नी आराधना तेमनी मूर्ति द्वाराए जणावी नथी, वली ए वात पण ध्यानमा राखवानी छे के आचार्य महाराज नी हयाति मां अंशे पण तेमनी भक्ति बहुमान वेयावच्च अने शुश्रूषा नहिं करवा वाला छतां 'मरी घोड़ी नुं बहुमूल थाय' तेनी माफक अमुक काल करी गयेल आचार्य ना तेमनी प्रतिमादि स्थापना द्वाराए आचार्य स्थापना ना भक्त बनी वर्तमान भावाचार्यनी भक्ति थी बेनसीब रही तेमां पोते मगरुबी मानेछेxxx वली ए वात पण ध्यान मां राखवानी छे के जेम वर्तमान काल मां भाव आचार्य, उपाध्याय पदस्थों के पोताना बडीलो विद्यमान छतां अने तेओने ते ते पद ने लायक गुणवाला छे एम मानवा छत्ता साधु साध्वी ना समुदायों मां भिन्न-भिन्न स्थापनाचार्य राखवानी प्रवृत्ति होवा थी रत्नाधिक अटले पोता थी पहेली बड़ी दीक्षा वाला, गुरु महाराजा पदस्थों के आचार्यादिको नी समक्ष कोई पण आवश्यक प्रतिलेखनादि नित्य क्रिया करवानुं पण कर्त्तव्य छे एम मानवा तैयार थतुं नथी, अने ते ते प्रति दिन क्रियाओं साक्षात् भावाचार्यादि पासे न करतां मात्र स्थापनाचार्य पासे करी साधु साध्वी जेवा उत्तम जीवो पण पोताने कृतार्थ मानवा तैयार थाय छे तेवी अविधिना अनुमोदन करनारा शास्त्रकारो बने नहीं अने स्थापनाचार्य आदि द्वाराए भावाचार्यादिक पासे थती भावभीनी क्रियानो भेद थई जाय नहि माटे पणा शास्त्रकारे आचार्य पदनी आराधना तेमनी प्रतिमा द्वाराए न जणावी होय ते स्वाभाविक छ।" (पृ० २३७) सुन्दर बन्धु! देखलिया? आपके इस स्थापनाचार्य ने कैसी स्थिति उत्पन्न कर दी? श्री सागरानंद सूरिजी ने ठीक ही कहा है कि- स्थापनाचार्य Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा *******************************來***多次 के पीछे पड़ कर लोगों ने साक्षात् आचार्यों की भक्ति से उपेक्षा अख्तियार कर ली। मैं तो आपको यही सलाह दूंगा कि आप इस पचड़े को हटा दीजिये, इसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि छोटों का काम बड़ों की आज्ञा से चल सकता है और बड़ों का काम प्रभु आज्ञा से फिर, स्थापना के अडंगे की आवश्यकता ही क्या? इसके सिवाय आपने यह भी लिख डाला कि - भारत क्षेत्र में शासन सीमंधर स्वामी का नहीं, पर भगवान् महावीर स्वामी के पट्टधर सौधर्म गणधर का है उनकी स्थापना अवश्य होनी चाहिए। तीर्थंकर सीमंधर के ओर भगवान् महावीर के आचार व्यवहार क्रिया में कई प्रकार का अन्तर है" आदि। इस विषय में संक्षेप में यही कहना है कि - जब आप सुधर्मा स्वामी का शासन मानते हैं तो फिर जम्बू स्वामी का क्यों नहीं मानते? उनके बाद प्रभवस्वामी ऐसे होते २ वर्तमान आचार्य तक चले आइये शासनकर्ता विद्यमान मिलेंगे फिर स्थापना की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इसके सिवाय आपने सीमंधर स्वामी की आज्ञा लेने में जो एतराज किया है, यह भी व्यर्थ है क्योंकि प्रथम तो हमें इसमें कोई आग्रह नहीं है जैसी जिसकी मान्यता हो करें परन्तु हमें आश्चर्य तो आपकी द्वेष परायणता पर है कि आप हमसे तो सीमन्धर स्वामी की आज्ञा लेने पर एतराज करते हैं और खुद लम्बे चौड़े हुंडी, पेंठ, परपेठ और मेझरनामे लिखकर सीमन्धर स्वामी के पास भारत की शिकायत भेजते हैं बताइये अब आप किस मुंह से जवाब देंगे? जबकि आप सीमन्धर स्वामी को यहाँ के शासन कर्ता नहीं मानते हैं तो यहाँ के शासन की शिकायत उनके पास भेजना क्या मूर्खता नहीं है? वास्तव में आपके हृदय में स्थानकवासियों के लिए हलाहल भरा हुआ है, हमारी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य *************求******李******************** कोई भी बात आपको अच्छी नहीं लगती, इसी से आप दिल खोल कर मनमाना लिख रहे हैं? इसके सिवाय अन्त में आपने यह भी लिखा है कि "तुम कल्पना करते हो, फिर साक्षात् स्थापना मानने में हट करना तो दुराग्रह ही है" इसके उत्तर में आपको मालूम हो कि भावों द्वारा कल्पना केवल शरीर या आकृति की ही नहीं होती, किन्तु साक्षात् गुणवान्-भाव युक्त के व्यक्तित्व की ही होती है, जो कि सर्वथा उचित है किन्तु मूर्ति से तो बस जो वस्तु सामने दिखाई देती है वो ही भावों में आती है, स्थापनाचार्य देखने पर बस थोड़ीसी वस्त्र वेष्टित गोलमाल आकृति सामने आ जाती है, जिससे बस यही दिखाई देती है अन्य कुछ नहीं, अतएव कल्पना द्वारा गुणी के गुण का चिंतन या स्मरण करना अत्यन्त उपयोगी है, इसकी उपेक्षाकर स्थापना का अडंगा लगाना मतान्धों का कार्य है। आश्चर्य है कि लोगों ने आत्मोत्थानकारी गुणों का चिन्तन मनन और आचरण नहीं करके एकान्त हठ में पड़कर स्थापना को व्यर्थ गले बांध रखी है, जो कि कतई अनावश्यक और व्यर्थ की उपाधि है। अच्छा हो यदि ये लोग इस व्यर्थ की उपाधि परिग्रह से अपना पिंड छुड़ा कर आत्मिक शक्ति को ही बढ़ावें। (२४) व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य श्रीमान् ज्ञानसुन्दरजी ने पृ० ११४ में व्यवहार सूत्र से मूर्ति सिद्ध करने के लिए निम्न पाठ उद्धृत किया है - "जत्थय समभावियाइंचेइयाइंपासेज्जा कप्पई से तस्संतिए आलोइत्तावा।" Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ******** ************** उक्त पाठ का भाव बताते हुए लिखते हैं कि किसी साधु के दोष लगा हो और आचार्यादि गीतार्थ का अभाव हो तो वह साधु सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा के पास आलोचना कर सकता है।" - १७७ इस विषय में पाठकों को सरलता के लिए उक्त पाठ के पूर्वापर सम्बन्ध का भाव बतलाते हैं - ******** व्यवहार सूत्र के प्रथमोद्देशक के आलोचनाधिकार में यह बताया गया है कि यदि किसी साधु को कुछ दोष लगा हो तो उसकी आलोचना के लिए अपने आचार्य उपाध्याय के समीप जाकर आलोचनादि करे। यदि आचार्य उपाध्याय दूर हों तो संभोगिक, बहुसूत्री, उग्रविहारी साधु के समीप जाकर आलोचना करे, यदि इनका भी योग नहीं मिले तो असंभोगिक, साधर्मिक बहुसूत्री साधु के समीप जाकर आलोचना करे, यदि इनका भी योग नहीं मिले तो संयम से गिरा हुआ बहुसूत्री श्रमणोपासक हो उसके पास आलोचना करे, यदि इसका भी अभाव हो तो “समभावित चैत्य" के समीप जाकर आलोचना करे, समभावित चैत्य के अभाव में ग्राम के बाहिर जाकर ईशान कोण की तरह मुंह कर दोनों हाथ जोड़कर अपना दोष कहे और अरिहंत सिद्ध के समीप आलोचना कर प्रायश्चित ले ।" यह प्रकरण का सार है इसमें आलोचना का एक स्थान सम्भावियाई चेइयाई (समभाव वाला चैत्य) भी है जिसका अर्थ सुन्दर मित्र “सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा" करते हैं, जो कि मूल शब्दों से बिलकुल विपरीत है। यदि सुन्दर मित्र हार्दिक सुंदरता पूर्वक विचार करते या इस सूत्र के टीकाकार की व्याख्या को ही पढ़ लेते तो इन्हें इस प्रकार की कुतर्क करने का मौका ही नहीं मिलता। देखिये Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८. व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य ******************************************** सुन्दर जी आप ही के टीकाकार इस समभावित चैत्य की क्या व्याख्या करते हैं। “यत्रैव सम्यग् भावितानि जिनवचन वासितान्तः करणानि दैवतानि पश्यति तत्र गत्वा तेषामन्ति के आलोचयेत्।" अर्थात् - जहाँ सम्यग् भावित-जिन वचनों से ओतप्रोत है अन्तःकरण (हृदय) जिसका ऐसे देवता के पास जाकर आलोचना करे। उक्त व्याख्या के विपरीत सुन्दर बन्धु अपनी सुन्दर बुद्धि से “समभावित" शब्द का ही अर्थ करते हैं “सुविहित प्रतिष्ठित' समझ में नहीं आता कि सुन्दरमित्र ने ऐसा अपूर्व(?) अर्थ किस प्रकार कर डाला? समभाव शब्द का अर्थ सुविहित और साथ ही प्रतिष्ठित ऐसा विलक्षण अर्थ करके क्या सुन्दर महानुभाव ने उत्सूत्र प्ररूपणा नहीं की है? अवश्य पूर्ण रूप से उत्सूत्र प्ररूपणा, सामान्य जनता को धोखा देने की दुष्ट नियत से की है। यदि सुन्दर मित्र टीकाकार की व्याख्या के बाद के अर्थ पर से ऐसा कहते हैं तो यह भी अनुचित हैं क्योंकि टीकाकार ने उक्त व्याख्या करने के बाद अपनी मर्जी से यह भी विधान कर दिया कि यदि ऐसा सम्यक्त्व भावित हृदय वाला देव नहीं मिले तो “जिन प्रतिमा के सामने आलोचना करे' समझ में नहीं आता कि टीकाकार महाराज ने यह विधान किस आधार से किया? मूल सूत्र में तो यह बात और यह अधिक विधान है ही नहीं, फिर बिना ही मूल के मूर्ति के पीछे पड़कर मनमाना विधान ठीक बिठाने वाले महानुभावों को क्या कहा जाय? यदि स्पष्ट रूप से कहने दिया जाय तो यह भी उत्सूत्र प्ररूपणा ही है। इतना होते हु भी सुन्दर जी की द्वेष बुद्धि तो अलग ही अपना रंग जमा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********************************** रही है ये तो केवल " समभावित चैत्य" का ही अर्थ "सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा" करते हैं क्या पक्षपात की भी कोई हद है ? कितने ही पक्षपाती बंधु " समभावित चैत्य" का अर्थ " समभावयुक्त जिन प्रतिमा" करते हैं, किन्तु यह अर्थ अनुचित है, क्योंकि यदि ऐसा है तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि मूर्ति के भी भाव (हृदय) होता है और जिनमूर्ति समभाव के सिवाय क्या मिथ्याभाव वाली भी होती है ? वास्तव में यहाँ चैत्य शद का अर्थ किसी भी हालत में मूर्ति नहीं हो सकता, क्योंकि इसके साथ " सम्यग् भावित " विशेषण है जो कि शरीर और आत्मा वाले सजीव मनुष्यादि से ही सम्बन्ध रखता है और मूर्ति तो जड़ होती है, उसके हड्डी, मांस, रक्त, चर्म आदि होते ही नहीं, न मन तथा हृदय ही होता है, फिर मूर्ति में सम्यग् भाव कैसे हो सकता है? और "समभाव वाली जिन प्रतिमा” अर्थ मानने वाले को हम पूछ सकते हैं कि - यदि आपकी मूर्तियें अन्तःकरण वाली हैं तो जैन समाज में नहीं, मूर्ति पूजक समाज में इतने बखेड़े क्यों होते हैं? फूट और कलह का नग्न ताण्डव क्यों मचता है ? मामूली बातों के लिए आपस में ही जूते मार और डंडे मार चलकर दवाखानों पर तबाही क्यों डाली जाती है? ये अन्तःकरण वाली इनकी मूर्तियें, क्यों नहीं समाधान कर देती ? क्यों सम्वत्सरी के एक दिन आगे पीछे के झगड़े में खून खराबियां मचवाती है? यदि ये मूर्तियें जिनको ये लोग अन्तःकरण वाली मानते हैं और भक्ति पूर्वक पूजते हैं, पहले से ही आज्ञा जाहिर कर दें, तो इन के इशारे मात्र से सभी झगड़े दूर हो सकते हैं । अतएव स्पष्ट हुआ कि इन बन्धुओं ने ऐसा अर्थ केवल मूर्ति के पक्ष में पड़ कर साधुमार्गी समाज से झगड़ने लिए ही किया है। १७६ *** Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य ******************************************* अब पाठक जरा नियुक्तिकार महाराज की भी इस सूत्र पर की व्याख्या देखें, आप लिखते हैं कि - "कोरंटगं जहा भावियट्ठमं पुच्छिउण वा अन्नं। अमति अरिहंत सिद्धे जाणंतो सुद्धो जा चेव॥ अर्थात् - भृगुकच्छ के कोरंट नामक उद्यान में श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ने अनेक बार समवसरण किया था, वहाँ तीर्थंकर और गणधरों ने अनेक साधुओं को अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिये थे, उस प्रायश्चित्त दान को वहाँ के देवता ने देखा था, इसलिए कोरंट उद्यान में जाकर “सम्यक्त्व से वासित है अंतःकरण जिनका ऐसे देवताओं" की आराधना के लिए तेला करके यथोचित आदर करे, जिससे वह देवता यथा योग्य प्रायश्चित्त दे देता है, कदाचित् वह देवता चव गया हो और वहाँ पर दूसरे देव उत्पन्न हुए हों तो उन्होंने तो तीर्थंकरों को देखा नहीं, और प्रायश्चित्त विधि सुनी नहीं, किन्तु तेले के प्रभाव से वे देवता महाविदेह में जाकर तीर्थंकरों से पूछकर प्रायश्चित्त देते हैं?" . नियुक्तिकार के उक्त कथन और व्याख्या पर से हम हमारे सुंदर हृदयी सुन्दर मित्र से पूछते हैं किं-क्या अब भी आप अपना मिथ्या हठ नहीं छोड़ेंगे ? कहिये, आपका “सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा" अर्थ कहाँ हवा हो गया? ये आपके ही नियुक्तिकार और टीकाकार तो आपकी ही बोलती बन्द कर रहे हैं? क्या अब भी आप मूर्ति पूजा का मिथ्या हठ नहीं छोड़ेंगे? . सुज्ञ पाठको! इस जगह टीकाकार और नियुक्तिकार में भी मतभेद है, टीकाकार महाराज तो सम्यक्त्व युक्त अन्तःकरण वाले देव के अभाव में अपनी इच्छा से ही मूर्ति के पास भेज रहे हैं और नियुक्तिकार मूर्ति के लिये मौन साध रहे हैं। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा .. १८१ *********夺多本***********本*本***冷********* यदि मूल सूत्र पर ही विचार किया जाय तो स्पष्ट पाया जाता है कि सूत्रकार को मन्दिर मूर्ति कतई मान्य नहीं है, न उस समय मन्दिर और मूर्तियों का पूजना पूजाना धर्म माना जाता था, तभी तो सम्यक्त्व भावित चैत्य के अभाव में सूत्रकार किसी जिन मन्दिर या मूर्ति के सामने नहीं भेजकर ग्राम से बाहर जंगल में जाकर अरिहंत सिद्धों की साक्षी से आलोचना करने की आज्ञा दे रहे हैं। यदि मन्दिर मूर्ति की मान्यता उन्हें इष्ट होती तो वे जरूर इसी विधान के स्थान पर मन्दिर मूर्तियों के ही सामने आलोचनादि करने का विधान करते। इस स्थिति पर से भी स्पष्ट हो जाता है कि मूर्ति पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा का सूत्रकार के समय जन्म भी नहीं हुआ था, ये लोग व्यर्थ की धांधलबाजी मचाकर सामान्य जनता को भ्रम में डालते हैं। (२५) - पटावली के नाम से प्रपञ्च सुन्दर मित्र ने पृ० १२६ के फुटनोट में श्रीमान् मणिलालजी महाराज रचित "प्रभुवीर पट्टावली" पृ० १३१ का पूर्वापर संबंध रहित उद्धरण देकर मूर्ति पूजा सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु यह करतूत भी सत्य को छुपाने वाली है, यहाँ हम पाठकों की सरलता के लिये उस स्थान का संक्षिप्त परिचय दे देते हैं। श्रीमद्भद्रबाहु स्वामी के स्वर्ग गमन पश्चात् जैन संघ को विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ा, सुविहित साधुओं का समागम दुर्लभ हो गया, समाज में क्लेश बढ़ने लगा, ऐसे समय में राजा लोग जो जैन धर्मी थे वे भी इतर धर्मावलम्बी होने लगे, सामान्य वर्ग भी जैनेत्तरों की ओर आकर्षित होने लगा, उस समय कुछ आचार्यों ने विचारा कि - (यहाँ से अविकल अवतरण दिया जाता है) यथा - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टावली के नाम से प्रपंच ***************************************** "राजाओं अने गृहस्थों जैनेतर समाज मां जाय छे एनुं खास कारण तेओनां इष्ट देवनी मूर्ति नुं आकर्षण छे, धर्म गुरुओं हाजर होय के न होय पण प्रभुनां दर्शन करीए, तेनुं पूजन-अर्चन करीए तोपण आत्मकल्याण साधी शकाय छे" आप्रकार नी भावना ना योगे राजाओ वगेरे जैनधर्म तजी दई इतर पंथमां जाय छे, माटे तेओने धर्मांतर करता अटकाववा माटे आपणे पण श्री जिनेश्वर देव नी प्रतिमानुं अवलम्बन बतावीए तो जरूर घणा मनुष्यों धर्मांतर करतां अटके, वली सिद्धांतों मां पण " स्थापना निक्षेप" कहेल छे, तो श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमा ने स्थापन करवामां कोई जात नो प्रतिबंध नडतो नथी, अने ए प्रतिमाने अवलम्बन तरीके मानवाथी बाल जीवों ने धर्म भ्रष्ट थतां बचावी शकाशे, आम शुभ हेतुए तेमणे मूर्त्तिपूजानी प्रवृत्ति शरु करी दीधी । जेम एक नाना बालक ने तेना वंडीले पोतानी सगवड खातर के बालकना आनंद मे खातर अमुक जातना रमकडां रमवाने आप्या होय, अने तेनाथी बालक रमतुं होय, तेवामां ए रमकडां तरीकेनी कोई एक वस्तुनी तेनां वडीलोने जरूर पडे त्यारे जो एमने एम ए रमकडुं बालक पासे थी छीनवी लेवामां आवे तो ते बालक रडवा लागे अने कजियो करे, तेम न थवा पामे एटला खातर एक रमकडुं लेवा माटे बालकने बीजुं रमकडुं आपवुं पडे छे, एटले नवा रमकडां नी लालचे प्रथमनुं रमकडुं हाथ मांथी बालक मूकी दे छे, एज रीते बाल जीवो ने अन्य दर्शनीओनी मूर्ति - प्रतिमा प्रत्ये थती श्रद्धा अटकाववा माटे "सुविहित आचार्योए श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमानु अवलम्बन बताव्युं, अने तेनुं जे परिणाम मेलववा आचार्योए धार्युहतुं ते परिणाम केटलेक अंशे आव्युं पण खरं, अर्थात् जिनेश्वर देवनी प्रतिमानी स्थापना अने तेनी * इन बड़े अक्षरों के बीच का भाग लेकर ही सुन्दर मित्र ने प्रपञ्च रचा है। १८२ ******** Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************* प्रवृत्ति थी घणा जैनो जैनेतर थता अटक्या, अने तेम करवा मां ए आचार्योए जैन समाज ऊपर महान् उपकार कर्यो छे, एम कहेवा मां जरा अतिशयोक्ति नथी" १८३ *** धर्मोन्नति अने धर्म रक्षण नी प्रबल लागणी ना आवेश मां आचार्योए प्रतिमानी - जिनेश्वर देवनी मूर्तिनी स्थापना करी, पण तेनुं भावि केवुं आवशे? तेनो ते वखते तेमणे जराए विचार न कर्यो, तेमज सिद्धांतनी - श्री वीतराग देवनी आज्ञानो पण शान्त चित्ते विचार न कर्यो ।” (जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास अने प्रभुवीर पट्टावली पृ० १३०) पाठक बन्धुओ ! उक्त अवतरण पर से आप समझ गये होंगे कि सुन्दरजी ने पूर्वापर सम्बन्ध को छोड़ दिया और थोड़े से अंश को पकड़ कर कैसा भ्रम फैलाया? उक्त अवतरण में मूर्ति पूजा को एक भुलावे में डालने का साधन मात्र बताया है और बाद में यह स्पष्ट कह दिया कि ऐसा करने में उन आचार्यों ने भविष्य की भयंकरता का विचार नहीं किया, न आगम - वीतराग की आज्ञा का ही ध्यान रक्खा। वास्तव में विकृति का बीज सूक्ष्म होते हुए भी भयङ्कर है, भले ही स्थूल दृष्टि से उसकी भयङ्करता तत्काल में न दिखाई दे, किन्तु वही सूक्ष्म बीजं जब विशाल रूप धारण करता है तब उसकी भयङ्करता मूर्तिमान् होकर सर्वनाशकारी बन जाती है। सुन्दर मित्र ! मुनि श्री मणिलालजी महाराज ने मूर्ति पूजा की जो भयङ्करता और शास्त्र विरुद्धता दिखाई, क्या वह आपकी दृष्टि में नहीं आई? आपके अवतरण के अक्षरों के पूर्व के शब्द ही जब मूर्ति को खिलौना मात्र बता रहे हैं और बाद के शब्द उसकी भावी भयङ्करता तथा शास्त्र विरुद्धता घोषित कर रहे हैं, तब आप को गेहूँ छोड़कर • Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ स्वर्ण गुलिका से मूर्ति का मिथ्या सम्बन्ध ****乎乎乎卒卒卒**卒卒卒中字*本本学李本次安安*****本幸卒卒本本事 केवल कङ्कर ही संग्रह करने के समान यह अनुचित करतूत क्यों सूझी? क्या भोली और अनभिज्ञ जनता को भ्रम में डालने के लिये तो नहीं? वास्तव में यह निरा प्रपञ्च ही है, अन्य कुछ नहीं। - बन्धुवर! ऐसा करने से आप सुज्ञ जनता में उपहास के पात्र ठहरते हैं, और आपका पक्ष भी मनःकल्पित दिखाई देता है। आशा है कि भविष्य में आप ऐसी वृत्ति से अपने को बचाये रखेंगे। (२६) स्वर्ण गुलिका से मूर्ति का मिथ्या सम्बन्ध सुन्दर मित्र ने पृ० १३० से १३१ तक स्वर्ण गुलिका की एक कथा देकर वह बताया है कि चण्ड प्रद्योतन राजा स्वर्ण गुलिका के साथ महावीर भगवान् की एक मूर्ति भी उड़ाकर ले गया था जिसके लिए युद्ध हुआ था, और इसी पर से पृ० १३२ में यह भी लिख दिया कि श्री अमोलकऋषिजी ने प्रश्नव्याकरण का अनुवाद करते मूर्ति का सम्बन्ध छोड़ दिया, यह ऋषिजी की तस्कर वृत्ति है। आदि। सुन्दर मित्र ने उक्त कथा किसी प्रामाणिक और उभय मान्य आगम से नहीं दी, किन्तु अपने ही मूर्ति पूजक पूर्वाचार्यों के रचे हुए ग्रन्थों और टीका के आधार से दी है, और इसी पर से आप स्वर्गीय पूज्य पाद अमोलकऋषिजी महाराज साहब पर बरस पड़े हैं, किन्तु यह इनकी दुष्ट वृत्ति ही हैं। प्रश्न व्याकरण सूत्र के अब्रह्म नासक चतुर्थ आम्रव द्वार में अब्रह्मचर्य (व्यभिचार) की कामना को लेकर स्त्रियों के लिए बड़े २ युद्ध हुए हैं, ऐसा बताकर कुछ स्त्रियों के नामोल्लेख किये हैं, उनमें Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************* स्वर्ण गुलिका का भी एक नाम है। मूल पाठ में इस विषय में केवल " सुवण्ण गुलियाए" नाम मात्र ही आया है, इसके सिवाय इस विषय में कुछ भी नहीं है । इतने मात्र से मूर्ति पूजक महानुभावों ने मनमानी कथा गढ़ डाली है और वृत्तिकार ने उक्त " सुवण्ण गुलियाए" शब्द की व्याख्या में यहाँ तक लिख डाला कि चण्डप्रद्योतन स्वर्ण गुलिका के साथ महावीर प्रभु की गोशीर्ष चन्दन की एक मूर्ति भी ले भागा, समझ में नहीं आता कि टीकाकार ने यहाँ मूर्ति का कथन किस मूल के आधार से किया ? क्या इसे मूल की वृत्ति कहें, या अपने मत की वृत्ति ? मूल की वृत्ति रचते समय मूल से सर्वथा दूर, मूल के किसी भी अङ्ग के लिए अनुपयोगी ऐसे अंश रखने का क्या कारण? पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि प्रकरण का आशय केवल कामवासना से प्रेरित हुए मनुष्यों का (स्त्रियों के लिए युद्ध करने वालों का) वर्णन करने का है, यदि प्रकरण के आशय को ध्यान में रखकर यही बताया गया होता तो फिर भी चल जाता, किन्तु प्रकरण से बिलकुल दूर - सर्वथा दूर - ऐसी अपनी मानी हुई मूर्ति पूजा के लिये भी जहाँ चाहें वहाँ जबरदस्ती स्थान बना लेना, विचारक जनता में कभी आदर योग्य नहीं गिना जाता और फिर सुन्दर मित्र तो विचित्र महापुरुष ठहरे, जैसे उन्मादी मनुष्य को ऊपर से भङ्ग या मदिरा पिलादी जाय तो फिर उसके कार्य कुछ अजीब ढङ्ग के ही होते हैं, उसी प्रकार एक तो सुन्दर मित्र पहले १८५ ***** ही साधुमार्गी समाज के पूर्ण द्वेषी, और दूसरे मूर्ति मत में मस्त, तिस पर उन्हें ऐसे टीकाकार महानुभावों के वर्णन रूप...... . पिलाया जाय तो. फिर इनका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़े यह स्वाभाविक ही है। इसी द्वेष और मूर्ति मोह में मस्त होकर सुन्दर बन्धु ने कथा और टीका की मादकता चढ़ाली, बस फिर क्या कहना, लगे अंट संट हांकने । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ स्वर्ण गुलिका से मूर्ति का मिथ्या सम्बन्ध 必学学术学子本***京***本空**於*****本************李永求。 स्वर्ण गुलिका को क्यों ले गया? कैसे ले गया? किसके साथ ले गया? आदि प्रश्नावली पूज्यपाद अमोलकऋषिजी महाराज को सम्बोधन कर कर डाली। यदि इस प्रश्नावली में सुन्दर मित्र यह भी प्रश्न कर डालते कि "दिन को ले गया या रात को? घोड़े पर बिठा कर ले गया या गधे पर? या शिर पर उठाकर ले गया?" तो क्या बड़ी बात थी, सुन्दर मित्र! इसका उत्तर तो कल्पना द्वारा काम चलाने में कुशल ऐसे मूर्ति पूजक ग्रन्थकार ही दे सकते हैं, दूसरे नहीं, फिर आगे उन्माद में मस्त होकर यहाँ तक लिख डाला कि - .. - "इस भगवान् महावीर की मूर्ति के समर्थक पाठ को क्यों छोड़ दिया। शायद इनके पूर्वजों से क्रमशः चली आती हुई वृत्ति का ही अनुकरण कर आपने इस सत्य को छिपाया हो तो आश्चर्य नहीं .....ऐसी तस्कर वृत्ति करने से क्या फायदा हो सकता है।" सुन्दर मित्र! कौन मूर्ख कहता है कि पाठ छुपाया गया, या छोड़ दिया? क्या आप होश में होकर लिख रहे हैं, या मतमोह के नशे में मस्त होकर? वास्तव में ऐसा लिखने वाला शुद्ध हृदय नहीं हो सकता, क्योंकि पाठ में तो महावीर प्रभु की तो क्या किसी भी प्रभु की मूर्ति का नाम निशान भी नहीं है, जो किसी भी अन्वेषक से छिपी हुई है, हाँ टीका में तो जरूर है, पर टीका को पाठ कहकर बताना तो दिन दहाड़े आँखों में धूल झोंकना है। सुन्दर मित्र मूलाशय विरुद्ध टीकाओं और ग्रन्थों का सहारा लेकर आपके पूर्वजों ने अनेक प्राणियों को भ्रम में डाला है और आप भी डाल रहे हैं, आप में यह वृत्ति परम्परा से चली आ रही है, अतएव तस्करवृत्ति ठगाई या धोखेबाजी आप ही लोगों के पल्ले में इन मन्दिरों और मूर्तियों के चलते बन्धी है, जो हम स्थानस्थान पर बता रहे हैं। ___ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा **************** ******** इसके सिवाय आपने प्रश्न व्याकरण का नाम देकर लिखा है कि " श्री ऋषिजी ने वीतभय पाटण के राजा उदाई की स्वर्ण गुलिका दासी को उज्जैनी नगरी का राजा चण्ड प्रद्योतन ले गया इतना उद्धरण तो दे दिया" यह टीका के आधार से ही पर मूर्ति ले जाने की बात छोड़ दी वा इतनी बात बिना मूल के क्यों लिखी ? इत्यादि इसके समाधान में हमारा कहना है कि - प्रकरण अब्रह्मचर्य का है और इस विषय की कथा आप लोगों की ओर से रची हुई है ही साथ ही टीका में भी उल्लेख है, इसी पर से राजाओं और नगरों के नाम देकर संक्षेप में हाल बता दिया, जो कि सूत्राशय को अबाधित होकर प्रकरण संगत है, किन्तु प्रकरण विरुद्ध ऐसी कल्पित बात तो आप ही लोगों के मानने की है आपके सिवाय निष्पक्ष विचारक तो ऐसा अडंगों को कदापि सत्य नहीं मान सकता। महानुभाव! ऐसे एक ही नहीं, अनेकों जगह पर आप लोगों के पूर्वजों ने अपनी चतुराई और विद्वता का दुरुपयोग कर व्यर्थ के अडंगे लगाये हैं | आपका जितना कथा साहित्य है सभी मन्दिरों और मूर्तियों के रंग में रंगा हुआ है। शायद ही ऐसा कोई कथानक होगा जिसमें मन्दिरों और मूर्तियों का सम्बन्ध नहीं मिलाया हो, यहां तक कि सूत्रों में आये हुए कितने ही कथानकों में मूल में नहीं होने पर भी मनमाने मन्दिरों और मूर्तियों को चतुराई पूर्वक स्थान दे दिया गया हैं, इसी का यह परिणाम है कि हजारों लोग इसके चक्कर में आकर अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे को किसी उच्च कार्य में नहीं लगा कर ईंट, चूना और पत्थर में डालकर उससे अपनी मुक्ति होना मानते हैं। १८७ सुन्दर मित्र ! श्रीमद्भगवती सूत्र श० १३ उ० ६ में वीतभय नगर के श्री उदायी राजा और प्रभावती रानी का चारित्र मूल पाठ में स्पष्ट रूप से बताया गया है जिसमें यह लिखा है कि - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ स्वर्ण गुलिका से मूर्ति का मिथ्या सम्बन्ध ******************************************* “श्री उदायन राजा एक समय पौषधशाला में धर्मध्यान में समय व्यतीत कर रहे थे, उनके मन में यह भावना हुई कि - यदि श्रमण भगवंत वीर प्रभु यहाँ पधारे तो मैं उनके पास व्रत अंगीकार करूँ, प्रभु राजा के मनोगत भाव जानकर चम्पा से वीतभय नगर पधारे राजा ने धर्मोपदेश श्रवण कर अपने पुत्र को राजकीय झंझटों से बचाने और आत्मोत्थान के अभिमुख करने के विचार से भाणेज केशीकुमार को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर आत्म-कल्याण किया।" श्रीमद्भगवती सूत्र में बस इतना ही कथानक हैं, किन्तु कथाकार महात्माओं ने इनके विषय की कितनी ही अनहोनी घटनायें अपनी कथाओं में भर दी, जिसमें जहाँ देखो वहाँ मूर्ति तो है ही गीशीर्षचन्दन की मूर्ति का विचित्र प्रकार से आना और रानी का मूर्ति को पेटी में से निकालना, रानी का मूर्ति के सामने नाचना और राजा का बाजा बजाना, रानी का नाचते हुए मस्तक रहित शरीर राजा को नजर आना, रानी का नाच भंग होना, एक दासी की हत्या, रानी का दीक्षित होना, तब तक राजा का अजैन रहना, फिर प्रतिमा के साथ दासी का उड़ाया जाना, बदले में एक दूसरी मूर्ति कपिल केवली (नाचने वाले-त्रि० श० पु० च०) द्वारा प्रतिष्ठित रख देना, राजाओं का युद्ध, मूर्ति का चमत्कार, नगरी भंग का भविष्य आदि कितनी ही बातें कथा में भर दी गई हैं, इसमें भी जहाँ देखो वहाँ मूर्ति ही मूर्ति, यह स्पष्ट बता रहा है कि कथाकारों ने मूर्ति के मोह में अलमस्त होकर कई कल्पना शास्त्र रच डाले हैं। यहाँ तक कि ऐसा करते हुए कहीं-कहीं तो.