SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा .. १८१ *********夺多本***********本*本***冷********* यदि मूल सूत्र पर ही विचार किया जाय तो स्पष्ट पाया जाता है कि सूत्रकार को मन्दिर मूर्ति कतई मान्य नहीं है, न उस समय मन्दिर और मूर्तियों का पूजना पूजाना धर्म माना जाता था, तभी तो सम्यक्त्व भावित चैत्य के अभाव में सूत्रकार किसी जिन मन्दिर या मूर्ति के सामने नहीं भेजकर ग्राम से बाहर जंगल में जाकर अरिहंत सिद्धों की साक्षी से आलोचना करने की आज्ञा दे रहे हैं। यदि मन्दिर मूर्ति की मान्यता उन्हें इष्ट होती तो वे जरूर इसी विधान के स्थान पर मन्दिर मूर्तियों के ही सामने आलोचनादि करने का विधान करते। इस स्थिति पर से भी स्पष्ट हो जाता है कि मूर्ति पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा का सूत्रकार के समय जन्म भी नहीं हुआ था, ये लोग व्यर्थ की धांधलबाजी मचाकर सामान्य जनता को भ्रम में डालते हैं। (२५) - पटावली के नाम से प्रपञ्च सुन्दर मित्र ने पृ० १२६ के फुटनोट में श्रीमान् मणिलालजी महाराज रचित "प्रभुवीर पट्टावली" पृ० १३१ का पूर्वापर संबंध रहित उद्धरण देकर मूर्ति पूजा सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु यह करतूत भी सत्य को छुपाने वाली है, यहाँ हम पाठकों की सरलता के लिये उस स्थान का संक्षिप्त परिचय दे देते हैं। श्रीमद्भद्रबाहु स्वामी के स्वर्ग गमन पश्चात् जैन संघ को विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ा, सुविहित साधुओं का समागम दुर्लभ हो गया, समाज में क्लेश बढ़ने लगा, ऐसे समय में राजा लोग जो जैन धर्मी थे वे भी इतर धर्मावलम्बी होने लगे, सामान्य वर्ग भी जैनेत्तरों की ओर आकर्षित होने लगा, उस समय कुछ आचार्यों ने विचारा कि - (यहाँ से अविकल अवतरण दिया जाता है) यथा - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy