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________________ मूर्ति पूजा विषयक ग्रन्थों की अप्रामाणिकता "" भक्ति करना चाहिए, उसकी क्रिया आदि कुछ भी नहीं देखना क्योंकि आकृति ही वन्दन योग्य है । ' ( पृ० २६, ६६-७०) ६. पर्वत ऊपर के हिंसक प्राणी भी तीसरे भव में सिद्ध होते हैं । २७६ १०. शील पालने से तो शायद सिद्ध नहीं भी शैल (पर्वत) की सेवा से तो अवश्य सिद्धि हो अजितनाथ भगवान् का फरमान है। ( पृ०२६८) ११. “आकाश में उड़ने वाले पक्षी को छाया भी इस पर्वत को स्पर्श कर ले तो वे पक्षी दुर्गति प्राप्त नहीं करते।" (पृ० ३३७) १२. “ शत्रुजंया नदी में स्नान करने वाले के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। " ( पृ० ६६) १३. शत्रुजंया नदी को केवल ज्ञानी नाम के प्रथम तीर्थंकर के स्नान के लिए ईशान इन्द्र ने प्रकट किया । " ( पृ० १६१) १४. “रायण वृक्ष शाश्वत है । " ( पृ० ३० ) “फिर ऊगेगा " ( पृ० ५१३) १५. "कुण्ड ही मुक्ति देता है, और कोई नहीं । " ( पृ० २०५) १६. " सूर्यकुण्ड का जल हत्यादि दोषों का नाश करने वाला ( पृ० ६६) १७. जो पुरुष इस तीर्थ की यात्रा, पूजा आदि करता है वह अपने गोत्र सहित स्वर्ग में पूजा जाता है। और जो यहाँ आये हुए यात्रियों को बांधे या द्रव्य हरण करे, तो वह पाप समूह से परिवार सहित नर्क में पड़ता है ।" पृ० २५) (परिवार और गोत्र सहित क्या, ग्राम सहित लिखा होता तो भी कम था ? ) है । " १८. प्रथम तीर्थंकर कहते हैं कि "श्री संघ, अरिहंत के लिये Jain Education International ( पृ० १६३) हो, किन्तु इस जाती है। ऐसा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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