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स्तूप
निर्माण का कारण
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इस पत्र में डॉक्टर साहब ने स्पष्ट लिखा है कि - "देवालयो मूर्ति की पूजा यह जैन धर्म का मूल तत्त्व नहीं है किन्तु देवी देवताओ की भक्ति की आवश्यकता को पूरी करने के लिए यह प्रथा चलाई गई हैं, मूर्ति पूजा की प्रथा बहुत पुरानी है किन्तु सूत्रों के जितनी प्राचीन नहीं है। महावीर के समय में एक तरह का धार्मिक पंथ कि जो जैन तत्त्व से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता था, वो देव मन्दिरों को मानता था, उस पंथ के लोकों में अधिक प्रचार पाई हुई यक्ष और दूसरे लोक मान्य देवी देवता और मैले देवताओं को पूजा के बदले यह मूर्ति पूजा प्रारम्भ हुई ऐसा पाया जाता है।" आदि इस पर से भी यही सिद्ध होता है कि - डॉक्टर साहब का मत मूर्ति पूजा में जैनत्व मानने का हर्गिज नहीं है और मूर्ति पूजा के विरुद्ध उनका जो अभिप्राय है वही सत्य और अटल है। "
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(२९)
स्तूप निर्माण का कारण
श्री ज्ञानसुन्दरजी ने आगमों में स्तूप सम्बन्धी आये हुए उल्लेखों भी मूर्ति पूजा सिद्ध करने की चेष्टा की हैं और ऐसा ही प्रयत्न दो चार वर्ष पहले श्री न्यायविजयजी ने भी किया था, किन्तु यह भी प्रयत्न वस्तु स्थिति को न समझ कर ही जनता को भूलावे में डालने का है, वस्तुतः स्तूप निर्माण का कारण महापुरुषों का स्मारक रखने का ही है। जिस स्थान पर किसी ऐतिहासिक महा पुरुष के शव को जलाया गया हो उस स्थान पर कुछ स्मारक बना दिया जाय उसे स्तूप कहते हैं ।
जब तीर्थंकर महाराज का निर्वाण होता था तब उनके शव की
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