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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा २७५ 产学学会学学会学术学李*********密******卒卒***李*** * (सूरिवर्यों को अब साक्षात् तीर्थंकरों की भी आवश्यकता नहीं, उनकी सब आवश्यकता पर्वत (जो स्टेट का कैदी है) पूरी कर देता है।) ___ अब पाठक जरा शत्रुजय महात्म्य (भाषांतर) के भी कुछ नमूने पहाड़ और नदी की प्रशंसा के देख लें, यहाँ हम अपनी भाषा में पृष्टांक सहित भाव मात्र देंगे क्योंकि इसकी समालोचना के लिए तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ चाहिए। देखये और आप स्वयं विचार कीजिये - १. “हे भव्यो! जप, तप, दान आदि क्यों करते हो? एक बार पुंडरीक गिरि की छाया का भी स्पर्श कर लो, बस अन्य कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं।" (पृ० २) २. “प्राणियों का भयङ्कर पाप पर्वत के स्मरण से नाश हो जाता है।" (पृ०२) ३. “पन्दरा कर्म भूमि में शत्रुजय समान कोई तीर्थ नहीं।" । (पृ० २१) ४. “प्रभु महावीर कहते हैं कि-इस तीर्थराज को नमस्कार । (पृ० २२) ५. “सम्यक्त्व ग्रहण किया हुआ भी यदि इस तीर्थ को नहीं पूजे तो उसका सब कुछ मिथ्या है।" (पृ० २३) ६. "जब तक गुरु मुख से "शत्रुजय' ऐसा नाम नहीं सुना तब तक ही हत्यादि पाप गर्जन करते हैं फिर कुछ नहीं।" (पृ० २५) ७. "भगवान् महावीर कहते हैं कि हे इन्द्र! जो प्रमादी हैं उन्हें पाप से कुछ भी भय नहीं खाना चाहिए, सिर्फ एक बार सिद्धगिरि की कथा सुन लेना चाहिए।" (पृ० २५) ८. “वेषधारी-द्रव्यलिंगी-साधु को भी गौतम की तरह मानकर हो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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