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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
५३ 李************ ***********本本来水水******* लाखमां अंशे पण नथी आवतुं अने तेथी तेवी पूजा आदि ने छोड़ी ने पण भाव धर्म रूपी चारित्र अङ्गीकार करवामां आवेछ।"
(श्री० सागरानन्द सूरिजी-दीक्षानुं सुंदर स्वरूप पृ० १४७) इसके सिवाय महानिशीथकार ने भी मूर्ति पूजा का निषेध कर चारित्र पालन पर जोर दिया है यहाँ तक कहा है कि - चारित्रवान् साधु मन्दिर पर पाँव भी नहीं दे। अब इतने पुष्ट प्रमाणों पर से सुन्दर मित्र से पूछते हैं कि - महात्मन्! क्या अब भी आपका अज्ञान दूर नहीं हुआ? क्या अब भी आप मूर्ति पूजा और चारित्र पालन को एक ही कोटि में रक्खेंगे? जबकि स्वयं मूर्ति पूजक आचार्य चारित्रपालन के सामने मूर्ति पूजा को एकदम तुच्छ गिनते हैं तब आप ही बताइये कि आपका कथन सत्य या आपके विद्वान् आचार्यों का? यदि आपकी मान्यतानुसार जो फल मूर्ति पूजा का है वही संयम पालन का हो तो फिर सर्व त्यागी होकर साधु बनने की आवश्यकता ही क्या है? स्पष्ट हुआ कि मूर्ति पूजा का फल मोक्ष नहीं है, न ऐसा शास्त्रकार का ही कथन है, हाँ यह सुंदर हृदयी सुंदरजी की चालाकी युक्त प्रपञ्च जाल तो अवश्य है। सुंदर बन्धु यदि इसी हियाए सुहाए आदि पाठ पर टीकाकार का मत भी देख लेते तो शायद इस प्रकार का साहस नहीं करते, इस पाठ के विषय में टीकाकार स्पष्ट लिखते हैं कि -
"इह प्राक्तनो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वः भूयानपि च पुस्तकेषु वाचना भेदस्ततो माऽभूत् शिष्याणां सम्मोह इति क्वापि सुगमोऽपि यथावस्थित वाचनाक्रम प्रदर्शनार्थ लिखितः।"
___ इसी विषय में भाषांतरकार पं० बेचरदासजी दोसी पृ० ८८ के फुटनोट ८७ में लिखते हैं कि -
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