सूत्रों की भी उपेक्षा कर बैठे, जैसे कि सूत्र में तो उदायी को श्रमणोपासक बताया है और बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपनी इच्छा से ही प्रभु के पधारने की भावना रखने वाला बताकर प्रभु के एक ही उपदेश से दीक्षित होने वाला बतलाया है, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************* १८६ ** **** तब कथाकार उदयन को कठिनता से और प्रभावती देव द्वारा कितनी ही वार प्रतिबोध होने पर धर्म के अभिमुख होने का लिख रहे हैं । सूत्रकार प्रभावती की दीक्षा के लिए मौन पकड़ रहे हैं, तब कथाकार उसे मूर्ति के सामने नाचने और वह भी मूर्ति मोह में इतनी मस्त कि भान ही भूल जाने वाली तथा अनिष्ट सूचन से संयम के अभिमुख होने वाली और संयम लेते-लेते मूर्ति पूजा के लिए वस्त्र में फेरफार दिखाई देने से एक दासी को यमपुर पहुंचाने वाली लिख दिया है। समझ में नहीं आता कि ऐसे औपन्यासिक ढंग के कथानकों पर से ही सुन्दर मित्र क्यों भान भूल होकर साधुमार्ग समाज के दुश्मन हो रहे हैं। हम तो यही चाहेंगे कि सुन्दर हृदय में अनन्तानुबन्धी की चाण्डाल चौकड़ी बैठी हो तो वह अपना स्थान हटा शीघ्र ले, जिससे इनकी आत्मा का भला हो । (२७) स्थापना सत्य में समझ फेर कितने ही मूर्ति पूजक जानते हुए भी भोले लोगों में यह भ्रम फैलाते हैं कि देखो ठाणा और प्रज्ञापना सूत्र में " स्थापना सत्य" कह कर मूर्ति पूजा की सत्यता स्वीकार की है और इसी प्रकार ज्ञानसुन्दरजी ने भी भ्रम फैलाया है, किन्तु इन लोगों का यह प्रयत्न सत्य से दूर है, इस विषय में विशेष स्पष्टता के लिए हम सारे मूल पाठ यहाँ दे देते हैं "दसविहे सच्चे प० तं० जणवय, सम्मय, ठवणा, नामे, रूवे, पडुच्च - सच्चेय, ववहार, भाव, जोगे, दसमे ओवम्म सच्चेय । " (ठाणांग सूत्र ठा० १० ) Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० **** स्थापना सत्य में समझ फेर ***** अथवा - "जणवय सच्चे, समुदित सच्चे, ठवणा सच्चे, नाम सच्चे, रूव सच्चे, पडूच्च सच्चे, ववहार सच्चे, भाव सच्चे, जोग सच्चे, उवम्म सच्चे ।" (पन्नवणा सूत्र का ११ वां भाषापद) अर्थात् - दश प्रकार का सत्य कहा, यथा - १. जनपद सत्य २. संमत सत्य ३. स्थापना सत्य ४ ६. प्रतीत्य सत्य ७. व्यवहार सत्य ८ १० और उपमा सत्य ।. इस प्रकार दश प्रकार के सत्य में तीसरा नम्बर स्थापना सत्य का है, जिसका तात्पर्य यह है कि स्थापना को भी सत्य मानना अर्थात्स्थापना को स्थापना मानना, इसका निषेध नहीं करना, किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि स्थापना को उसकी सीमा या उपयोगिता से सिवाय महत्त्व देकर उसके साथ साक्षात् सा व्ययहार करना। जिस प्रकार रुपये पैसे के चित्र को न तो साक्षात् रुपया या पैसा मानना और न उसे रुपये आदि की स्थापना मानने से इन्कार करना, जम्बुद्वीप के नक्शे को नक्शा मानना सत्य है, किन्तु उसे ही जम्बुद्वीप मान लेना सीमोल्लंघन कर जाने से सत्य के बजाय मिथ्या हो जाता है। हाथी घोड़े के मिट्टी के बने हुए खिलौनों को हाथी घोड़े की स्थापना मानना सत्य है, पर साक्षात् मानना मिथ्या है, राजा या सम्राट के चित्र को चित्र मानना सत्य है, पर चित्र को ही साक्षात् मानना और उसके सामने भेंट आदि रखना मिथ्या है। यही स्थापना सत्य का परमार्थ है । इसे हम अवश्य मानते हैं, किन्तु जो लोग स्थापना को सीमातीत मान देते. हैं, वे सत्य को छोड़कर मिथ्या प्रवृत्ति करने वाले होते हैं, यदि सांसारिक व्यवहारों में भी देखा जाय तो स्थापना का यही उपयोग नाम सत्य ५ रूप सत्य भाव सत्य ६. योग सत्य Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १९१ होता हुआ दिखाई देगा। छोटे से लेकर बड़े विद्यालयों में भौगोलिक नक्शे मात्र दिखाने के लिए ही रक्खे हुए मिलेंगे, अनेक प्रकार के चित्र मात्र देखने के लिए ही रखे जायेंगे, अजायबघरों में अनेक प्रकार के चित्र और मूर्तियें रक्खी हुई मिलेंगी वो भी केवल देखने के लिए ही न कि उसकी हद को छोड़कर अधिक-सीमातीत-व्यवहार करने के लिए। ऐसी सूरत में स्थापना सत्य की ओट लेकर उससे मूर्ति पूजा करने का प्रमाण मान लेना सत्य को झूठ और दिन को रात कहने के समान है। जबकि नाम सत्य को गुण से न मिलाकर केवल नाम ही को माना जाता है, तब स्थापना सत्य को अधिक महत्त्व देने का क्या मतलब है? स्वयं टीकाकार भी कुल वृद्धि के गुण से रहित ऐसे कुल वर्द्धन नाम को भी नाम सत्य कहते हैं और रूप सत्य में किसी भांड ने साधु का वेश पहन लिया हो तो उसे केवल रूप मात्र से ही सत्य कहते हैं (इससे अधिक गुण आदि से नहीं) देखो टीकाकार का मत। "नामतःसत्या नाम सत्या यथा कुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन इति, तथा रूपतः सत्या रूप सत्यायथा दंभतो गृहीत प्रव्रजित रूपः प्रजाजितीयमिति।" (प्रज्ञापना सूत्र बाबू० पत्र ३७२) इसी प्रकार व्यवहार सत्य का भी समझें। इस विषय में भी टीकाकार ने उदाहरण दिया है कि - जैसे कि पर्वत पर के घास आदि के जलने पर पर्वत जलने और भाजन में से पानी टपकते भाजन टपकने का कहना लोक व्यवहार से सत्य है, वैसे ही योग सत्य में दंड के योग से दण्डी, छत्र के योग से छत्री कहना योग सत्य है। तालाब को समुद्र की उपमा देना औपम्य सत्य है। इन सबका मतलब सीमा में रह कर मानने से है और वहीं तक माने तो सत्य है अन्यथा अधिक मानने पर मिथ्या हो जाता है। यदि कुलवृद्धि के गुण से रहित व्यक्ति के कुल Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ डॉ० हरमन जेकोबी का अटल अभिप्राय ********李宏********************************** वर्द्धन नाम मात्र से उसे कुलवृद्धिकर माना जाय तो वही सत्य मिथ्या हो जायेगा, द्रव्य वेषधारी को ही साधु मान लेने पर यह भी मिथ्या हो जायेगा। तालाब को ही समुद्र मानने से यह भी झूठ हो जायगा। इसी तरह स्थापना को ही साक्षात् मानने या साक्षात् के समान वंदना नमस्कार और पूजादि करने से स्थापना सत्य नहीं रह कर मिथ्या हो जाता है। इसलिए सुन्दर मित्र को पक्षपात छोड़कर शुद्ध हृदय से विचार कर सत्य को ग्रहण करना चाहिए और यह स्पष्ट स्वीकार करना चाहिए कि स्थापना सत्य की ओट मूर्ति पूजा के अनुकूल नहीं, किन्तु प्रतिकूल होकर उत्सूत्र प्ररूपणा के समान है। (२८) डॉ. हरमन जेकोबी का अटल अभिप्राय ___ मूर्ति पूजा के प्राचीन इतिहास पृ० १४६ में डॉ. हरमन जेकोबी के मूर्ति पूजा विषयक दिये हुए अजमेर के अभिप्राय का खण्डन करते हुए श्री ज्ञानसुन्दर जी लिखते हैं कि - डॉ० हरमन साहब का आखरी अभिप्राय है कि - "जैन आगमों में मूर्ति पूजा का विधान है" किन्तु सुन्दर मित्र का यह कथन भी ठीक नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि डॉ० हरमन जेकोबी साहब को अजमेर के समस्त (तीनों फिरकों के) जैन गृहस्थों ने एक सभा करके मान पत्र दिया तथा साथ ही जैन दिवाकर की पदवी भी प्रदान की, उस समय डॉ० साहब ने अपने भाषण में यह भी कहा था कि - "अंगोपांग में किसी भी जगह मूर्ति पूजा का विधान नहीं है" डॉ० महोदय के इन शब्दों ने मूर्तिपूजकों में हलचल मचादी। इसी समय जोधपुर में श्री धर्मविजयजी जैन साहित्य Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १६३ ********************** *********** सम्मेलन करा रहे थे वहाँ उक्त डॉ० महोदय को भी आमंत्रण दिया गया था। डॉ० साहब जोधपुर पहुंचे, आपका स्वागत धूमधाम से हुआ। आपको श्री धर्मविजयजी से मिलाया, श्री धर्मविजयजी ने आपकी खूब प्रशंसा की और अजमेर के दिये हुए भाषण से आपने अपना व सारी मूर्ति पूजक समाज का अपमान होना बताया और साथ ही सूर्याभ तथा द्रौपदी के मूर्ति पूजन का हवाला देकर जैनागमों में मूर्ति पूजा का उल्लेख होना बताया, बाद में अपना अजमेर का अभिप्राय बदलने के लिए निवेदन किया। डॉक्टर महोदय यद्यपि यह जानते थे कि इनकी दलीलें निस्सार हैं, तथापि इनके आदर सत्कार से और इन्हें भी खूश रखने के विचार से यह कह दिया कि जैनागमों में मूर्ति पूजा का विधान है। बस फिर क्या था? मीर मार लिया और इसी पर श्री ज्ञानसुन्दरजी फूल रहे हैं, किन्तु इसमें इनके फूलने की बात नहीं है। क्योंकि जब इन लोगों ने डॉक्टर साहब को उक्त अभिप्राय जाहिर किया, तब स्थानकवासी जैन संसार का इसका पता लगा, उस समय पंजाब के सहधर्मी बन्धुओं का एक डेपुटेशन डॉक्टर साहब की सेवा में गया। जिसका मुख्य कारण आचारांग सूत्र के भाषांतर के भ्रमजनक अर्थ का स्पष्टीकरण करने का था, इस डेपुटेशन में जैन संसार के प्रसिद्ध तत्त्वज्ञ स्वर्गीय श्री वाड़ीलाल मोतीलाल शाह भी सम्मिलित हुए थे, उस समय डॉक्टर साहब के मूर्ति पूजा सम्बन्धी जोधपुर के अभिप्राय के सम्बन्ध में डॉक्टर साहब से खुलासा मांगा, जिसका उत्तर जो डॉक्टर साहब ने दिया वह उसी समय के “जैन हितेच्छु वर्ष १६ अंक ३-४ मार्च अप्रेल सन् १९१४ के पृ० २७६ में" पंजाब स्था० जैन संघ नु डेप्युटेशन शीर्षक लेख के पृ० २८० में गुजराती भाषा में निम्न प्रकार से छपा है - Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० हरमन जेकोबी का अटल अभिप्राय *************** "मूर्ति पूजा ना पाठवाला अमूक ग्रन्थों म्हने बताववामां आव्या हता, परन्तु तेटला परथी तीर्थंकरोंए मूर्ति पूजा उपदेश्यानी बात हुं हजी मानी शक्यो न थी । " १६४ यह डॉक्टर महोदय का आखिरी मंतव्य है, जो कि अटल और सर्वथा सत्य है। क्या अब भी जोधपुर वाला मन्तव्य कुछ अर्थ रखता है ? नहीं, इसके सिवाय स्वयं सुन्दर मित्र ने भी अपनी इस पुस्तक पृ० १४७ पंक्ति १३ में यह स्वीकार किया है कि - "अगर आपने सूत्र पहले देखे भी थे तो विशेष कर आचार सम्बन्धी ही ।" इस पर से भी यह तो स्पष्ट हो गया कि डॉक्टर महोदय ने आचार सम्बन्धी सूत्रों में मूर्ति पूजा का विधान नहीं देखा, इसी पर से उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अंगोपांगों में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है, इस अभिप्राय को सुन्दर मित्र भी सच्चे हृदय का अभिप्राय बताते हुए लिखते हैं कि : - "यह उनके निखालस और पक्षपात रहित हृदय की बात है । " ( पृ० १४८ पं० १) इसलिए आचार ग्रन्थों के अभ्यास और पक्षपात रहित निखालि तथा स्वच्छ हृदय का मूर्ति पूजा विषयक वह अभिप्राय ( कि मू० पू० का विधान अंगोपांगों में नहीं है) ही सत्य और आदरणीय हो सकता है और इसी पर से कहा जाता है कि मूर्ति पूजा का विधान सूत्रों में नहीं हैं। किन्तु सुन्दर बन्धु फिरकी खाने में भी बड़े होशियार हैं, निखालिस हृदय की पक्षपात रहित बात बता कर आगे पृ० १४८ पं० २ में आप अपना बचाव करने के लिए कहते हैं कि - "उन्होंने यह तो नहीं कहा कि जैनागमों में मूर्ति पूजा है ही नहीं ।" Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा १६५ ***** ********** मैं इन मरुधर महारथी सुन्दर मित्र से पूछता हूं कि जब मूर्ति पूजा आचार विधान के सूत्रों में नहीं तो क्या अनाचार के सूत्रों में है ? यदि आप डॉक्टर साहब के इस अभिप्राय को सत्य और स्वच्छ हृदय का मानकर मूर्ति पूजा आचार प्रतिपादक सूत्रों में नहीं होने का स्वीकार करते हैं तो मैं आपसे यह भी पूछता हूँ कि यदि आपकी मान्य मूर्ति पूजा आचार विधान में नहीं होकर अन्य किसी कथा आदि के ग्रन्थों में हो तो उसका मूल्य ही क्या है? कथानकों में तो हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, युद्ध आदि विषयक उल्लेख भी है तो क्या आचार विधान नहीं होने पर भी आप कथाओं आदि में होने से इन्हें मान्य कर लेंगे ? सुन्दर बन्धु ? अब भी क्या हुआ? आप में या आपके विजय धर्मसूरिजी के वंशजों में मूर्ति पूजा आत्म-कल्याण उपादेय और प्रभु वीर की आज्ञा युक्त सिद्ध करने की शक्ति हो तो शीघ्र ही वैसे प्रमाण जाहिर करिये जिससे सारा बखेड़ा मिट जाय । सुन्दरजी लिखते हैं कि “आचार्य महाराज ने डॉक्टर साहब को भगवती, ज्ञाता, उपासक दशांग, प्रश्न व्याकरण, उववाई, राज प्रसेणी, जीवाभिगम आदि अनेक शास्त्रों में मूर्ति पूजा विषयक पाठ बताये ? डॉक्टर साहब को बड़ा ही आश्चर्य हुआ तथा सत्य हृदय में मूर्त्ति पूजा को सहर्ष स्वीकार किया । " बड़े आश्चर्य का विषय हैं कि - पहले तो डॉक्टर साहब बिना यह अभिप्राय दे रहे हैं - "अंगों और उपांगों में कोई खुलासा जिक्र मूर्ति पूजा का नहीं है।" और इधर सुन्दर मित्र गिना रहे हैं कि ये सूत्र भी अंगोपांग में के ही हैं, फिर पहले अनुमति देते समय तो सूत्रों में मूर्ति पूजा का जिक्र नहीं था और बाद में आ गया, इसका खास कारण हमें तो यही मालूम हुआ है कि डॉक्टर साहब एक तो आभार में Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ **** डॉ. हरमन जेकोबी का अटल अभिप्राय ***** हुए थे और फिर वातावरण ही सारा मूर्ति पूजा के पक्ष का था । तीसरा इन्हें अप्रसन्न भला वे क्यों करने लगे? बस इन्हीं कारणों से डॉक्टर महोदय ने अपना अभिप्राय बदला, किन्तु इनका खास हार्दिक अभिप्राय तो वही था, जो पहले दे चुके थे और जिसकी पुष्टि बाद में भी उन्होंने पंजाब के स्थानकवासी जैन संघ के डेपुटेशन और श्री वाड़ीलाल मोतीलाल शाह के सम्मुख की, इसलिए डॉक्टर महोदय का मूर्ति पूजा के विरुद्ध जो अभिप्राय है वह सत्य और अटल है। सुन्दर मित्र ! इतना ही नहीं डॉक्टर महोदय ने हिन्द के बाहर जर्मन से भी ऐसा ही अभिप्राय दिया है, जहाँ कि स्थानकवासी समाज का एक बच्चा भी उनकी दृष्टि के सामने नहीं था । स्वर्गीय साक्षर श्रीमान् केशरीचन्दजी साहब भंडारी देवास निवासी ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक "नोट्स ओन धी स्थानकवासी जैन" डॉक्टर साहब की सेवा में भेजी थी, जिसके उत्तर में डॉक्टर साहब नें श्री भंडारी जी को एक पत्र दिया था उसमें भी उन्होंने यह स्वीकार किया है कि मूर्ति पूजा जैनधर्म का मूल तत्त्व नहीं हैं, देखिये उनका पत्र | ( प्रभुवीर पट्टावली पृ० १३३ से) Dear Sir, Your kind letter of 9th instand the copy of the "Notes on the Sthanakwasi jains" Reached me here for away from Bombay. I have read the booklet with great interest and shall give notice of it in my report on Jainism which appears every second year in the archive for history of religiona German Journal being away from my book. I cannot inter into details of the subjects but if I Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १६७ am not greatly mistaken I have somewhere expressed my opinion that worship in temples is not an original element of jain religion, but has been introduced in order to meet the devotional requirements of the deity. the practice of idol worship seems to be pretty old, though not as old as the composition of the Siddhanta. It seems to have been substituted for the worship of Yakshas and other popular deities and demons which seems to have obtained at the time of Mahavira among the people at large a kind of religons sect which formed no part of the jain creed though it was to Ireated by the early Church looked at from this point of view, the worship of the Tirthankars is clearly an improvement Since a purer object of adoration was substituted for one of little or no moral dignity though originally (and I think even now) worship was not and is not theoretically considered as a means of attaining Nirvrati. I should like the obtain more accurate knowledge abut the history of your sect which are the agamas you do acknowledge? have you any old shastras in Sanskrit or magdhi which teach the tenets of the Sthanakwashis? Caniget a Pattawali of your Yatis ? Dated 29-8-1911. Yours sincerely (Sd.) H Jacobi.. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ स्तूप निर्माण का कारण ************************: इस पत्र में डॉक्टर साहब ने स्पष्ट लिखा है कि - "देवालयो मूर्ति की पूजा यह जैन धर्म का मूल तत्त्व नहीं है किन्तु देवी देवताओ की भक्ति की आवश्यकता को पूरी करने के लिए यह प्रथा चलाई गई हैं, मूर्ति पूजा की प्रथा बहुत पुरानी है किन्तु सूत्रों के जितनी प्राचीन नहीं है। महावीर के समय में एक तरह का धार्मिक पंथ कि जो जैन तत्त्व से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता था, वो देव मन्दिरों को मानता था, उस पंथ के लोकों में अधिक प्रचार पाई हुई यक्ष और दूसरे लोक मान्य देवी देवता और मैले देवताओं को पूजा के बदले यह मूर्ति पूजा प्रारम्भ हुई ऐसा पाया जाता है।" आदि इस पर से भी यही सिद्ध होता है कि - डॉक्टर साहब का मत मूर्ति पूजा में जैनत्व मानने का हर्गिज नहीं है और मूर्ति पूजा के विरुद्ध उनका जो अभिप्राय है वही सत्य और अटल है। " (२९) स्तूप निर्माण का कारण श्री ज्ञानसुन्दरजी ने आगमों में स्तूप सम्बन्धी आये हुए उल्लेखों भी मूर्ति पूजा सिद्ध करने की चेष्टा की हैं और ऐसा ही प्रयत्न दो चार वर्ष पहले श्री न्यायविजयजी ने भी किया था, किन्तु यह भी प्रयत्न वस्तु स्थिति को न समझ कर ही जनता को भूलावे में डालने का है, वस्तुतः स्तूप निर्माण का कारण महापुरुषों का स्मारक रखने का ही है। जिस स्थान पर किसी ऐतिहासिक महा पुरुष के शव को जलाया गया हो उस स्थान पर कुछ स्मारक बना दिया जाय उसे स्तूप कहते हैं । जब तीर्थंकर महाराज का निर्वाण होता था तब उनके शव की ***** Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा . १९६ ******************************************* दाह क्रिया के स्थान पर उनके श्रद्धालु भक्त स्तूप बनवा देते थे, इस विषय का वर्णन श्री जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में आया है, वहाँ लिखा है कि जब प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी का निर्वाण हुआ तब इन्द्रादि देवों ने मनुष्य लोक में आकर विशिष्ट प्रकार से दाह क्रिया की, तत्पश्चात् इन्द्र देवों को आज्ञा देता है कि - "तरणं सक्के देविंदे देवराया बहवे भवणवइ जाव वेमाणिए देवे जहारिअंएवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! सव्वरयणामए महए महालए तउ चेइअथूभेकरेइ, एगभगवउ तित्थगरस्स चिइगाए, एगं गणधर चिइगाए एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए तएणं ते बहवे जाव करेति।" इस मूल पाठ का यह अर्थ है कि - जब शक्र देवेन्द्र देवराज उन बहुत से भवनपति यावत् वैमानिक देवों से ऐसा कहते हैं कि अहो देवताओं के प्यारे! शीघ्र ही सर्व प्रकार के रत्नों से बड़े और विशाल ऐसे तीन चैत्य-स्तूप निर्माण करो, एक तीर्थंकर भगवान् के चिता स्थान पर, एक गणधर की चिता स्थान पर और एक बाकी के साधुओं की चिता के स्थान पर। उसी प्रकार उन सब देवताओं ने किया। उक्त आगम प्रमाण से पाठक सहज ही समझ सकेंगे कि ये चैत्य स्तूप महापुरुषों के दाहस्थान पर यादगार या उस स्थान पर और किसी प्रकार की चलने फिरने आदि की क्रिया नहीं हो सके, इस कारण से बने हैं। इस क्रिया में दो हेतु ही मुख्यतः होते हैं, एक तो उन महापुरुषों की हजारों वर्षों तक यादगार रहती है, दूसरा उन माननीय पूजनीय महात्माओं की दाहभूमि पर कोई पैर आदि नहीं लगा सके या मलमूत्रादि न कर सके। बस ऐसे ही कारणों को लेकर ये चैत्य स्तूप श्रद्धावान् Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० स्तूप निर्माण का कारण *********************** ****** भक्तों की तरफ से बने हैं। यह प्रथा हजारों ही नहीं लाखों वर्षों से चली आ रही है। हाँ इस क्रिया में समयानुसार परिवर्तन तो बहुत हुआ और भविष्य में होता रहेगा, किन्तु मूल उद्देश्य यही था । यह बात दूसरी है कि सैकड़ों वर्षों से इसका मूल उद्देश्य बदल कर धार्मिकता में परिणित हो गया, इसे कहते हैं विकृति और ऐसी विकृति सामान्य जनता से आसानी से चल सकती है । जैसे कि - किसी एक समाजं या सम्प्रदाय के मान्य महापुरुष के देहोत्सर्ग के स्थान पर उनके अनुयायी किसी प्रकार का स्मारक बनाते हैं, तो उससे भिन्न समाज वाले भी ऐसे अवसरों पर पहले के स्मारक से कुछ अधिक विशेषता वाला स्मारक तैयार करते हैं। यही नहीं पर जब दो भिन्न सम्प्रदायों में आपस में संघर्ष हो उठता है तब दोनों के मन में एक दूसरे का अपमान करने के विचार पैदा होते हैं और उनमें से कुछ उग्र विचार वाले ऐसे भी होते हैं जो विरोधी सम्प्रदाय के मान्य स्मारक को नष्ट कर डालने का यत्न करते हैं (इस्लाम युग में हिन्दू मन्दिरों का भंग इस बात का स्पष्ट उदाहरण है) जब एक सम्प्रदाय वालों को यह भय होता है कि कहीं हमारे माननीय महापुरुष का स्मारक हमारे विरोधी नष्ट कर देंगे तो वे इसके लिए उस स्मारक पर पहरे आदि का प्रबन्ध करते हैं, इस प्रकार रक्षा की दृष्टि से वहाँ मनुष्यों के रहने की आवश्यकता होती है, होते होते वे ही स्मारक मन्दिर मूर्ति का रूप ले लेते हैं और रक्षक लोग पुजारी आदि बन जाते हैं तथा सामाजिक लोग उसकी पूजा आदि में धर्म मानने लग जाते हैं, यदि मेरा अनुमान ठीक है तो मैं कह सकता हूँ कि - ये पूजादि के वरघोड़े, रथयात्रा, मूर्तियों के जुलूस आदि का जन्म भी प्रायः विरोधियों को और उनकी समाज को नीचा दिखाने और अपनी महत्ता बताने के उद्देश्य से हुआ हो। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा २०१ ******************************** ************ यह स्मारक निर्माण केवल जैनियों में ही है, ऐसा कोई नहीं समझे । यह प्रथा लगभग सभी समाजों में और प्रायः संसार भर में है । भारतवर्ष में भी बड़े-बड़े शहरों में अनेक शासकों, जनमान्य अधिकारियों, श्रीमन्तों, देश नेताओं और जन सेवकों के स्मारक वर्तमान काल में मौजूद हैं, , जो हजारों के खर्चे से और उच्च कला को लेकर बने हैं। इसके सिवाय स्मारक भी कई प्रकार के बने और बन रहे हैं, जैसे - युद्ध में विजय पाने पर विजयस्तम्भ विजय का स्मारक, किसी जातीय महासभा के विराट अधिवेशन पर-अधिवेशन स्मारक, तप का स्मारक, (हरिजनों के लिए महात्माजी ने पूना में उपवास किये थे, तप पूर्ति के दिन स्मारक वृक्ष लगाया गया था) दानवीरों का स्मारक ( अनेक संस्थाओं में तैल चित्र रखे जाते हैं) जयन्ती स्मारक ( वार्षिकोत्सव मनाना) आदि अनेक प्रकार के स्मारक हैं, किन्तु कुछ अन्य श्रद्धालु जनता के सिवाय सभी जगह ये स्मारक, स्मारक रूप ही रहे हैं। उक्त वस्तु स्थिति पर विचार करने पर हमारे पाठक यह समझ गये होंगे कि महापुरुषों के चैत्य- स्तूप अन्धभक्ति के लिए नहीं बने, न पूजा पाने के लिए बने, किन्तु स्मरणार्थ या स्थान की पवित्रता बनाने रखने के लिए ही बने हैं। लेकिन समय पाकर ये स्मारक पूजे जाने लगे। स्वार्थ पिपासुओं ने भी इसमें खूब हाथ बटाया, जिसकी भयंकरता यहाँ तक फैली कि ये चैत्यालय भोगालय की बराबरी करने लगे! यहाँ तक कि वेश्या का नृत्य भी धर्म के नाम पर इन धर्म मन्दिरों में होने लगा ( प्रभावक चरित्र ) । वास्तव में इन चैत्यों और स्तूपों से आत्मकल्याणकारी धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। जैनागमों में तो इन चैत्यों, स्तूपों और देवालयों के बनाने में आरम्भ समारंभ (पाप) माना है। प्रश्न व्याकरण सूत्र इसका साक्षी है, उसमें हिंसा जनक कार्यों में इस तरह के शब्द हैं। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ स्तूप निर्माण का कारण ******************************************** ... "चिति वेतिय खातिय आराम विहार थूम, पागार.......आयण चेतिय देवकुल।" आदि इस प्रकार हिंसा जनक कार्यों में स्तूप, चैत्य, देवायतन का भी समावेश है, इनके बनाने में भी हिंसा होती है, धार्मिक दृष्टि से तो हिंसा को पापकारी तथा कष्टप्रद ही माना जायगा, लौकिक व्यवहार से भले ही इसे अपनाया जाय, किन्तु जो श्रमण अहिंसादि महाव्रतधारी हैं वे तो किसी भी तरह इनके बनवाने या इन्हें पूजने पूजवाने का उपदेश नहीं दे सकते, न इस क्रिया में धर्म का होना ही कह सकते हैं। किन्तु बड़ा आश्चर्य है कि कितने ही साधु नामधारी लोग श्रमणधर्म के विरुद्ध मन्दिर मूर्तियें बनवाने का उपदेश और आदेश देते हैं, पूजा करने व करवाने का आग्रह कर आस्रव वृद्धि करते हुए उसमें धर्म होना मानते हैं। यह अमृत में विष और पानी में आग के समान नहीं तो क्या है? ___ जबकि आचारांग सूत्र धर्मार्थ स्थावर जीवों की भी हत्याकरने वाले को वह हत्या अहितकारी बताते हैं और एक अन्य स्थान पर धर्म के लिए हिंसा करने वाले का पापी श्रमण के कुविशेषण से परिचय कराते हैं, तब जैन श्रमण का नाम रखकर भी ऐसी हिंसा को जानबूझकर करवाने वालों के लिए केवल दया लाने के सिवाय और क्या किया जाय? सुन्दर मित्र! चैत्य या स्तूप पूजा में आत्म कल्याण नहीं है, यह तो सिर्फ लौकिक प्रवृत्ति है, इसकी पूजा में आत्म-कल्याण रूप धर्म मान लेना अपनी बुद्धि का दिवाला पीटना है, यदि आपको इन स्तूपों और चैत्यों का विशेष हाल जानना है तो आप अपनी ही मूर्ति पूजक समाज के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् पं० बेचरदास जी दोशी लिखित “जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानी' नामक पुस्तक पढ़ें, उसमें स्पष्ट बताया गया है कि मूल में ये चैत्य स्तूपादि पूजा की वस्तु नहीं Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २०३ **************************************** थी, किन्तु समय पाकर विकृति ने पैर पसारा और ये पूज्य बन गये। इसके सिवाय बनारस से प्रकाशित होने वाली नागरी प्रचारिणी पत्रिका में पं० चन्द्रधर शर्मा का “देवकुल' विषयक लेख का निम्न अवतरण पढ़िये, आपका संशय दूर होकर सत्य वस्तु दिखाई देगा। “देव पूजा का पितृ पूजा से बड़ा सम्बन्ध है। देव पूजा पितृ पूजा से ही चला है, मन्दिर के लिए सबसे पुराना नाम चैत्य है, जिसका अर्थ चित्ता (दाह स्थान) पर बनाया हुआ स्मारक है। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि शरीर को भस्म करके धातुओं में हिरण्य का टुकड़ा मिलाकर उन पर स्तूप का चयन (चुनना) किया जाता था। बुद्ध के शरीर-धातुओं के विभाग तथा उन पर स्थान-स्थान पर स्तूप बनने की कथा प्रसिद्ध ही है! बौद्धों तथा जैनों के स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिह्न थे फिर पूज्य हो गये।" __ सुन्दर बन्धु! वास्तव में आप लोगों ने और आपके पूर्वजों ने स्मारक चिह्नों को ही पूज्य बना दिया है, जो कि अनुचित है अतएव अब भी आपको सरल बुद्धि से समझ कर हठ को छोड़ देना चाहिए। (३०) भक्ति या अपमान साधुमार्गी समाज पर पूरी कृपा रखने वाले श्री ज्ञानसुन्दर जी महाराज ने पृ० १७६ में मूर्ति की पानी और पुष्पों से पूजा करने में कुछ असभ्य अप शब्दों के बाद एक युक्ति प्रस्तुत की है जो निम्न प्रकार से हैं। जैसे किसी मनुष्य के घर एक परोपकारी पुरुष चला जावें और घर वाले को उस पुरुष से भविष्य में महान् लाभ होने की आशा हो जावे तो वह घरपति अपनी शक्ति, सम्पत्ति और अधिकार के सद्भाव Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति या अपमान ******************* में होकर उस परोपकारी पुरुष की सेवा और स्वागत ही करेगा। आप ही बतलाइये कि आपके मन में ऐसे परोपकारी पुरुष के देखते ही क्या पूज्यभाव पैदा न होगा? क्या आप उनकी अपनी शक्ति के अनुसार पुष्पादि से पूजा नहीं करेंगे? यदि हाँ, तो फिर उस परम प्रभु के विषय में ही ये निर्मूल शंकायें क्यों की जाती हैं? २०४ सुन्दर मित्र शायद यह भूले हुए हैं कि आदर सत्कार या पूजा आदरणीय पूज्य के अनुकूल रुचिकर वस्तुओं से होती है प्रतिकूल और त्याज्य पदार्थों से नहीं, यदि कोई मनुष्य अपने यहाँ आये हुए आदर पात्र सज्जन के स्वागत करने में उनके प्रतिकूल घृणित वस्तुएं काम में लेगा तो इससे वह आगत सज्जन प्रसन्न नहीं होकर उल्टा नाराज हो जायगा, जैसे कि श्री हेमचन्द्राचार्य ने ऋषभचरित्र में लिखा है कि जब प्रथम जिनेश्वर श्री आदिनाथ स्वामी भिक्षाचरी के लिए निकलते तब कितने ही भावुक उनकी आवश्यकता के पदार्थों की अनुकूलता को न समझ कर उनके सामने हीरे, जवाहिरात, हाथी, घोड़े, कुमारिकायें और पुष्पमालायें आदि प्रतिकूल अनावश्यक और त्यागी हुई वस्तुएं लाते गये, जिन्हें प्रभु स्वीकार नहीं करते थे * अन्त में श्रेयांसकुमार के द्वारा दिया हुआ अचित्त इक्षु रस, जो कि प्रभु कें अनुकूल था, ग्रहण किया गया । इसी से यह समझ लेना चाहिए कि पूजा पूज्य के अनुकूल और उपयोगी वस्तुओं से ही करनी चाहिए, उसी पूजा को पूज्य स्वीकार करते हैं, वही पूजा पूजा है। इसके विपरीत पूज्य की रुचि के प्रतिकूल सामग्री से की हुई पूजा वास्तव में पूजा नहीं, अपमान है । 'देखो त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र पर्व १ सर्ग ३ | Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २०५ ******************************************* __ और देखिये - श्री अनाथी मुनि को सम्राट् श्रेणिक ने भोग का निमंत्रण दिया, धन दौलत और सुन्दरियों से उन्हें समृद्ध कर उच्च प्रकार से सेवा करने की प्रार्थना की। किन्तु इस विपरीत सेवा को श्री अनाथी मुनि ने स्वीकार नहीं किया और अन्त में पूज्य की योग्यता और रुचि के प्रतिकूल भोग विलास की प्रार्थना करने के फल स्वरूप श्रेणिक को पूज्य से क्षमा याचना करके पछतावा करना पड़ा। इसके अतिरिक्त आपके उदाहरण के उत्तर में निम्न उदाहरण और लीजिये - एक राजपूत जो सदैव मदिरापान और मांस भक्षण करता है, उसके घर यदि कोई सात्विक प्रकृति का जैन या ब्राह्मण चला जाय तो वह उस अतिथि के सामने उसकी रुचि के अनुकूल सात्विक वस्तुएं ही रखेगा, बल्कि जब तक आगत अतिथि उसके यहाँ रहेगा तब तक वह स्वयं भी अपेय और अखाद्य वस्तु से दूर रहेगा, तब ही उसका सत्कार उन मेहमानों के अनुकूल होकर स्वीकार्य होगा। किन्तु इससे विपरीत यदि वह राजपूत उन ब्रह्मदेव के सामने मदिरा की प्याली रखकर पीने की प्रार्थना करे और अखाद्य वस्तु दिखाकर निवेदन करे कि - महात्मन्! पावन कीजिये, ऐसी दशा में उस क्षत्रिय की प्रार्थना उस द्विजवर्य के लिए स्वीकार्य होगी क्या? उस राजपूत के ऐसे व्यवहार को वह ब्राह्मण क्या समझेगा? आदर या अपमान? सुन्दर मित्र! आप अपने को ही लीजिये, जब आप भिक्षा के लिए किसी श्रद्धालु भक्त के यहां पधारें, तब वह भक्त आपसे स्नान करने का आग्रह करे और फिर कुछ फल-अनार, संतरे, सेव, अंगूर, ककड़ी, खरबूजा, तरबूज, पान के बीड़े, इलायची आदि रखे, इत्र से भर कर इत्रदानी हाजिर करे, गादी बिछाकर पाटला रख दे और फिर आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करे कि भगवन्! बिराजिये, पावन Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भक्ति या अपमान ******************************************* कीजिये। बताइये महात्मन्? आप इसे भक्ति समझेंगे? भले ही आपका मन मचल जाय और मुंह में पानी आ जाय, पर ऊपर से तो ना ना कहकर खिसकने लगेंगे। यदि भक्त अनजान हुआ तो समझायेंगे कि हम त्यागी हैं, हमारी भक्ति इस प्रकार नहीं होती, हम ऐसी वस्तुओं को स्वीकार नहीं करते आदि किन्तु यदि आपको यह मालूम हो जाय कि भक्त ने जान बूझकर हमारी रुचि के विरुद्ध वस्तुयें हमारे सामने रखी हैं, तब तो आप उसे अपना द्वेषी या विरोधी ही समझेंगे और उसके कृत्य को अपमान ही समझेंगे। उपरोक्त उदाहरण से जरा सरल बुद्धि से यह समझो कि तीर्थंकर प्रभु सर्व सम्पत्ति के त्यागी, षट्काय जीवों के रक्षक, दया का प्रखर प्रचार कर जो सचित्त पानी, पुष्प, बीज, हरी, फल, धूप आदि को छूते ही नहीं। अपने श्रमण पुत्रों को भी इन वस्तुओं को छूने से रोकते हैं। इनका छूना महाव्रतियों के लिए निषिद्ध ठहराते हैं। उन्हीं महा दयालु सर्वोपरि अहिंसक प्रभुओं के नाम से उनकी मूर्ति पर उन निषिद्ध वस्तुओं को चढ़ाकर उसमें आप प्रभु पूजा होना मानते हैं। यह सरासर अन्धेर खाता नहीं तो क्या है? वास्तव में आपकी यह कही जाने वाली पूजा, प्रभु पूजा नहीं, पर प्रभु का अपमान है। ___महाशय! पुष्पादि से पूजा गृहस्थों की या लौकिक देवों की होती है क्योंकि वे इसके भोगी और चाहने वाले हैं। किन्तु लोकोत्तर तीर्थंकर प्रभुओं या उनके अनगार भगवन्तों की नहीं, प्रभु की पूजा तो विशुद्ध तन मन से उनकी आज्ञा पालने से ही होती है और श्रमण भगवन्तों को उनके अनुकूल अचित्त आहारादि देने से होती है। इससे विरुद्ध करने को पूजा नहीं किन्तु अपमान कहते हैं इसलिए हमारा कथन निर्मूल और युक्ति रहित नहीं, किन्तु मौलिक और युक्तियुक्त है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २०७ ********************学学会学*****************多次 इसका आदर करने से ही आत्मा का भला हो सकेगा। अन्यथा आपका और साथ-साथ आपके वचनों पर विश्वास रखकर त्रस तथा स्थावर जीवों की पूजा के नाम पर हत्या करने वाले अन्ध श्रद्धालु भक्तों का एकान्त अहित तो अवश्यभावी है ही। (३१) साधुमार्गी जैन मूर्ति पूजक नहीं है स्थानकवासी समाज को भी मूर्ति पूजक ठहराने के इरादे से श्री ज्ञानसुन्दर जी ने अपनी पुस्तक में कई चित्र साधुमार्गी समाज के साधुओं के देकर पृ० १७४ में यह लिखा हैं कि - "साधुमार्गी लोग अपने साधुओं के चित्र रखते हैं समाधियें तथा चरण पादुकायें बनवाकर उनकी पूज्य भाव से पूजा करते हैं" आदि। उक्त कथन अविचारकपन का है क्योंकि जहाँ-जहाँ साधुओं की समाधियें आदि बनी हुई है, वे उन पूज्य पुरुषों के दाहस्थान पर रागी अनुयायिओं द्वारा स्मारक रूप में बनी हुई है। संसार में यह आम रिवाज है कि जिस समाज या मत के प्रवर्तक (नेता) का देहावसान हो जाय तब उनके मानने वाले उनके शव की अन्तिम क्रिया बड़े धूमधाम से करते हैं। उस स्थान पर कुछ स्मारक भी बनाते हैं, इसी प्रकार सांसारिक व्यवहार के चलते साधुमार्गी समाज के लोग भी अपने मान्य महात्मा के देहावसान पर समाधि आदि बनावें तो यह भी अक्षम्य नहीं है। हाँ इनकी वन्दना, पूजा, सत्कार आदि जरूर अन्ध श्रद्धा युक्त है और यह भी प्रायः पड़ोसियों की देखा देखी होता हैं। जैसे गाँव में किसी एक आदमी को हैजा, प्लेग या चैचक आदि की संक्रामक बीमारी हो जाती है तो वह धीरे-धीरे सारे गाँव में फैल जाती Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ साधुमार्गी जैन मूर्तिपूजक नहीं है ********************************************** है। इसी प्रकार मूर्ति पूजकों तथा अन्ध श्रद्धालुओं के संसर्ग दोष से साधारण जनता जो धार्मिक ज्ञान से अनभिज्ञ है और केवल कुल परम्परा से साधुमार्गी समाज में है, उनके द्वारा ऐसी समाधियें आदि पूजे जायं तो इतने मात्र से साधुमार्गी समाज मूर्तिपूजक नहीं बन सकती। इसके सिवाय साधुओं के चित्र के विषय में हमारा यही कहना है कि जो भी ये चित्र परिचय मात्र के लिए है, वन्दने पूजने के लिए नहीं और परिचय तक चित्रों की हद मानना उचित है, तो भी चित्रों का साधारण लोग दुरुपयोग नहीं करले तथा चित्रों के बनाने से हिंसा और आत्मश्लाघा होना आदि अनेक दोषों को जानकर हमारी समाज के साधु महात्माओं ने अपने बृहद् सम्मेलन में एक प्रस्ताव द्वारा इस प्रथा का निषेध कर दिया है। इस पर से सुन्दर जी को समझ लेना चाहिये कि - हमारी समाज चित्र दर्शन आदि की पक्षपाती नहीं है, किन्तु हमें तो सुन्दर मित्र की मिथ्याभाषिता पर आश्चर्य होता है, वे हमारी समाज के सिद्धान्तों को जानते हुए भी मूर्ति के पक्ष में पड़कर निम्न प्रकार लिखते हैं कि - परमेश्वर की मूर्ति नहीं पानने वाला स्थानक समाज अपने मृत साधु साध्वियों की किस प्रकार पूजा करता है?........ “परमेश्वर की मूर्ति को नहीं मानने वाला समाज अपने गुरु की मूर्ति की किस प्रकार पूजा करते हैं?"