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शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ********************************************* समझना सरल है कि “नमुत्थुणं'' मूर्ति को नहीं पर सिद्धों को है। दूसरी बात-"नमुत्थुणं' जो कहा वह सिद्धों की स्तुति के लिये कहा*, उसके अन्तिम वाक्य में भी यही बात है कि “सिद्धिगइनाम धेयं ठाणं संपत्ताणं" इसलिये यह स्तुति सिद्धगति प्राप्त सिद्धों की ही की गई। और णमुत्थुणं जो है वह भाव तीर्थंकरों की स्तुति का भी पाठ है, प्रमाण में इनके मूर्ति-पूजक लेखकों के मन्तव्य देखिये
"भाव जिनेश्वर नी स्तुति माटे कहेवाता शक्रस्तव मां योग मुद्रा राखवी।" (श्री सागरानन्द सूरिजी-सिद्ध-चक्र वर्ष ७ अङ्क ४ ता० २१-११-३८)
“प्रचलित शक्रस्तव पर्यन्त ना पाठनो विषय विविध विशेषणो थी विभूषित एवी भाव अरिहंत प्रभुनी स्तुति छे'. अने एना पछी नी गाथा द्रव्य अरिहंत अने भाव अरिहंत नी वंदना रूप छ।"
(प्रो० हीरालाल रसिकदास कापड़िया, "जैन सत्य प्रकाश" वर्ष २ अङ्क १२ पृ० ६०० का नमुत्थुणं ने अङ्गे शीर्षक लेख)
अतएव सिद्ध हो गया कि "नमुत्थुणं जिनेश्वर की स्तुति है, और सूर्याभ देव ने इससे सिद्ध प्रभु-भाव जिनेश्वर-की ही स्तुति की है, स्थापना-मूर्ति की नहीं।
३. तीसरी युक्ति में सुन्दर मित्र ने लिखा है कि सूर्याभ की मूर्तिपूजा को शास्त्रकार ने हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी और मोक्षकारी होना बताई है। इसमें सुन्दरमित्रजी भोले भाइयों की आँखों में धूल डालने का प्रयत्न करते हुए लिखते हैं कि -
"सूर्याभ के इन प्रश्नों के उत्तर में शास्त्रकार फरमाते हैं कि'- (पृ० ६१)
* नमुत्थुणं को शक्रस्तव भी कहते हैं।
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