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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा ************* प्रवृत्ति थी घणा जैनो जैनेतर थता अटक्या, अने तेम करवा मां ए आचार्योए जैन समाज ऊपर महान् उपकार कर्यो छे, एम कहेवा मां जरा अतिशयोक्ति नथी" १८३ *** धर्मोन्नति अने धर्म रक्षण नी प्रबल लागणी ना आवेश मां आचार्योए प्रतिमानी - जिनेश्वर देवनी मूर्तिनी स्थापना करी, पण तेनुं भावि केवुं आवशे? तेनो ते वखते तेमणे जराए विचार न कर्यो, तेमज सिद्धांतनी - श्री वीतराग देवनी आज्ञानो पण शान्त चित्ते विचार न कर्यो ।” Jain Education International (जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास अने प्रभुवीर पट्टावली पृ० १३०) पाठक बन्धुओ ! उक्त अवतरण पर से आप समझ गये होंगे कि सुन्दरजी ने पूर्वापर सम्बन्ध को छोड़ दिया और थोड़े से अंश को पकड़ कर कैसा भ्रम फैलाया? उक्त अवतरण में मूर्ति पूजा को एक भुलावे में डालने का साधन मात्र बताया है और बाद में यह स्पष्ट कह दिया कि ऐसा करने में उन आचार्यों ने भविष्य की भयंकरता का विचार नहीं किया, न आगम - वीतराग की आज्ञा का ही ध्यान रक्खा। वास्तव में विकृति का बीज सूक्ष्म होते हुए भी भयङ्कर है, भले ही स्थूल दृष्टि से उसकी भयङ्करता तत्काल में न दिखाई दे, किन्तु वही सूक्ष्म बीजं जब विशाल रूप धारण करता है तब उसकी भयङ्करता मूर्तिमान् होकर सर्वनाशकारी बन जाती है। सुन्दर मित्र ! मुनि श्री मणिलालजी महाराज ने मूर्ति पूजा की जो भयङ्करता और शास्त्र विरुद्धता दिखाई, क्या वह आपकी दृष्टि में नहीं आई? आपके अवतरण के अक्षरों के पूर्व के शब्द ही जब मूर्ति को खिलौना मात्र बता रहे हैं और बाद के शब्द उसकी भावी भयङ्करता तथा शास्त्र विरुद्धता घोषित कर रहे हैं, तब आप को गेहूँ छोड़कर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org •
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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