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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा . १९६ ******************************************* दाह क्रिया के स्थान पर उनके श्रद्धालु भक्त स्तूप बनवा देते थे, इस विषय का वर्णन श्री जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में आया है, वहाँ लिखा है कि जब प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी का निर्वाण हुआ तब इन्द्रादि देवों ने मनुष्य लोक में आकर विशिष्ट प्रकार से दाह क्रिया की, तत्पश्चात् इन्द्र देवों को आज्ञा देता है कि -
"तरणं सक्के देविंदे देवराया बहवे भवणवइ जाव वेमाणिए देवे जहारिअंएवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! सव्वरयणामए महए महालए तउ चेइअथूभेकरेइ, एगभगवउ तित्थगरस्स चिइगाए, एगं गणधर चिइगाए एगं अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए तएणं ते बहवे जाव करेति।"
इस मूल पाठ का यह अर्थ है कि - जब शक्र देवेन्द्र देवराज उन बहुत से भवनपति यावत् वैमानिक देवों से ऐसा कहते हैं कि अहो देवताओं के प्यारे! शीघ्र ही सर्व प्रकार के रत्नों से बड़े और विशाल ऐसे तीन चैत्य-स्तूप निर्माण करो, एक तीर्थंकर भगवान् के चिता स्थान पर, एक गणधर की चिता स्थान पर और एक बाकी के साधुओं की चिता के स्थान पर। उसी प्रकार उन सब देवताओं ने किया।
उक्त आगम प्रमाण से पाठक सहज ही समझ सकेंगे कि ये चैत्य स्तूप महापुरुषों के दाहस्थान पर यादगार या उस स्थान पर और किसी प्रकार की चलने फिरने आदि की क्रिया नहीं हो सके, इस कारण से बने हैं। इस क्रिया में दो हेतु ही मुख्यतः होते हैं, एक तो उन महापुरुषों की हजारों वर्षों तक यादगार रहती है, दूसरा उन माननीय पूजनीय महात्माओं की दाहभूमि पर कोई पैर आदि नहीं लगा सके या मलमूत्रादि न कर सके। बस ऐसे ही कारणों को लेकर ये चैत्य स्तूप श्रद्धावान्
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