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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ********************************************* ___ उक्त मूल पाठ का भाषान्तर पं० बेचरदासजी पृ० ६१ में इस प्रकार करते हैं -
“पछी तेना सामानिक सभ्य देवोए तेनी समक्ष त्यां बधी अलङ्कार सामग्री उपस्थित करी, पहेला तो न्हाएलो होवाथी तेणे सुकोमल अङ्ग लूछणा द्वारा पोतानां अङ्गों लूछयां, तेना उपर सरस गोशीर्ष चन्दन नो लेप को अने त्यारबाद एकज फूंके उड़ी शके तेवु घोड़ा नी लाल जेवू नरम, सुन्दर वर्ण अने स्पर्शवालुं अने जेने छेड़े सोनुं जड़ेलु छे तेवू स्फटिक जेवू उजलु धोलुं देवदूष्य युगल तेणे पहेर्यु।' ___इसके सिवाय १ आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी के दीक्षा उत्सव के वर्णन में, २-३ श्री जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में चक्रवर्ती भरतेश्वर महाराज के स्नान वस्त्रपरिधानाधिकार और प्रथम जिनेश्वर के निर्वाणाधिकार में, ४ उववाई सूत्र के सम्राट् कोणिक के स्नान के बाद वस्त्र पहिनने के वर्णन में और ५ ज्ञाता धर्मकथा अ० १ में, इत्यादि अनेक स्थानों पर यही वर्णन है कि गोशीर्ष चन्दन का लेप करने के बाद वस्त्र पहिने, और वस्त्र पहिनने में “नियंसेति" शब्द ही आया है। क्या अब भी सुन्दरजी की अज्ञता में कुछ सन्देह है?
सुन्दर मित्र! देखिये मूर्ति को वस्त्र पहिनाना आपके श्री विजयानन्द सूरिजी भी स्वीकार करते हैं यथा -
“जिस समय द्रोपदी ने जिन प्रतिमा की पूजा करी तिस समय में जिन प्रतिमा को वस्त्र पहिराने का रिवाज था सो हम मन्जूर करते
(हिन्दी सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० १००) कहिये, महात्मन्! अब तो आपके मन की मुराद मिट्टी में मिली? जरा पहिले ही विचार से काम लिया होता तो सुज्ञ जनता में आपकी मूर्खता तो जाहिर नहीं होती?
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