......पूज्यों की मूर्तियों को भक्त अपने स्वच्छ मकानों में रख प्रातः समय दर्शन कर तथा धूप उखेवकृत कृत्य बनें" आदि। इस प्रकार सुन्दर मित्र ने सारी स्था० समाज को ही मूर्ति पूजक बता दिया। किन्तु इन्हें पक्षपात को छोड़कर विचार करना चाहिए कि कतिपय साधारण जनता के इस प्रकार चित्रादि को रखने का समाधि बनवाने मात्र से सारी साधुमार्गी समाज मूर्तिपूजक नहीं बन सकती, न Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा **京************************************** साधुमार्गी समाज की मान्यता ही मूर्ति पूजने की है, यह तो एक प्रकार का विकार है जो मूर्ति पूजकों के अति संसर्ग से या देखा देखी से हो गया है। इसे एक-देशी विकार जरूर कह सकते हैं, किन्तु सर्व देशी सिद्धान्त नहीं। न कोई साधुमार्गी समाज का सुज्ञ श्रावक किसी चित्र या मूर्ति आदि को गुरु आदि मानकर पूजता है, न ऐसी जड़ पूजा में धर्म समझता है। फिर सामान्य जनता के किसी अंश में विकार होने मात्र से सारी समाज को या उसके सिद्धान्तों को ही वैसा बताना जनता को धोखा देना है। ____ आपको अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए कि साधुमार्गी समाज तथा इसके सिद्धान्त किसी भी चित्र या मूर्ति को वंदन या पूजादि करने में धर्म नहीं मानते हैं, न ऐसी प्ररूपणा करते हैं, बल्कि ऐसी मान्यता रखते हैं “कि जो लोग मूर्ति पूजा में धर्म मानकर त्रस तथा स्थावर जीवों की व्यर्थ हिंसा करते हैं वे अनसमझ और धार्मिक तत्वों से अनभिज्ञ हैं, यह उनका अज्ञान है।" (३२) विकृति का सहारा उच्च संस्कृति का मूल रूप में अधिक समय तक रहना महान् कठिन है जब तक उसके प्रचारकों में ज्ञान बल, चरित्र बल, तत्परता एवं कुशलता रहती है, वातावरण अनुकूल रहता है, तब तक ही उसकी मौलिकता कायम रहती है। किन्तु जहाँ थोड़ी सी भी शिथिलता और परिस्थिति की विषमता आई कि विकृति ने जोर लगाया, बढ़ते-बढ़ते मूल संस्कृति को दबाकर विकृति स्वयं मौलिकता धारण कर बैठती है। अमूर्ति-पूजक समाजों में भी मूर्ति पूजा इसी विकृति की देन है और Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकृति का सहारा ************************************ ***** प्रधान कारण है मूर्तिपूजक बन्धु का संसर्ग दोष । हिन्दुस्थान के सभी समाजों में सुज्ञ एवं सुसंस्कार सम्पन्न लोग थोड़े ही मिलेंगे, अधिक जनता अज्ञता के चलते संसर्ग दोष एवं अंधविश्वास के चक्कर में आ जाती है अपने मत के प्रति अनुराग रखते हुए भी अन्धविश्वास के कारण प्रतिकूल आचरण सामान्य जनता में पाया जायगा । संसार में प्रायः सभी लोग दुःख का अनुभव करते है, कोई धन का, तो कोई कुटुम्ब का, कोई शारीरिक दुःख का, तो कोई आपत्ति आदि के भय का, इस प्रकार किसी न किसी रूप में दुःख का अनुभव सभी करते है। जो दुःखी है, दुःख का अनुभव करते हैं वे सुख प्राप्त करने का यत्न भी करेंगे। किन्तु अज्ञानतावश सर्प मूसक न्याय से उल्टा प्रयत्न भी कर बैठते हैं। जैसे कि - २१० कितनी ही हिन्दू ललनायें सन्तान प्राप्ति के लिए पीर पैगम्बरों का आश्रय लेने दौड़ती हैं, दरगाहों और ताजियों को पूजती हैं और परिणाम में उन्हें एक नये ही दुःख का शिकार बनना पड़ता है। कितने ही अर्थ संकट ग्रस्त जैन भाई धन या जन के कारण भैरव, भवानी, काली चामुंडा आदि देव देवियों की शरण में जाकर उल्टी हानि उठाकर अधिक दुःखी होते हैं। यह सब प्रयत्न धार्मिक सिद्धान्त के विरुद्ध होते हुए भी संसार ताप से शान्ति पाने के लिए साधारण लोग करते हैं, इसका मुख्य कारण अज्ञान जनित बहम है। आचार्य श्री चतुरसेन शास्त्री लिखते हैं कि - "अंध विश्वास और कुसंस्कारों ने ही करोड़ों हिन्दुओं को मूर्ति 'के कुकर्म में फांस रखा है । " ( " धर्म के नाम पर " पृ०४६) पूजा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २११ ******************************************* - इसके अलावा मतमोह में पड़ कर सारासार का विचार किये बिना भी कितने ही लोग प्रवृत्ति करने लग जाते हैं, उनका उद्देश्य अन्य समाज के आडम्बर को देखकर अपने मत में भी उससे बढ़ चढ़कर आडम्बर कर जनता को आकर्षित करने (लुभाने) का होता है। परिणाम स्वरूप वे विकृति को अपना कर सैद्धान्तिक अवहेलना कर बैठते हैं। ___ मूर्ति पूजा के विषय में भी यही हुआ। अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं, आप आर्य समाज को ही देखिये, जो मूर्ति पूजा की विरोधी है, फिर भी अन्य समाजों के आडम्बर का अनुकरण कर अपने आद्य संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के चित्र का जुलूस निकालते सुने गये हैं। वास्तव में मूर्ति पूजा आर्य समाज का कोई सिद्धान्त नहीं है, किन्तु सकारण घुसी हुई विकृति ही है। बस इसी प्रकार अन्य समाज के लिए भी समझें। क्रिश्चियन समाज में क्रास और मूर्ति का आदर कब से होने लगा? क्या यह समाज मूर्तिपूजक हैं? इसके सिद्धान्त मूर्ति पूजा का समर्थन करते हैं? इसका उत्तर यदि बाइबल से लिया जाय तो नकारात्मक ही मिलेगा, मैंने कुछ दिन पूर्व हिन्दी बाइबल को देखा, उसमें मूर्ति पूजा के विरोध में निम्न उल्लेख मिलते हैं। देखिये - . । “मैं तेरा परमेश्वर यहोवा * हूँ जो तुझे दासत्व के घर से अर्थात् मिश्र देश से निकाल लाया हूँ॥" मुझे छोड़ दूसरों को ईश्वर करके न मानना। तू अपने लिए कोई मूर्ति खोदकर न बनाना। न किसी की * बाइबल की मान्यतानुसार ईश्वर का नाम। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ विकृति का सहारा ******************************************中 प्रतिमा बनाना, जो आकाश में वा पृथ्वी पर वा पृथ्वी के जल में है। उनको दण्डवत न करना न उनकी उपासना करना। क्योंकि मैं तेरा परमेश्वर यहोवा जलन रखने हारा ईश्वर हूँ।" (हिन्दी बाइबल निर्गमन अ० २० तथा व्यवस्था विवरण अ०५) तथा “तू मूरतें नहीं बना लेना और न कोई खुदी हुई मूर्ति व लाट खड़ी कर लेना और न अपने देश में दण्डवत् करने के लिए नक्कासीदार पत्थर स्थापन करना, क्योंकि मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूँ।" (हिन्दी बाइबल लैव्य व्यवस्था अ० २६) और भी देखिये - "स्रापित हो वह मनुष्य जो कोई मूर्ति कारीगर से खुदवाकर वा ढलवाकर निराले स्थान स्थापे, क्योंकि यह यहोवा को घिनौना लगता है।" (हिन्दी बाइबल व्यवस्था विवरण अ० २७) इस प्रकार क्रिश्चियन समाज के मान्य सिद्धान्त मूर्ति पूजा के विरोध में ही हैं, फिर भी बाद में विकृति के कारण किसी रूप में यदि मूर्ति पूजा उसमें स्थान पा गई है तो यह उस समाज का मान्य सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह तो एक प्रकार का विकार है। इसी प्रकार इस्लाम समाज के मान्य "कुरान' में भी मूर्ति पूजा के विरोध में उल्लेख है, एक बार मैंने हिन्दी कुरान शरीफ पढ़ते-पढ़ते निम्न वाक्य उसमें देखे थे। हे पालनकर्ता! इस शहर ( मक्का) को शांति की जगह बन और मुझको और मेरी सन्तान को मूर्ति पूजा से बचा, हे पालन कर्ता इन मूर्तियों ने बहुतेरे लोगों को भटकाया है।" (हिन्दी कुरान पारा १३ सूरे इब्राहीम आयत ३५-३६) Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा इस प्रकार इस्लाम के मूल सिद्धान्त भी मूर्ति पूजा के प्रतिकूल है, मैंने एक मौलवी साहब से ताजिये बनाने की प्रथा के सम्बन्ध में बातचीत की, तो उन्होंने कहा कि यह प्रथा बादशाह तैमूर के जमाने से प्रारम्भ हुई है। कुरान शरीफ में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है। इस पर से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी प्रवृत्ति मार्ग की प्रेरक प्रथाएं किसी कारण से या संसर्ग से प्रारम्भ होकर शीघ्र ही वृद्धिंगत हो जाती है। पहले प्रारम्भ में इनका रूप बहुत ही सूक्ष्म रहता है, किन्तु समय पाकर वही भयानक हो जाती है। मूर्ति पूजा की पद्धति अज्ञानियों के लिए आकर्षक है। वे बाह्याडम्बर से मोहित होकर उसे चाहने लग जाते हैं, नहाना, धोना, पुष्प चुनना, सुगंधित धूप, इत्र आदि की महक नेत्रों को लुभाने वाली सजाई, कर्ण के लिए मधुर राग, साथ ही वादिंत्र नाद, फिर अज्ञानी, धर्म तत्त्व से रहित भोले लोग या फिर इन्द्रियों के दास सुख शीलिये, पुद्गलानंद में मस्त होकर इन आकर्षक पुद्गलों के केन्द्र रूप मन्दिरों और मूर्तियों की और झुकें तो आश्चर्य ही क्या? यह वस्तु ही ऐसी है कि जिसे रागभाव की प्रबलता वाले अधिक चाहते हैं। २१३ *** दो चार वर्ष पहले की बात है, एक बार पर्युषण पर्वाधिराज के दिनों में मैंने अपने ज्येष्ठ पुत्र ( जो उस समय लगभग ८ वर्ष का था ) को कहा कि चलो स्थानक में प्रतिक्रमण करने चलें । उसने कहा कि स्थानक में क्या रखा है, वहाँ तो अन्धेरा है, आप लोग वहाँ अंधेरे में बैठकर मुंह से कुछ बोला करेंगे, मुझे वहाँ अच्छा नहीं लगता, मैं तो मन्दिर में जाऊंगा, वहाँ अच्छी रोशनी है, रोजाना मूर्ति को अच्छीअच्छी नई-नई पोशाकें पहिनाई जाती हैं। हारमोनियम तबले आदि बजते हैं, लोग नाचते कूदते हैं, इस प्रकार वहाँ बड़ा अच्छा जलसा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ 'विकृति का सहारा *************************************** रहता है, मैं तो वहीं जाऊँगा। पाठक समझ गये होंगे कि यह पुद्गलानंदी पना (जो कि जीव के साथ अनादि से लगा हुआ है) लोगों को मूर्ति पूजा की तरह बरबस आकर्षित करता है। इसमें अधिक प्रचार की भी जरूरत नहीं पड़ती। एक बच्चा तो क्या पर बड़े-बड़े विद्वान् भी सुखशीलियापन के चलते अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए इसे अपना लेते हैं, हाँ जाहिर में वे लोग अपनी शिथिलता को प्रकट नहीं करते, किन्तु वास्तव में मुख्य प्रभाव पुद्गल लुब्धता का ही है जो उनके बाद के जीवन से चरितार्थ होता है। . इस प्रकार संसार की साधारण जनता अपने अज्ञान के कारण वहेम, मतमोह, पुद्गलासक्ति (आडम्बर प्रियता) आदि के कारण अपने मान्य सिद्धान्त के विरुद्ध आचरण भी करने लग जाती है, किन्तु इतने मात्र से वह सिद्धान्त बाधित नहीं हो जाता, न इस विकृति की ओट से कोई अपना पाखण्ड किसी के सिर लाद सकता है। ____ श्रीमान् ज्ञानसुन्दर जी ने पांचवें प्रकरण में भोली जनता को भ्रम में डालने के लिए मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिक्ख, आर्य समाज तथा साधुमार्गी जैन समाज को ही (विकृति की ओट लेकर) मूर्ति पूजक बता दिये । वास्तव में सुन्दर मित्र का यह समझ फेर ही है, इन्हें ध्यान में रखना चाहिए कि जिस प्रकार क्रिश्चियन, इस्लाम, आर्य समाज आदि के मूल सिद्धान्त मूर्ति पूजा के अनुकूल नहीं है, उसी प्रकार जैन समाज भी मूर्ति पूजा को मानने वाली नहीं है, किन्तु जिस प्रकार हरएक धर्म समाजों में विकृति हुई है, उसी प्रकार जैन समाज में भी हुई है और विकृति के अन्य अनेक प्रकारों में इस मूर्ति पूजा को भी मुख्य स्थान है। . Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********* ********************* ************ सुन्दर मित्र ! मूर्ति पूजा में धर्म मानने का सिद्धान्त श्वेताम्बर जैन समाज का है ही नहीं, यह तो काल बल से सांसारिक भूत नागादि देवों की या बौद्धादि मत की देखादेखी से स्थान पाई हुई विकृति ही है । इस विकृति को आपको हटाना चाहिये। बिना विकृति निकले धर्म रूप शरीर स्वस्थ हो ही नहीं सकता, यह खूब सोचलें । (33) मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध श्री ज्ञानसुन्दर जी ने पांचवें प्रकरण में मूर्तियों के प्राचीन होने का उल्लेख कर तथा कुछ चित्र देकर यह सिद्ध करना चाहा है कि मूर्तिपूजा तथा इसमें आत्म-कल्याण रूप धर्म मानने का रिवाज बहुत पुराना है, इसलिए मूर्ति पूजा उपादेय है किन्तु यह विचार भी विचारशीलता से रहित है क्योंकि - २१५ (१) मूर्तियों की स्थापना प्रारम्भ में केवल यादगार (स्मारक) रखने की भावना से हुई, पूजा के लिए नहीं । (२) मूर्तियों के सभी लेख सच्चे नहीं, न केवल अनुमान से ही कोई सिद्धान्त अटल हो सकता है। प्राचीन होने मात्र से ही उपादेय नहीं । (३) (४) सर्व मान्य आगम प्रमाणों के सामने इसका कोई मूल्य नहीं । इन कारणों से ही विचारशील सज्जन मूर्ति पूजा की उपादेयता स्वीकार नहीं करते हैं, जरा विस्तार से लीजिये - Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध (१) मूर्ति निर्माण का कारण हम “स्तूप निर्माण और उसका कारण' नामक प्रकरण में यह दिखा चुके हैं कि - सर्व प्रथम दुनिया में महात्माओं के निर्वाण पश्चात् उनके दाह स्थान पर “यादगिरी' के लिए स्मारक बनने लगे, वही स्मारक कला के विकास के साथ-साथ अपना आकार प्रकार भी बदलने लगे, याने एक से एक बढ़ चढ़कर सुन्दर और आकर्षक होने लगे और इस प्रकार चौंतरा, देहरी, पादुका का रूप धारण करते-करते मूर्ति रूप में भी परिणित होगये, सो भी यहाँ तक कि पहले तो ये मूर्तियें धर्म नायकों के स्मारक के लिए बनी, किन्तु बाद में राजा, महाराजा, अधिकारी, नेता आदि की भी बनने लगी। इस प्रकार कला के विकास के साथ-साथ स्मारकों की दुर्दशा भी बढ़ने लगी और वह भी सीमा छोड़कर। जैसे वर्तमान समय में सर्व त्यागी-त्याग के संसार भर में एक मात्र मुख्य आदर्श-तीर्थंकर प्रभु की मूर्तियों को कोट, पेंट, जाकट, नकटाई, कालर, घड़ी * लाखों रुपये के जेवर पहिनाना शुरू कर दिया, यह सब भक्तों ने अपनी इच्छा से, परिणाम का विचार किये बिना मन माना रंग चढ़ा दिया। यह सब खराबी लक्ष्य भ्रष्टता को लेकर हुई। यदि मानव समाज अपने मौलिक ध्येय पर कायम रहता तो आज यह दुर्दशा नहीं होती। जब से मनुष्यों ने स्मारकों की पूजा की, वस्तु और उनके पूजने में अपना कल्याण होना माना है तब ही से वे लक्ष्य भ्रष्ट होकर सैद्धान्तिक विरुद्धता को भी उपादेय मानने लग गये हैं। इसके सिवाय सांसारिक मनुष्यों में राग द्वेष की परिणती तो है ही। इच्छित पर राग करना यह सर्वानुभव सिद्ध बात है। इधर तीर्थंकर ___ * देखो श्री विद्याविजयजी कृत समय ने ओलखो भा० १ पृ० २१५। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २१७ ***********学学***************************** प्रभु जगद्वंद्य त्रैलोक्याधिपति थे, उनको मनुष्य ही नहीं देवेन्द्र तक श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। श्री गौतम स्वामी जैसे भी प्रभु के प्रति रागभाव रखते थे तो सामान्य जनता रखे, उसमें शंका ही क्या हो सकती है? बस इसी रागभाव के अतिरेक से ही स्मारक, हड्डी पूजा, या मूर्ति निर्माण हो जाय तो यह बिलकुल स्वाभाविक बात है और यह आज ही क्यों लाखों करोंड़ों वर्षों की हो तो भी हमें कोई हर्ज नहीं। क्योंकि चित्रकला भी अनादि है, इससे चित्रों या मूर्तियों का भी अनादित्व हो सकता है तथा चित्र प्रायः उसी का लिया जाता है कि जो चित्र लेने वाले या लिखाने वाले को प्रिय हो, तदनुसार तीर्थंकर के प्रति अत्यधिक राग वाले होकर लोगों ने यदि रागभाव के कारण उनकी मूर्तियें बन वाली हो तो उससे धर्म का क्या सम्बन्ध? चाहे वह कितनी ही प्राचीन क्यों न हो। हमारा अभिप्राय तो केवल यही है कि मूर्ति पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा जैन धर्म की तथा आत्म-पुरुषों की नहीं है। अतएव मूर्तियों के प्राचीन होने से उसकी पूजा उसमें आत्म-कल्याण मानने की श्रद्धा पुरानी नहीं है। हाँ स्मारक रखने की रीति पुरानी अवश्य है और उसी के चलते समय के फेर से ये मूर्तियें बनी।। यदि मूर्तियों के प्राचीन होने मात्र से मूर्ति पूजा में धर्म होना माना जाय तो जिनमूर्तियों से भी प्राचीन मूर्तियें यक्षों की सुनी जाती है, मथुरा में कामदेव की भी एक मूर्ति पुरानी निकली है, तो क्या इनके भी पूजने में धर्म है? कुछ भी नहीं। बस इसी प्रकार यह भी समझो कि मूर्तियें प्राचीन होने मात्र से इनकी पूजा करने में धर्म नहीं हो सकता। मूर्ति पूजा पुद्गलासक्ति को बढ़ाकर संसारमार्ग की ओर खींचने वाली है। जिसका उदाहरण आज तक का विकार स्पष्ट बता रहा है, आजतक के स्मारक के इतिहास से यह स्पष्ट हो गया है कि मनुष्यों ने इनको पुद्गलासक्ति के Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध **李李李李李李****************來****李学学会学家来*** कारण जैसा चाहा वैसा बना डाला है, किन्तु है यह स्मारक का एक प्रकार ही, अन्य कुछ नहीं, हम पहले “स्तूप निर्माण” नामक प्रकरण में पं० चन्द्रधर शर्मा के ऐतिहासिक उल्लेख से यह सिद्ध कर आये हैं कि - जैन समाज में पहले स्तूप स्मारक रूप में थे, बाद में पूज्य हुए और यही मत पं० बेचरदास जी का है, इसलिए मूर्ति निर्माण के कारण में अब विशेष ऊहापोह करने की आवश्यकता ही नहीं रही। (२) ___ मूर्तियों के सभी लेख सच्चे नहीं हैं सुन्दर मित्र कहते हैं कि अमुक मूर्ति इतनी प्राचीन है उस पर प्राचीन संवत् लिखा हैं, आदि किन्तु मूर्ति पर प्राचीन संवत् लिखे होने मात्र से वह प्राचीन नहीं हो सकती क्योंकि चैत्यवाद और चैत्यवास के जमाने में स्वार्थी लोग अपना उल्लु सीधा करने के लिए कई प्रकार की चालाकियें करते थे यहाँ तक कि अनेक कल्पित ग्रन्थ सर्वज्ञ के नाम से गढ़ डाले जाते थे, पर्वतों के मन माने मिथ्या माहात्म्य बनाकर प्रभु के मुख से अपनी तारीफ करवाई जाती थी, अमावस्या की पूर्णिमा, वह भी केवल अपना चमत्कार दिखाने के लिए बताते थे। वहाँ मूर्तियों पर मनमाना संवत् लगाया जाय तो कौन रोक सकता है? इस मूर्ति प्राचीनता के विषय में संघपट्टककार ने एक स्थल पर यह भी लिखा है कि स्वार्थी लोग भोले लोगों को यह कह कर ठगते थे कि देखो यह मूर्ति प्राचीन है, तुम्हारे पूर्वज उन्हें पूजते थे, तुम भी इनकी पूजा आदि करो। बस भोले भक्त जल्दी से चक्कर में आ जाते थे, अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं, इस बीसवीं शताब्दी के ही कुछ नमूने जो मेरे जानने में आये हैं देखिये - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २१६ ******************************* *********** (१) विक्रम संवत् १९४६ में बम्बई में एक यति महाशय ने एक षडयंत्र रचकर जनता में यह बात फैलादी कि - "बालकेश्वर के समुद्र तटपर एक जिन प्रतिमा गढ़ी हुई है ऐसा मुझे स्वप्न आया है" बस भोली भावुक जनता ने यतिवर्य की बात पर विश्वास कर लिया, गाजे, बाजे से यतिवर्य को लेकर जुलूस वालकेश्वर तट पर आया, यति महाराज ने स्थान दिखाया, मूर्ति खोदकर निकाली गई, श्रद्धालु जैन जनता ने भी शीघ्रता से सिद्ध शिला में पहुँचने के लिए मूर्ति के सामने धन के ढेर करना शुरू कर दिया, बाहर के भक्तों को भी इस अमूल्य और दुर्लभ अवसर का लाभ लेने के लिए आमंत्रण पत्र पहुँचाये गये। गुरु महाराज तीन चार दिन में ही मालामाल हो गये। किन्तु पाखण्ड कब तक छुपा रह सकता है? किसी दूर देश ने जांच कर यति जी के पाखण्ड की पोल खोल दी, बस यतिजी का दूसरे दिन का सूर्य भी न जाने किस स्थान पर उदित हुआ? (जैन भावनगर ता० ६-११-३८ पृ० १०३२ “माटुंगामां चमत्कारी प्रतिमाः एक पाखण्ड' शीर्षक पर से) . (२) दो वर्ष पूर्व मुंडारा (मारवाड़-स्टेशन फालना B. B.CI. Rly.) में वहाँ के ऋषभदेव जी के मन्दिर में खेरा मंडप बनने का कार्य शुरू हुआ, उस प्रसंग पर “पन्यास प्रवर हिम्मतविजयजी महाराज" वहीं पर थे। इस विषय में भावनगर के मूर्ति पूजक जैन पत्र के ता० १९-६-३७ के अंक पृ० ८७६ में निम्न शीर्षक -- चमत्कारिक घटना "पंचमकाल में साक्षात् देव मिलाप व वार्तालाप" से एक लेख छपवाया था उसमें यह लिखा था कि - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ******************************************************** " ज्येष्ठ शु० ६ गुरुवार को मध्यरात्रि को पन्यासजी महाराज लघुशंका निवारणार्थ जागृत हुए, बाधा निवारण के बाद उनके सामने एक लम्बे शरीर वाला श्वेत वस्त्र धारी पुरुष उपस्थित होकर कहने लगा कि - "मुझे भी काम बताओ" तब महाराज साहब ने उसका अत्याग्रह देखकर कहा कि - "यह पत्थर पड़े, जो पत्थर के घड़े हुए आठ पाये (थंभे) मन्दिर के बाहर पड़े थे, वजन बहोत भारी कम से कम १२ मन बंगाली वजन में होगा। जिसको कम से कम ८ - १० आदमी मुश्किल से उठा सकें। बस इतना सुनते ही उक्त पुरुष ने चट मंदिर के द्वार को झपट से खोल कर एक-एक पाये को उठाकर आठों ही पायों को व्यवस्थासर रख दिये, फिर वह पुरुष गायब हो गया। सुबह होते ही यह घटना सारे गांव में फैल गई आदि । उक्त समाचारों के प्रकाशित होने पर श्रद्धालु भक्तों पर इसका क्या असर हुआ होगा? यह पाठक स्वयं सोच लें, जबकि रास्ते के किसी सिंदूर लगे हुए पत्थर को हमारी भोली भाली हिन्दु और जैन जनता देवता मानकर नतमस्तक होने को एकदम तैयार हो जाती है, राह चलते ढोंगी और पाखण्डी को भी पहुँचे हुए महात्मा मानकर आदर करने लग जाती है, तब भला जैन महात्मा और वे भी मामूली नहीं किन्तु “पन्यास प्रवर" फिर विश्वास क्यों न करे ? महात्माजी की प्रशंसा अनेक कण्ठों से होने लग गई होगी ? महात्माजी पन्यास प्रवर "चौथे आरे की वानगी" का विशेषण पा गये होंगे ? किन्तु बुरा हो इन भण्डा फोड़ने वालों का, जो षड्यंत्रकारियों की आशाओं पर एकदम पानी फिरा देते हैं? इसी जैन पत्र में कुछ दिन बाद एक शीर्षक दिखाई दिया कि - - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २२१ **************************************** धतिंगो से सावधान रहो "स्वर्गीय अनुयोगाचार्य पन्यासीजी श्री हितविजयजी महाराज का पट्टधर शिष्य रत्न पन्यासजी हिम्मतविजयजी महाराज का धतिंग।" ऐसे ठगों से बचो इस लेख में यह बताया गया था कि - चमत्कार की बात बिलकुल झूठ है, रात के समय नीम के झाड़ के नीचे संकेत पूर्वक कुछ मजदूरों को इकट्ठा कर रखा था, उन्हीं से यह पत्थर रखवाया, मजदूरी के एक रुपये के बदले दस रुपये दिये गये। यह दश गुणा चार्ज इस बात को गुप्त रखने के लिए ही दिया गया है। अन्त में लेखक ने यह भी लिखा कि - "अगर आप अब भी इस की सत्यता प्रमाणित नहीं करेंगे तो आपका नाम धतिंग विजय रखा जायगा।" (देखो जैन ता० ५-१२-३७ पृ० १११६) अब तीसरी घटना सुनिये (३) ता० २३-१०-३८ को माटुंगा (बम्बई) में यह खबर जोर से फैली की शा० भवानजी भारमल के घर गत रात्रि को एक देव विमान आया, उसमें से एक देव ने पार्श्वनाथ जी की एक मूर्ति लाकर घर के एक कमरे में रख दी और उक्त गृहस्थ की पुत्र वधू ने यह सारी घटना स्वप्न में देखी, जागृत होने पर कमरे में जाकर देखा तो मूर्ति दिखाई दी। “मुम्बई समाचार" जैसे बम्बई के प्रसिद्ध दैनिक पत्र में भी यह खबर स्थान पा गई, श्रद्धालु लोगों के झुंड के झुंड दर्शनार्थ आने लगे और भेटें भी चढ़ने लगी। किन्तु 'जन्म भूमि' नामक बम्बई के दैनिक पत्र ता० २६-१०-३८ में इसका भण्डाफोड़ भी हो गया। इस Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ****************************************** पत्र के मुख पृष्ठ पर ही बड़े-बड़े अक्षरों में इसको षड्यंत्र बताकर यह रहस्य प्रकट हुआ कि यह मूर्ति ता० २१-१०-३८ को पींजरापोल की गली वाले जगन्नाथ लक्ष्मीनारायन मूर्ति वाले से रुपये तीस में खरीदी गई और व्यापारी की बहियों के जमा खर्च के दो चित्र भी साथ ही प्रकाशित हुए। इसमें यह भी बताया गया कि जिस स्त्री ने यह पाखण्ड फैलाया वह स्वयं प्रतिमा लेने गई थी तथा उसी स्त्री ने एक मन्दिर के नौकर से मूर्ति के लिए नेत्र खरीदने का स्थान पूछा था, उसके पास उस समय वह मूर्ति भी थी। इसके दूसरे या तीसरे दिन ही यह अफवाह फैली। इसके बाद ता० २७-१०-३८ के जन्म भूमि देनिक के अग्रलेख (सम्पादकीय लेख) में यह भी बताया गया कि - “यह कार्य अकेली बीस वर्ष की लीलाबाई नामक स्त्री का नहीं होकर किसी चालाक व्यक्ति का इसमें हाथ होना पाया जाता है, फिर यह भी शंका की गई कि उस समय बम्बई में विराजते हुए मू० पू० आचार्य श्री प्रेमसूरिजी ने उस मूर्ति को अलौकिक जाहिर कर इस पाखण्ड का समर्थन क्यों किया? आचार्य श्री के समर्थन से हजारों जैन और जैनेतरों को हानि हुई आदि तथा मू० पू० समाज के प्रसिद्ध पत्र जैन (भावनगर) के ता० ६-११-३८ पृ० १०३२ पर इस विषय में एक लेख प्रकाशित हुआ है उसमें यहाँ तक लिखा कि - “सूरि श्री (प्रेमसूरिजी) ना उतावला अने मूर्खता भर्या अभिप्राय थी एम पण मानवाने कारण मले छे के एवा कोई सूरिओ के साधुओ नो आ व्यवस्थित पाखण्ड मां हाथ न होय एनी शी खात्री। धारो के साधुओ अने सूरिओ नो तो पाखण्ड नीपजाववां अने नीभाववा नो एक प्रकार नो व्यवसाय छे? पण आपणा धर्म घेलड़ा "राव साहेबो अने राव बहादुरो' नी दुरंदेशी क्यां परवारी गई हती।" ___ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा २२३ ** इतना ही नहीं मूर्ति पूजक पत्रों में सूरिजी से इस विषय में कई प्रश्न भी किये गये और कुछ दिनों तक इस प्रकरण की चर्चा भी रही । चाहे कुछ भी हो, किन्तु इस विषय में पहले से ही सूरिजी का हाथ रहा हो, ऐसा मानने को प्रत्येक विचारक तैयार होंगे, इसमें शंका को स्थान ही नहीं है। चौथा उदाहरण और देखिये - (४) अजमेर के म्युजियम में एक पाषाण खण्ड है, जिसके विषय में श्रीमान राव बहादुर पं० गौरीशंकरजी हीराचन्दजी ओझा ने लिखा है कि इस पाषाण खण्ड पर के लेख पर से ज्ञात होता है कि यह वीर संवत् ८४ में लिखा गया। इसके सिवाय ओझा जी ने यह नहीं लिखा कि - यह लेख किसी मूर्ति का है या मन्दिर का, सिर्फ शिलालेख होने का ही स्वीकार किया है। किन्तु साधुमार्गी समाज का विरोध करते हुए मूर्ति पूजक महात्मा दर्शन विजय जी 'जैन सत्य प्रकाश' मासिक वर्ष १ अंक १० माह अप्रेल पृ० ३३० में इसी पाषाण खण्ड को जिन प्रतिमा बता कर लिखते हैं कि - "अजमेर नी म्युजियम मां वी० नि० सं० ८४ मां बनेल जिन प्रतिमा छे ।" यह बिलकुल झूठ है। स्थानकवासी समाज के भोले लोगों को धोखा देने के लिये ही इस पाषाण खण्ड को जिन मूर्ति कहा है । मैंने स्वयं अजमेर म्युजियम के इस पत्थर को देखा है, यह पत्थर लगभग १२-१३ ईंच लम्बा और ε- १० ईंच चौड़ा तथा चार ईंच के लगभग मोटा है। इस पत्थर से यह पाया जाता है कि यह मूर्ति का नहीं है क्योंकि ऐसे पत्थर की मूर्ति प्रायः नहीं बनती, मेरे अनुमान से यह पत्थर किसी घर का शिलालेख ही है, पत्थर में किसी मूर्ति की आकृति Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ****************************************** नाम मात्र को भी नहीं है। न लेख में मूर्ति का उल्लेख ही है, फिर श्री दर्शन विजयजी की यह धोखेबाजी सिवाय पक्षपात के और किस कारण से हो सकती है? निःसन्देह यह चालबाजी जन साधारण को भ्रम में डालने के लिए ही की गई है। जबकि मूर्ति पूजक समाज के लेखक इस पाषाण खण्ड को मूर्ति नहीं कहकर पाषाण खण्ड ही मानते हैं, तथा सन्देह प्रकट करते हुए लिखते हैं कि - “सम्भव छे के हांसपुर के जे प्राचीन काल मां हर्षपुर नामर्नु मोटुं नगर हतुं अने ज्यांथी हर्षपुर गच्छ नो प्रादुर्भाव थयो छे, ते स्थानना जिनालय मां नो शिलालेख होय?" (जैन सत्यप्रकाश वर्ष ४ अङ्क १-२ पर्युषण पर्व विशेषांक पृ० १८) इस प्रकार जब इन्हीं के श्री ज्ञानविजयजी महाराज ही सन्देह करते हैं, तब हमारा अनुमान सत्य होने में क्या कसर है? हम यह भी कहते हैं कि शङ्काकार ने इस शिलालेख को जिनालय का ही होने की शङ्का क्यों की? किसी भी मकान का यह लेख हो सकता है, किन्तु इस पर से तो यह स्पष्ट हो गया कि - श्री दर्शन विजयजी की यह करतूत एकदम अधम कोटि की है। (५) इन्हीं महात्मा ने जैन सत्य प्रकाश वर्ष २ अङ्क ४-५ (महावीर निर्वाण अंक) मथुरा के कंकाली टीले की तीन प्रतिमाओं का परिचय कराते हुए उन्हें भगवान् महावीर की आमलकी क्रीड़ा में देव द्वारा परीक्षा होने की हकीकत बताने वाली प्रतिमायें होना बताया है। किन्तु इन्हीं के मतानुयायी श्री साराभाई मणीलाल नवाब ने इसी जैन सत्य प्रकाश वर्ष ४ अंक १-२ (पर्युषण पर्व विशेषांक) के "प्राचीन जैन स्थापत्यो' शीर्षक लेख में इनके इस कथन को युक्ति Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २२५ *************学教学*******李********來* एवं प्रमाण सहित असत्य ठहराया है। जिन्हें अधिक जानना है वे दोनों लेख पढ़कर समझलें, यहाँ विस्तार भय से इतना ही संकेत करते हैं। उक्त पाँच प्रमाण (जो कि लिखते समय लेखक को याद आये) हमारी इस बात को पुष्ट करते हैं कि जिस प्रकार स्वार्थ तथा प्रशंसा इच्छुक और पाखण्ड प्रवर्तन की भावना वालों ने धोखा देही करने में कुछ भी कमी नहीं की, उसी प्रकार मूर्तियों को प्राचीन बताने के लिए कुछ वर्षों (शताब्दियों) पूर्व के लेख खुदवाकर उन्हें यथा स्थान रख दिया हो, या भूमि में गाढ़ दिया हो तो क्या बड़ी बात है? दश, पन्द्रह सैंकड़ों में एक दो सैंकड़े चल भी सकते हैं। जैसे कि - वर्तमान में इसी भारतवर्ष की न्यायालयों में लेन देन की नालिश (दावा) करने की समय-सीमा (मुद्दत) प्रायः तीन वर्ष की है। इस निर्धारित समय के अन्दर ही यदि लेनदार दावा करदे तो वह स्वीकृत होता है, किन्तु इस समय से एक दिन भी अधिक निकल जाने पर लेनदार न्यायालय में दावा करने का अधिकारी नहीं रहता। उसका सब रुपया डूब जाता है, इतना होने पर भी कई मामले ऐसे भी होते हैं कि जिसमें किसी कारण या गफलत से दावेदार नियमित समय को चूक जाता है, और समय निकलने पर फिर खाते की तारीख माह या सन् के अङ्कों में चतुराई से हेर फेर करके दावा कर देता है। यद्यपि ऐसे कई मामलों का न्यायाधीशों द्वारा भंडा फोड़ हुआ है, तथापि यह तो नहीं कहा जा सकता कि ऐसे सभी मामले पकड़े गये हों, हो सकता है कि ऐसे मामलों में भी प्रतिवादी या न्यायाधीशों की असावधानी से ऐसे षड्यन्त्र नहीं पकड़े जा सके हों? ___ जब तीन वर्ष जैसी मुद्दत के लेखों का हेर फेर भी नहीं पकड़ा जा सके, तो सैकड़ों वर्षों की पुरानी करतूत आगे चलकर सत्य का Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ********学本产**** ********* ************** स्वांग पहिन ले, इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है? इसके सिवाय अन्वेषक भी ऐसे सर्वज्ञ तो नहीं कि असलियत को यथा तथ्य जान लें! आखिर वे भी तो अनुमान से ही काम लेते हैं। जाली दस्तावेजों के भी कई मामले न्यायालयों में आते हैं, अन्य की बात छोड़िये। कुछ वर्षों पूर्व जब श्वेताम्बर मूर्ति पूजक बन्धुओं के व दिगम्बर भाइयों के, तीर्थों के पहाड़ों को लेकर अधिकार विषयक मुकद्दमें हाइकोर्टों में चले थे, उस समय श्वेताम्बर मूर्ति पूजक की ओर से कुछ बादशाही फरमान प्रमाण रूप में पेश किये थे किन्तु विशेष जाँच पड़ताल से वे फरमान बनावटी ही ठहरे। न्यायाधीश ने उन्हें एकदम कृत्रिम घोषित कर दिया। (केशरिया तीर्थ हत्याकाण्ड पृ० १३५-१३८) प्रतिमाओं पर जाली लेख खुदवाने की कार्यवाहियाँ होना भी असंभव नहीं। निम्न प्रमाण देखिये - जैन सत्य प्रकाश में मूर्तियों पर के आठ लेखों की आलोचना करते हुए मुनि श्री कल्याणविजयजी (जो स्वयं मूर्ति पूजक विद्वान् हैं) लिखते हैं कि - “यदि ये लेख पाषाण मूर्तियों पर खुदे हुए हैं तब तो यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है कि लेख “जाली' है। क्योंकि तब तक मूर्तियों के मसूरक पर लेख खुदवाने का रिवाज नहीं चला था यह रिवाज विक्रम की पन्द्रहवीं सदी से प्रचलित हुआ है।" यदि लेख धातु की मूर्तियों पर अथवा पाषाण की मूर्तियों के सिंहासनों पर खुदे हुए हों तब भी इनके “जाली' होने में कुछ भी सन्देह नहीं है। हमारे इस निर्णय की सत्यता नीचे के विवरण से प्रमाणित होगी। (जैन सत्य प्रकाश वर्ष ५ अंक ८) Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २२७ ********************************************* इस प्रकार अपने पक्ष को प्रबल बनाने के लिये पक्षकार अनहोनी भी कर बैठते हैं। इसलिये मूर्तियों के शिलालेखों और उनकी प्राचीनता की दुहाई सुनकर या पढ़कर ही हमें विश्वास नहीं कर लेना चाहिये, जब तक पूर्ण अन्वेषण नहीं हो जाय तब तक ये वस्तुएं एकदम विश्वास कर लेने के योग्य नहीं है। श्री ज्ञानसुन्दरजी ने भी मथुरा के म्युजियम की मूर्तियों को बहुत ही प्राचीन होने पर जोर दिया है किन्तु इस म्युजियम की परिचय पुस्तिका को देखने से पता चलता है किकुषाण काल (ईस्वी प्रारम्भ से तीसरी शताब्दी तक) से पहले कहीं भी आज तक बुद्ध की मूर्ति नहीं मिली (देखो पृ० ३)........