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________________ १८० व्यवहार सूत्र का समभावित चैत्य ******************************************* अब पाठक जरा नियुक्तिकार महाराज की भी इस सूत्र पर की व्याख्या देखें, आप लिखते हैं कि - "कोरंटगं जहा भावियट्ठमं पुच्छिउण वा अन्नं। अमति अरिहंत सिद्धे जाणंतो सुद्धो जा चेव॥ अर्थात् - भृगुकच्छ के कोरंट नामक उद्यान में श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ने अनेक बार समवसरण किया था, वहाँ तीर्थंकर और गणधरों ने अनेक साधुओं को अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिये थे, उस प्रायश्चित्त दान को वहाँ के देवता ने देखा था, इसलिए कोरंट उद्यान में जाकर “सम्यक्त्व से वासित है अंतःकरण जिनका ऐसे देवताओं" की आराधना के लिए तेला करके यथोचित आदर करे, जिससे वह देवता यथा योग्य प्रायश्चित्त दे देता है, कदाचित् वह देवता चव गया हो और वहाँ पर दूसरे देव उत्पन्न हुए हों तो उन्होंने तो तीर्थंकरों को देखा नहीं, और प्रायश्चित्त विधि सुनी नहीं, किन्तु तेले के प्रभाव से वे देवता महाविदेह में जाकर तीर्थंकरों से पूछकर प्रायश्चित्त देते हैं?" . नियुक्तिकार के उक्त कथन और व्याख्या पर से हम हमारे सुंदर हृदयी सुन्दर मित्र से पूछते हैं किं-क्या अब भी आप अपना मिथ्या हठ नहीं छोड़ेंगे ? कहिये, आपका “सुविहित प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा" अर्थ कहाँ हवा हो गया? ये आपके ही नियुक्तिकार और टीकाकार तो आपकी ही बोलती बन्द कर रहे हैं? क्या अब भी आप मूर्ति पूजा का मिथ्या हठ नहीं छोड़ेंगे? . सुज्ञ पाठको! इस जगह टीकाकार और नियुक्तिकार में भी मतभेद है, टीकाकार महाराज तो सम्यक्त्व युक्त अन्तःकरण वाले देव के अभाव में अपनी इच्छा से ही मूर्ति के पास भेज रहे हैं और नियुक्तिकार मूर्ति के लिये मौन साध रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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