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________________ पट्टावली के नाम से प्रपंच ***************************************** "राजाओं अने गृहस्थों जैनेतर समाज मां जाय छे एनुं खास कारण तेओनां इष्ट देवनी मूर्ति नुं आकर्षण छे, धर्म गुरुओं हाजर होय के न होय पण प्रभुनां दर्शन करीए, तेनुं पूजन-अर्चन करीए तोपण आत्मकल्याण साधी शकाय छे" आप्रकार नी भावना ना योगे राजाओ वगेरे जैनधर्म तजी दई इतर पंथमां जाय छे, माटे तेओने धर्मांतर करता अटकाववा माटे आपणे पण श्री जिनेश्वर देव नी प्रतिमानुं अवलम्बन बतावीए तो जरूर घणा मनुष्यों धर्मांतर करतां अटके, वली सिद्धांतों मां पण " स्थापना निक्षेप" कहेल छे, तो श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमा ने स्थापन करवामां कोई जात नो प्रतिबंध नडतो नथी, अने ए प्रतिमाने अवलम्बन तरीके मानवाथी बाल जीवों ने धर्म भ्रष्ट थतां बचावी शकाशे, आम शुभ हेतुए तेमणे मूर्त्तिपूजानी प्रवृत्ति शरु करी दीधी । जेम एक नाना बालक ने तेना वंडीले पोतानी सगवड खातर के बालकना आनंद मे खातर अमुक जातना रमकडां रमवाने आप्या होय, अने तेनाथी बालक रमतुं होय, तेवामां ए रमकडां तरीकेनी कोई एक वस्तुनी तेनां वडीलोने जरूर पडे त्यारे जो एमने एम ए रमकडुं बालक पासे थी छीनवी लेवामां आवे तो ते बालक रडवा लागे अने कजियो करे, तेम न थवा पामे एटला खातर एक रमकडुं लेवा माटे बालकने बीजुं रमकडुं आपवुं पडे छे, एटले नवा रमकडां नी लालचे प्रथमनुं रमकडुं हाथ मांथी बालक मूकी दे छे, एज रीते बाल जीवो ने अन्य दर्शनीओनी मूर्ति - प्रतिमा प्रत्ये थती श्रद्धा अटकाववा माटे "सुविहित आचार्योए श्री जिनेश्वर देवनी प्रतिमानु अवलम्बन बताव्युं, अने तेनुं जे परिणाम मेलववा आचार्योए धार्युहतुं ते परिणाम केटलेक अंशे आव्युं पण खरं, अर्थात् जिनेश्वर देवनी प्रतिमानी स्थापना अने तेनी * इन बड़े अक्षरों के बीच का भाग लेकर ही सुन्दर मित्र ने प्रपञ्च रचा है। For Private & Personal Use Only १८२ ******** Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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