कनिष्ठ के राज्य काल (ईस्वी सन् ७८ से १०२ तक) में तो बुद्ध और बोधिसत्व मूर्तियों की बाढ़ आ गई साथ ही जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ भी बहुतायत से बनने लगीं। (देखो पृ० ३-४) आदि तथा स्वयं सुन्दर मित्र ने भी “जैन जाति का संगठन कैसे हो” नामक एक लेख में महाजनों का इतिहास बताते हुए लिखा कि - "उस जमाने में जैनाचार्यों की भी यह पद्धति थी कि जहाँ नये जैन बनाये वहाँ जैन मन्दिर, विद्यालाय और ज्ञान भंडार स्थापित करवा देते, क्योंकि मन्दिर मूर्तियों आदि धर्म प्रचार में मौख्य कारण थे, फिर भी उस समय वादी प्रतिवादियों का खंडन मंडन और आक्रमण और धर्म परिवर्तन का भी जोर था, इसलिए मन्दिर मूर्तियों की विशेषावश्यक्ता थी। (जैन पत्र भावनगर ता० १५-३-३६ पृ० २६१) इस पर से भी यह पद्धति अधिक प्राचीन नहीं पाई जाती, फिर भी यह विषय बहुत खोज करने बाद विचार करने का है। जिससे नये पुराने का पता लगे, किन्तु बहुत प्राचीन षड्यन्त्रों का पता लगाना तो एकदम असम्भव ही है, फिर भी यदि इन्हें प्राचीन मान लिया जाय तो Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ******* ********* ****** भी आत्मकल्याण रूप धर्म से इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं हो सकता, यह मात्र स्मारक वस्तु ही कही जा सकती है । ३ प्राचीन होने मात्र से उपादेय नहीं फिर भी यदि श्री ज्ञानसुन्दरजी मूर्तियों के प्राचीन होने मात्र से इन्हें पूजने या इसमें धर्म मानने की दुहाई दें तो यह भी बुद्धि गम्य नहीं हो सकता, क्योंकि मिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, लोभ, मोह, द्वेष, क्रोध, अहंकार, माया आदि दुर्गुण हजारों लाखों वर्ष के ही नहीं किन्तु अनादि काल के हैं। इसलिए मात्र प्राचीनता को ही पकड़कर मानने का आग्रह करने वाले को तो इन दूषणों को भी उपादेय मानना चाहिए? यदि ऐसा हो तो संसार में पाप नाम का कोई शब्द नहीं होना चाहिये । सुन्दर मित्र ! रोग पुराना होता है, और उपचार भी पुराना, किन्तु समयापेक्षा रोग पुराना कहा जाकर उपचार नया कहा जाता है। दुर्गुण पुराने और उसके प्रतिकार में सद्गुण प्राचीन होते हुए भी उस युग में नया ही दिखाई देता है। जैसे कि - जहाँ हत्या, लूट आदि अनर्थ अधिक मात्रा में और बहुत समय से चलते हों, वहाँ इनको हटाकर अहिंसा, रक्षा आदि से शांति फैलाना समयापेक्षा नूतन ही कहा जाता है, क्योंकि इस समय के मनुष्यों को इस सुखद स्थिति का अनुभव इस जन्म में पहले नहीं हुआ, इसलिए वे इसे नया ही कहते हैं । ( पर वास्तव में ये गुण भी प्राचीन ही है) किन्तु विवेकी और सुज्ञ जनता केवल हेय उपादेय को ही देखती है नये पुराने को नहीं । एकान्त पुराने का आदर कर नये का अनादर करने वाला राजप्रश्नीय सूत्र के न्यायानुसार लोह Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ****************************************** वणिक की कोटि का होकर अन्त में पश्चात्ताप करने वाला होता है वह लोह वणिक भी अपने कुछ समय पहले के ग्रहण किये हुए लोह को ही पुराना मानकर और स्वर्ण रत्नादि को लोहापेक्षा नूतन मानकर हेय समझता रहा। उसने यह सोचने का कष्ट नहीं उठाया कि वस्तुयें दोनों प्राचीन अनादिकाल की है, केवल मेरे ग्रहण करने मात्र से एक पहले की या दूसरी पीछे की नहीं हो सकती। मुझे तो वस्तु का मूल्य या गुण दोष देखना चाहिए, यदि इतना विचार भी उस लोह वणिक को होता वो वह दुःखी नहीं होता। ठीक इसी तरह ये लोग अपनी मूर्ति पूजा की प्राचीनता बताकर उसे उपादेय कहते हैं, और जिनागम सम्मत शुद्धाचार पालने वालों को नूतन कहकर हेय बताते हैं, किन्तु इन्हें समझना चाहिये कि भले ही हमारी दृष्टि से यह समाज अधिक प्राचीन नहीं दिखाई दे, किन्तु इसकी मान्यता, श्रद्धा प्ररूपना उपदेश आदि भगवान् महावीर के आज्ञानुसार है। इसलिए यह प्राचीन है। हम अपनी दृष्टि से ही देखकर गुणों की उपेक्षा और अवगुणों का आदर कर रहे हैं यही हमारी भूल है। यदि इतनी भी इनको समझ आ जाय तो यह आस्रव वर्द्धक मूर्ति पूजा इनका पीछा जल्दी से छोड़ दे। ये स्वयं जानते हैं कि जैसा उपदेश आदेश और आचार व्यवहार विचार आदि साधुमार्गी समाज के साधुओं का है वैसा ही भूतकाल के (तीर्थंकर काल के) मुनियों का था, जिसके लिए वर्द्धमान प्रभु के प्रवचन साक्षी हैं, किन्तु फिर भी पुद्गलानन्दी होकर व्यर्थ निन्दा कर आत्मा को भारी करते हैं, यही खेद की बात है। जबकि तीर्थंकर भगवान् महावीर के बताये हुए आचार विधान में मूर्ति पूजा का नाम निशान भी नहीं है, और शुद्ध, ज्ञान दर्शन चारित्र Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध ********** का पालन कर आत्मोत्थान करने का अनेक स्थानों पर स्पष्ट उल्लेख है, व इसी अनुसार साधुमार्गी समाज के सुसाधु अपनी श्रद्धा प्ररूपणा और यथाशक्ति स्पर्शना रखते हैं, तब इन्हें अर्वाचीन कहकर इनकी उपेक्षा या निन्दा करना, समझदारों के लिए कहाँ तक उचित है? श्रमण संघ के एकदम विकृत और पतनोन्मुखी हो जाने से, और उसका कारण मूर्तिवाद रूपी विष के होने से श्रीमान् धर्म सुधारक लोकाशाह को क्रान्ति मचाकर क्रियोद्धार करना पड़ा। जो उस वक्त जनता को पूर्वोक्त उदाहरणों से नया होना पाया जाय तो कोई आश्चर्य नहीं। पर समझदारों को तो सोचना चाहिये कि इसमें नूतन पन क्या है ? कुछ भी नहीं, वहीं वीर भगवान् के मुख्य सिद्धान्त । फिर नये पुरानेपनका गँवारू प्रश्न ही क्यों उठाया जाय? वैसे तो वर्तमान मूर्ति पूजक श्रमण संघ भी प्रायः विक्रमीय सत्तरहवीं शताब्दी के (लोकाशाह के बाद) वृद्ध काल में सत्यविजयगणी द्वारा चैत्यवास का विशेष भ्रष्टाचार से संस्कारित किया हुआ नूतन ही हैं। आपकी इस युक्ति पर से तो यह भी कोटि का ही होना चाहिए। ' अतएव केवल प्राचीन होने से ही कोई उपादेय नहीं हो सकता । ४ आगमों के सामने इसका कोई मूल्य नहीं समस्त जैन समाज शास्त्रों को प्रमाण मानता है और उनमें बताई विधि के अनुसार अपना आचरण बनाने की भावना रखता है तथा जो शास्त्र निर्दिष्ट नियमों का भली प्रकार से पालन करे उसे आदर की दृष्टि से देखता है, यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर समाज के शास्त्रों में पर्याय अनैक्य है, किन्तु सभी अपनी-अपनी समाज के Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २३१ **********************************学学 शास्त्रों को तो प्रमाण भूत मानते ही हैं। श्वेताम्बर जैन समाज के बड़ेबड़े दो फिरकों (साधुमार्गी और मूर्ति पूजक) में मूल ३२ सूत्रों में तो एकसी मान्यता है, किन्तु मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में इसके सिवाय और भी सूत्र ग्रन्थ और इन पर किये हुए भाष्य, टीका, नियुक्ति आदि को भी प्रमाण रूप स्वीकार किया गया है। जो समाज शास्त्रों को प्रमाण रूप में स्वीकार करता है, उसके सामने वैसे प्रमाण नहीं देकर व्यर्थ खींचतान करना न्याय संगत नहीं है। ___ श्वेताम्बर मूर्ति पूजक लोग साधुमार्गियों के सामने आगम प्रमाण नहीं रखकर मूर्तियों की प्राचीनता को बताकर इससे आत्म-कल्याणार्थ मूर्ति पूजा करने का सिद्ध करना चाहे, यह कहाँ तक ठीक है? हाँ यदि इन मूर्तियों को प्राचीन स्मारक या शिल्पकला का नमूना ही कहें तब तो कोई हानि नहीं, किन्तु इनको ही पूजने पूजाने की अनावश्यक क्रियायें कर उसमें ही धर्म मानना और मनवाना यह आगम विरुद्ध और हठधर्मी ही है। १. जबकि वर्तमान समय में आचार विधान को स्पष्टतया बताने वाले सर्वज्ञ प्रणीत और गणधरादि से निर्मित, सूत्र के सूत्र मौजूद हैं, जिसमें आत्म-कल्याण का अनुपम मार्ग दिखाया गया है उनमें मूर्ति पूजा के लिए एक अक्षर भी नहीं है, तब मूर्ति पूजा में धर्म कहने वाले कहाँ तक सच्चे हैं? किस बल पर मूर्ति पूजा महावीर भाषित कही जाती है? २. जबकि चरितानुयोग (जीवन चरित्र विभाग) में सैकड़ों मुनि महात्माओं की जीवनचर्या बताई गई है। वैसे ही अनेक आदर्श श्रमणोपासकों के जीवन इतिहास लिखे हुए हैं, उन सबमें से किसी एक में भी मूर्ति पूजने, मन्दिर बनवाने, यात्रार्थ संघ निकालने आदि विषयक बिन्दु विसर्ग तक नहीं है, फिर यह कैसे कहा जाता है कि मूर्ति पूजा से अनेकों का कल्याण हुआ? इसे आगम सम्मत कहने वाले क्या उत्सूत्र भाषी नहीं है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध 学学会李李李李李李李家学会李李李李李容承辛辛学子求学学会学学实至完全辛本关东军容产 यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो मूर्ति पूजा में धर्म मानना आगम आशय से विरुद्ध और आत्म-कल्याण के लिए बाधक है। कितने ही लोग मन्दिर और मूर्तियों के कला कौशल का वर्णन कर, आदर्श एवं उच्च कला बताकर, इनकी पूजा करना ठहराते हैं किन्तु मुमुक्षुओं को ध्यान में रखना चाहिए कि यह सब प्रवृत्ति (कला की उच्चता) सांसारिक है। जैसे विद्याचार्य और कलाचार्य को आगमों में सांसारिक पक्ष के बताये और सांसारिक रीति से ही उनको सेवा करने का उल्लेख है, किन्तु धर्माचार्य को धर्मपक्ष में गिनकर उनकी सेवा धर्मियों (महात्माओं) की सेवा के समान बताई है, वैसे ही कला की उच्चता भी धार्मिक उच्चता से (आत्म-कल्याण रूप धर्म से) भिन्न है। स्वयं मू० पू० इतिहासज्ञ श्रीमान् जिनविजयजी "प्राचीन जैन लेख संग्रह" भाग १ के उपोद्घात पृ० ३८ में लिखते हैं कि - “मूर्ति पूजा मानवीके न मानवी ए एक जुदी बाबत छे अने तेनो सम्बन्ध तत्त्वज्ञान नी साथे विशेष छे, परन्तु अमुक समय पहला जैनोमां मूर्ति पूजा हती के न हती, ए ऐतिहासिक प्रश्नुं तो निराकरण आ लेख थी एकदम थई जाय छ।".... (जैन सत्य प्रकाश वर्ष १ अ० १० पृ० ३३३ जिन मन्दिर शीर्षक लेख से) तथा पं० बेचरदासजी "जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि" पृ० ११७ में लिखते हैं कि - "आपणा पूर्वजोए चैत्यो ने पूजवा माटे नहीं, पण तेने मरनार महापुरुषों नी यादगिरी राखवा माटे बनाव्यां हतां, परन्तु पाछल थी तेनी पूजा शरु थई हती अने ते आज सुधी पण चाले छे।" पं० चन्द्रधर शर्मा लिखते हैं कि - Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा "बौद्धों तथा जैनों के स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिह्न थे, फिर पूज्य हो गये (नागरी प्रचारिणी पत्रिका) 1 इस लेख से स्पष्ट होता है कि प्राचीन मूर्तियें इतिहास बताने में सहायक हो सकती है, किन्तु इससे तत्त्वज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं है और हमारा विवाद तत्त्वज्ञान विषयक ही है । अतएव इसमें मूर्तियों की प्राचीनता का कुछ भी असर नहीं हो सकता । किन्तु महदाश्चर्य है कि सुन्दरजी ने तत्त्वज्ञान के प्रश्न को तो एकदम उड़ा दिया, आप मूर्ति की प्राचीनता बताते हुए पृ० १५६ में लिखते हैं कि 'अन्यथा केवल कहने मात्र से कि हाँ ? मूर्ति पूजा प्राचीन तो है पर. . इस थोथी उक्ति से कोई भी काम नहीं चल सकता।" इस लेख में आप मूर्तियों की प्राचीनता से ही आत्म-कल्याण का सम्बन्ध मानकर तत्त्वज्ञान या आगम प्रमाण को थोथी युक्ति बतलाते हैं। मैं सुन्दर बन्धु से सानुनय पूछता हूँ कि आपने इस बिंदु अंकित रिक्त स्थान में क्या छुपाया ? क्या मैं उसे पूर्ण कर दूँ? मेरे विचार से आपने लजाते हुए इस रिक्त स्थान में यही भाव छुपाये हैं कि - " धर्म से इसका कोई सम्बन्ध नहीं" या इसके लिये " आगम आज्ञा नहीं " बस ऐसा ही भाव आपने छुपाया है, जो कि अत्यन्त महत्त्व का है, जिसे श्रीमान् जिनविजयजी ने भी स्वीकार किया है, इतना ही नहीं खुद सुन्दर मित्र ही अपने 'मेझरनामें' में लिखते हैं कि "धर्म आज्ञा वीतरागनी, आज्ञा लोपी हो करे गणी धर्म | आचारंग पहला अंग मां, नहीं जाण्यो हो? तेणे धर्म नो मर्म १० (ढाल १३ द्वितीयावृत्ति पृ०४५) सूत्रसूयगडांग मां क आज्ञाबाहर हो ? बधुं आल पंपाल ॥ ६ ॥ (ढाल २५ पृ० ७६ ) ********* 66 - २३३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? "धर्म छे ते वीतरागनी आज्ञामा छे अने आज्ञा थी न्यूनाधिक करवू ते तो अधर्मज छ।" (ढाल २२ वीं के तात्पर्य में पृ० ६६) मित्रवर! अपने उक्त लेख का तो विचार करो? हम इससे अधिक और क्या कहते हैं? हम भी यही कहते हैं कि मूर्ति पूजा वीतराग आज्ञा से रहित है, इसलिए अनुपादेय है फिर आज्ञारूप प्रमाण मांगने पर उसे थोथी युक्ति बताना क्या पक्षव्यामोह नहीं है? अवश्य है, यहाँ आपका “वदतो व्याघातः” सिद्ध होता है। वास्तव में मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है, न इसके लिए आगम आज्ञा ही है, यदि प्राचीन मूर्तियों की उपयोगिता मानी जाय तो केवल स्मारक या कला की दृष्टि से ही , पर धर्म के साथ इसका सम्बन्ध जोड़ना अधर्म समर्थन है। ओर है उत्सूत्र प्ररूपणा रूप महान् पाप, इस भयंकर पाप से वंचित रहकर आगमानुसार आत्म-कल्याण साधना में और इसी का प्रचार करने में जीवन बिताना ही सच्चे साधक का कार्य है। (३४) क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? जैन मुनियों का उपदेश सर्व प्राण, भूत, जीव, सत्त्व को शांति देने वाला होता है। आत्मशांति एवं कल्याणकारी उपदेश जैन महात्माओं का होता है, उनकी वाणी से किसी स्थावर प्राणी को भी कष्ट नहीं हो सकता, ये पृथ्वी से लगाकर सभी जीव काय की दया के प्रचारक होते हैं। भगवान् महावीर स्वामी ने इन महन्तों को ऐसी ही उपदेश देने की आज्ञा दी है, जैसे कि - Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******* "दय लोगस्स जाणित्ता पादीणं पडीणं दाहीणं उदीणं आइसवे विभये किट्टे वेदवी ॥ २ ॥ से उद्विएस वा, अणुट्टिएस वा, सुस्सूसमाणेसु वा, पवेदए, संति, विरंति, उवसयं, णिव्वाणंसोयं, अज्जवियं, मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तिय ॥३॥ " सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसि भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसि सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्रवेज्जा || 811 २३५ ****** अणुवीइ धम्ममाइक्रवमाणे णो अत्ताणं आसाइज्जा जो पर आसाइज्जा णो अन्नाणं पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताई आसादेज्जा से आणासादर आणासादमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाण सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवति सरणं महामुणी ॥५॥” अर्थात् - साधु लोग में रहे हुए जीवों को जानकर और गृहस्थ तथा साधुधर्म का विभाग कर धर्म समझावे । साधु को तथा गृहस्थ को दया, विरति, उपशम, निर्वाण, पवित्रता, आर्जव, मार्दव, लाघव आदि समझा कर धर्म कहे तथा सर्व प्राण भूत जीव सत्व का विचार कर उपकार बुद्धि से धर्म कहे। पूर्वापर के विचार युक्त धर्म कहते हुए मुनि स्व तथा पर आत्मा का हित करके सबके लिए द्वीप के समान आधार एवं शरणभूत होते हैं। ( आचारांग श्रु० १. अ० ६ ) सेभिक्खु मान्ने अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिवन्ने धम्मं आइक्वे विभए किट्टे उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा, सुस्सूसमाणेसु पवेदिए सतिविरंति उवसमं निव्वाणं ? Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? *********学法学*************************次*** सोयवियं, अज्जवियं, मदवियं, लाघविय, अणतिवातियं, सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूताणं जाव सत्ताणं अणुवाई किट्ठिए धम्म॥३॥ ___अर्थात् - उग्रविहारी एवं उद्यमी साधु धर्मोपदेश करते हुए धर्मफल भिन्न-भिन्न कहे, धर्म की कीर्ति करे, शांति विरति, उपशम, निर्वाण, पवित्रता, आर्जव, मार्दव, लाघव अहिंसा आदि का विचार पूर्वक सर्व प्राणियों का हितकारी धर्म कहे। (सूयगडांग श्रु० २ अ० १) इतना ही नहीं स्वयं स्वयं प्रभु ने भी संसार रत जीवों के कल्याण के लिए तथा रक्षा और दया के लिए ही धर्मोपदेश किया, इसीलिए प्रवचन प्ररूपणा की, प्रश्नव्याकरण सूत्र उत्तरार्द्ध के प्रथम अध्ययन में खुलासा उल्लेख है कि - "सव्व जगजीव रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं।" अर्थात् - जगत के सभी जीवों की रक्षा और दया के लिए भगवान् ने प्रवचन कहा। - जो भगवान् का प्रवचन और आज्ञा है उसी अनुसार मुनि महात्माओं का भी प्रवचन-उपदेश होना चाहिये। महात्माों के उपदेश से किसी प्राणी की व्यर्थ हिंसा हो, आरम्भ समारम्भ बढ़े निरर्थक और उल्टे मार्ग में द्रव्य नाश हो, तो फिर महात्माओं और संसारी आत्माओं में भेद ही क्या? किन्तु पाठकों को आश्चर्य होगा कि इस मन्दिर मूर्ति के चक्कर में पड़कर कितने ही जैन साधु और जैनाचार्य कहलाने वाले, अपने उत्तरदायित्व एवं अधिकार को भूलकर जोर शोर से आरम्भ समारम्भ एवं क्लेश बढ़ाने वाले आदेशात्मक वाक्य बोलते हैं, वो भी सीमा छोड़कर। जिनको सुनने से श्रमण धर्म के सच्चे Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m * * जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा *******学学*************************学李***** उपासक को खेद हुए बिना नहीं रहता। इस मूर्ति और मन्दिर के पक्ष में पड़कर ये लोग कैसी भाषा बोलने लग गये हैं, इसका थोड़ासा नमूना देखिये - १. मन्दिर बनाओ। २. अच्छे कारीगरों से मूर्ति बनवाओ। ३. अमुक पहाड़ का रास्ता खुदवा कर ठीक करो। अमुक तीर्थ स्थान पर धर्मशाला बनवाओ। मूर्ति का प्रतिष्ठा महोत्सव धूमधाम से करो। वर्ष में एक बार अवश्य यात्रा करो। बड़े आडम्बर से संघ निकालो। ८. साधुओं का नगर प्रवेश खूब धूमधाम से कराओ। है. संघ के साथ गाड़ी, घोड़े, मोटरें, सिपाही, अस्त्र शस्त्रादि रखो। १०. केले का पेड़ कटाकर उसके खम्भे बनाकर सजाई करो। ११. फूलों को तोड़कर उनसे बंगला बनाओ, उन्हें बिन्धकर मूर्ति के लिए आभूषणादि बनाओ, फूल चढ़ाओ। १२. मूर्ति को सचित्त जल से स्नान कराओ। १३. दीपमाला से मन्दिर की शोभा बढ़ाओ। १४. मूर्ति की आरती और स्वप्नों का नीलाम बोलकर द्रव्य संग्रह करो। १५. मूर्ति को मूल्यवान गहने पहिनाओ। १६. अमुक दीवाल को तोड़कर वहाँ उजालदान बनाओ। १७. मुकद्दमें लड़कर प्रतिपक्षी को हराओ। १८. अमुक नौकर को निकाल दो। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? १६. अमुक व्यक्ति साधुओं की टीका करता है, उसे संघ से बाहर निकाल दो। २०. मूर्ति नहीं पूजने वाला यदि मन्दिर में आ जाय तो खून से मन्दिर को धोओगे तब शुद्धि होगी । (आगमोद्वारकजी ) २१. त्रिकाल पूजा करो । २२. धूप जलाओ, वह भी आकाश मण्डल में बादल छा जाय ऐसा । २३. वादिंत्र बजाओ । अमुक तबले को ठीक मढ़वाओ । २४. नृत्य करो । २५. स्वामी वात्सल्य का जीमण करो । कहाँ तक गिनावें, ऐसे अनेक प्रकार के उपदेश ही नहीं आदेश दिये जाते हैं । उक्त नामावली तो केवल मूर्ति सम्बन्धी ही है। यदि अन्य आचार विषयक नमूने रखे जाय तो पाठकों के रोंगटे खड़े हो जायँ ? किन्तु विषयान्तर के भय से यहाँ केवल थोड़ीसी बातें बताई गई है । पाठक यह नहीं समझें कि उक्त बातें मैं अपनी तरफ से ही कह रहा हूँ, किन्तु येसी बातें सत्य हैं। जिनसे इन साधुओं का विशेष परिचय रहता है या जो इनलोगों के सामाजिक समाचार-पत्र तथा पुस्तकें देखते हैं, वे इस विषय में अनुभवी होंगे, फिर भी पाठकों की विशेष संतुष्टि के लिए कुछ प्रयत्न करता हूँ। मूर्ति पूजक समाज के साधुओं का एक सम्मेलन अहमदाबाद में हुआ था, इसकी कार्यवाही यद्यपि गुप्त रखी जाती थी तथापि किसी प्रकार से एक दिन के समाचार दूसरे दिन जनता में पहुँच ही जाते थे। सम्मेलन की कार्यवाही समाप्त होने पर कुछ समय बाद इस विषय में एक पुस्तक “राज नगर साधु सम्मेलन" नाम से प्रकाशित Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २३६ ********* ************************** हुई उसके १९३ वें पृष्ठ पर २६ वें दिन की कार्यवाही का विवरण करते हुए लिखा है कि - “ए श्रमणो पोताना मूल हेतु ने भूली गया, संवर अने निर्जराना पाठो पढ़वाना स्थले धीमे धीमे आश्रवना द्वार पण तेमणे खुल्ला कर्यां अने अनेक जातना कलहो भयंकर बखेड़ाओं अने संसारीओ ने पण शरमावे तेवा आरम्भ समारम्भ मां व्यग्र थवा लाग्या, अने आजे तो सारासारनी तुलना रूप उपदेश भूली छड़े चोक तेओ आदेश मय शैली नो उपदेश करी रह्यो छे, फलाणा तुं आमकर? मन्दिरो बंधावो? मूर्तिओ पधरावो? पुष्प चन्दन थी पूजा करो? उपाश्रयो बंधावो, स्वामी भाइयो ने जमाडो? विरोधिओनो फेज करो? हेंडबोल बाजी थी तेमने थकवी नाखो? मंडलो काढ़ो? मोटरो दोड़ावो? वगेरे आ बधा उपदेश जैन शैली मुजब नथी।" ___ मूर्ति-पूजक श्री जयविजयजी महाराज “सद्बोध संग्रह" पृ० ६७ में लिखते हैं कि - “कंचन कामिनी ना संग थी पण पाप माननार जैनसाधुओ वीतराग देवना नामे लाखो रुपया एकठा करवामां एक आंगी भांगी नाखीने बीजी घड़ाववामां, कुंडल, मुगट, हार, विगेरे दागीना घड़ाववा मां जैन प्रजा निर्धन बनती जाय छे छतां गामीगाम भीख मांगी एक बीजा नी देखादेखीए खास पैसा उघरावी देरासरों चणाववा मां दारु मांस खानार कारीगरों ने रंगीन काम मां लाखों रुपया अपाववामां हजारों दीवा बत्ती उघारी सलगती राखी मुंबई नी दीवाली नो चितार करवामां कोमल फूलों ने कातरी सीवीने निर्दयता करवा मां ग्यास तेल तथा बिजली ना दीवा बलवा मां, चरबी वाली मीणवत्तीओ सलगाववा मां, वेश्याना तथा त्रागलाना छोकराओने पैसा आपी भाडुती भक्ति करावी नाच कराववा Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? ********************************************* मां, कूवा खोदाववा मां तथा बाग बगीचा कराववा मां उपदेश आपे वा धर्म बतावे ए खरेखर दीलगीरीनी बात छे।" स्वयं ज्ञान सुंदर जी अपने “मेझरनामे' में लिखते हैं कि - "रचनाकरावे पहाडनी, उभा हो?रहे पोते आप। अमुको लांबो पहोलो करो, अज्ञानी हो? रहे सेवे बहु पाप। सु०५ बंधावे उपासरा, करावे हो?. जीर्णोद्धार । गृहस्थ जेम उभा रहे, परभव नो हो? नहीं डर लगार। सु० ६ पौषधशाला उपासरा, निशंक हो? दिये आदेश। अहीं चौकी आलिउंकरो? अहीं बांचशेहो? व्याख्यान हमेशासु०७ अमुकी बारी मेडो करो, भंडारियुं हो? करो पुस्तक काज। ओछा जीवन कारणे, आज्ञा मुकी हो? नहीं आवे लाज। सु० ८ अणुमात्र पृथ्वी कायमां, जलबिंदुए हो? कह्या जीव असंख्य। त्रस थावर हणावतां, लज्जा छोड़ी हो? हुवा निःशंक। सु० ६ स्वाध्याय ध्यान धर्यु खुंटीए उभा भणावे हो! पूजा ना पाठ। सावध निर्विध नहीं गणे, आणा लोपी हो? करी मनना ठाठ। सु० १३ चैत्यवासी पहेला कोई नहीं, भणाई हो? कोई पूजा साध। आगम पाठ दीसे नहीं, पासत्थाए हो? मुको मर्याद। सु० १४ साधु गावे रागथी, जेम जेम वागे हो? मृदंग ताल। द्रव्यस्तव जेणे सेवियो, द्रव्यलिंगी हो? भावे कह्या बाल। सु० १५ अमुको करो अमुको करो, लावो मुको हो? वली बोले एम। चैत्यवासी बनी रह्यो स्वा? हो? साधु बोले केम। सु० १६ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २४१ ********************************************* प्रतिष्ठा अविधि करे, अंजनशलाका हो? करे आरम्भ घोर। कल्पित ग्रन्थ बनावीने, साहु थोड़ा हो? मल्या बहु चोर। सु० १६ (ढाल १२) उठे पाछली रातना, संघ चाले हो? फरे गामो गाम। साधु साध्वी राते चालतां, निंदा हो? होवे ठामो ठाम। सु० १५ उनुं पाणी करे रातना, घड़ा भरी हो? बाइयों रहे लार। तेहज पाणी वापरे, यात्रा नामे हो? संयम जावे हार। सु० १६ मर्यादा मुनिवर तजी, संघ तणी हो? करे कोशीश। ऊंचो धर्यो आचारने, शुं लखुं हो? जाणो जगदीश। सु०६ नाम लेवे यात्रा तणो, साथे राखे होय गाड़ी ने माल। दाल बाटी ने चूरमा, अही थी हो? लाग्यो मझानो ताल। सु० १० साधवी हो साथे रहे विधवा हो? रहे दशबीस। साधु कारण तम्बु रहे, तम्बु कारण हो? गाड़ी ने ऊंट। जीव हणाय छ कायना, पूछे थी हो? वली बोले झूट। सु० १३ (ढाल २३) पाठक बन्धुओ! अब तो स्पष्ट हो गया कि - मूर्ति पूजक महात्मा लोग मन्दिरों और मूर्तियों के पक्ष में पड़ कर अपने साधुत्व को भी भूल गये हैं। और सुनिये - ____श्रीमान् ज्ञानसुन्दर जी महाराज जो कि मूर्ति पूजक समाज में इतिहास प्रेमी कहलाते हैं, आपने साधुमार्गी समाज की निंदा कर साधारण जनता को भ्रम में डालने के लिए जो मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास नामक कल्पित ग्रन्थ निर्माण किया है। (जिसका कि यह उत्तर ग्रन्थ है) उसके पृ०१३६-१३७ तथा ३६१-३६२ में आपने श्री केशी Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या जैन साधु ऐसा उपदेश दे सकते हैं? श्रमण निर्ग्रन्थ की और गणधर सुधर्म स्वामी आदि को मूर्ति पूजक साधु होना बताया है तथा मूर्तियों के प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख किया है, किन्तु इनकी यह बात केवल कपोलकल्पित या किसी मूर्ति पूजा मनगढन्त पुराण की ही है, क्योंकि प्रथम तो इसमें कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं। दूसरे वे महान् चारित्र सम्पन्न थे, इसलिए वे ऐसे हेय कार्य को करते ही नहीं। तीसरा उस समय मूर्ति पूजा की ही मान्यता सिद्ध नहीं होती, इसलिए सुन्दर प्रयत्न भोलों को भुलावे में डालने के लिए ही है, फिर भी हम सुन्दरजी के लेख से ही यहाँ इस बात पर विचार करेंगे। सुन्दर मित्र अपने "मेझरनामें" में लिखते हैं कि - २४२ "अंजन सलाका, प्रतिष्ठा, उपधान, रात्रि रोशनी करवी श्रावकोए देरासरमां नाचकूद, दांडीया रमवा, स्त्रीयोए गरवा गावा, गाडा ने गाडा माटी मंगावो पहाड़ रचाववा संघ साथे साधु साध्विओ रात्रि दिवस मां साथेज चालवुं अने गाडा उंट साथे राखवा...... . ते आगमवादी पंच महाव्रत धारी मुनि मतंगजो नी क्रिया न थी, परन्तु निगमवादी चैत्यवासी शिथिलाचारी सुखशिलयाओ नीज क्रिया छे।" ( भूमिकान्तर्गत त्रण ननामा लेखकों ने उत्तर पृ० ३८ ) पुनः मेझरनामे की तीसरी ढाल में लिखते हैं कि "कल्पित क्रिया बनावीने, सावद्य हो कर उपदेश । अंजनशलाका प्रतिष्ठा विषे, संयम हो न राख्यो लेश ॥ ६ ॥ काव्य बनाव्या पूजा तणी, सावध हो न आणे शंक। " (पू० १३) आगे २९ वीं ढाल में लिखा है कि " रोशनी करे रातना, मन्दिर मां हो लेवे भक्तिनुं नाम । अणगणता त्रस जीवना, प्राण जाये हो? जुओ वाणिकना काम ॥ २२ ॥ - - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ ********************************************** जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा आणा नहीं आगम तणी चैत्यवासी हो? नचाव्या नाच । इन्द्रिय पोषण कारणे, नहीं करे हो? गाडरिया जांच॥२३॥ (पृ० ६३) सुन्दर मित्र! जिस अंजनशलाका प्रतिष्ठा को आप शास्त्र विरुद्ध एवं भ्रष्टाचारियों का कार्य बता रहे हैं, क्या ऐसे (प्रतिष्ठा, मूर्ति पूजादि के) काम वे महान् चारित्रवान् गणधर महाराज आदि कर सकते हैं? कहिये! आप उन्हें क्या मानेंगे? यदि मूर्ति पूजा के इतिहास के उल्लेखानुसार आप उन्हें मूर्ति पूजक और प्रतिष्ठा करने वाले मानेंगे, तो वे आपके मेझरनामे के अनुसार आज्ञा विरोधक एवं भ्रष्टाचारी ठहरेंगे और उन महात्माओं को भ्रष्टाचारी कहने वाला तो भ्रष्टाचारी ही हो सकता है। बस सिद्ध हुआ कि आप अपने ही लेख से झूठे हैं तथा पक्षपात के नशे में मस्त हैं, साथ ही यह भी प्रमाणित हो चुका कि मूर्ति पूजक साधुओं की उक्त क्रियायें तथा उपदेश जैनधर्म-श्रमणधर्म से सर्वथा विरुद्ध है, बल्कि यह कहना भी अधिक उपयोगी होता कि जो कार्य चैत्यवासी करते थे वे प्रायः आजकल आपके मूर्ति पूजक महात्मा लोग करने लग गये हैं, अतएव ये भी उसी श्रेणी के हैं, मैं ही नहीं आप खुद भी तो वर्तमान मूर्ति पूजक साधुओं को चैत्यवासी जैसे मानते हैं? क्या भूल गये? देखिये आपने मेझरनामे की २६ वीं ढाल की २२-२३ गाथा में इस बात को स्वीकार किया है कि पूजा भणाना, प्रतिष्ठादि करना यह चैत्यवासियों का कार्य है और इसके पूर्व ११ वीं ढाल में लिखते हैं कि - “आवेज रस्ते चालतां यतियों हो? थया फजीत। सत्य विजय बधुं छोडी युं तो पण हो?हवे आ चाली रीत ॥८॥ (पृ० ३६) Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ चैत्य शब्द के अर्थ ******************************************** प्रवृत्ति चैत्यवासी तणी, सत्य विजय हो? बधी दीधी छोड़। यतिये मली सरुकरी, हजी सुधी हो? नहीं सके तोड़॥३०॥ . (ढाल २३ पृ० ७७) सुन्दर मित्र! सत्य है अभी भी चैत्यवासी जैसे ढंग मौजूद हैं, इतना ही नहीं दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं और इसका खास कारण है केवल “मूर्ति पूजा"। जब तक इसके चक्कर से आप लोग नहीं निकलेंगे तब तक शुद्ध साधुत्व का आना असंभव है। क्योंकि मूर्ति पूजकों में जितना शैथिल्य और आरम्भ समारम्भ चल रहा है, वो सब इसी की बदौलत है, साधुत्व के एकदम विपरीत उपदेश और यतियों जैसा आचार विचार सब इसीका परिणाम है, जैन साधु ऐसा उपदेश कदापि नहीं दे सकते। न ऐसा कथन जैन साधु का हो सकता है। (३५) चैत्य शब्द के अर्थ जैन आगमों में अनेक स्थानों पर चैत्य शब्द का प्रयोग मिलता है और विशेषकर जहाँ ग्राम या नगर आदि का वर्णन होगा वहाँ यह चैत्य शब्द प्रायः पाया ही जायगा। स्मारक विशेष में भी यह शब्द उपयोगी हुआ है। इस प्रकार चैत्य शब्द कई स्थानों पर अनेक अर्थों में व्यवहृत हुआ है*। ऐसे अनेकार्थी शब्द का कितने ही मूर्ति पूजक लोग, मन्दिर मूर्ति के हठ के कारण अन्य अर्थों का लोप कर केवल दो तथा तीन अर्थ ही करते हैं, पाठक देखें कि मूर्ति पूजक समाज के युगावतार और युग प्रधान कहे जाने वाले श्री विजयानंदसूरि ने इस चैत्य शब्द का पक्षपात के वश होकर किस प्रकार अर्थ किया है, यथा - * चैत्य शब्द के विशेष अर्थों के लिए देखें - संघ द्वारा प्रकाशित "लोकाशाह मत समर्थन” (पृ० ४०-४२) Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २४५ ********************************************* "जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा को “चैत्य' कहा है और चोतरे बन्ध वृक्ष का नाम चैत्य कहा है इनके उपरांत और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है।" (सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० १७५) इस प्रकार श्री विजयानंद सूरिजी चैत्य शब्द के आचार्य हेमचन्द्रजी के कोष के आधार से तीन ही अर्थ कर आगे के लिए बिलकुल इन्कार करते हैं कि “इनके उपरांत और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है'' किन्तु पाठक, जरा एक पन्ना और पलटकर पृ० १७७ को देखें, वहाँ ये युगावतार महापुरुष एक अर्थ और स्वीकार करते हैं। “जिस वन में यक्षादिक का मन्दिर होताहै, उसी बन को सूत्रों में चैत्य कहा है।" पाठक वृन्द! देख लिया? जहाँ इन्कार और स्वीकार साथ ही साथ चलते हैं वहाँ और क्या चाहिए? ___ इस प्रकार चैत्य शब्द पर मूर्ति पूजक महाशयों की पूरी कृपा दृष्टि रही है, यहाँ हम एक अवतरण और उक्त विजयानंद सूरिजी के शिष्य रत्न "जनाब फैजमान, मग्जनेइल्म, जैन श्वेताम्बर, धर्मोपदेष्टा, विद्यासागर, न्यायरत्न, (इतनी लम्बी पूंछ वाले) श्री शांतिविजयजी की पुस्तक "जैन मत पताका" पृ० ७४ पं० ८ से देते हैं, पाठक ध्यान से पढ़ें। ___ "चैत्य शब्द के माइने-जिन मन्दिर और जिन मूर्ति ये दो होते हैं, इससे ज्यादा नहीं।" देखलिये हथकंडे! क्यों न हो, जबकि गुरु “कलिकाल * सर्वज्ञ समान" है, तब चले कम क्यों हों? वे भी विद्या के सागर ठहरे, फिर हथकंडेबाजी में न्यूनता ही क्यों रखें? * हिन्दी सम्यक्त्व शल्योद्वार चतुर्थावृत्ति के मुख पृष्ठ पर श्री विजयानंद सूरिजी को "कलिकाल सर्वज्ञ समान लिखा है" इस वर्तमान समय में क. स. कौन है? मालूम नहीं हो सका। शायद निर्वाणबाद बनते होंगे। ले०.... Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ चैत्य शब्द के अर्थ ********************************************** पाठक वृन्द! अब जरा उक्त दो या तीन अर्थों से भिन्न अन्य अर्थ इन्हीं के मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों की ओर के देखिये - १. कल्प सूत्र (खेमविजयजी गणिवाला) पृ० ६० पं० ६ में “वेयावत्तस्स चेइयस्स' लिखा है और इसका अर्थ "व्यंतर, मन्दिर" किया है। २. भगवती सूत्र के टीकाकार श्री अभयदेव सूरि निम्न अर्थ करते हैं। “चेइए" ति चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्मवेति चैत्यंसंज्ञाशब्दत्वादेवबिम्बम्तदाश्रयत्वात्तद्गृहमपि चैत्यम्तच्चेइव्यंतरायतनम्, नतुभगवतामर्हतायतनम्" (यहाँ व्यंतरायतन अर्थ कर अर्हत् प्रतिमा का निषेध किया है।) ३. ठाणांग सूत्र ठा० ३ उ० १ की टीका में। चैत्यमिव जिनादि प्रतिमेव चैत्यं “श्रमणं" (इस स्थान पर चैत्य शब्द का अर्थ साधु किया है।) ४. रायपसेणइय सुत्त में - “चैत्यं सु प्रशस्त मनो हेतुत्वात" (इस स्थान पर स्वयं प्रभु को ही सुप्रशस्त मन के हेतु चैत्य शब्द से कहा है) ५. अनेकार्थ कोष में श्री हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं - "चित्यं मृतक चैत्येस्यात्(मृतक चैत्य) । ६. श्री हरिभद्र सूरिजी "ललितविस्तरा'' में निम्न अर्थ करते हैं। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २४७ "चित्तम्-अन्त-करणम् तस्स भावः कर्म वा चैत्यं भवति।" (यहाँ चित्त के भाव कर्म (ज्ञान) को चैत्य कहा) ७. स्थानांग की टीका में - "चित्तम् आह्लादयति तत् चैत्यं" (जिससे चित्त को प्रसन्नता हो वो चैत्य) ८. उववाई सूत्र में पूर्णभद्र यक्ष के अधिकार में यक्ष की योग्यता बताते हुए निम्न अर्थ किया है। "चैत्यं इष्ट देवता प्रतिमा" (इस स्थल पर अर्हत प्रतिमा के सिवाय यक्ष प्रतिमा को इष्ट देवता प्रतिमा चैत्य शब्द से कहा है) ६. बृहद्कल्प भाष्य के छठे उद्देशे में - ‘आहा आधाय कम्मे' गाथा की व्याख्या में श्री क्षेमकीर्ति सूरि ने "चैत्योद्देशिकस्यसाधून उद्देश्यकृतस्यादि'' लिखकर साधु अर्थ किया है। १०. अनुत्तरोपपातिकदशा और विपाक-सूत्र का हिन्दी अनुवाद करने वाले वीर पुत्र श्री आनंदसागर जी ने अनेक स्थानों पर चैत्य शब्द का अर्थ "उपवन' किया है जिसे बगीचा भी कहते हैं। ११. काललोक प्रकाश भा० ३ में - तीर्थंकर को जिस वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ उस वृक्ष को सूत्र में चैत्य वृक्ष कहा है, उस चैत्य वृक्ष को "ज्ञानोत्पत्ति वृक्षाः' लिखकर चैत्य अर्थ "ज्ञान" मान्य किया है। १२. शत्रुजय माहात्म्य भाषान्तर (जैन धर्म प्रसारक सभा) पृ० ४६ में - "उद्यान नी अंदर एक अंबादेवी नुं चैत्य हतुं।" (इसमें अम्बिका मन्दिर को भी चैत्य कहा है।) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ चैत्य शब्द के अर्थ **************次*******************多次求求求 १३. मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर पृ० २८२ में प्रश्न व्याकरण सूत्र के प्रथम आस्रवद्वार के चैत्य शब्द पर लेखक व्याख्या करते हैं “कोना चैत्य तो के कसाई, बाघरी, माछला पकड़नार महाकुर कर्मोना करनार इत्यादिक घणा म्लेच्छ जाति ते सर्वे यवन लोक देवल, प्रतिमा ने वास्ते जीवो ने हणे ते आस्रव द्वार छ।" । .........ते ठेकाणे आश्रव द्वारमां तो म्लेच्छो ना चैत्य “मसिदो" ने गणवेल छ। (१४) मूर्ति पूजक समाज के प्रतिभाशाली विद्वान पं० बेचरदासजी दोसी ने “जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानी" नामक पुस्तक के "चैत्यवाद' शीर्षक स्तंभ से इस शब्द का अर्थ मुख्यतः “स्मारक चिह्न' कर के मूर्ति और मन्दिर अर्थ को प्राचीन नहीं मानकर नूतन ही माना है। इस प्रकार मूर्ति पूजक समाज के विद्वान् भी चैत्य शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ करते हैं। इन्हीं लोगों के किए हुए भिन्न अर्थों से ही पाठक समझ सकते हैं कि - जो महानुभाव मूर्ति पूजा के धर्म विरोधी पक्ष को जनता के गले मढ़ने और साधुमार्गी समाज की निंदा करने के लिए, हठ पूर्वक दो या तीन ही अर्थ मानकर बाकी के लिए इन्कार की आड़ ठोक देते हैं, वे कितने पक्षपाती होंगे? अब जरा उभय मान्य आगमों के भिन्न-भिन्न अर्थ भी देखिये - १. आचारांग सूत्र में - "रुक्खं वा चेइय कडं थूभं वा चेइय कर्ड' (व्यंतर युक्त वृक्ष या स्तूप) २. भगवती, उववाई, उपासक दशांगादि सूत्रों में - Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ assena.२४६ . जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २४६ *************本来学************************* "गुणसीलए चेइये, पुण्णभद्दे चेइये" आदि। (व्यंतरायतन) ३. भगवती, उत्तराध्ययन, रायपसेणी आदि में "पुप्फवतीए चेइये, मंडी कुच्छंसी चेइये" अंबसालवणे नामं चेइये" आदि (उपवन-बाग) ४. उत्तराध्ययन में - "चेइयेवच्छे" चेइयम्मि मणोरमे। (वृक्ष विशेष) ५. प्रश्न व्याकरण में - "मडय चेइयेसुवा" (दाहस्थान पर बनाया हुआ स्मारक) ६. ज्ञाता धर्म कथांग में - "सिग्धं, चण्डं, चवलं, तुरियं, चेइयं" (गति विशेष) ७. आचारांग में - "आगारिहिं अणागाराइं चेइयाइं भवंति" . (बनवाना चुनवाना) ८. ठाणांग, भगवती, उपासक दशांग, उववाई आदि में - 'चेइयाणि" (साधु) ६. समवायांग-प्रश्नव्याकरण में - "चेइय" (ज्ञान) १०. जीवाभिगम, राजप्रश्नीय आदि में"चेइय थूभाणं, चेइय खंभे" (स्मारक चिह्न, स्मारक स्तंभ) .. Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० चैत्य शब्द के अर्थ ******************************************** इस प्रकार आगमों में भी यह चैत्य शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अब जरा अन्य मतावलम्बी विद्वानों के किए हुए अर्थ भी देखिये - १. शब्द सोम महानिधि कोष में "ग्रामादिप्रसिद्ध महावृक्षे, देवावासे जनानाम् सभास्थतरौ बुद्ध भेदे आयतने, चिताचिन्हे, जनसभायां, यज्ञस्थाने, जनानाम् विश्रामस्थाने, देवस्थाने च" २. हिंदी शब्दार्थ पारिजात में "देवायतन, मसजिद, गिर्जा, चिता, गांव का पूज्य वृक्ष मकान, यज्ञशाला, बिली वृक्ष, बौद्धसन्यासी, बौद्धों का मठ।" ३. भगवत पुराण स्कन्ध ३ अ० २७ में - अहंकारस्ततोरुद्रश्चित्तं "चैत्य" स्ततोऽभवत्। (आत्मा अर्थ में) ४. बनारस की नागरी प्रचारिणी पत्रिका में - "देव पूजा का पितृ पूजा से बड़ा सम्बन्ध है। देव पूजा पितृ पूजा से ही चली है। मन्दिर के लिए सबसे पुराना नाम चैत्य है, जिसका अर्थ चिता (दाह स्थान) पर बना हुआ “स्मारक' है।" । ५. संसार प्रसिद्ध अंग्रेजी विश्वकोष “इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजियन एण्ड एथिक्स' जिल्द ३ पृ० ३३५ में। इस चैत्य शब्द का लम्बा चौड़ा अर्थ किया गया है। जिसका संक्षिप्त मतलब चिता सम्बन्धी स्मारक चिह्न से ही है। इस प्रकार अनेक अन्य दर्शनी ग्रन्थों में भी चैत्य शब्द मिलता है, पर कोई भी ग्रन्थकार हमारे मूर्ति पूजक महात्माओं की तरह मनमाने अर्थ नहीं करते। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २५१ **** ********李*******学李本学学学******* यदि वर्तमान कोषकारों या ग्रन्थकारों में से किसी ने भी चैत्य शब्द का अर्थ जैन मन्दिर भी किया हो तो उसका मुख्य कारण यह है कि हमारे मूर्ति-पूजक बन्धुओं ने एक लम्बे समय से इस शब्द को मन्दिर-मूर्ति के लिए रूढ़ बना लिया और ग्रन्थों में भी इस प्रकार का प्रयोग किया तथा श्री हेमचन्द्राचार्य ने भी अपने कोष में इस शब्द का अर्थ जिन मन्दिर, जिन मूर्ति किया, इसीसे वर्तमान रूढ़ि को देखकर कोई कोषकार या ग्रन्थकार इस शब्द का जिनमन्दिर या जिन मूर्ति अर्थ करे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु इससे यह नहीं माना जा सकता कि आगमों में चैत्य शब्द से अर्हन् मन्दिर या अर्हत् प्रतिमा का उल्लेख किया गया हो। मित्र ज्ञानसुन्दर जी! अब आप ही कहिये कि - श्री हेमचन्द्राचार्य और विजयानंद सूरि आदि ने चैत्य शब्द के केवल दो तीन ही अर्थ करके क्या शब्द शास्त्र और आगमों की विराधना नहीं की? आश्चर्य तो इस बात का है कि आप ही के महामान्य टीकाकार और ग्रन्थकार जब चैत्य शब्द के कई अर्थ करते हैं, तब आपके श्री विजयानंदजी अन्य अर्थों के लिए केवल शून्य ही ठोंक दें, यह कितनी उत्सूत्र प्ररूपणा है? वास्तव में चैत्य शब्द का अर्थ जिन मंदिर और जिन मूर्ति ही करके मूर्ति पूजकों ने जड़ पूजा द्वारा मानव समाज का पतन और शिथिलाचार का पोषण ही किया है, मित्रवर! जरा अपनी ही समाज के प्रतिभाशाली विद्वान् पं० बेचरदासजी के इस विषयक निम्न उद्गार तो पढ़ लीजिये। "ते विषे मारे एटलुंज कहेवानुं के प्रचलित देवालय के मूर्ति ए कांई चैत्य शब्द नो प्रधान अर्थ के मूल अर्थ नथी, एटलुंज नहीं पण ए बन्ने अर्थों तद्दन पछीना अने रुढ़िना करेला छ।' (जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानी पृ० १२२) ___ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चैत्य शब्द के अर्थ कहिये मित्र ? आप ही की ओर से उक्त प्रमाण से आप लोगों के किये हुए उक्त मन्दिर, मूर्ति अर्थ असत्य - मनः : कल्पित सिद्ध हुए या नहीं। मित्रवर ? चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है, आगमकारों और ग्रन्थकारों ने इस शब्द के प्रकरणानुकूल भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं, जो हम ऊपर दिखा चुके हैं, फिर आपका भी निम्न हठ पूर्ण वाक्य किस गिनती में ठहरता है कि - है।" " चैत्य का अर्थ मन्दिर, मूर्ति स्तूप और पादुका ही होता ( पृ० १०१ ) इस हठ युक्त असत्य लेख के कारण हम आपको पूर्वोक्त प्रमाणों से यदि हठी कहें तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे? तब जबकि हमारी ओर से प्रकरणनुकूल अर्थ किये जाते हैं, सुन्दर मित्र हमें भी दो ही अर्थ (ज्ञान और साधु) मानने वाले कहकर हमारी निंदा करते हैं, किन्तु यह इनकी केवल द्वेष परायणता ही है, क्योंकि हमारी ओर से यह आग्रह कभी नहीं रहा कि चैत्य शब्द के केवल दो ही अर्थ होते हैं। हम तो यही कहते हैं कि इस शब्द के प्रकरणानुकूल कई अर्थ होते हैं। जब हम इस शब्द के अनेक अर्थ मानते हैं तब आप हमारे सामने अन्य अर्थ रखें तो उससे लाभ ही " क्या है? यह तो व्यर्थ व्यापार रहा और साथ ही द्वेषपरायणता का परिचय | इसके बाद आपने आगे चल कर दो चार प्रमाण मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों और लोंकागच्छीय यतियों के दिये हैं, किन्तु यह परिश्रम भी आपका व्यर्थ है, क्योंकि यह तो हम भी मानते हैं कि इस शब्द का मन्दिर मूर्ति अर्थ मूर्ति पूजा के अनुयायियों और समर्थकों ने किया Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ०५३ ******年*************************辛宋***** है, हम ही क्या आप ही का समाज के विद्वान् ऐसा कहते हैं, देखिये- "जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि।" ___अन्त में आपने प्रो० हॉर्नल साहब के नाम से एक प्रमाण पेश किया है किन्तु यहाँ तो आपने डंके की चोट से अपनी अज्ञता जाहिर कर दी, क्योंकि आपके इस प्रमाण में तो यही बताया है कि - “इस नामवाली जगह में बगीचा या उद्यान का समावेश होता है। उसी के अन्दर एक मन्दिर होता है और साथ में कई एक कोठरियां होती हैं जिनमें साधुओं का निवास होता है इसके उपरान्त कहीं-कहीं स्तूप या समाधिस्तंभ भी होता है, उस समग्र स्थान को चैत्य के नाम से ठीक ही विभूषित किया जाता है।" __यह प्रमाण तो औपपातिक सूत्र के पूर्ण भद्र चैत्य के वर्णन से मिलता जुलता है, इसमें हमारी और से कब बाधा उपस्थित हुई? फिर इस प्रमाण के देने से लाभ ही क्या हुआ? मित्रवर! व्यर्थ उद्योग तो एक मूर्ख भी नहीं करता फिर आपने इस प्रमाण को पेश करके क्यों व्यर्थ कष्ट उठाया? क्या इस प्रमाण से आपका अभीष्ट सिद्ध हो गया? इसमें तो जिन मन्दिर या जिन मूर्ति का नाम निशान भी नहीं है, यह तो व्यंतरायतन अर्थ को ही पुष्ट करता है, फिर खाली प्रमाण संख्या बढ़ा कर “हमने इतने प्रमाण दिये' इस तरह भोले भक्तों को क्या भरमाते हो? सुन्दर मित्र ने चैत्य शब्द का अर्थ ज्ञान और साधु होने का खंडन करके कुछ अनुपयोगी तर्क भी कर डाले हैं, इसलिए इस विषय में प्राप्त प्रमाण देकर फिर इनके तर्कों पर विचार करेंगे। अरिहंत चैत्य (या चैत्य) शब्द का अरिहंत सम्बन्धी स्मारक विशेष अर्थ हमारे मूर्ति पूजक भाई भी मानते हैं, किन्तु कितने ही Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ चैत्य शब्द के अर्थ लोग केवल अर्हत् प्रतिमा ही अर्थ करते हैं, ऐसे महानुभावों से कहना है कि बन्धु? अरिहंत का स्मारक उनकी जड़ प्रतिमा को मानने के बनिस्बत उन्हीं के वंशज, उन्ही के अनुयायी, उन्हीं प्रभु के आज्ञाराधक जीते जागते उनके शासन को देदीप्यमान करने वाले श्रमण भगवन्तों को क्यों नहीं मानते?ये तो अर्हत्पद प्राप्ति रूप प्रशस्त भार को वहन करने वाले-आर्हत से अर्हत होने के पुरुषार्थी, अन्यको भी अर्हत् बनाने में मुख्य सहायक एवं धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं। इन्हें अर्हत् चैत्य नहीं मानकर जड़ मूर्ति का ही आग्रह करना कहां तक उचित है? आपके संतोष के लिये निम्न मूर्ति पूजक मान्य प्रमाण दिये जाते हैं। १. चैत्यं "श्रमणं' (श्री अभयदेवसूरि, ठाणांग टीका) २. “चैत्योद्देशिकस्य-साधून उद्देश्यकृतस्यादि' (क्षेम कीर्ति सूरि-वृहदकल्प भाष्य उ० ६ के "आहाआधाय कम्मे' गाथा की व्याख्या में) ३. बुद्धं जं बोहतो, अप्पाणं बेइयाइं अण्णं च। पंच महव्वय सुद्धं णाणमयजाण चेदिहरं||८|| चेइयं बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्य। चेइहरो जिण मग्गे, छक्काय हियं भणियं॥६॥ (दिगम्बर सम्प्रदाय के श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित षट्पाहुड) ४. अजैन कोष “शब्दार्थ पारिजात" के "बौद्ध संन्यासी' अर्थ पर ध्यान दीजिये। जिस तरह बौद्ध साहित्य में चैत्य बौद्ध भिक्षु हैं, उसी तरह जैन साहित्य में जैन साधु चैत्य हो सकते हैं, जिसके लिए उक्त प्रमाण स्पष्ट है। इस प्रकार चैत्य शब्द का अर्थ प्रकरणानुकूल साधु भी हो ___ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २५५ ********************************************** सकता है और ज्ञान भी। यद्यपि साधु अर्थ सिद्ध होने मात्र से ज्ञान अर्थ भी सिद्ध हो जाता है, तथापि उक्त प्रमाणों में से तीसरा प्रमाण तो स्पष्ट ज्ञान अर्थ को ही बता रहा है। फिर भी एक प्रमाण ज्ञान अर्थ के लिये और भी लीजिये। चौबीस तीर्थंकरों को जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ उस वृक्ष को समवायांग सूत्र में “चैत्यवृक्ष'' कहा है और इन्हीं चैत्य वृक्षों को “लोक प्रकाश' नामक ग्रन्थ के कर्ता मू० पू० श्री विनयविजयजी ने “काल-लोक प्रकाश'' में - "ज्ञानोत्पत्तिवृक्षाः" लिखा है। इसके सियाय श्री हरिभद्र सूरि ने “चित्तं अन्तःकरणं तस्य भावःकर्मवा चैत्यं भवति'' कहकर उक्त अर्थ को पुष्ट किया है, अतएव जरा सत्य को हृदय में स्थान देकर विचार कीजिये। ___आगे चलकर आप यह पूछते हैं कि - "ज्ञान को ज्ञान और साधु को साधु ही कहा जाता है चैत्य नहीं।" इसके समाधान में आपको समझाया जाता है कि - भगवन्! आप भी मंदिर को मन्दिर जिनालय, देहरा या देरासर और मूर्ति को मूर्ति, प्रतिमा, बिंब आदि कहते हैं, सो यही कहिये, चैत्य क्यों कहते हैं? यदि आप इस प्रकार अपना हठ छोड़ दें तो फिर यह झंझट ही नहीं रहे और उत्सूत्र भाषण से भी वंचित रह सकें। महात्मन्! सूत्रों में जिस प्रकार साधुओं के साधु श्रमण, भिक्षु, मुनि, संयति, अणगार आदि नाम हैं वैसे चैत्य भी एक नाम है, जो कि उक्त प्रमाणों से सिद्ध हैं, ऐसे ही ज्ञान के विषय में समझें। किसी शब्द का एक ही पर्याय में अधिक बार प्रयोग यह प्रचलित अर्थ की अधिका व्यापकता से सम्बन्ध रखता है और इसी से अनेक अर्थ होते हुए भी किसी एक अर्थ में अधिक और दूसरे में स्वल्प उपयोग होता है, किन्तु स्वल्प उपयोग होने मात्र से यह नहीं समझना चाहिए कि यह अर्थ हो Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प *****************李李李李李******************* ही नहीं सकता है। जैसे कि - तीर्थंकर प्रभु इसी नाम से अधिक विख्यात हैं, पर "बुद्ध" नाम से नहीं फिर भी समवायांग ३४ में भगवान् के ३४ अतिशयों के वर्णन में “बुद्धातिशय' कहा है, तो क्या इस शब्द पर से ही इन ३४ अतिशयों को तीर्थंकर अतिशय नहीं मानकर 'बुद्धदेव' के अतिशय मानेंगे? नहीं, सर्वथा नहीं। बस इसी तरह समझो कि चैत्य शब्द का ज्ञान तथा साधु शब्द से स्वल्प उपयोग होने पर भी ये अर्थ भी होते हैं। ___ मित्रवर! आश्चर्य तो इस बात का है कि जिस मूर्ति पूजा को आप धर्म का मुख्य अंग और अवश्य करणीय मानते हैं, उसके लिए सर्व मान्य विधि नहीं बताकर न आगमोक्त आज्ञा प्रमाण में रखकर खाली शब्दों की खींचतान करें यह कहाँ तक ठीक है? समझदारों के समक्ष आपको लज्जित होना पड़ेगा, आपकी समाज के विद्वान् पं० बेचरदासजी ही कहते हैं कि - आचार विधि का निर्देश शब्दों याकथाओं की ओट से नहीं होता बल्कि स्पष्ट विधि रूप से होता है, जिसके लिए आज्ञा नहीं, वह विधि ही क्या? अतएव समझिये और अपने मिथ्या हठ को छोड़ दीजिये। (३६) बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प मिस्टर ज्ञानसुन्दर जी गपौड़े मारने में तो बड़े होशियार हैं, समझते होंगे कि संसार में सभी मूर्ख और अन्धे ही होंगे। आप अपने पोथे के चौथे प्रकरण के पृ० ११० में निम्न प्रतिज्ञा करते हैं कि - __ “अब हम स्थानकमार्गी समाज के माने हुए ३२ सूत्रों के अन्दर मूर्ति पूजा विषयक सूत्रों में पाठ है उसका संक्षिप्त में दिग्दर्शन करवा देते हैं।" Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा २५७ उक्त प्रतिज्ञा में सुन्दर बन्धु बत्तीस सूत्रों के पाठ से मूर्ति पूजा सिद्ध करने का इकरार करते हैं, किन्तु पाठक जब इस प्रतिज्ञा के बाद के जितने भी प्रमाण देखेंगे, वे सब उल्टे ही नजर आयेंगे । प्रतिज्ञा में आप सूत्रों के पाठ दिखाने का लिखते हैं और प्रारम्भ ही में नियुक्ति का प्रमाण देकर अपनी प्रतिज्ञा की समाप्ति भी कर देते हैं, यह सुन्दर चालाकी का ज्वलंत प्रमाण है । अब इनके सभी संक्षिप्त प्रमाणों की छानबीन भी थोड़े ही में देखिये ** १. आचारांग सूत्र से मूर्ति पूजा सिद्ध करने के लिए आपने नियुक्ति का प्रमाण दिया है, किन्तु यह भी मिथ्या है, प्रथम तो यह कथन मूल पाठ के किसी भी शब्द से सम्बन्ध नहीं रखता। जबकि यह नियुक्ति आचारांग सूत्र की कही जाती है, तब इस में जो भी कथन हो वह आचारांग के आशय से युक्त ही होना चाहिये ? जब आचारांग में मूर्ति या तीर्थं आदि का नाम भी नहीं, तब नियुक्ति में यह सब कहाँ से आ गया? कहना नहीं होगा कि यह सब करामातें मूर्तिमति महानुभावों की ही है, किसी मन चले महानुभाव ने चतुर्दश पूर्वधर श्री भद्रबाहु स्वामी के नाम से जनता में फैलाने के लिए यह कार्यवाही की ही तो कोई आश्चर्य नहीं है और सूत्र पाठ जो कि स्थानकवासी समाजका मान्य है, उसका प्रमाण देने की प्रतिज्ञा करने वाले सुन्दर साहब किस मुंह से हमें नियुक्ति दिखाते हैं? हाँ यदि सूत्र में संक्षिप्त रूप से भी इस विषय का उल्लेख होता और उसका विस्तार नियुक्ति में किया गया होता, तब तो फिर भी विचार का अवकाश था, किन्तु सूत्र में नाममात्र भी नहीं - संकेतमात्र भी नहीं, तब उसी सूत्र की कही जाने वाली नियुक्ति में ऐसा उल्लेख कहां से आ गया ? अतएव सुन्दर बन्धु का यह प्रयास सर्वथा व्यर्थ है । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प ******************农学术字学***学************ २. यही दशा सूत्र कृतांग की टीका की है, यह भी बिना सूत्र । की वृत्ति है, अतएव यहाँ भी सुन्दर बन्धु प्रतिज्ञा भंजक ही ठहरे। ३-४. ठाणांग, समवायांग में मूर्ति पूजा करने की कहीं भी आज्ञा नहीं। अतएव यह प्रयास भी व्यर्थ है, यदि ठाणांग में शाश्वती प्रतिमाओं के उल्लेख का कहा जाय तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि वे मूर्तियें तीर्थंकरों की होना संभव नहीं। (विशेष के लिये देखो सूर्याभ प्रकरण) । ५-६-७. भगवती, ज्ञाता, उपासकदशांग के विषय में पहले पृथक्-पृथक् प्रकरण द्वारा विवेचन कर आये हैं, देखो तुंगिका के श्रावको, द्रौपदी और आनंद प्रकरण। ८-६. अंतकृद्दशांग और अनुत्तरोपपातिक दशांग सूत्र में सुन्दर मित्र ने "बहुला अरिहंत चेइया" पाठ होना बताया यह बिलकुल .. ठंडे प्रहर की गप्प ही है। १०. प्रश्न व्याकरण के “चेइय?" शब्द पर से आप अर्थ करते हैं कि "किसी भी चैत्य मन्दिर की आशातना होती हो तो जैसे बने वैसे उसको दूर करे या करावे।" किन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है, प्रश्न व्याकरण सूत्र में यह शब्द निम्न पाठ के साथ आया है। ___ "अहे केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं? जे से उवहिभत्तपाणसंगहणंदाणकुसले-अच्चंत, बाल, दुव्वल, गिलाण, वुड्डमास खमणपवत्ति, आयरिय, उवज्झाए, सेह, साहम्मिय, तवस्सी, कुल, गण, संप, पेइयटे निज्जरट्टी वेयावच्चं अणिस्सियंदसविय बहुविहंकरेति।" (प्र० श्रु० २ अ० ३) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा २५६ ********************* ************** यहाँ यह प्रश्न किया गया है कि कैसे साधु इस व्रत को आराधन कर सकते हैं? इसके उत्तर में यह बताया गया है कि जो वस्त्रादि और भोजन पानी लेने देने में कुशल हो वे अत्यन्त बाल, दुर्बल, रोगी, वृद्ध ऐसे मासखमण करने वाले आचार्य, उपाध्याय, नवदीक्षित, साधर्मिक, तपस्वी, कुलगण, संघ, इन दश प्रकार या बहु प्रकार के व्यक्तियों की वैयावच्च अर्थात् सेवा (सहायता) ज्ञान के लिए निर्जरा का अर्थी साधु करता है। इसमें स्पष्ट बताया गया है कि बाल यावत् संघ की वैयावृत्य (सेवा) उपधि ( वस्त्र पात्रादि) और आहारादि द्वारा करे, अब यदि सुन्दर मित्र "चेइयट्ठे " का अर्थ मन्दिर मूर्ति करें तो यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि - क्या मूर्ति मन्दिर की सेवा आहार, पानी, औषधि आदि से करे ? क्योंकि सूत्र में तो सभी की सेवा आहारादि से करने का बताया है और मूर्ति को तो आहार, पानी, वस्त्र, पात्र आदि की आवश्यकता नहीं होती, वह तो जड़ है, फिर उसका यहाँ किस प्रकार ग्रहण हो सकता है ? वास्तव में इस सूत्र का उद्देश्य व्रतधारी मनुष्य समाज साधुविशेष की सेवा से ही है और इसी से इसमें योग्यतानुसार पृथक-पृथक नाम गिनाये हैं तथा आहार, पानी, वस्त्र, पात्रादि की आवश्यकता भी श्रमणवर्यों को ही होती है अतएव स्पष्ट हो गया कि यह सूत्र किसी भी हालत में मूर्ति या मन्दिर की आशातना को दूर करवाने की हास्यास्पद बात को नहीं बताता । जबकि वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि वैयावच्च का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि - " अन्नादिकानां विधिना सम्पादनम् अर्थात् विधि पूर्वक आहार पानी पहुँचाना, फिर यह आहार पानी मन्दिर मूर्ति को किस तरह पहुँचाना या आहार पानी से किस प्रकार आशातना मिटाना ? अतएव सुन्दर अर्थ असंगत तथा मतमोह युक्त होने से उपेक्षणीय है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प ***** ** *********** *** ****** **** इसके सिवाय तृतीय अङ्क श्री स्थानांग सूत्र के दशवें स्थान और भगवती सूत्र में दश प्रकार की वैयावृत्य निम्न प्रकार से बताई है, यथा - “दसविहे वेयावच्चे प० तं० आयरिय वेयावच्चे, उवज्झायवेयावच्चे, थेरे वेयावच्चे, तवस्सिवेयावच्चे, गिलाणवेयावच्चे, सेहवेयावच्चे, कुलवेयावच्चे, गणवेयावच्चे, संघवेयावच्चे, साहम्मिवेयावच्चे।" ___ तथा श्री उमास्वति रचित तत्वार्थ सूत्र अ० ६ सूत्र २४ में भी वैयावृत्य का कथन इस प्रकार किया गया है - "आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष ग्लानगणकुल-संघसाधुमनोज्ञानाम् ॥" यह दश विशेषण साधुओं के ही हैं। . इस दश बोलों में-मन्दिर वैयावच्चे या मूर्ति वैयावच्चे का तो नाम ही नहीं है। इनमें भी वही नाम बताये गये हैं, इससे भी यही परिणाम निकलता है कि सूत्रकार को मन्दिर मूर्ति की वैयावृत्य इष्ट नहीं अन्यथा स्पष्टाक्षरों में यह विधान भी अवश्य होता। आश्चर्य तो इस बात का हैं कि मूर्तियों के मिथ्या मोह में पड़ कर सुन्दर मित्र ऐसे थोथे बचाव को आगे रखते हुए शब्दों और भावों की खींचतान करते हैं। क्या इसी बल पर सूत्र पाठ के प्रमाण दिखाने की प्रतिज्ञा की है? कहना नहीं होगा कि सुन्दर मित्र एकदम प्रतिज्ञा भंजक ठहर चुके हैं। ११. विपाक सूत्र श्रुतस्कन्ध २ के दशों अध्ययनों के श्रावकों और श्राविकाओं ने मूर्ति पूजा की, सुन्दरजी का ऐसा कथन एकान्त मिथ्या है। शायद सुन्दर मित्र सत्य लिखने की शपथ करके कलम चलाने बैठे हों? इस प्रकार मिथ्या प्रपंच करते हुए भी साधु कहलाना यह महदाश्चर्य है। ___ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६१ 学学会学术字************************************ १२. उववाई १३. रायपसेणइय और १४. जीवाभिगम इन तीनों सूत्रों के विषय में अंबड़ श्रावक और सूर्याभ प्रकरण में विस्तृत विचार किया गया है। १५. पन्नवणा सूत्र के भाषा पद में जो ‘ठवणा सच्चा' लिखा है उसका मतलब मूर्ति पूजा से नहीं, किन्तु स्थापना को स्थापना मानने से है और स्थापना कई प्रकार की और किसी भी वस्तु की हो सकती है, इसमें मूर्ति पूजा करने का नाम निशान भी नहीं है, यह प्रमाण तो उसे दिखाना चाहिए जो स्थापना (मूर्ति) को ही (मूर्ति भी) नहीं मानते हों। अथवा सुन्दरमित्र को ही इससे बोध लेना चाहिए कि जब तक हम स्थापना को स्थापना की सीमा में रहकर नहीं मानेंगे तब तक स्थापना सत्य के मानने वाले नहीं होकर सीमोल्लंघन करने से इस सूत्र के उत्थापक होंगे। दूसरा जब स्थापना सत्य का भाव सत्य के समान ही आदर करेंगे तो दोनों में भेद ही क्या रहा? अतएव इन्हें स्थापना को केवल स्थापना तक ही मानना चाहिए, पूजादि से भाव तक नहीं ले जाना चाहिये। यह तो उल्टा सत्य के बजाय असत्य करना है। अतएव यह प्रमाण भी आपको विफल मनोरथ सिद्ध करता है। अधिक के लिए "स्थापना सत्य में समझ फेर” नामक प्रकरण देखो। १६. जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति १७. चन्द्र प्रज्ञप्ति १८. और सूर्यप्रज्ञप्ति का नाम लेना भी ठाणांग सूत्र की तरह निरुपयोगी है। १९. निरियावलिका सूत्र में काली आदि रानियों का मूर्ति पूजा करना आदि बतलाना भी दिन दहाड़े आँखों में धूल डालने के समान है। इसी तरह २०. कप्पवडंसिया २१. पुप्फिया २२. पुप्फचूलिया और २३. वन्हिदशा का नाम लेकर उनमें मूर्ति पूजा बतलाना एकान्त Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ बत्तीस सूत्रों के नाम से गप्प **********年*************************老****** गपोड़ शास्त्रियों का काम है, मालूम होता है सुन्दर मित्र बड़े साहसी हैं तभी दिल खोल कर गप्पें उड़ा रहे हैं। २४. दशवैकालिक सूत्र की चूलिका और २५. उत्तराध्ययन की टीका का प्रमाण भी कल्पित कहानी के समान अमान्य है जो कि सुन्दर जी के पक्ष को स्पष्ट निर्बल बता रहे हैं। २६. अनुयोगद्वार सूत्र के निक्षेपाधिकार का नाम लेकर सुंदर मित्र लिखते हैं कि “स्थापना निक्षेप में तीर्थंकरों की व आचार्य की स्थापना करने का विस्तृत उल्लेख है।" सुन्दर जी का यह लिखना भी भोले भोंदुओं को चमका देने के समान धोखेबाजी से भरपूर है। यही बात (२७) नंदी सूत्र के नाम की है। २८. व्यवहार सूत्र के प्रमाण विषयक स्वतंत्र प्रकरण देखो। २६. बृहद्कल्प ३०. निशीथ के भाष्य चूर्णि का प्रमाण देना भी गुड़ मांगने वाले को गोबर दिखाने वाले मूर्खराज के सदृश्य है। ३१. दशा श्रुतस्कन्ध में राजगृही के वर्णन में बहुत से मन्दिरों का अस्तित्व बतलाना भी सर्वथा मिथ्या है। ३२. आवश्यक सूत्र में “अरिहंत चेइयाणि" आदि पाठ के होने का लिखना हमारे सामने बिलकुल व्यर्थ है, क्योंकि यह पाठ मूर्तिमति महानुभावों के ही आवश्यक में है, इन लोगों का आवश्यक' भी अजीब ढंग का है, जिसको यहाँ लिखकर विषयांतर करना नहीं चाहते, किन्तु इतना अवश्य कहेंगे कि श्री मदनुयोगद्वार सूत्र में जो आवश्यक का स्वरूप बताया हैं उसमें “अरिहंत चेइयाणि" आदि कल्पित पाठ का लेश भी नहीं है और न चैत्य वंदन का ही नाम है, यह सब करामात इस मन्दिर मूर्ति के कारण ही हुई है। सुन्दर मित्र को हमारे सामने ऐसे फूटी कौड़ी से भी गये बीते प्रमाण हमारे मान्य सूत्र पाठों के नाम से रखते हुए लज्जित होना चाहिये। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६३ ****************************************** सुन्दर मित्र प्रतिज्ञा तो करते हैं “स्थानकवासी समाज के मान्य ३२ सूत्रों के पाठ से मूर्ति पूजा सिद्ध करने की, और प्रमाण दे रहे हैं, अपने ही आकाओं के कल्पना कहानियों से ओत प्रोत ऐसे सूत्र विरुद्ध साहित्य के, या अनर्थ कर अथवा गपोड़े मारकर अपना उल्लु सीधा करना चाहते हैं। किन्तु इन्हें मिथ्या प्रयत्न में समाज के द्रव्य को नाशकर मिथ्यात्व और फूट फैलाते हुए जरा परभव से भी डरना चाहिये। __ बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस वस्तु का एकदम अभाव है, उसका सद्भाव प्रमाणित करने का मिथ्या प्रपञ्च करने में लोग भी सहायक हो जाते हैं, और अपने द्रव्य तथा सामाजिक शान्ति का नाशकर असत् को सत् ठहराने की चेष्टा करते हैं, यहाँ हम सुन्दर मित्र को अधिक कुछ नहीं कहते (क्योंकि जिन्हें अभाव में भी सद्भाव दीखता हो उन्हें क्या कहना?) विचारक पाठकों से निवेदन करते हैं कि वे सुन्दर मित्र के बताये हुए आगमों और प्रमाणों के प्रामाणिकता की जाँच करें जिससे सत्य वस्तु को समझने में सरलता हो। यदि कोई भाई इतना भी नहीं कर सके तो मूर्ति पूजक समाज के प्रतिभाशाली विद्वान् पं० बेचरदासजी के इस विषय में निम्न हृदयोद्गार ही पढ़कर निर्णय करलें। “हुं हिम्मत पूर्वक कही शकुं छउं के में साधुओं तेम श्रावकों माटे देव दर्शन के देव पूजन नुं विधान कोई अंग सूत्रों मां जोयुं नथीवाच्यु नथी, एटलुंज नहिं पण भगवती विगेरे सूत्रों मां केटलाक श्रावकोंनी कथाओं आवे छे तेमा तेओनी चर्यानी पण नोंध छे परन्तु तेमां एक पण शब्द एवो जणातो न थी के जे उपर थी आपणे आपणी उभी करेली देव पूजननी अने तदाश्रित देव द्रव्यनी मान्यता ने टकावी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है? 冷空空***********************************多多多多 शकीए। हुं आपणी समाजना धुरंधरो ने नम्रता पूर्वक विनती करुं छु के तेओ मने ते विषेनुं एक पण प्रमाण वा प्राचीन विधान-विधि वाक्य बतावशे तो हुं तेओनो घणोज ऋणी थइश।" (जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानी पृ० १२७) पाठक समझ गये होंगे कि एक मूर्ति पूजक विद्वान् के उक्त वाक्य अक्षरशः सत्य होकर सुन्दर मित्र के प्रयत्न को मिथ्या सिद्ध करने में पूर्ण पर्याप्त हैं। स्पष्ट सिद्ध हुआ कि बत्तीस सूत्रों के पाठ से मूर्ति पूजा का विधान बताने की प्रतिज्ञा करने वाले पूर्ण रूप से प्रतिज्ञा भंजक एवं मिथ्या पक्ष के पोषक प्रमाणित हुए। (३७) क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है? सुन्दर मित्र दूसरे प्रकरण पृ० २३ में कल्पना तरङ्ग में बहते हुए लिखते हैं जिसका भाव यह है कि टीका मानने में पहले मतभेद था ही नहीं, न किसी ने टीका आदि के विरुद्ध एक शब्द भी उच्चारण किया, तथा टीका भी मूल आगम की तरह मान्य है, आदि इस विषय में सर्व प्रथम यही कहना है कि सुन्दर मित्र ने उक्त बातें केवल साधुमार्गियों से विरोध बताने के लिये ही लिखी हैं, अन्यथा इतिहास प्रेमी और इतिहासवेत्ता कहे जाने वाले सुन्दर बन्धु को क्या यह मालूम नहीं है कि श्री अभयदेवाचार्य जिन्होंने नवांगीवृत्ति बनाई, उनके जीवन काल में ही इस वृत्ति का विरोध हुआ था? यदि सुन्दर मित्र के इतिहास ज्ञान में यह बात नहीं आई हो तो मैं सुन्दर समाज के मान्य प्रमाण को ही यहाँ दे देता हूँ। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६५ ************************************* “आचार्य महाराज ने दुष्ट रक्त दोष लागु पडयो, ते बखते ईर्ष्यालु लोको कहेवा लाग्या के - उत्सूत्र ना कथन थी कुपित थयेला शासन देवोए ए वृत्तिकार ने कोढ उत्पन्न कर्यो छे।" (प्रभावक चरित्र-अभयदेव प्रबन्ध पृ० २६०) कहिये सुन्दरजी! अब तो आपकी कल्पना कोरी कपोल कल्पित ही ठहरी न? और साथ ही मिथ्या भी सिद्ध हुई न? और देखिये स्वयं श्री अभयदेवसूरि ठाणांग सूत्र की वृत्ति पूर्ण करते हुए लिखते हैं कि - "सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदूहस्यवियोगतः। सर्वस्व पर शास्त्राणा मदृष्टे रम्मृतेश्चमे॥ १॥ वाचनानामनेकत्वात पुस्तकानामशुद्धितः। सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मत भेदाच्चकुत्रचित्॥ २॥ क्षूणानि संभवन्तीह केवलं सुविवेकिभिः। सिद्धान्तानुगतोयोऽर्थः सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः॥३|| (आगमोदय समिति पत्र ५२७) आँखें मूंदकर लिखा हुआ सभी सत्य मानने वाले सुन्दर मित्र को अपने टीकाकार के उक्त उद्गारों को ध्यान से पढ़ना चाहिये, वे स्वयं लिखते हैं कि “स्खलना हो जाना संभव है, इसलिये सिद्धान्तानुकूल अर्थ को ही ग्रहण करना चाहिये।" ऐसी सूरत में श्री सुन्दर मित्र टीकाओं को अक्षरशः मानने का हठ करें यह केवल अन्ध श्रद्धा ही नहीं तो क्या है? सुन्दरजी! आपके मूर्ति पूजक विद्वान् ही टीका भाष्यादि के हवाले को प्रमाणरूप नहीं मानते हैं, जरा आंखें खोलकर निम्न उदाहरण देखिये - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है? ********************************************** "प्रकरण ग्रन्थों नी अपेक्षा वृत्ति तेथी चूर्णि अने ते थी भाष्य एमज नियुक्ति, अंतमा सूत्रने सौथीं बलवान प्रमाण माने छे.....अहियां जोवू जोइये के सूत्रोक्त रीति नो आदर करवा माटे बहु आचार्यों ना वचनो तरफ काइंक ख्याल करवामां आवतो नथी।" (राजेन्द्र सूर्योदय पृ० १८ प्र० त्रणथूइ समस्त संघ) पुनः उक्त पुस्तक के ५२ वें पृष्ठ पर लिखा है कि - “पन्यासजी रूप विजयजी नु कहेवू छे के सूत्र नी अपेक्षाए टीका चूर्णि नो मत हमने मान्य नथी।" सुन्दर मित्र! अब एक दो प्रमाण आपकी समाज के बृहद् साधु सम्मेलन में आचार्यों के बीच शास्त्रार्थ हुआ उसके भी लीजिये। (यह शास्त्रार्थ दीक्षा विषयक था) - “आवखते सागरानन्दसूरिजी ए धर्म-बिन्दु नुं भाषांतर विजयवल्लभ सूरि ने आप्युं, आग्रन्थना मूल पाठमां बड़ी दीक्षा शब्द नहीं होवा छतां भाषांतर मां दृष्टिगोचर थयो अने ते थी श्री विजयवल्लभ सूरिजी ए जणाव्यु के क्यों चक्कर में डाल रहे हो? मूल सूत्र लाइए" पछी मूल सूत्र मंगाव्युं तो एमां क्यांय बड़ी दीक्षा नो पाठ जणायो नहीं।" (राजनगर साधु सम्मेलन पृ० १४६) सुन्दर मित्र! भाषांतर जो कि अनुवाद मात्र है उसमें भी ऐसे घोटाले हो जाते हैं, और उन्हें भी आपके आचार्य नहीं मानकर मूल ही का प्रमाण स्वीकार करते हैं तब टीकाओं की तो बात ही क्या है? और देखिये - ___ इसी सम्मेलन में बाल दीक्षा के समर्थन में श्री सागरानन्द सूरिजी ने धर्म बिन्दु के भाषांतर का प्रमाण दिया इस पर से आचार्य सम्राट् श्री विजयनेमिसूरिजी ने कहा कि - ___ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६७ "भाषांतर उपर थी निर्णय न थाय, मूल पाठ काढ़ो।" (राजनगर साधु सम्मेलन पृ० १४६) - सुन्दर मित्र! आपकी समाज के ये आचार्य सम्राट मूल के भाषानुवाद को ही जब प्रमाण रूप से स्वीकार नहीं करते तब आप हमारे सामने मूल की व्याख्या कही जाने वाली टीका वह भी बिना किसी मूल के (जो कि मूल रहित होने से टीकाकार का स्वतन्त्र मत है) प्रमाण मानने का हठ क्यों करते हैं? सुन्दर बन्धु! टीकाकार जब किसी वस्तु की व्याख्या करते हैं तब कितने ही स्थानों पर मूल के आशय को भूलकर (सेंकड़ों वर्ष पूर्व की परिस्थिति की उपेक्षा कर) अपने समय और आसपास के वातावरण को ध्यान में रखकर भी कभी २ सैंकड़ों वर्ष पूर्व के आशय की व्याख्या करने लग जाते हैं। इसके सिवाय व्याख्या में व्याख्याकार का स्वतन्त्र मंतव्य भी रहता है, बस इसी का यह परिणाम है कि टीकाओं में अनेक स्थानों पर स्खलनाx हुई है, श्री अभयदेवाचार्य (व्याख्याकार) महाराज भी तो चौरासी चैत्यों के मालिक श्री वर्धमान सूरि के प्रशिष्य थे, और उनका समय भी मूर्तिवाद की युवावस्था का था। तब ऐसे समय में व्याख्याकार महाराज ने अपनी परिस्थिति के अनुकूल व्याख्या करदी हो, इसमें सन्देह ही क्या है? सुन्दर मित्र जरा पक्षपात को दूर हटाकर सोचो, दूसरे विद्वानों के कथन पर विचार करो, बिलकुल अहं सर्वस्व मत बनो। देखो आप ही की समाज के प्रतिष्ठत विद्वान् पं० बेचरदासजी आपकी इन टीकाओं के विषय में क्या उद्गार निकालते हैं। x देखो - लोकाशाह मत समर्थन। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है? ******学学会学学****************六字字字卒卒** ___“मारुं मानवं छे के कोइ पण टीकाकारे मूलना आशयने मूलना समयना वातावरण ने ध्यानमां लइने स्पष्ट करवो जोइए, आरीते टीकाकारनारो होय तोज खरो टीकाकार होइ शके छे, परन्तु मूलनो अर्थ करती वखते मौलिक समय ना वातावरण नो ख्याल न करता जो आपणे परिस्थिति नेज अनुसरिए तो ते मूल नी टीका नथी पण मूल नुं मूसल करवा जेवू छे हुँ सूत्रों नी टीकाओ सारी रीते जोइ गयो छु परन्तु तेमां मने घणे ठेकाणे मूल नुं मूसल करवा जेवू लाग्युं छे, अने ते थी मने घणुं दुःख थयुं छे, आ सम्बन्धे अहिं विशेष लखवु अप्रस्तुत छे, तो पण समय आव्ये "सूत्रो अने टीकाओ'' ए विषे हुं विगतवार हेवाल आपवानुं मारुं कर्त्तव्य चूकीश नहीं, तो पण आगल जणावेला श्री शीलांक सूरिए करेला आचारांग ना केटलाक पाठों ना अवला अर्थों उपर थी अने आ चैत्य शब्दना अर्थ उपर थी आपसौ कोइ जोइ शक्या हशो के टीकाकारों ए अर्थों करवामां पोताना समय नेज सामो राखी केटलुं बधुं जोखम खेडयुं छे। हुं आ बाबत ने पण स्वीकार करूं छु के जो महेरबान टीकाकार महाशयोंए मूल नो अर्थ मूलना समय प्रमाणेज कर्यों होत तो जैन शासन मां वर्तमान मां जे मतांतरों जोवा मां आवे छे ते घणा ओछा होत, अने धर्म ने नामे आq अमासर्नु अंधारुं घणुं ओर्छ व्यापत" (पृ० १२३) .......जे वात अंगो नां मूल पाठों मां नथी, ते वात तेना उपांगो मां, नियुक्तिओ मां, भाष्यमां चूर्णिओमां, अवचूर्णिओ मां, अने टीकाओ मां शीरीते होइ शके? उपांगो, नियुक्ति ओ भाष्यों, चूर्णिओ, अवचूर्णिओ, अने टीकाओ एबधा ग्रन्थो एटला माटेज लखाय छे-लखाया छे के कोइ प्रकारे मूलनी वस्तु स्पष्ट थाय, नहिं के मूलमां रहेली कोई जातनी अपूर्णता ने ते ग्रन्थो पूरी करे।” (पृ० १३१) (जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानी) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६६ **************************************** मित्रवर! विवादग्रस्त विषयों की चर्चा हो वहाँ इन टीकाओं (मूलाशय रहित की गई व्याख्याओं) का प्रमाण कुछ भी महत्त्व नहीं रखता, जिसका कारण ऊपर बता दिया गया है। अतएव टीका आदि को मानने न मानने पर व्यर्थ की चर्चा उठाना तथा टीका आदि को अक्षरश: सत्य मानने या मनवाने का हठ करना अन्ध विश्वासी अल्पज्ञों का काम है। सुज्ञ लोग मूलस्पर्शी टीकाओं या नियुक्त्यादि को अवश्य मानते हैं किन्तु टीकाओं को मूल की तरह अक्षरशः सत्य या मान्य कभी स्वीकार नहीं करते। (३८) मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता गत प्रकरण में हमने टीका आदि के प्रमाणों पर विचार किया, यहाँ मूर्ति पूजा के समर्थक ग्रन्थों को प्रामाणिकता के विषय में कुछ प्रयत्न करते हैं, क्योंकि सुन्दर मित्र ने इसी दूसरे प्रकरण पृ० २३ में यह लिखा है कि - “आगमों के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अन्य अनेक विषयों पर पर्याप्त संख्या में ग्रन्थों की रचना की है, यह रचनाकार्य भी स्वमति से नहीं, अपितु जैनागमों के आधार पर ही किया गया है। जिस तरह किसी विशाल भवन के टूटने पर समझदार मनुष्य उसकी सामग्री से अन्य अनेक छोटे बड़े मकान बना डालते हैं उसी तरह जब हमारा दृष्टिवादाङ्ग रूपी विशाल भवन टूटने लगा तब उसका मसाला लेकर तात्कालिक आचार्यों ने अनेक छोटे बड़े ग्रन्थ बनाने में अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया.....उन्होंने विधि विधानादि के ग्रन्थों की भी रचना Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता ****空***李宗学学**本本空公安学学会学学家安安安安安安安安安安安安安 कर डाली........ऐसी स्थिति में महावीर के पुत्र होने का दम भरने वाला एक समुदाय उस साहित्य में भी अनेक प्रकार की त्रुटियों के स्वप्न देख रहा है, यह कितने दुःख और खेद की बात है।" आदि - इस प्रकार सुन्दर मित्र मूलागमों से एकदम विपरीत जाने वाले ग्रन्थों की भी भूरि-भूरि प्रशंसा कर उन्हें आगम सम्मत तथा दृष्टिवाद के अंश बता रहे हैं, साथ ही ऐसे अप्रामाणिक ग्रन्थों को नहीं मानने वाली समाज पर खेद प्रकट कर रहे हैं, किन्तु यह सब प्रयास गोबर को गुड़ मानने के समान हास्यास्पद है। ऐसा ही कपोल कल्पित कथन चैत्यवासी भी करते थे, वे कहते थे कि चैत्यवास का समर्थन आचार्यों ने दृष्टिवाद अंग के आधार से ग्रन्थों में किया है। वे ग्रन्थ भी उन महात्माओं (?) ने कपोल कल्पित बना लिये थे, जिनका खंडन जिनवल्लभ सूरि ने संघपट्टक में किया था, संघपट्टक की प्रस्तावना के चौथे पृष्ठ में लिखा है कि - “आ अरसा मां चैत्यवास ने सिद्ध करवा माटे आगमना प्रतिपक्ष तरीके निगमना नाम तले उपनिषदां ना ग्रन्थो गुप्त रीते रचवामां आव्या अने तेओ दृष्टिवाद नामना बारमा अंगना त्रूटेला कडका छे एम लोकोने समजाववा मां आव्यु।' सुज्ञ पाठक वृन्द! जिस प्रकार कपोल कल्पित ग्रन्थ चैत्यवासियों ने तैयार किये थे और उन्हें दृष्टिवाद का अंश बताया था, उसी प्रकार सुन्दर मित्र भी आगम विरोधी और हिंसा प्रवर्तक विधानों से भरे हुए कपोल कल्पित ग्रन्थों को दृष्टिवाद का हिस्सा कह कर मानने का आग्रह करते हैं। किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिये कि जैनागमों में कहीं भी आरंभवर्द्धक तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा करने करवाने और वैसा उपदेश देने का विधान ही नहीं है, न किसी व्यर्थ क्रिया को Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा. २७१ *******************************学学李*** ही स्थान दिया गया है, ऐसी सूरत में त्रस स्थावर जीवों का जिसमें प्रचुरता से धमामान हो, जो संवर का विरोध कर आश्रव को अपनाने वाली हो, जिसमें आत्म-कल्याण का कुछ भी अंश नहीं हो, ऐसी व्यर्थ और निरुपयोगी क्रिया का प्रचुर विधान करने वाले ग्रन्थ किस प्रकार आगम के अंश या आगम सम्मत कहे जा सकते हैं? कदापि नहीं। दिन और रात, प्रकाश और अन्धकार का जिस प्रकार समन्वय नहीं हो सकता, उसी प्रकार आगमों से ऐसे ग्रन्थों का समन्वय नहीं हो सकता। इन बनावटी ग्रन्थों में कितनी ही अनर्थकर और धर्म विपरीत बातें लिखी हैं, यहाँ हम मूर्ति पूजा विषयक (सम्बन्ध होने से) आगम विरोधी ग्रन्थों के कुछ अवतरण देते हैं। __ श्री सागरानंद सूरिजी ने अपने सिद्धचक्र पाक्षिक में तीर्थ यात्रा, संघ यात्रा नामक एक लेख माला प्रकाशित की है, जिसमें वे देवेन्द्रसूरि के ग्रन्थ का प्रमाण देकर निम्न प्रकार से लिखते हैं - “शास्त्रकार एटला सुधी कहे छे के धूपो एटली बधी गंध वाला होय के जाणे गंध नीज वाट होय नहिं तेवा लागे अर्थात् आवा सुगंधवाला धूपोनुं जो दहन थतुं होय ते गन्ध मात्र भगवाननी आगलज नहिं, एकला गभारामां नहिं, परन्तु आखा मंदिर नी अन्दर जे धूपना दहन थी थयेली सुगन्ध होय ते व्याप्त होवी जोइए केटलेक स्थाने तो धूपना दहन नी शास्त्रकारो एटलो बधी तीव्रता जणावे छे के श्री जिनेश्वर भगवानना मन्दिर मां कराता धूप दहन ना धूमाडा नी शिखाने अंगे मयूरो ने वरसाद नो वहेम पड़े अने तेथी कोकारव करवा लागी जाय।" (सिद्ध चक्र वर्ष ७ अंक ७ पृ०१५७) ___“सारा सारा वर्णवाला अने सारा सारा गन्धवाला द्रव्योनी अंदर उत्कृष्टता होवाने लीधे जे फूलो वर्ण गन्ध ने लीधे उपमा देवालायक Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता *************************************** थायछे तेवां पुष्पो थीज भगवान जिनेश्वर महाराज नुं पूजन करवू जोइए.....ते फूलो परोयेलां होय, गुंथेला होय, वीटेलां होय, मांहोंमाहें नालवडे जोडेला होय, इत्यादिक अनेक प्रकारना पुष्पोए करीने भगवान् नुं पूजन करवू।" (सिद्धचक्र वर्ष ७ अं० ५ पृ० ११६) - "आरती अने मङ्गल दीवानी वखते नाटक करवू जोइए।" - (सिद्धचक्र वर्ष ७ अं०६ पृ० २०२) अब जरा श्राद्ध विधि ग्रन्थ के भी कुछ वाक्य पढ़िये - "शांति ने अर्थे घी, गोल सहित दीवो करवो, शांति तथा पुष्टि ने अर्थे अग्नि मां लवण नाखवू सारुं छे, खंडित सांधेलु, फाटेखें, रातुं तथा बिहामणुं एवं वस्त्र पहेरीने करेलुं दान, पूजा तपस्या, होम, आवश्यक प्रमुख अनुष्ठान सर्व निष्फल छ ।” (श्राद्ध विधि पृ० १५३) “भगवान् आगल मङ्गल दीवा सहित आरती नो उद्योत करवो, तेनीपासे शगडी मूकवी, तेमां लवण अने जल नाखवा....बे दिशाए ऊंची अने अखंड कलश जलनी धारा देवी।" (श्राद्धविधि पृ० १५७) “देवाधिदेव नी आगल कपूर नो दीवो प्रज्वलित करीने अश्वमेधनुं पुण्य पामें। (श्राद्धविधि पृ० १५७) . (अश्वमेघ-घोड़े को अग्नि में होमना और इसमें भी पुण्य क्या यह मान्यता जैन धर्मानुयायी की हो सकती है? नहीं, पर मूर्ति पूजकों की तो होती होगी?) "भगवान् नां चन्दन थी पोताना कपालादिक मां तिलक न करवू, भगवान् ना जल थी हाथ पण धोवाय नहीं। (श्राद्धविधि पृ० २०६) कलिकाल सर्वज्ञ समान (सम्यक्त्व शल्योद्वार के मत से) श्री विजयानंद सूरि निम्न लौकिक श्लोक को प्रमाण में देकर समर्थन करते हैं, वो श्लोक यह है - ___ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************** 'धूपो दहति पापानि, दीपो मृत्युर्विनाशकः । नैवेद्यं विपुलं राज्यं, सिद्धिदात्री प्रदक्षिणा । " (जैन तत्त्वादर्श पृ० ४०८ ) तथा जो पुरुष स्नान करके करे जिसका स्नान भी अच्छा है। भगवान् की तथा साधु की पूजा ( जैन तत्त्वादर्श पृ० ४०० ) ( अच्छा है ? वाह रे जैन श्रमणाचार्य ? और साधुकी पूजा स्नान करके कैसे करे ? क्या, जल, फूल, धूप, चन्दनादि से ?) इसके सिवाय कदलि के पेड़ को कटाकर उसके खंभे बनवाना उससे बंगला तैयार करवाना, फूलों का घर बनाना आदि कई तरह के विधान मूर्ति पूजा के उद्देश्य से किये गये हैं । (देखो - लोकाशाह मत समर्थन) यहाँ अधिक नहीं लिखकर अब कुछ नमूने शत्रुंजय पहाड़ की मनः कल्पित महिमा के दिखाये जाते हैं। - " शक्रेन्द्रे श्री कलिकाचार्य महाराजनी आगल कह्युं हतुं के श्री महाविदेह क्षेत्रमां पण सम्यग्दृष्टि जीवों आ श्री शत्रुंजय नुं स्मरण करे छे। " ( जैन सत्य प्रकाश वर्ष ३ अं० १० - ११ मे - जून लेखक श्री विजयपद्म सूरिजी म० पृ० ३६६ ) " 'श्री नेमीनाथ प्रभु ना कहेवा प्रमाणे कृष्ण वासुदेव अहीं रहीने आठ उपवास करी कपर्दि यक्षनो आराधना करी, जे थी यक्षाधिराजे पर्वत नी गुफानी अदर रहेली शक्रेन्द्र थी पूजायेली त्रण 'प्रतिमाओ बतावी ते गुप्तराखी, संभलाय छे के हाल पण ते स्थले शक्रेन्द्र घणीवार आवे छे।" (जैन सत्य प्रकाश वर्ष ३ अं० १० - ११ मे - जून लेखक श्री विजयपद्म सूरिजी म० पृ० ३७१) ( तब तो पालीताना स्टेट को अब पर्वत से हाथ धोना पड़ेगा २७३ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता *********************於***********************中 क्योंकि शक्रेन्द्र यहाँ-शत्रुजय पर्वत पर आता है वह इसे राज्य के अधिकार में कब रहने देगा? पहले भी वर्षों के लगे हुए ताले शक्रेन्द्र ने ही तो खुलाये थे? हाँ पर कल मोजीराम भाई कहते थे कि ये साले चोर तो शक्रेन्द्र से भी बढ़कर निकले, जो शत्रुजय के मन्दिरों में से मूर्तियों-नहीं, नहीं, भगवानों की बहुमूल्य रल जड़ित आँखें ही निकाल ले गये। भावनगर का मूर्ति पूजक “जैन” पत्र (अगस्त १९३६) लिखता था कि अभी तक चोरों का पता भी नहीं लगा। इन दिनों में शायद शक्रेन्द्र का दौरा शत्रुजय पर नहीं हुआ होगा? क्या किसी ढूँढक देवने तो इन्द्र को नहीं बहका दिया? सूरिवर्यों को इसके लिए शीघ्र सावधान होकर प्रयत्न करना चाहिए।) उक्त पर्वतराज के विषय में आगमोद्धारक आचार्य देव श्री सागरानंद सूरिजी के भी सिद्धात देख लीजिये - “श्री सिद्धाचल गिरीराज ऊपर मन्दिर अने मूर्तिओ हजारो अने लाखोनी संख्या मां छे, छतांए गिरिराज नीज स्तुति गिरिराज द्वारा करवामां आवे छे ते विवेकिओ ने ओछु विचारवा लायक न थी'....."भाव तीर्थंकर करतां पण सिद्धाचल रूपी क्षेत्र नो प्रभाव भगवानना श्री मुखे केटलो बधो महत्तर गवायो छे.......आ सिद्धाचल रूपी क्षेत्र एटलुं बधुं प्रभावशाली छे के आत्मा ने पवित्र थवाना कारण भूत जे वीर्य उल्लासो ते छणे छणे पोतेज उत्पन्न करे छे.......खुद स्थापना तीर्थंकर एटले भगवान् नी प्रतिमा थी तोशु परन्तु खुद भाव अरिहन्त के जे केवली अवस्था मां रहेला तीर्थंकर महाराजा होय छे तेमना करता पण आ गिरिराज अत्यन्त प्रभावशाली छे, आ वात हरेक जैनाए ध्यान मां लेवा जेवी छे।" __(सिद्धचक्र वर्ष ६ अं० १०-११ मार्च १९३८ के जिनेश्वर महाराजनी मूर्ति करता गिरिराज नी अधिकता केम? शीर्षक से Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २७५ 产学学会学学会学术学李*********密******卒卒***李*** * (सूरिवर्यों को अब साक्षात् तीर्थंकरों की भी आवश्यकता नहीं, उनकी सब आवश्यकता पर्वत (जो स्टेट का कैदी है) पूरी कर देता है।) ___ अब पाठक जरा शत्रुजय महात्म्य (भाषांतर) के भी कुछ नमूने पहाड़ और नदी की प्रशंसा के देख लें, यहाँ हम अपनी भाषा में पृष्टांक सहित भाव मात्र देंगे क्योंकि इसकी समालोचना के लिए तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ चाहिए। देखये और आप स्वयं विचार कीजिये - १. “हे भव्यो! जप, तप, दान आदि क्यों करते हो? एक बार पुंडरीक गिरि की छाया का भी स्पर्श कर लो, बस अन्य कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं।" (पृ० २) २. “प्राणियों का भयङ्कर पाप पर्वत के स्मरण से नाश हो जाता है।" (पृ०२) ३. “पन्दरा कर्म भूमि में शत्रुजय समान कोई तीर्थ नहीं।" । (पृ० २१) ४. “प्रभु महावीर कहते हैं कि-इस तीर्थराज को नमस्कार । (पृ० २२) ५. “सम्यक्त्व ग्रहण किया हुआ भी यदि इस तीर्थ को नहीं पूजे तो उसका सब कुछ मिथ्या है।" (पृ० २३) ६. "जब तक गुरु मुख से "शत्रुजय' ऐसा नाम नहीं सुना तब तक ही हत्यादि पाप गर्जन करते हैं फिर कुछ नहीं।" (पृ० २५) ७. "भगवान् महावीर कहते हैं कि हे इन्द्र! जो प्रमादी हैं उन्हें पाप से कुछ भी भय नहीं खाना चाहिए, सिर्फ एक बार सिद्धगिरि की कथा सुन लेना चाहिए।" (पृ० २५) ८. “वेषधारी-द्रव्यलिंगी-साधु को भी गौतम की तरह मानकर हो।" Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता "" भक्ति करना चाहिए, उसकी क्रिया आदि कुछ भी नहीं देखना क्योंकि आकृति ही वन्दन योग्य है । ' ( पृ० २६, ६६-७०) ६. पर्वत ऊपर के हिंसक प्राणी भी तीसरे भव में सिद्ध होते हैं । २७६ १०. शील पालने से तो शायद सिद्ध नहीं भी शैल (पर्वत) की सेवा से तो अवश्य सिद्धि हो अजितनाथ भगवान् का फरमान है। ( पृ०२६८) ११. “आकाश में उड़ने वाले पक्षी को छाया भी इस पर्वत को स्पर्श कर ले तो वे पक्षी दुर्गति प्राप्त नहीं करते।" (पृ० ३३७) १२. “ शत्रुजंया नदी में स्नान करने वाले के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। " ( पृ० ६६) १३. शत्रुजंया नदी को केवल ज्ञानी नाम के प्रथम तीर्थंकर के स्नान के लिए ईशान इन्द्र ने प्रकट किया । " ( पृ० १६१) १४. “रायण वृक्ष शाश्वत है । " ( पृ० ३० ) “फिर ऊगेगा " ( पृ० ५१३) १५. "कुण्ड ही मुक्ति देता है, और कोई नहीं । " ( पृ० २०५) १६. " सूर्यकुण्ड का जल हत्यादि दोषों का नाश करने वाला ( पृ० ६६) १७. जो पुरुष इस तीर्थ की यात्रा, पूजा आदि करता है वह अपने गोत्र सहित स्वर्ग में पूजा जाता है। और जो यहाँ आये हुए यात्रियों को बांधे या द्रव्य हरण करे, तो वह पाप समूह से परिवार सहित नर्क में पड़ता है ।" पृ० २५) (परिवार और गोत्र सहित क्या, ग्राम सहित लिखा होता तो भी कम था ? ) है । " १८. प्रथम तीर्थंकर कहते हैं कि "श्री संघ, अरिहंत के लिये ( पृ० १६३) हो, किन्तु इस जाती है। ऐसा Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा भी वंदनीय और पूजनीय है, इसलिए इसका जो पति (संघपति) हो, वह तो लोकोत्तर स्थिति वाला ही होता है । ' ( पृ० १७१) ( अरिहंत संघ को पूजते हैं, तब तो संघपति भी अरिहंत के लिये विशेष रूप से पूजनीय है अर्थात् अरिहन्त से भी उत्कृष्ट स्थिति वाला है, तब वर्तमान में निकलने वाले संघों के संघपतियों को आचार्य, सूरिवर्य आदि भी उठ बैठकर नमस्कार कर पूजा करे इसमें तो आश्चर्य ही क्या? स्थानकवासियों! यह देवदुर्लभ अवसर तुम्हें तुम्हारे लक्ष्मीनन्दनों के भाग्य में ही नहीं है, जरा मूर्ति पूजक समाज माकुभाई आदि संघपतियों को तो देखो ? वे इस पंचमकाल में भी अरिहंतों के पूज्य बन गये ? क्या तुम्हें ऐसा सस्ता सौदा नहीं चाहिये ? ) १६. " हे गिरिराज ! तारी यात्रा नो लाभ लेवा माटे चालता संघ रथ, घोड़ा, ऊँट, वगेरे ना पगनी रज जेओना शरीरे लागे तेमना निविड़ पापो जरूर नाश पामे छे । " २७७ ( आचार्य विजयपद्म सूरिजी जैन सत्य प्रकाश वर्ष ३ अंक १२) ( और इनके पैरों में आकर मरने वाले छोटे जीव तो उसी वक्त मुक्ति पा जाते होंगे ? ) " संभलाय छे के हाल पण ते स्थले ( शत्रुजंय पर ) शक्रेन्द्र घणीवार आवे छे।" (ले० उक्त जैन सत्य प्रकाश वर्ष ३ अंक ११) संभलाय क्या, सूरिजी खुद जाकर वहाँ आसन लगाकर बैठ * और महा कवि ऋषभदास जी के कुमारपाल राजा ना रासनुं रहस्य में लिखा कि तीर्थंकर सिद्ध को नमस्कार करते हैं ऐसे सिद्ध भगवान् को भी जो पुरुष संघवी पद प्राप्त करके तीर्थ यात्रा का लाभ लेता है " तेना गुण हमेशा बहुज गमे छे” (पृ० २६६) कोरी गप्प? सिद्ध भगवान् को और 'गमे छे' वाह ? Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता ********************************************* जाय, तो उन्हें शक्रेन्द्र के दर्शन हो सकेंगे और पर्वत कर के साठ हजार से माफी मिलने के साथ ही पालीताना राज्य भी शक्रेन्द्र की कृपा से सूरिजी.......नहीं नहीं आनंदजी कल्याणजी की पेढ़ी को मिल जायगा? ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिये। यदि दो चार महीने प्रयत्न करना पड़े तो करना चाहिए। इतना बड़ा लाभ उठाने में कुछ दिन शक्रेन्द्र की राह देखनी पड़े तो क्या बड़ी बात है? शायद शक्रेन्द्र दो चार महीने विलम्ब से आवे? यदि एक सूरि से इतने दिन एक जगह नहीं ठहरा जाय तो कुछ सूरिवरों को मिलकर अपनी सुविधानुसार समय निर्धारित कर पहरा ठोक देना चाहिए। सुज्ञ पाठकवृन्द! देखली मूर्ति पूजा के समर्थक ग्रन्थों की हालत? क्या ऐसे गपोड़ शास्त्र भी आगम सम्मत हो सकते हैं? क्या दृष्टिवादांग ऐसे ही पाखण्डों से भरा था? वास्तव में संघपट्टक की प्रस्तावना के लेखानुसार यह सब बातें सावद्याचार्यों ने मनःकल्पित गढ़ डाली है और अपने पाखण्ड को जैन मान्य कराने के लिए ऐसे ग्रन्थों को दृष्टिवाद का अंश बता दिया है। हमारे सुन्दर मित्र भी उसी तरह ऐसे ग्रन्थों को भी आगम सम्मत और दृष्टिवाद का अंश बताकर मनवाने की चेष्टा कर रहे हैं। सुन्दर मित्र! ऐसे ग्रन्थों को हम नहीं मानते हैं इससे आप को दुःख होता है और इसीलिए आप हमें वीर वंशज नहीं मानते हैं, भले ही आप अज्ञान वश अपना हठ न छोड़ें, किन्तु हम तो स्पष्ट कहते हैं कि जो लोग ऐसे पाखण्ड पुराणों को आगम की तरह मानते हैं वे सम्यक् श्रद्धान से बहुत दूर हैं क्योंकि ये ग्रन्थ आगमों से विपरीत और संसारवर्द्धक है, ऐसे ग्रन्थों को अप्रामाणिक घोषित कर मूल आगमों Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा *********** २७६ ****** पर अटल श्रद्धा रखने वाले ही सच्चे वीर वंशज हैं और जो लोग गपोड़ों को भी आगम समान मानते हैं, उन्हें अर्हन्वाणी बताते हैं, वे वास्तव में श्री वीर पिता के कुल कलंक रूपी कपूत हैं, उनके ऐसे कर्त्तव्यों से शासन हितैषियों को क्षोभ होना स्वाभाविक ही है। अतएव मूर्ति पूजा के प्रतिपादक, समर्थक और विधिदर्शक ग्रन्थ आगमवाणी से विपरीत होने से उपेक्षा करने के ही योग्य है। (३९) मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण-संग्रह श्री ज्ञानसुन्दर जी ने पृ० १२६ में लिखा है कि "भगवान् महावीर ने मूर्ति पूजा का विरोध कहीं भी नहीं किया इसलिए यह समझना चाहिये कि भगवान् महावीर भी इस कल्याणकारी कार्य में सहमत थे।" - तथा मूर्ति पूजक पत्र "जैन ध्वज" ता० १७- ८-३६ पृ० ५ पर भी आप लिखते हैं कि 'महावीर मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी नहीं पर कट्टर समर्थक थे।' इस प्रकार मन से मोदक बनाने वाले तो चाहे सो मान ले, उन्हें प्रमाणित तो करना ही नहीं है, वहाँ तो हाथी के दांत सिर्फ दिखाने के ही हैं। सुन्दर मित्र को यह नहीं सूझा कि भगवान् महावीर के समय मूर्ति-पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा जैन समाज में थी ही नहीं । फिर उसका मंडन या खंडन हो भी कैसे ? भगवान् महावीर के समय जितने मतमतांतर थे उनमें से बहुतों के विषय में आगमों में उल्लेख मिलता है, श्री गौतम स्वामीजी ने अन्य तीर्थिकों की मामूली बातों की भी Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह **************************************** पृच्छा कर समाधान किया । इस स्थिति पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्थकाल में मूर्ति पूजा में धर्म मानने वाला जैन समाज था ही नहीं, इतना ही नहीं, अजैन समुदाय में भी मूर्ति पूजा में धर्म मानने की रीति नहीं थी, अन्यथा उसका भी किसी न किसी रूप में उल्लेख होता, सूत्रों के अभ्यास से इस बात का तो पता लगता है कि उस समय लोगों में सांसारिक भावना को लेकर मूर्ति पूजा प्रचलित थी, वे भूत, नाग, यक्ष आदि की मूर्तियें पूजते थे, कोई धन के लिए, कोई पुत्रकलत्रादि के लिए, कोई शारीरिक सुख या सौभाग्य के लिए अथवा रूढ़ि वश इस प्रकार की पूजा होती थी किन्तु धर्म-आत्मकल्याण के लिए भी कोई मूर्ति पूजा करता हो, ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि मूर्ति पूजा में धर्म मानने की पद्धति पंचमकाल (भगवान् केवली के पश्चात् ) की ही है और इसी से सर्वज्ञ काल के सिद्धांतों में इसका नाम मात्र भी उल्लेख नहीं है । २८० यदि मंडन नहीं होते हुए भी खंडन नहीं मिलने मात्र से ही किसी रीति को स्वीकार्य समझा जाय तो वैसे जैन समाज में ही कई मतभेद थोड़े ही समय से ( भगवान् के बाद) चल रहे हैं, कितने ही प्रकार की नूतन मान्यतायें हैं, जिसका स्पष्ट खंडन सूत्रों में कहीं भी नहीं है, तो फिर वे भी वीर सम्मत मानी जायेंगी? नहीं। फिर भी हम सुन्दर समाधान के लिए मूर्ति पूजा के खंडन में कुछ प्रमाण निम्न तीन विभाग से देते हैं १. जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा । २. मूर्ति-पूजक संप्रदाय के ग्रन्थों से मूर्ति पूजा का खंडन । ३. अजैन विद्वानों के अभिप्राय । इन तीनों विषयों पर पृथक्-पृथक् सप्रमाण विवेचन पाठकों के संमुख रखते हैं। . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २८१ (१) जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा जैन धर्म लोकोत्तर धर्म है, इसमें गुण पूजा को ही मुख्यता दी गई है, व्यक्ति पूजा को नहीं। जब तक तीर्थंकर प्रभु गृहस्थावस्था में रहते हैं, तब तक उन्हें एक सामान्य साधु जैसा मान भी कोई साधु या श्रावक नहीं देते और जब दीक्षित होकर छद्मस्थावस्था में रहते हैं तब तक वे एक साधु की ही कोटि में गिने जाते हैं। तीर्थंकर या केवली तरीके नहीं तथा जब उनका निर्वाण हो जाता है तब उनके भौतिक शरीर को अग्नि में जलाकर भस्म कर दिया जाता है। भौतिक शरीर (शव) की मौजूदगी में ही तीर्थंकर विरह मानकर शोक छा जाता है। उस शरीर को साधु साध्वी या गणधरादि वन्दना नमस्कारादि नहीं करते, इससे स्पष्ट हो गया कि जैन समाज व्यक्ति पूजक नहीं, पर व्यक्ति के महान् व्यक्तित्व (गुण) का ही पूजक है। हाँ, व्यक्तित्व के साथ व्यक्ति की पूजा तो होती है, क्योंकि व्यक्तित्व व्यक्ति में ही रहता है भिन्न नहीं, किन्तु व्यक्तित्व के अभाव में व्यक्ति पूजा नहीं होती जैसे कि - कोई साधु वर्षों तक संयम पाले और फिर कर्मवश संयम से गिर जाय तो जैन समाज उसे तब तक ही पूजनीय मानेगा जब तक कि उसमें संयम के गुण हैं और जब उसे यह मालूम हुआ कि वह तो केवल वेशधारी ही है तो शीघ्र ही उसका बहिष्कार कर देगा। बस इसीसे सिद्ध हो जाता है कि - जैन समाज गुण पूजक है, आकृति या शरीर का पूजक नहीं। जब साक्षात् शरीर को भी पूजनीय नहीं माना जाता तब उसको मूर्ति या चित्र को तो आदर दिया ही कैसे जा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह ****************至********************李宏宇 सके? इस पर से एक बच्चा भी समझ सकता है कि गुण पूजक जैन समाज मूर्ति पूजा का किसी भी सूरत में आदर करने वाला नहीं है। बस इतने मात्र से यह समझ लेना बिलकुल सहज है कि “मूर्ति पूजा जैन मान्यता के विरुद्ध है।" न तीन में, न तेरह में - हम ऊपर दिखा चुके हैं कि - भगवान् महावीर और गौतम आदि गणधरों के समय मूर्ति पूजा में धर्म मानने की जैनियों में श्रद्धा ही नहीं थी, इसीलिए गणधर रचित आगमों में इस विषय का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। अब सुन्दर मित्र की विशेष संतुष्टि के लिए यहाँ आगमों से मूर्ति पूजा का खंडन सिद्ध कर दिखाते हैं। पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए कि खंडन-विरोध “प्रतिकार” से भी होता है और "उपेक्षा' से भी। यहाँ हम अंतिम शैली से मूर्ति पूजा का खंडन सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं यथा - (१) अजैनों में तीर्थयात्रा करने का रिवाज भगवान् महावीर के समय था, भगवती और पुप्फिया सूत्र में सोमिल के प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि - "स्वयं वीर प्रभु ने सोमिल को कहा कि हमारे मत में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि से आत्मविकास करना ही यात्रा है। ऐसा ही उत्तर थावच्चा अनगार ने शुकपरिव्राजक को दिया। ऐसा ज्ञाता धर्म कथा सूत्र में उल्लेख है, किन्तु मूर्तिपूजकों के माने हुए तीर्थ और उनकी यात्रा का नाम तक नहीं लिया। इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थों के पहाड़ और तदाश्रित रहे हुए मन्दिर मूर्ति को मानने या इनकी यात्रा करने की रीति जैन समाज में थी ही नहीं। इसी से इसका उल्लेख नहीं करके आत्मिक गुणों के विकास करने को ही जैनधर्म में यात्रा होना बताया। इस प्रकार मूर्ति पूजक बन्धुओं के Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २८३ ******************************************** माने हुए मन्दिर मूर्ति और उनकी यात्रा का जैनधर्म में स्थान ही नहीं होना सिद्ध होता है तथा यात्रा के प्रश्न में भी श्री महावीर का मूर्ति पूजक भाइयों के तीर्थों का नाम तक नहीं लेना, यह स्पष्ट खंडन है। (२) प्रश्न व्याकरण के प्रथम आस्रव द्वार में देवालय-मन्दिर मूर्ति, स्तूप, चैत्य आदि के बनवाने को हिंसाकारी कृत्य और उसका अनिष्ट फल बताया, यह भी स्पष्ट खंडन है। (३) आचारांग सूत्र में धर्म के लिए पृथ्वी आदि छह काया की हिंसा करने में पाप बता कर उसका फल अहितकारी बताया है और मूर्ति निर्माण से लगाकर प्रतिष्ठा, पूजा आदि सभी हिंसाकारी कार्य है, उक्त सूत्रानुसार इसका फल भी वही होना चाहिए, यह भी स्पष्ट खंडन ही समझना चाहिए। (४) ठाणांग सूत्र के तीसरे स्थान में लिखा है कि संसार भर में स्थावर तीर्थ तीन हैं, तद्यथा - १. मागध, २. वरदाम, ३. प्रभास जिन्हें चक्रवर्ती अपने अधिकार में रखते हैं, इन तीनों तीर्थों के सिवाय शत्रुजय, गिरनार, आबू, सम्मेदशिखर आदि किसी भी तीर्थ का नामोल्लेख नहीं किया, अतएव ये भी आगमानुसार तीर्थ नहीं कहे जा सकते। जब तीर्थों की गणना के समय भी इनकी उपेक्षा की गई तो यह खण्डन ही हुआ। ___ (५) दशवैकालिक सूत्र में परम मंगलकारी धर्म में अहिंसा, संयम और तप को ही स्थान है, मूर्ति पूजा को नहीं। (६) श्रमण वर्ग के पंच महाव्रत रात्रि भोजन त्याग महाव्रतों की २५ भावनायें, उभयकाल आवश्यक करने, समिति-गुप्ति आदि विषयक विधान विस्तृत रूप में उपलब्ध है, किन्तु किसी भी विधान में मन्दिर मूर्ति के दर्शन करने, यात्रार्थ जाने, तद्विषयक उपदेश देने आदि ___ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह ********************** ******************* विषयों में एक अक्षर मात्र भी नहीं मिलता। यह उपेक्षा भी मूर्ति पूजा की मान्यता आगम विरुद्ध सिद्ध करने में प्रबल शक्ति वाली है। (७) सूत्रकृतांग, दशाश्रुतस्कन्ध, ठाणांग आदि आगमों में श्रावक धर्म का विवेचन है, जिसमें पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, ग्यारह प्रतिज्ञा (प्रतिमा) आदि का उल्लेख है, किन्तु मूर्ति पूजा के लिए सभी सूत्रों ने एकदम चुप्पी साधी है, यह उपेक्षा भी हमारे मूर्ति पूजक भाइयों की श्रद्धा का विरोध करती है। (८) उववाई सूत्र में भगवान् महावीर की आत्मकल्याणकारी देशना लिखी है, जिसमें मुनियों के महाव्रत और श्रावकों के अणुव्रतादि द्वादशव्रत आदि का पृथक्-पृथक् निरूपण किया गया है, किन्तु इस एकान्त हितकारी धर्मोपदेश में भी प्रभु ने मूर्ति को याद नहीं किया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रभु महावीर को मूर्ति पूजा में धर्म मानना इष्ट नहीं था, न उस समय इस मान्यता का अस्तित्व ही था। ___(6) मोक्षमार्ग के मुख्य चार अंग - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, इन चारों में मूर्ति के लिये अणुमात्र भी स्थान नहीं। (१०) स्थानांग सूत्र में श्रावक के तीन मनोरथ बताये हैं, तद्यथा - १ आरम्भ परिग्रह को त्यागने की भावना २ श्रमणधर्म स्वीकार करने की और ३ पंडित मरण की। इन तीनों भावनाओं में मूर्ति बनवाने या पूजने अथवा संघ निकालने आदि की भावना का नाम ही नहीं है। इससे भी मूर्ति पूजा अनुपादेय ठहरती है। (११) इसी सूत्र के चौथे स्थान (उ० ३) में भार वहन करने वालों के लिए चार विश्राम स्थान लिखे हैं, जिसमें तीसरा विश्राम स्थान नागकुमार सुवर्णकुमार के देवालय का होना तो बताया, पर अर्हन् मन्दिर का यहाँ नाम ही नहीं लिखा, इतना ही नहीं इस विश्राम Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ********************** २८५ स्थान के उदाहरण को गृहस्थधर्म पर घटाया और श्रावकों के लिए चार प्रकार के विश्राम स्थान बताये यथा १ सामायिक २ देशावकासिक ३ पौषध और ४ प्रत्याख्यान । इन चार प्रकार के विश्रांति रूप धर्म स्थानों में मंदिर मूर्ति को विश्राम स्थान नहीं बताया। जबकि उदाहरण में नागकुमारादि के मन्दिर का उल्लेख है। अतएव स्पष्ट सिद्ध है कि मन्दिर मूर्ति गृहस्थ धर्म से बहिष्कृत ही है। इसीसे दृष्टांत के मन्दिर को दान्त रूप गृहस्थधर्म के निरूपण से सर्वथा बहिष्कृत रखा गया । (१२) पाँचवें स्थान में धर्मियों के लिए पांच अवलम्बन में १ षट्काय २ गच्छ ३ राजा ४ गाथापति और ५ शरीर अवलंबन बताये, किन्तु मन्दिर मूर्ति नहीं । (१३) दस प्रकार के श्रमणधर्म में मूर्ति पूजा को तिल भर भी स्थान नहीं है । - (१४) दस प्रकार की समाधि में भी मूर्ति के दर्शन नहीं होते । (१५) दस प्रकार की वैयावृत्य में मूर्ति की वैयावृत्य का नाम तक नहीं है । (१६) तेतीस प्रकार की आशातनाओं में मूर्ति या मन्दिर की आशातना स्वीकार नहीं की गई, यहाँ भी मूर्ति बहिष्कृत ही ठहरी । (१७) उत्तराध्ययन सूत्र में आत्मोत्थान रूप ७३ क्रियाओं का फल निर्देश किया गया है। उसमें मूर्ति पूजा के फल का नाम तक नहीं है। इस पर से भी यह बहिष्कृत ही ठहरी है। (१८) हजारों मुनि महात्माओं के चरित्रों में से किसी एक में भी मन्दिर मूर्ति का उल्लेख नहीं है । अतएव सिद्ध हुआ कि आत्मकल्याण में इसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ *** मूर्त्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह *********************** - **** (१६) वैसे ही आनन्दादि श्रमणोपासकों के अनेकों चरित्रों इतिहासों के विस्तृत उल्लेखों पर से यह पाया जाता है कि उन्हें भी मूर्ति की आवश्यकता नहीं हुई और बिना मूर्ति के ही उन्होंने आत्मकल्याण साधा। ऐसी सूरत में यह स्पष्ट है कि आत्मकल्याण रूपी धर्म से मूर्ति पूजा का कोई वास्ता नहीं है। ( २० ) उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यक्त्व और उसके लक्षण का दिग्दर्शन कराया गया, किन्तु उसमें भी मूर्ति या मन्दिर से सम्यक्त्व प्राप्त होना नहीं बताया । अतएव सिद्ध हुआ कि मूर्ति पूजा से धर्म का सर्वथा सम्बन्ध नहीं है । (२१) संसार में सर्वोत्तम मांगलिक, उत्तम और शरणभूत केवल चार स्थान हैं - १ अरिहंत २ सिद्ध ३ साधु और ४ धर्म । इसमें मूर्ति के शरण को स्वीकार नहीं किया गया। (२२) साधुओं के संयम पालन में सहायक उपकरणों में मूर्ति या स्थापनाचार्य नामक कोई उपकरण नहीं है, इससे भी यह अस्वीकार्य ठहरती है। (२३) नमस्कार मन्त्र के पांच पदों में मूर्ति को अणुमात्र भी स्थान नहीं है। (२४) भगवती आदि सूत्रों में भगवान् महावीर स्वामी और गौतम गणधर के हजारों प्रश्नोत्तर लिखे हैं उनमें ऐसा एक भी प्रश्न नहीं कि जिसमें मूर्ति पूजा में धर्म मानने वालों के पक्ष को कुछ भी सहारा मिल सके। (२५) छेद सूत्रों में अनेकों बातों का प्रायश्चित्त विधान मिलता है, किन्तु मूर्ति के दर्शन नहीं करने आदि का प्रायश्चित्त किसी स्थान पर नहीं । अतएव इसे हेय मानना असंगत नहीं । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २८७ ********************************************* उक्त पच्चीस बातों में धर्म के सभी विषय आ गये हैं, इनमें से किसी एक में भी मूर्ति पूजा को अणुमात्र भी स्थान नहीं है। फिर मूर्ति पूजा को आगम सम्मत और प्रभु महावीर को उसके समर्थक कहने वाले कहाँ तक सच्चे हैं? ___ पाठक समझ गये होंगे कि जैनागमों से मूर्ति पूजा का सम्बन्ध “न तीन में न तेरह में' वाली कहावत के अनुसार ही है। _ अब हम मूर्ति पूजक समाज के मान्य ग्रन्थों के प्रमाण पाठकों के सामने पेश करेंगे जिससे तत्त्व निर्णय में सुविधा हो सके। मूर्ति पूजक मान्य प्रमाणों से मूर्ति पूजा का विरोध यद्यपि मूर्ति पूजक समाज के ग्रन्थकारों ने मूर्ति पूजा के विधान और समर्थन में ग्रन्थ के ग्रन्थ भर डाले हैं। कथा ग्रन्थों में भी इसकी भरमार करदी है, किन्तु फिर भी किसी किसी विद्वान् ने कभी कभी नूर्ति पूजा की निरर्थकता देखकर दबी जबान से भी विरोध तो किया है। जिसके खास खास प्रमाण यहाँ दिये जाते हैं, पाठक ध्यान पूर्वक पढ़ें। (१) महानिशीथ * सूत्र के कुशील नामक अध्ययन में इस प्रकार का उल्लेख है कि - * इस महानिशीथ सूत्र का नाम नन्दीसूत्र में है अतएव यह समस्त श्वेताम्बर जैन समाज का मान्य होना चाहिए। किन्तु चैत्यवाद के समय इस सूत्र में भी परिवर्तन कर दिया गया। इस शास्त्र में कुछ आगम विरोधी अंश भी धुस गया। इसीलिए स्थानकवासी समाज वर्तमान में महानिशीथ को सम्पूर्ण रूप से मान्य नहीं करती। स्वयं महानिशीथ सूत्र से ही यह बात सिद्ध होती है तथा मूर्तिपूजक का०--से प्रकाशित जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास पृ० ७६ में लिखा है कि - ___ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण सग्रह **********************学学************* "द्रव्यस्तव जिन पूजा आरंभिक है और भावस्तव-भावपूजा अनारंभिक है। भले ही मेरु पर्वत समान स्वर्ण प्रासाद बनवाये जायें या प्रतिमा बनाई जाय अथवा ध्वजा, दंड, तोरण, कलश, घंटा आदि लगाये जायँ, किन्तु यह क्रिया भावस्तव-मुनिव्रत-के अनंतवें भाग में भी नहीं आ सकती। xxxxx जिन मन्दिर जिन प्रतिमा प्रमुख आरंभिक कार्यों में भावस्तव वाले मुनि को खड़ा भी नहीं रहना चाहिये, यदि खड़े रहें तो अनन्त संसारी बनें। xxxxx जिसने समभाव से कल्याण के लिये दीक्षा ली और बाद में मुनिव्रत को छोड़कर न तो साधु में व न श्रावक में, ऐसा उभय भ्रष्ट नामधारी साधु कहे कि मैं तो तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमा की जल, चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, फल, नैवेद्य आदि से पूजा करके तीर्थ की स्थापना १. “१०२ छठु छेद सूत्र ६ महानिशीथ आमूल नष्ट थयु हतु अने तेनो उद्धार हरिभद्र सूरिए को हतो।" २. श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा "जैन आगम साहित्य" नामक लेख में लिखते हैं कि “महानिशीथ के उद्धार कर्ताओं में ८ नाम आते हैं वे समकालीन नहीं, तब उन्होंने मिलकर कैसे उद्धार किया? जैन सत्यप्रकाश व० ४ अ० १-२ पृ० (१७३)। इस सूत्र में एक स्थल पर मूर्ति पूजा का फल विधान भी किया गया है, इस प्रकार परस्पर विरोधी बात से भी यह पाया जाता है कि यह परिवर्तन (फल विधान) चैत्यवाद के युवावस्था में ही हुआ हो तथा और भी अशास्त्रीय विषय (देव द्रव्यादि) के प्रविष्ट हो जाने से साधुमार्गी समाज इसे प्रामाणिक नहीं मानती, हाँ मूर्ति पूजक समाज में तो यह शास्त्र माननीय है। किन्तु मूर्तिपूजक समाज (तथा आगमोदय स०) ने इसे छपाया क्यों नहीं? क्या मूर्ति पूजा के विरुद्ध उल्लेख होने से ही। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा है ************************ कर रहा हूँ तो ऐसा कहने वाला भ्रष्ट श्रमण कहा जाता है, क्योंकि वह अनन्त काल तक चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करेगा । " इसके बाद पांचवें अध्ययन में लिखा है कि २८६ "जिन पूजा में लाभ है, ऐसी प्ररूपणा जो कोई अधिकता से करे तथा इस प्रकार स्वयं या दूसरे भद्र लोकों से फल, फूलों का आरम्भ करें और करावें, तो इन सबको सम्यक्त्व बोध दुर्लभ हो जाता है । (२) विवाह चूलिया सूत्र के पाहुड़े ६ उद्देशे ८ में निम्न पाठ "जइ णं भंते जिण पडिमाणं वंदमाणे अच्चमाणे, सूयधम्मं चरित्त धम्मं लभेज्जा ? गोयमा ! णो अणट्टे सट्टे से केणणं भंते एवं वुच्चई ? गोयमा ! पुढवीकायं हिंसइ जाव तसकायं हिंसइ । " अर्थात् - श्री गौतमस्वामीजी प्रश्न करते हैं कि - जिन प्रतिमा की वन्दना, अर्चना करने से क्या श्रुत चारित्र धर्म की प्राप्ति होती है? भगवान् उत्तर देते हैं, नहीं । पुनः प्रश्न होता है, क्यों नहीं ? प्रभु फरमाते हैं कि - पृथिवी काया से लेकर त्रस काया तक की इसमें हिंसा होती है इसलिये । यद्यपि उक्त मूल पाठ से प्रश्नोत्तर महावीर प्रभु और गौतम गणधर के बीच होना पाया जाता है। और यह सूत्र है आचार्य प्रणीत, फिर इसमें ऐसा सम्बन्ध क्यों रक्खा गया ? इस विषय में यही समाधान है कि - जिस समय जनता मूर्ति पूजा में ही अपना कल्याण मानकर सीमातीत अज्ञान दशा में पहुँच चुकी थी उस समय किसी Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० मूर्ति पूजा के विरुद्ध-प्रमाण संग्रह ****************** *********************** सुहृद आचार्य ने जनता का अज्ञान सर्वज्ञ भगवान् महावीर और गौतम गणधर के नाम से इस सूत्र रचना द्वारा दूर करने के इरादे से ऐसा किया हो तो आश्चर्य नहीं। क्योंकि जनता आचार्यादि के वचनों की अपेक्षा तीर्थंकर वचनों पर अधिक विश्वास वाली होती है। दूसरा यह एक प्रकार की रचना शैली भी है। कई आचार्य रचित ग्रन्थों में इसी प्रकार के प्रश्नोत्तरों का ढांचा दिखाई देता है, इस बीसवीं शताब्दी के गौतमपृच्छादि ग्रन्थ जिन्होंने देखे हों वे इस बात को सरलता से समझ सकते हैं, इसी प्रकार विवाह चूलिया के रचयिता ने भी शायद इसी शैली का अनुकरण किया हो? कुछ भी हो, पर यह तो सत्य है कि यह प्रश्नोत्तर तीर्थंकर और गणधर के बीच के तो नहीं है, क्योंकि उस समय इस प्रथा का जन्म ही नहीं हुआ था, तो प्रश्नोत्तर की उत्पत्ति ही कैसे हो? इतना होते हुए भी यह ग्रन्थ मूर्ति पूजक समाज का मान्य होने से उक्त उल्लेख से मूर्ति पूजा का विरोध तो स्पष्ट हो जाता है, शायद इसीलिये श्री आगमोदय समिति ने इसे छपवाने की कृपा नहीं की हो? . (३) व्यवहार सूत्र की चूलिका में श्रीमद्भद्रबाहु स्वामी श्री चन्द्रगुप्त राजा के पांचवें स्वप्न का फल बताते हुए कहते हैं कि - "पंचमए दुवालस फणिं संजुत्तो कण्ह अहि दिट्ठो तस्सफलं दुवालसवास परिमाणे दुक्कालो भविस्सई तत्थ कालिय सूयप्पमुहाणि सुत्ताणि वोच्छिज्जिसंति “चेइय ठवावेइ दव्वहारिणो मुणिणो भविस्संति, लोभेण माला रोहण देवल उवहाण उज्जमण जिणबिंब पइट्ठावणविहिं पगासिस्संति, अविहे पंथे पडिसई तत्थ जे केई साहु Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६१ ****李 **京*****京**** *****李****** साहुणि सावय सावियाओ विहि मग्गे बुहिसंति तेसं बहुणं हिलणाणं, जिंदणाणं, खिसणाणं, गरहिणाणं भविस्सइ।" - अर्थात् - पांचवें स्वप्न में जो तुमने बारह फणों वाले काले नाग को देखा है, उसका फल यह है कि - भविष्य में बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा, उसमें कालिक आदि सूत्र विच्छेद जायँगे। साधु द्रव्य रखने वाले होंगे, चैत्य स्थापना करेंगे, लोभ के वश होकर मूर्ति के गले में माला रोपण करेंगे। मन्दिर उद्यापन उजामणा करावेंगे। जिनबिंब स्थापना करेंगे विधिमार्ग से स्खलित होकर अविधिमार्ग में पड़ेंगे। तथा जो साधु साध्वी श्रावक और श्राविका उस समय विधिमार्ग में प्रवर्तने वाले होंगे, उनकी निंदा अपमान अपशब्दादि से विशेष रूप से करेंगे। (४) संबोधप्रकरण में श्री हरिभद्र सूरि लिखते हैं कि - "संनिहि महाकम्मं जल फल कुसुमाइ सव्व सचित्त। चेइय मठाइवासं पूयारंभाई निच्चवासित्तं। देवाइ दव्वभोगं जिणहर शालाइ करणंच।" अर्थात् - चैत्यवाद से चैत्यवास का सम्बन्ध दिखाते हुए कहते हैं कि - प्रथम तो पूजा के लिये सचित्त जल फल, फूल आदि का आरम्भ करना शुरू हुआ, फिर देवादि के नाम से द्रव्य संचय देवद्रव्य भक्षण, जिन मन्दिरादि बनाना प्रारम्भ हुआ, और फिर चैत्य में वास करना चला। (५) सन्देह दोलावलि में लिखा है कि - "गडरीपवाहउ जे एइ नयर दीसई बहु जणेहिं, जिणग्गहकारवणाइ सो धम्मो सुत्तविरुद्धो अधम्मोय" Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ *********************************空******* अर्थात् - जिनघर-मन्दिर-करवाना यह धर्म सूत्र विरुद्ध अधर्म होते हुए भी बहुत लोक करते हैं। वास्तव में लोक समूह भेड़िया प्रवाह की तरह अन्धानुकरण करने वाला ही अधिक होता है। (६) संघपट्टक में श्री जिनवल्लभ सूरि लिखते हैं कि - "आकृष्टुं मुग्धमीनान् बडिशपिशितवब्दिंबमादी जैनं। तन्नाम्ना रम्यरूपानपवरकमठान् स्वेष्टसिद्धयै विधाप्य॥ यात्रा स्नात्राद्युपायैर्नमसितक निशाजागराद्यै च्छलैश्च । श्रद्धालु मजैनेच्छलित इव शर्वच्यतेहाजनोऽयम्॥ २१॥" अर्थात् - जिस प्रकार रसेन्द्रिय मुग्ध मछलियों को फँसाने के लिए बधिक लोग मांस को कांटे में लगाते हैं, उसी प्रकार द्रव्य लिंगी लोग नामधारी श्रद्धालु जैनों को मांसवत् जिनबिंब दिखाकर और स्वर्गादि फल सिद्धि कहकर यात्रा स्नान आदि उपायों से तथा निशाजागरणादि छल से ठगते हैं। यह महदाश्चर्य है। (७) आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति में उल्लेख है कि - दव्वथओ भावथओ, दव्वथओ बहुगुणत्ति बुद्धि मिआ। अनिउणमइवयणमिणं, छज्जीवहिअंजिणाबिंति।। १६२|| छज्जीवकाय संजमु, दव्वथएसो विरुज्झई कसिणो। तो कसिण संजम विउ, पुप्फाईअं न इच्छंति॥ १६३॥ अर्थ - द्रव्यस्तव और भावस्तव, यदि यह कहा जाय कि द्रव्यस्तव बहुत गुण वाला है तो यह बुद्धि की अनिपुणता है क्योंकि श्री तीर्थंकर महाराज छह काय जीवों के हित को कहते हैं, और छह काय जीवों की रक्षा रूप संयम में द्रव्यस्तव सम्पूर्ण विरोधी है इसलिये संयम को जानकर मुनि पुष्पादि को नहीं चाहते हैं। (८) इसी आवश्यक की ११०६ वीं गाथा में नाम, स्थापना Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६३ ********************************************* और द्रव्य ऐसे तीन भेद के साधु को अवंदनीय बताकर समिति, गुप्ति आदि भावगुण युक्त साधु को ही वंदनीय स्वीकार किया है, इससे भी नाम, स्थापना और द्रव्य अरिहंत अवंदनीय ठहर कर केवल ज्ञानादि भावगुण युक्त अरिहंत ही वंदनीय सिद्ध होते हैं। (8) श्राद्धविधि नामक ग्रन्थ में श्रावक का स्वरूप बताते हुए लिखा है कि - "नामाई चउभेओ सड्डो, भावेणइ इच्छ अहिगारो। तिविहो अभाव सडो, सण-वय-उत्तर गुणेहिं॥ ४॥" __अर्थात् - श्रावक के १ नाम २ स्थापना ३ द्रव्य और ४ भाव यह चार भेद हैं, इनमें से तीन भेद को छोड़कर भाव श्रावक ही इच्छनीय है भाव श्रावक तीन तरह के होते हैं, जैसे - १ दर्शन श्रावक २ व्रतधारी श्रावक और ३ उत्तर गुण वाला श्रावक। इस पर व्याख्या करते हुए “श्राद्धविधि" पृ० ८१ में लिखा है कि "केवल नामधारी, चित्रामणनी अथवा जेमां गायोनां लक्षण नथी, ते गाय जेम पोतानुं काम करी शकती नथी, तेम १ नाम २ स्थापना अने ३ द्रव्य श्रावक पण पोतानुं इष्ट धर्मकार्य करी शकतो नथी, माटे अहि भाव श्रावक नोज अधिकार जाणवो।" कहने की आवश्यकता नहीं कि इसी तरह स्थापना-मूर्तिजिन भी निरर्थक है। (१०) हारिभद्रीय आवश्यक गाथा ११३८ में रूपक मुद्रा से एक चौभंगी वंदनीय अवंदनीय पर घटाई है, उसका भाव श्री सागरानन्द सूरिजी के शब्दों में निम्न प्रकार से है - “एक तो चांदीनो कटको, जो के चोक्खी चांदी नो छे, छता तेनी ऊपर रुपीआनी महोर छाप न होय तेने रुपीयो कहेवाय नहीं, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह ************************************** * अने ते चलण तरीके उपयोग मां आवी शके नहि, बीजो रुपीआनी छाप त्रांबाना कटका उपर होय तो पण ते त्रांबानो कटको रुपीआ तरीके चाली शके नहि, त्रीजो त्रांबाना कटका उपर पैसानी छाप होय तो ते रुपीओ नज गणाय, अने चौथो भागोज एवोज छेके जेमां चांदी चोक्खी अने छाप पण रुपीआनी सांची होय तेनोज दुनिया मां रुपीआ तरीके व्यवहार थई शके अने चलण मां चाले।" . (दीक्षानुं सुन्दर स्वरूप पृ० १७) जिस प्रकार चांदी का मुद्रायुक्त सिक्का ही रुपया माना जाता है, उसी प्रकार केवल ज्ञानादि गुण युक्त अरिहंत या तीर्थंकर ही वन्दनीय हो सकते हैं, किन्तु तांबे के टुकड़े पर रुपये की छाप वाले दूसरे भंग की तरह मूर्ति वन्दनीय नहीं हो सकती। उक्त उदाहरण सर्वथा उपयुक्त है। (११) आचार्य विजयानन्द सूरिजी अज्ञान तिमिर भास्कर पृ० २९६ में लिखते हैं कि - "कितनीक क्रिया को जे आगम में नहिं कथन करी है, तिन को करते हैं, और जे आगम में निषेध नहि करी है चिरंतन जनो ने आचरण करी है तिनको अविधि कहकर निषेध करते हैं और कहते हैं यह क्रियायों धर्मी जना को करणे योग्य नहि है किन किन क्रियायों विषे "चैत्य कृत्येषु स्नात्र बिंब प्रतिमा करणादि।" अर्थात् - कितने ही लोग ऐसे हैं जो चैत्य करवाने, बिंब प्रतिमा बनवाने, स्नात्र पूजादि करने की क्रियाओं को अविधि कहकर निषेध करते हैं, क्योंकि आगमों में इनका कथन नहीं है। परन्तु पूर्व पुरुषों ने इसका आचरण किया है और आगम में इनका निषेध भी नहीं है। ___ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६५ *京****中字******************************** उक्त अवतरण में साफ बताया गया है कि चैत्य कृत्य, मूर्ति पूजादि आगम सम्मत नहीं, पर पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित है। (१२) आगमोद्धारक श्री सागरानन्द सूरिजी दीक्षानुं सुंदर स्वरूप पृ० १४७ में लिखते हैं कि - ___ "श्री जिनेश्वर भगवान् नी पूजा विगेरे नुं फल चारित्र धर्म आराधनना लाखमां अंशे पण नथी आवतुं अने ते थी तेवा पूजा आदि ने छोडीने पण भाव धर्मरूप चारित्र अङ्गिकार करवा मां आवे छे।" (१३) “अध्यात्म प्रकरण' अन्तर्गत “तत्त्वसारोद्धार'' नामक ग्रन्थ में मूर्ति पूजक विद्वान् श्री हुक्ममुनिजी पृ० ४१० से लिखते हैं कि ___ "तीरथ जात्रा व्रत नियम करे ते पण पुन्य तो थाय ते बात पण मिथ्यात छे शामाटे के स्थावर तीरथ नी जात्राएं जवु आवq ते । कांइ धरममां नथी केमके तेने कोइ गुणठाणानी अपेक्षा लागे नही।" शिष्य - स्वामी चोथा गुणठाणानी एकरणी छे, अने तमोपण सम्यक्तद्वार ग्रन्थ मां तथा मन्दिर स्वामीनी ढालो प्रमुख घणा शास्त्रोमां लावेला छो ने तमे इहां ना केम कहो छो।। गुरु - हे मानुभाव अमेजे सम्यक्तद्वार प्रमुख ने विषे लाव्या छिये तेनुं कारण सांभल एक तो कलप वेहेवार, अकालना घणा लोकोनुं मानेतुं माटे, तथा वीजुं कारण के ढूंडीया लोकों बीलकुल प्रतिमा उठावीने बेठा छे, ते आपणा पक्षने मान देखाड़वां वास्ते, तथा त्रीजुं कारण ए के सासन सारु दीसे एटलामाटे अमे लावेला छीए।" अर्थात् - मूर्ति पूजा, यात्रा करना आदि धर्मकार्य नहीं है। न पुण्य कार्य ही है। इसमें किसी गुणस्थान की अपेक्षा भी नहीं है और हमने जो अन्य स्थानों पर मूर्ति पूजादि कृत्यों को चौथे गुणस्थान का कार्य बताया उसका कारण यह है कि प्रथम तो कल्प व्यवहार Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह **半******************************************* अर्थात् इस समय के बहुत लोगों का माना हुआ, दूसरा ढूंढियेसाधुमार्गी प्रतिमा को सर्वथा नहीं मानते इसलिये अपने पक्ष को उच्च बताने वास्ते तथा तीसरा कारण यह है कि इससे शासन अच्छा दिखता है इसीलिये हमने अन्य स्थलों पर चौथे गुणस्थान में मूर्तिपूजादि क्रिया को बतलाया है। (१४) “अनुभवमाला' उर्फ "स्वानुभव-दर्पण' मूलकर्ता श्री “योगेन्द्रदेवजी'' विवेचनकार मूर्तिपूजक समाज के प्रसिद्ध विद्वान् पं० “लालन' मुद्रण समय वि० सं० १९६२ के कुछ दोहे निम्न प्रकार से हैं। "तीर्थो ने देहरा विषे, निश्चय देव न जाण। जिनवाणी गुरु इम कहे, देहमां देव प्रमाण|| ४१॥" __ (पृ० ४३) भावार्थ - ए खातरी पूर्वक छे, एम जिनेश्वर भगवान् अने गुरु महाराज कहे छे, एटले के तीर्थमा अने देहरा मां देव नथी, परन्तु देव तो देहरूपी मन्दिरमांज छ। "तन मन्दिर मां जीव जिन, मन्दिर मूर्ति न देव। राजा भिक्षार्थे भमे, एवी जनने टेव॥ ४२॥" (पृ० ४७) नथी देव देहरा विषे, छे मूर्ति चित्राम। ज्ञानी जाणे देवने, मूख भमे बहुठाम।। ४३|| (पृ०५) खरो देव छे देहमां, ज्ञानी जाणे तेह। तीर्थ देवालय देव नही, प्रतिमा निश्चय एह॥४४॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६७ अर्थ सुगम है। (१५) महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी हमारे समाज का खंडन करते हुए “प्रतिमा शतक'' में लिखते हैं कि - सावधं व्यवहार तोपि भगवन् साक्षाकिला नादिशत्। बल्यादि प्रतिमार्चनादि गुणकृत मौनेन संमन्यते॥ __ अर्थात् - बलिदान और प्रतिमा पूजन आदि क्रिया व्यवहार से सावद्य (निंदनीय) होने के कारण भगवान् अपने मुँह से इसका उपदेश नहीं करते। किन्तु गुणकारी होने से मौन से इसका समर्थन करते हैं । (१६) मूर्ति पूजक समाज के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् पं० बेचरदासजी दोसी अपने "जैन साहित्य में विकार थवाथी थयेली हानी'' नामक निबंध के पृ० १२५ में लिखते हैं कि - “मूर्तिवाद चैत्यवाद पछीनो छे एटले एने चैत्यवाद जेटलो प्राचीन मानवाने आपणी पासे एक पण एवं मजबूत प्रमाण नथी के जे शास्त्रीय (सूत्र विधि निष्पन्न) होय, वा ऐतिहासिक होय। आमतो आपणे अने आपणा कुलाचार्यों सुद्धां मूर्तिवाद ने अनादि नो ठराववानी तथा वर्धमान भाषित जणाववानी वणगा फुकवा जेवी वातों कर्या करीए छीए, पण ज्यारे ते वातो ने सिद्ध करवा माटे कोई ऐतिहासिक प्रमाण वा अंग सूत्र नुं विधिवाक्य मांगवामां आवे छे त्यारे आपणी प्रवाहवाही परंपरानी ढालने आगल धरीए छीए, अने बचाव माटे आपणा वडिलोने आगल करीए छीए, में धणी कोशीश करी तो पण परंपरा अने "बाबा वाक्यं प्रमाणं' सिवाय मूर्तिवाद ने स्थापित * यही तो उपाध्याय जी की मूर्ति पूजकता है। शायद भगवान् के मन के भाव उपाध्याय जी ने जान लिये हों। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ मूर्ति पूजा के विरुद्ध-प्रमाण संग्रह ***************************学学********* करवा माटे मने एक पण प्रमाण वा विधान मली शक्यु नथी, वर्तमान कालमां मूर्तिपूजा ना समर्थनमा केटलीक कथाओ ने (चारण मुनिनी, द्रोपदीनी कथा, सूर्याभ नी कथा, विजयदेवनी कथा) पण आगल करवामां आवे छे किन्तु वाचकोए आ बाबत खास लक्ष्यमा लेवानी छे के विधि ग्रन्थों मां दर्शावातो विधि, आचार ग्रन्थों मां दर्शावातुं आचार विधान खास शब्दोमांज दर्शाववा मां आवे छे पण कोइनी कथाओं मांथी के कोइना ओठां लइने अमुक अमुक विधान वा आचार उपजावी शकातो नथी, एक कथामां तेना नायके जे अमुक जातआचरण कर्यु होय ते बधाने माटे विधेय के सिद्धांतरूप होइ शकतुं नथी,........मारुं तो एम मानवु छे के ज्यारे आचारना ग्रन्थों जुदाज रचवा मां आव्या छे-आवे छे, अने तेमां प्रत्येक नाना मोटा आचारों नुं विधान करवामां आव्युं छे-आवे छे, ते छतां तेमां जे विधान नो गंधपण न जणातो होय ते विधान ना समर्थन माटे आपणे कथाओ ना ओठां लइए के कोइना उदाहरणो आपीए ते बाबतने हुं "तमस्तरण" सिवाय बीजा शब्दथी कही शकतो नथी, हुं “हिम्मत पूर्वक" कही शकुं छउं के में साधुओं तेम श्रावकों माटे देव दर्शन के देव पूजन नुं विधान कोई अङ्ग सूत्रोमां जोयु नथी, वाच्यु नथी, एटलुंज नहिं पण भगवती वगेरे सूत्रो मां केटलाक श्रावको नी कथाओ आवे छे तेमा तेओनी चर्यानी पण नोंध छे, परन्तु तेमां एक पण शब्द एवो जणातो नथी ते जे उपरथी आपणे आपणी उभी करेली देवपूजन नी अने तदाश्रित देव द्रव्यनी मान्यताने टकावी शकीए। ___ हुं आपणा समाजना धुरंधरो ने नम्रता पूर्वक विनंति करुं छु के तेओ मने ते विषेर्नु एक पण प्रमाण वा प्राचीन विधान-विधि वाक्य बताववेशे तो हुं तेओनो घणोज ऋणि थइश।" ___ ww Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २६६ ********************************************* आगे चलकर पृ० १३८ पर लिखते हैं कि - "हूं दृढ़ता पूर्वक एटलुं जणावी शकुं छं अने आगल जणावी चुक्यो छु के जे मूर्तिवाद - विधान अने देवद्रव्यनो गंध सूत्र (अंग) ग्रंथों मां मलतो नथी तेनो समर्थन पूर्वक उल्लेख हरिभद्रसूरि करे छे तेनुं मूल शुं होवू जोइए?" ___इसके पूर्व पृ० १३१ में इस प्रकार लिखा है - "हुँ तो त्यां सुधी मार्नु छु के श्रमण ग्रन्थकारो जेओ पांच महाव्रत ना पालक छे सर्वथा हिंसाने करता नथी, करावता नथी अने तेमां सम्मति पण आपता नथी, जेओ माटे कोइ जात नो द्रव्यस्तव विधेय रूपे होइ शकतो नथी तेओ हिंसा मूलक आमूर्तिवाद ना विधान नो अने तदवलम्बी देव द्रव्यना विधाननो उल्लेख शीरीते करे? (१७) दिगम्बर समाज के “पात्र केशरी' स्तोत्र के ३७ तें श्लोक में लिखा है कि - विमोक्षसुख चैत्यदान परि पूजनाधात्मिकाः। क्रिया बहुविधासुभृन्मरण पीडना हेतवः॥ त्वयाज्वलित केवलेन नहि देशिता किंतुतास्त्वयि प्रसृत भक्तिभिः स्वय मनुष्टिता: श्रावकैः ॥३७॥ ___अर्थात् - मोक्ष सुख से रहित करने वाली “चैत्य वंदना, दान, पूजा” आदि स्वरूप में सभी क्रियाएं नाना प्रकार से प्राणियों के मरण और पीड़ा करने की कारण है, हे जिनेन्द्र! ज्वाजल्यमान केवलज्ञान से युक्त होकर आपने उन दान पूजादि क्रियाओं का उपदेश नहीं दिया है। केवल तुम्हारी भक्ति करने वाले श्रावकों ने उन क्रियाओं को स्वयमेव कर लिया है।" (पन्नालालजी बाकलीवाल द्वारा प्र० पृ० ३६) Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह *************半*********************** पाठको! इतने प्रमाण मूर्तिपूजक समाज के विद्वानों-ग्रन्थकारों के आपके सामने पेश किये गये, अब थोड़े से अजैन विद्वानों के भी विचार देखिये - अजैन विदान् और मूर्ति-पूजा जैनेतर समाज में भी बहुत से विद्वान् जो कि मूर्तिपूजक वातावरण में जन्मे, पले और बड़े हुए वे भी परिपक्व अभ्यास और दीर्घ मनन के पश्चात् यह स्वीकार कर चुके हैं कि मूर्ति-पूजा आत्मा के उत्थान में आवश्यक नहीं, किन्तु व्यर्थ है। कुछ प्रमाण भी देखिये (१) काका कालेलकर साहब लोक जीवन में लिखते हैं कि - "चैतन्य नी भूख मूर्ति थी शीरीते भागे। जीवंत मूर्ति उद्धार करे छे, अने निष्प्राण मूर्ति तो गलामा पत्थर बनीने डुबाडे छे" (२) आचार्य पंडित चतुरसेनजी शास्त्री लिखते हैं कि - "पाखण्ड में सब से पहिला नम्बर मूर्ति पूजा का है। दो हजार वर्ष से भी अधिक काल से इस पाखण्ड ने मनुष्य जाति को बेवकूफ बनाया है। आज संसार भर की सभ्य जातियों ने मूर्ति-पूजा को नष्ट कर दिया है। वह या तो कुछ जंगली जातियों में जो तातार के उजाड़ प्रदेश में है, अथवा अफ्रिका के असभ्य लोगों में या फिर अपने को सब से श्रेष्ठ समझने वाले हिन्दुओं में प्रचलित हैं। यहाँ हम संक्षेप में मूर्ति पूजा का इतिहास दिये देते हैं। ___ सबसे प्रथम मैं दृढ़ता पूर्वक आपको यह बता देना चाहता हूँ कि प्राचीन काल के हिन्दुओं का कोई मन्दिर न था और वे मूर्ति की पूजा नहीं करते थे। वेद में मूर्ति पूजा का कोई विधान नहीं है। वेद में ___ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३०१ ****************************************** उन देवताओं का भी कोई जिक्र नहीं है जिनको इन पेशेवर गुनहगारों ने कल्पित करके झूठ और बेईमानी की दुकान खोली है। .. . (“धर्म के नाम पर" पृ० १३३ का पाखंड प्रकरण) (३) “सरस्वती" मासिक पत्रिका जुलाई सन् १९१६ में देवोत्तर का इतिहास पृ०७-२० में एक विद्वान् लिखते हैं कि - "मूर्ति पूजा की उत्पत्ति या तो यहीं की बसी हुई जङ्गली जातियों की नकल करके हुई होगी, या उस समय की बाहर से धावा करने वाली जातियों की देखा देखी सीखी गई होगी xx बुद्ध के जीवन में शायद उनके लिए कोई मन्दिर नहीं बनाया था, परन्तु उनकी मृत्यु के उपरांत बहुत से मन्दिर बन गये जिन में उनकी मूर्तियां रक्खी गई x जब तांत्रिक बौद्ध मत का प्रचार बढ़ा तब बहुत से मन्दिर बनाये जाने लगे x तांत्रिक मत के अनुसार बौद्ध, वैष्णव और शैव मतों का मेल होकर ऐसा धर्म निकला जिसमें देवता और देवी की पूजा साथ साथ होने लगी। शक्ति या प्रकृति की पूजा पांचवीं या छट्ठी शताब्दि से शुरु हुई। तांत्रिक मत ही के बाद से मूर्ति पूजन ने जोर पकड़ा।" (जैन साहित्य में विकार थवाथी थयेली हानि पृ० २४१ से) (४) स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि - प्रश्न - मूर्ति पूजा कहाँ से चली? उत्तर - जैनियों से। प्रश्न - जैनियों ने कहाँ से चलाई? उत्तर - अपनी मूर्खता से आदि। पाठकों को ध्यान रखना चाहिये कि स्वामी दयानन्द सरस्वती Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ उपसंहार का संहार मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे, उक्त मन्तव्य में स्वामीजी ने मूर्ति पूजा का प्रारम्भ जैनियों से बताया, यह शायद उनके समय जैनियों में मूर्ति पूजा की अधिकता या ऐसे ही किसी कारण से हो। अन्यथा मूर्ति पूजा का प्रारम्भ पहले सांसारिक भूत प्रेतादि की मूर्तियों से और बाद में बौद्धमत से हुआ है। ऐसा विद्वानों का अभिप्राय है। इस प्रमाण को यहीं समाप्त करते हुए हम पाठकों से अनुरोध करते हैं कि वे स्वयं उक्त तीनों प्रकार के प्रमाणों पर विचार करें, उन्हें स्पष्ट ज्ञात होगा कि मूर्ति पूजा से आत्मकल्याण मानने वाले सत्य से सहस्रों कोस दूर हैं। (४०) उपसंहार का संहार श्री ज्ञानसुन्दरजी ने कल्पना तरङ्ग में बहते हुए चौथे प्रकरण की समाप्ति की है उसके उपसंहार पृ० ११५ में सर्व प्रथम लिखा है कि - . “एक मूर्ति को न मानने से हमारे स्थानकमार्गी भाइयों को कितना नुकसान हुआ है उसको भी जरा पढ़ लीजिये। (१) मूर्ति न मानने से जो लोग तीर्थ यात्रार्थ जाते थे मास दो मास आरम्भ परिग्रह, व्यापार और गृहकार्य से निवृत्त पाते थे, ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते थे, शुभ क्षेत्र में द्रव्य व्यय कर पुण्योपार्जन करते थे, उन सब कार्यों से उन्हें वंचित रहना पड़ा।" सुन्दर मित्र का अभिप्राय यह है कि मूर्ति और तीर्थ यात्रा करने से ही आरम्भ परिग्रहादि का त्याग, ब्रह्मचर्य पालन और दानादि होते हैं। मूर्ति नहीं मानने से उक्त सत्कार्य नहीं हो सकते। किन्तु यह ___ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा **************** ३०३ **** भान्यता ठीक नहीं है । स्थानकवासी समाज बिना मूर्ति के ही सामायिक, संवर, दया, पौषध और अनेक प्रकार के तप, दान आदि सद्कार्य कर सकते हैं। हमारे पूर्वज आनन्द कामदेवादि ने भी मूर्ति मन्दिर और यात्रा के बिना ही धर्म साधन कर लिया था । हमें भी धर्म साधन में मूर्ति की तनिक भी आवश्यकता नहीं है, जो लोग मूर्ति पूजा या यात्रादि में आरम्भ, परिग्रह त्याग तथा निवृत्ति बतलाते हैं वे सम्यग् श्रद्धान से दूर हैं क्योंकि मूर्ति पूजा और यात्रा में प्रत्यक्ष रूप से आरम्भ समारम्भ रहा है। सभी जानते हैं कि इन लोगों के उक्त कार्यों में व्यर्थ का आरम्भ और फिजूल द्रव्य व्यय होता है, इस प्रकार की क्रियाओं में संवर, संयम, निवृत्ति या सन्मार्ग में अर्थ व्यय नहीं होते । इसलिये सुन्दर मित्र का उक्त अहंकार युक्त कथन सर्वथा असत्य है । आगे आप लिखते हैं कि - (२) " द्रव्य पूजा नहीं करने वाले भी मन्दिर में जाकर नवकार की माला, नमोत्थुणं या स्तवन बोल तीर्थंकरों की निरन्तर प्रतिज्ञा पूर्वक भक्तिकर शुभ कर्मोपार्जन तथा कर्म निर्जरा करते थे, उनसे वंचित रहे, वे उल्टे निन्दा कर कर्मबन्धन करने लगे । " उक्त कथन में अहंकार की मात्रा अधिक रही है, मैं सुन्दर मित्र से पूछता हूँ कि क्या स्थानकवासी समाज के लिये नवकार जपने नत्थूणं आदि से स्तुति करने के लिये मंदिरों तथा मूर्तियों के सिवाय कोई स्थान ही नहीं है? क्या बिना मूर्ति के किया हुआ जा या स्तुति व्यर्थ हो जाती है? यदि ऐसा ही है तो आप लोगों के जाप प्रतिक्रमण स्वाध्यायादि भी व्यर्थ हो जायँगे । क्योंकि आप भी उक्त मूर्ति के सामने नहीं करके, अपने ठहरने के स्थान पर भी करते हैं। यदि आप स्थापनाचार्य के संमुख करने का कहें तो यह भी 1 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ उपसंहार का संहार ******************************************** अनुचित है। क्योंकि यह स्थापना अनुचित होते हुए भी तीर्थंकरों की नहीं होकर आचार्य की ही है और आचार्य के सामने तीर्थंकर या उन की मूर्ति का चैत्यवंदन या सिद्धाचल पहाड़ का चैत्यवंदन, शांतिस्तोत्र आदि बोलना व्यर्थ ही है। साक्षात् में भी आचार्य को लक्ष्य कर या उनके संमुख उन्हें सुना कर-तीर्थंकर की प्रार्थना नहीं की जाती, तब स्थापनाचार्य के सामने तो ये चैत्य वंदनादि कैसे हो सकते हैं? अतएव आपके हिसाब से ही आपके ये कृत्य निष्फल और व्यर्थ ठहरते हैं। बन्धुवर! स्तुति स्वाध्याय या जाप हम धर्म स्थानों में कर सकते हैं। इसके लिये कल्पित मूर्ति की आवश्यकता नहीं। हम अपने क्षयोपशम के अनुसार पुण्य या निर्जरा बिना मूर्ति के ही कर सकते हैं। इतना ही नहीं मूर्तियों और मन्दिरों से वंचित रह कर हमने अपने को कर्मों के बहुत से बन्धनों से बचा लिया। जिसमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय आदि की मुख्यता है। क्योंकि मन्दिरों और मूर्तियों की सजावट आकर्षकता से सभी इन्द्रियों के विषयों का पोषण होता है, चक्षुओं को मोहने वाली सजावट कर्णों को प्रिय लगने वाला गान-वादन, घ्राण-प्रिय सुवासित पुष्प, धूप, बत्ती, इत्रादि, रसेन्द्रिय को चलित करने वाली मेवा मिठाई की भेंटे तथा स्पर्शेन्द्रिय को जागृत करने वाले स्नान मर्दनादि प्रायः सभी कर्म बन्धन में जकड़ने वाले हैं, विवाह आदि उत्सव के समय सजावट और गान वादनादि होता है, वहाँ जाकर यदि कोई विराग भाव से लौटता हो तो मन्दिरों से विराग भाव प्राप्त होने की बात सत्य कही जा सकती है। यद्यपि विवाह आदि के समय सांसारिक गीत गाये जाते हैं और मन्दिरों में भजन। किन्तु वहाँ भी साधारण जनता हारमोनियमादि Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३०५ *本资产* ***本中中中中李**本中李* ******本本********** वादिन्त्रों के सुरिले एवं मनोहर राग में ही मस्त होते हैं। अतएव वादिन्त्रों के साथ होने वाले भजनों में राग मस्ता (मोहनीय) का बन्ध होना सहज है और सबसे अधिक ऐसे कर्मोपार्जन को भी धर्म और धार्मिक क्रिया कहना यह अज्ञान (ज्ञानावरणीय) का असर और ऐसी श्रद्धा के चलते दुःश्रद्धा (दर्शनावरणीय) होना भी वैसा ही सहज और सरल है। तात्पर्य यह कि जो लोग मन्दिर मूर्ति के स्थान पर ही धर्म क्रिया होना मानते हैं वे वास्तव में पक्षपोषित हैं। यदि आगम दृष्टि से भी देखा जाय तो धार्मिक क्रिया-जप, तप, स्वाध्याय आदि में कहीं भी मूर्ति का उल्लेख नहीं किया, न किसी मोक्षाभिलाषी ने मूर्ति के सामने धार्मिक क्रियाएँ की। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि - मूर्ति के नहीं मानने से स्थानकवासी समाज धर्म से ही वंचित रह गया? क्या यह अहंकार का ताण्डव नहीं है? सुन्दर मित्र को अपनी साधु भाषा का भी भान नहीं है ??? ऐसा लिखते समय सुन्दर मित्र ने इतना भी विचार नहीं किया कि मेरे इस लेख को कौन मानेगा कि मूर्ति नहीं मानने से स्थानकवासी नवकार नहीं गिन सकते, और नमोत्थुणं नहीं दे सकते, तथा भजन स्तवन नहीं बोल सकते? प्रत्यक्ष सत्य को भी छुपाने वाले इन झूठों के बादशाह को अधिक क्या कहा जाय? वास्तव में यह कहना कोई असत्य नहीं कि सुन्दर मित्र केवल अपनी दिली जलन के कारण ही अंट संट बातें लिख रहे हैं। आगे देखिये - (३) मूर्ति नहीं मानने के कारण ही वे लाखों करोड़ों रुपयों की लागत के मन्दिर जो उनके पूर्वजों ने बनवाये, उनके हक से भी वंचित रहे। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ .. उपसंहार का संहार ********************************************* क्या खूब परिणाम निकाला? महाशय! जिसे हम चाहते ही नहीं, जिसकी हमें आवश्यकता नहीं, भला उस पर हक जमाकर हम क्यों अपनी उपाधि बढ़ावें? पूर्वजों के बनवाने और अपना हक जमाने से धर्म का क्या सम्बन्ध? संसार में कहावत है कि “बाप की तलाई में यदि पानी नहीं हो तो प्यासे ही मरना, या मिट्टी खाना, समझदारों का काम नहीं, सुज्ञ पुरुष उसे तत्काल छोड़कर सुखद स्थान ढूंढता है।" इसी प्रकार यदि किसी के पूर्वजों ने मूर्ति पूजकों की मान्यतानुसार मन्दिरादि बनाये हों तो इससे हमारे आत्म-कल्याण का कोई सम्बन्ध ही नहीं है। हम इन्हें निरर्थक समझते हैं, ऐसी निरर्थक वस्तुओं पर अपना अधिकार जमा कर अधिक परिग्रही बनना श्रावक के लिए अनुचित है। किन्तु सुन्दर मित्र के सुन्दर मानस पर हमें आश्चर्य होता है। आप साधु कहलाते हुए भी हक एवं अधिकार बढ़ाने का प्रयत्न कर, अधिकार छोड़ने वाले की टीका टिप्पणी करते हैं। शायद मूर्ति पूजक समाज में जाने पर इन्होंने अपने लिये कुछ निराले ही नियम बना लिये हों? . इसके सिवाय मालवा आदि देशों के कितने ही गांवों में मृत्यु आदि के मौके पर जाति रिवाज के अनुसार लोग मन्दिर जाया करते हैं। यह सबका हक है सो सुरक्षित है ही। हम तो यहाँ तक चाहते हैं कि इस रिवाज पर भी हमारी समाज को विचार कर परिवर्तन करना चाहिये, क्योंकि बहुत सी जगह इतने मात्र से ही अनिष्ट परिणाम हुए हैं। सुन्दर मित्र! अधिकारवाद से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं नहीं है। जहाँ अधिकार बाद है वहाँ झगड़ा है और उसके साथ कर्म बन्धन भी। यदि यह हक का भूत आप पर सवार नहीं होता तो आप में व Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३०७ ******************************************* दिगम्बरों में जो अधिकारवाद का झगड़ा है और उससे लाखों करोड़ों रुपयों का अपव्यय हुआ है, हो रहा है और भविष्य में होने वाला है, यह सब नहीं होता, किन्तु जहाँ सुन्दर मित्र जैसे गुरु हों और अधिकारवाद का जोर शोर हो, वहाँ हमारे कथन पर कौन विचार कर सकता है? फिर भी हम तो यही चाहते हैं कि मूर्तिपूजक या स्थानकवासी या और कोई भी हों धार्मिक मामलों में अधिकारवाद को उत्तेजन देकर क्लेश नहीं बढ़े तो अच्छा है। ___आगे सुन्दर मित्र ने चौथी बात यह बतायी कि “मूर्ति नहीं मानने के कारण ३२ सूत्र के सिवाय अन्य सूत्र व हजारों ग्रन्थों से दूर भटकने लगे, यदि कोई पढ़ता है तो चर्चा के समय उसे अप्रमाणिक बताकर कर्म बांधता है" आदि। . यह बात भी विवेक से शून्य है, इसके विषय में हम पहले खूब लिख आये हैं, यहाँ संक्षेप में इतना ही कहेंगे कि सूत्रों और वीतराग वचनों को दूषण लगाने वाले तथा मतमोह में सने हुए जितने भी सूत्र या ग्रन्थ आदि हैं वे अवश्य प्रामाणिक नहीं हो सकते। पढ़ना दूसरी बात है और प्रामाणिक मानना भिन्न बात है, जैसे मैंने आपका "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास'' (जिसके उत्तर में मैं यह ग्रन्थ लिख रहा हूँ) पढ़ा है, तो क्या पढ़ने मात्र से ही यह मननीय या प्रामाणिक बन गया? कितना भद्दा तर्क है? ___ पांचवें और छठे सारांश में आपने लिखा कि - : "मूर्ति नहीं मानने के कारण टीका, नियुक्ति भाष्य, चूर्णि, वृत्ति तथा ग्रन्थादि का अपमान कर वज्र पाप का भागी बनना पड़ा। नई कपोल कल्पित टीकायें बनानी पड़ी। ग्रन्थों के अनेक चारित्रों से मूर्ति विषयक पाठ निकालकर कल्पित पाठ बनाने पड़े, जैसे जैन Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ उपसंहार का संहार रामायण, उपासक दशांग टीका, श्रीपाल रासादि इनमें अन्य ग्रन्थों से चोरी भी करनी पड़ी।" आदि आदि। टीका निर्युक्त्यादि और ग्रन्थों के विषय में हम पहले दो प्रकरणों में बहुत कुछ लिख चुके हैं। यहाँ केवल इतना ही लिखना पर्याप्त है कि हम टीका आदि को मानते हैं, किन्तु वर्तमान काल की टीका आदि को पूर्ण रूपेण मान्य नहीं करते, क्योंकि कितने ही स्थानों पर मूल के बिना ही तथा मूल विरुद्ध व्याख्या की गई है। तथा टीकाव्याख्या कोई भी सूत्रों का विशेष अनुभवी विद्वान् बना सकता है तथा टीकाकार का निज का मंतव्य भी उसमें रहता है। ऐसी दशा में अपूर्णता के कारण त्रुटियां रह जाना स्वाभाविक है। स्वयं श्री अभयदेवाचार्य ने स्थानांग सूत्र की टीका समाप्त करते हुए यह बात स्वीकार की है तब आँखें बन्द करके सभी को यथातथ्य मान लेना बुद्धिमत्ता नहीं है। यही हाल ग्रन्थों के भी हैं। ग्रन्थों में भी कितनी ही विरुद्ध बातें लिखी हैं। यहाँ सिर्फ एक प्रमाण दिया जाता है। "लोक प्रकाश" के तीसरे भाग में लेखक ने अशनादि चारों आहार की व्याख्या करते हुए पान शब्द में मदिरा-शराब-गिना दिया है? बताइये, इस विपरीत व्याख्या को कैसे मानें? इसके सिवाय चरित्र ग्रन्थों का तो कहना ही क्या है? वे तो कदाचित् “ऐतिहासिक उपन्यास' ही कहने के योग्य हैं। यहाँ उनकी टीका टिप्पणी करना अनावश्यक हैं। समय आने पर इसके लिये एक समालोचना का ग्रन्थ ही प्रस्तुत किया जायगा। मुझे लिखते हुए अत्यन्त खेद होता है कि हमारे साधुमार्गी समाज के कुछ विद्वानों ने मूर्ति पूजक चरित्र ग्रन्थों में से कुछ चरित्रों को लेकर उन पर से मनमानी राग रागिणी में ढालें बना कर उनका Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा 必学学本中***李****李多学学士学李******多多多多多多****** प्रचार किया है। उन पर व्याख्यान चलते हैं। यद्यपि यह प्रवृत्ति साधारण मनुष्यों को लुभाने के लिए ही है, तथापि यह अनुचित अवश्य है! यदि व्याख्याता को ऐसी कहानियें ही सुनाना है, तो कृपा कर वे इन पर सत्यता की छाप तो न लगाया करें और स्वतंत्र बुद्धिबल से चरित्र रचना करें, वह भी जनोपकारी हो सके वैसी, किन्तु हानिकर तथा निरर्थक सामग्री से भरी हुई नहीं होनी चाहिये। मूर्ति पूजक चरित्र ग्रन्थों से कथानक लेकर उसमें से न्यूनाधिक करके उसे अपनी मान्यतानुसार गढ़ लेना यह भी ठीक नहीं है। यद्यपि मूर्ति पूजक महात्माओं ने भी "महाभारत" "रामायण' आदि अन्य दर्शनियों से लेकर कुछ परिवर्तन के साथ नये रूप में उपस्थित किया है और प्राचीन काल की होने से जैन समाज में अभी माननीय समझी जाती है, किन्तु वास्तव में मूल वस्तु जैनेतर समाज की है, ऐसा मेरा अनुमान है, फिर भी यहाँ मैं अपने ही समाज के विद्वानों से निवेदन करूँगा कि - कृपा कर इस प्रवृत्ति को छोड़ें तो ठीक हैं। सातवें सारांश में आपने लिखा है कि - "मूर्ति नहीं मानने के कारण ही संघ में न्याति जाति में कुसंप पैदा हुआ।" आदि यह भी द्वेष बुद्धि का ही परिणाम है। हम यहाँ लेखक श्री से पूछते हैं कि पहले आप यह तो बताइये कि मूर्तिपूजकों में पारस्परिक कलह जो जोर शोर से चलता है क्या वह भी मूर्ति नहीं मानने का कारण है? चार वर्ष पूर्व मूर्ति पूजक समाज में पर्युषण पर्व के दिनों में साम्वत्सरिक (एक दिन आगे पीछे के) झगड़े को लेकर एक सभा में युद्ध प्रारम्भ हुआ था और सैंकड़ों मनुष्य घायल हो गये थे, क्या यह भी मूर्ति नहीं मानने का फल है? दो वर्ष पहले उदयपुर (मेवाड़) में Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० उपसंहार का संहार ******************************************* दो मूर्ति पूजक साधुओं के आपस में डंडेमार चल गई थी जिससे एक साधु को ज्यादा चोट लग जाने से रक्त बह निकला था, क्या यह भी मूर्ति नहीं मानने का फल था? वास्तव में मूर्ति पूजा करने व न करने का इतना झगड़ा नहीं है जितना स्वार्थ, अभिमान या पक्ष मोह का झगड़ा है। सुन्दर मित्र ने तो कल्पना तरंग में ही कलम चलाई है, किन्तु हम तो सप्रमाण स्पष्ट कहते हैं कि जैन समाज में कलह की अधिकता में मन्दिरों और मूर्तियों का भी प्रधान कारण है। करोड़ों रुपये इनके लिए कोर्टों में और वकील बैरिस्टरों के खजानों में पहुँच गये। केशरिया तीर्थ में मानव संहार हुआ। मकसी तीर्थ में मूर्ति की हालत दो पत्नी वाले पति जैसी हुई और हमेशा हो रही है। आगमोद्धारकजी को खून से मन्दिर धोने का फतवा जाहिर करना पड़ा आदि अनेक तरह से इन मन्दिरों और मूर्तियों ने जैन समाज में फूट फैलाई। धन नाश कराया। एक को दूसरे का दुश्मन बनाया। इस तरह मूर्तियों और मन्दिरों से जैन समाज की अपार हानि हुई है? इस हानि को छुपाकर उल्टी हमारे शिर लादना, यह सुन्दर जी की सुन्दर बुद्धि का चमत्कार है। ___सुन्दर मित्र मूर्ति नहीं मानने के कारण ही संघ में झगड़ा होना बताते हैं। यह वास्तव में इनकी कलुषित भावना का ही फल है। मैं यहाँ सिर्फ यही कहता हूँ कि सुन्दर मित्र! पहले इतिहास पढ़ें, फिर इतिहासज्ञ बनें। आपके ही इतिहासकार जैन समाज में कलह का आरम्भ वि० सं० २३६ से बतलाते हैं, जब दिगम्बर और श्वेताम्बर ऐसे दो पक्ष हुए थे। फिर चैत्यवाद और चैत्यवास ने कलह का पोषण किया। इस प्रकार यह दिनों दिन फैलता ही गया। किन्तु सुन्दर मित्र को इतिहास से क्या तात्पर्य? इन्हें तो सिर्फ वैर वसूल करना है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३११ *********************李*圣多姿多次*********** आप अन्तिम मन्तव्य में लिखते हैं कि - 'मूर्ति नहीं मानने के कारण मूर्ति नहीं मानने वालों के उत्पाद से शुद्धि का कार्य बन्द हो गया।" यह भी पूर्ववत् विपरीत ही है। क्योंकि शुद्धि के विषय में मूर्ति मानने नहीं मानने की कोई बाधा ही नहीं है। न स्थानकवासी समाज शुद्धि का विरोधी है। फिर यह अनर्गल कथन क्या अर्थ रखता है? । जैसी पुस्तक वैसा ही उसका उपसंहार। सत्य के पीछे तो सुन्दर मित्र बुरी तरह से लट्ठ लेकर पड़े और कल्पना तरंग में ही गोते लगाते गये, वह भी पक्ष मोह में मस्त होकर, फिर वहाँ सत्य के लिए अवकाश ही कहाँ रहता है ? यदि सत्य और धर्मतत्त्व को हृदय में रखकर विचार किया जाय तो सुन्दरजी के उपसंहार का संहार ही निश्चित है। पाठक स्वयं इसका अनुभव कर लें। (४१) निष्कर्ष श्री ज्ञानसुन्दरजी के 'मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास' नामक ग्रन्थ के उत्तर में यह प्रथम भाग हम पाठकों की सेवा में रख रहे हैं। हमारे सुज्ञ पाठक समझ गये होंगे कि सुन्दर मित्र का पक्ष कितना निर्बल है। यहाँ संक्षेप में इस ग्रन्थ का निष्कर्ष (परिणाम) दे देते हैं १. मूर्ति पूजा प्रवृत्ति मार्ग का पोषक है, इन्द्रियों के विषयों के पोषण का सरल साधन है, आत्म-कल्याण से इसका सम्बन्ध तनिक भी नहीं है। २. रूपी द्रव्य (पुद्गल) अनादि होने से मूर्ति पूजा अनादि तथा आचरणीय नहीं हो सकती। क्योंकि इस युक्ति से तो चण्डी, काली आदि की मूर्तियें भी पूजनीय हो सकेंगी तथा पुद्गल त्याग रूप . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ निष्कर्ष ***在沙特尔中李李李子步行李空中学学子弟中李东学中学生在中李*** निवृत्ति मार्ग, पुद्गल संग्रह, पुद्गलासक्त रूप प्रबृतिमार्ग होकर आत्म-कल्याण से वंचित रहता है। ३. मूर्ति पूजा का सिद्धांत विश्वव्यापक नहीं। न किसी वस्तु के विश्व व्यापक होने से वो धार्मिक बन सकती है या उपादेय हो जाती है, जैसे मिथ्यात्व, व्यभिचार, पाखण्ड आदि। .... ४. मूर्ति सदाचार आदि का मूल कारण नहीं, फर प्रायः दुराचार की प्रवर्तिका है। प्रत्यक्ष में जैन समाज के करोड़ों रुपयों का झगड़े में नाश, आपस में क्लेश, यहाँ तक कि नृशंस हाल्या का भी कारण मूर्तियें ही बनी हैं, पाखण्ड और अन्धविश्वास की प्रबल प्रचारिका भी यही हैं। ५. हृदय में साक्षात् का ध्यान करना या गुण चिंतन करना मूर्ति पूजा नहीं है। ६. मूर्ति पूजकों ने संसार का जितना अहित किया है उतना कदाचित् ही और तरह से हुआ हो? यदि मूर्तिपूजक अपना धन मन्दिरों और मूर्तियों में नहीं लगाते तो देश की इतनी गरीबी हालत नहीं होती। ७. धर्म प्रभु आज्ञा के पालन करने में है और प्रभु आज्ञा में साधुओं के पंच महाव्रत आदि तथा श्रावकों के द्वादशवत आदि है, मूर्ति पूजा नाम मात्र को भी नहीं है। ८. सूर्याभ देव ने अपने परम्परा के रिवाज के अनुसार प्रतिमा पूजी थी, किन्तु धर्म निमित्त नहीं। न वे मूर्तियें तीर्थंकरों की सिद्ध हो सकती हैं। क्योंकि वे शाश्वती हैं तथा सूर्याभ की पूजा सांसारिक है। ६. "नियंसेई" शब्द का वस्त्र चढ़ाना अर्थ करना एकदम मिथ्या है। ___ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३१३ *********全中李************学学*************** १०. रायपसेणइय का भारी पाठ भेद होना तथा टीकाकार के कथन से वहाँ का पाठ कदाचित् टीकाकार का ही बनाया हुआ हो, यह सन्देह सुस्पष्ट है। ११, सूर्याभ की पूजा में शास्त्रकारों की सम्मति बताना सफेद झूठ है। १२. प्रभुवन्दन, साधु सेवा, संयम पालन के फल से मूर्ति पूजा का फल समान दिखाना दिन दहाड़े आँखों में धूल डालना है। १३. सूर्याभ नो “नम्मुत्थुणः” से मूर्ति को नहीं पर भाव सिद्धों को नमस्कार किया। १४. “पूयणाबत्तियं" से फूलों से पूजन का अर्थ करना पक्ष व्यामोहता है। १५. लोंकामच्छीय यति जो मूर्ति पूजक हैं वे श्रीमान् लोकाशाह के वंशज कहे जाने योग्य नहीं, क्योंकि वे उस पुण्य पुरुष की मान्यता के विरुद्ध मूर्तिपूजक हैं। उनका प्रमाण कुछ भी प्रभावजनक नहीं हो सकता। १६. चमरेन्द्र ने मूर्ति का शरण लिया ही नहीं। न मूर्ति शरण देने योग्य ही हो सकती है। १७. “देवाणं आसायणाएं" का अर्थ मूर्तियों की आशातना मानने वाले अल्पज्ञ हैं। १८. आनन्द श्रमणोपासक को मूर्ति पूजक कहना सरासर मिथ्या है। १६. अंबड़ श्रावक मूर्ति पूजक नहीं था, उववाई के पाठ में गड़बड़ पाई जाती है। २०. तुंगिया के श्रमणोपासकों को मूर्ति पूजक बताने वाले Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ निष्कर्ष ****************************************** मतमोह में मस्त ही कहे जा सकते हैं। बहुत से मूर्ति पूजक विद्वान् भी उन्हें तीर्थंकर की मूर्ति के पूजक नहीं मानते हैं। २१. चारण मुनियों ने मूर्ति की स्तुति या वंदना नहीं की। .. २२. द्रौपदी ने मिथ्यात्व दशा में जो प्रतिमा पूजी, वह कामदेव की पाई जाती है। क्योंकि वह निदान प्रभाव से विषयाभिलाषिणी थी, साथ ही सम्यक्त्व रहित भी। श्री गुणसागरसूरि जी आज से ३००-३५० वर्ष पूर्व हुए हैं वे भी इस बात को स्वीकार कर चुके हैं। २३. ज्ञाता का “णमुत्थुणं' प्रक्षिप्त पाठ है। प्राचीन प्रतियों में ऐसा पाठ नहीं है। श्रीमान् हर्षचन्द्रजी महाराज तथा श्री मज्येष्ठमल्लजी महाराज के नाम का उल्लेख केवल जनता को भ्रम में डालने के लिए ही किया गया है। २४. “चैत्य' शब्द का केवल जिन मन्दिर और जिनमूर्ति अर्थ करने वाले शब्द शास्त्र तथा आगमों के विराधक हैं। चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। २५. धर्म के कहे जाने वाले मुख्य अंग ऐसे मूर्ति पूजा के लिए आज्ञा रूप वैधानिक प्रमाण नहीं देकर कथाओं के प्रमाण, वे भी मनः कल्पित ढंग से देने वाले सत्य से सर्वथा दूर हैं। चरितानुवाद का कथन विधिवाद में ग्राह्य नहीं होता। फिर चरितानुवाद के शब्दों और भावों को बिगाड़ कर अपना मतलब साधने का प्रयत्न करना तो अनुचित है ही। २६. स्थापनाचार्य रखने का विधान किसी भी सूत्र में नहीं है, न इसकी आवश्यकता ही है। २७. पूज्य के सिद्धान्त विरुद्ध सिद्धान्तों का भंगकर उल्टी क्रिया करना, पूज्य की पूजा नहीं पर अपमान है। मूर्ति पूजा में प्रभु Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ******** *************** की पूजा नहीं होती, किन्तु जीवों की हिंसा तथा पूज्य का अपमान अनादर तथा विराधना होती है। २८. डॉ. हरमन जेकोबी का मूर्ति पूजा के विरुद्ध अभिप्राय अटल है। जोधपुर का अभिप्राय महत्वपूर्ण नहीं है । ३१५ २६. भरत चक्रवर्ती ने मन्दिर मूर्त्तियें बनाई, ऐसा कहने वाले दूसरे पाप के भागी हैं। ३०. श्रेणिक को मूर्ति पूजक गपौड़ शास्त्र ही बताते हैं । सर्वमान्य आगम नहीं । ३१. स्वर्ण गुलिका के साथ मूर्ति का सम्बन्ध पौराणिक गपौड़ा है। ३२. चंपानगरी में अरिहंतों के मन्दिर थे, ऐसा कथन प्रामाणिक नहीं है । ३३. जिन मूर्ति के सामने आलोचना करने का कहने वाले उत्सूत्र भाषी हैं। ३४. दाढ़ा पूजन धार्मिक क्रिया नहीं है। ३५. स्थापना सत्य का तात्पर्य मूर्ति पूजा नहीं, पर स्थापना को स्थापना, चित्र को चित्र मानने से हैं। न ३६. मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं, मूर्तियों के सभी लेख सच्चे हैं। मूर्ति को लेकर कई प्रकार के षड्यंत्र रचे गये और स्वार्थ साधा गया। उसी प्रकार संवत् लिखने में भी होना स्वाभाविक है। सर्वमान्य आगमों के सामने इसका कोई मूल्य नहीं । ३७. स्तूप निर्माण का कारण स्मारक तथा दाह आदि स्थानों को अपवित्रादि नहीं होने देने का है। पूजा के लिये नहीं । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ निष्कर्ष ******学*********************************** ३८. मुनि श्री मणिलालजी महाराज ने अपने इतिहास में मूर्ति पूजा का समर्थन नहीं किया, किन्तु विरोध तो अवश्य किया है। ३९. मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थ, आगमों के विरुद्ध और वीतराग वचनों के बाधक होने से पूर्ण रूपेण मान्य नहीं हो सकते। ४०. टीका, नियुक्ति आदि मूल की तरह मान्य नहीं हो सकती, क्योंकि इनमें स्खलना भी हो गई है। ४१. साधुमार्गी जैन को, मूर्ति पूजक कहने वाले मतमोह में मतवाले हो रहे हैं। ४२. बत्तीस सूत्रों में मूर्ति पूजा का विधान होने का कहना वंध्या के पुत्र होने का कहने के बराबर है। ४३. साधारण लोगों द्वारा फैली हुई विकृति से मूल सिद्धान्त का कोई सम्बन्ध नहीं है। मुस्लिम तथा क्रिश्चियन आदि समाजों में मूर्ति पूजा विकृत रूप से घुसी है, इन समाजों के मूल सिद्धान्तों में मूर्ति पूजा का खण्डन किया गया है। ४४. मूर्ति पूजक समाज के ग्रन्थों में मूर्ति पूजा के विरुद्ध उल्लेख मौजूद है। ४५. मूर्ति पूजा विषयक उपदेश देना जैन साधु का कर्तव्य नहीं है। इस मूर्ति और मन्दिर के चक्कर में पड़ कर मूर्ति पूजक मुनियों ने चारित्र धर्म की उपेक्षा कर दी है। ४६. सुन्दर मित्र का उपसंहार भी अहंकार पूर्ण और असत्य है। ४७. मूर्ति पूजा से न किसी का आत्म-कल्याण हुआ, न किसी साधु या श्रावक ने इसे अपनाया, आप्त कथित आगमों में अनेकों आत्म-कल्याणकर्ताओं का चरित्र विद्यमान है, किन्तु किसी एक भी चरित्र में ऐसा उल्लेख नहीं है। ___ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******* ४८. सुन्दर मित्र ने प्रायः असत्य पक्षपात तथा निंदकपन से ही काम लिया है। तटस्थता से नहीं । मैं अपनी जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा नामक पुस्तक के पूर्वार्द्ध को पूर्ण करते हुए पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि वे निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें। पुस्तक के प्रमाणों को देखें, युक्तियों को परखें। यदि पाठकों ने मेरे निवेदन पर ध्यान दिया तो यह स्पष्ट ज्ञान होगा कि सुन्दर मित्र के ग्रन्थ की असत्यता तथा मूर्ति पूजा के सिद्धान्त की अनुपादेयता सहज ही बुद्धि गम्य है । सुन्दर मित्र के मूर्ति पूजा विषयक प्रश्नोत्तर नामक प्रकरण का सचोट उत्तर इस पुस्तक के उत्तरार्द्ध में देने का प्रयत्न करूँगा । यदि पाठकों का सहयोग हुआ और साधनों की अनुकूलता हुई तो शीघ्र ही द्वितीय भाग भी पाठकों के करकमलों में लगभग इसी आकार में समर्पित करने का प्रयत्न करूँगा। जिससे पाठक जान सकेंगे कि सुन्दर मित्र के तर्क कितने भद्दे और छल कपट पूर्ण हैं | ॥ समाप्त ॥ ३१७ ✰✰✰✰ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ परिशिष्ट परिशिष्ट अनुसंधान पृ० २२६ पं० अंतिम के बाद। ' (२) भावनगर से प्रकाशित मूर्तिपूजक “जैन” पत्र ता० १६-५-४२ के अंक पृ० ४१६ में “प्राचीनता नुं खून' शीर्षक लेख से लिखा है कि - "श्री समेतशिखर जी नी यात्रार्थे मधुवन गया त्यां सर्व मंदिर ना दर्शनकरी बाहर आवतां मधुवन तलेटी नां मन्दिरनी डाबी बाजुना होलमां नानी मोटी सफेत काला आरसनी प्रतिमा जी ना दर्शन करवा जतां एक दृश्य देखायुं, प्रतिमाजी प्राचीन देखाती पड़ती ज्यारे तेनी नीचेना लेख वाचतां ते लेखो मिटावी नांखेला तथा कोइमां श्रावक नुं नाम संवत् विगेरे प्राचीन हतुं अने प्रतिष्ठा करावनार आचार्य महाराजनुं नाम नवु खोदेल जोयुं मुनीम ने पुछतां एवो जवाब मल्यो के एक तपा गच्छीय महाराजे जुना लेखों जे खरतर गच्छी महाराजा ना नामना हतां तेनो नाशकरी पोताना तपा गच्छ ना आचार्यों ना नामनो लेख खोदाववो शरु कर्यो तेमज शिखरजी नी उपरनी टुको ना चरणो जे खरतर गच्छीय आचार्योना हस्ते प्रतिष्ठित थओल छे तेने पण रातना कारीगरो मोकली मिटावी दीधा छ।” (उक्त लेख का प्रतिवाद ता० २३-६-४२ के जैन पत्र पृ० ५ में किया गया है किन्तु प्रतिमा के लेखों को मिटाने की बात उसमें भी मानी गई है।) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३१६ ******************************************* (३) उक्त पत्र वर्ष ४१ अंक २२ ता० ७-६-४२ पृ० ३६० में "जैन समाज की दो शाखाएं " शीर्षक लेख में लिखा है कि - "जैतारण और मुर्शिदाबा के जैन मन्दिरों में बीसवीं शताब्दी की नूतन मूर्तियों पर खरतरों ने बारहवीं शताब्दी के नाम के शिलालेख खुदवा दिये हैं।" देख लिये मूर्तियों के लेखों की सच्चाई के नमूने ? * * * * उपयोगी पद्य थावर तीरथ संसार में, आधुनिक नजर आते हैं॥अंतर॥ जिसकर तीरे तीर्थ है सोई। देखो शब्द अर्थको जोई॥ सो तो शक्ति न दोसे कोई, सरिता और पहार में। पिन कु गुरु भरमाते हैं॥१॥ जंगम तीरथ को नहीं ध्यावें, कल्पित जड़ तीर्थों पर जावे। धाम काम तज पाप कमावें, वो भव दधि की धार। गहिरे गोते खाते हैं॥२॥ विक्रम संवतसर सुन भाई, एक सहिंस पैतालिश मांई। शत्रुञ्जय पर नींव लगाई, मंदिर बहु विस्तार में। बनवाया बतलाते हैं॥३॥ देखो जिन भाषित आगम को, तजदो मिथ्याजाल भरमको। धारो हिरदे दया धरम को, पड़ो मती जंजार में। हित धरकर समुझाते हैं॥४॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० परिशिष्ट बारहसो छ्यासठ हायन में, विकट पहाड़ देख कानन में। बनवाये पगल्या पाहन में, तब से गढ़ गिरनार में। तीरथ करने जाते हैं॥५॥ बारह सय पिच्चास्त्री वत्सर, बनवाया मंदिर आबू पर। तेजपाल अरु वस्तुपाल नर, हिंसा धर्म प्रचार में। दोउ बढ़िया कहिवाते हैं ॥६॥ विक्रमार्क सौलह शत जानो, उपर बरस पच्चीस बखानो। तबसे शिखर तीर्थ प्रकटानो, देखो शिखर मझार में। यह शिला लेख पाते हैं॥७॥ कर अनुमान शिखर गिरजाई, बेहद अटवी को कटवाई। बीस टोंक जग सेठ बनाई, मूढ़ अधर्म दुवार में। धन व्यय कर हरषाते हैं॥८॥ अचरज विज्ञ बनें जड़ सेवें, जड़ की भक्ति मुक्ति किम देवें। यह तो बालक हू लखि लेवें, लाओ बुद्धि बिचार में। इम सत गुरु चेताते हैं॥६॥ (दंडी दंभ दर्पण) Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमजा भारवर बाICO व्यावरराज)