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________________ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव *************** * ************* * ___ "टीकाकार लखे छे के “आस्थले पुस्तकों मां घणोय वाचना भेद-पाठ भेद छे अने तेमानो केटलोक तो प्राय: अपूर्व छे, ते थी शिष्यों ने सन्मोह तो थवानो पण ए नथाए ते माटे अहिं एक सुगम पाठ अमे आपेलो छे' मारी समज मां फेर न होय तो जे हकीकत ने आश्री ने जैन समाज मां मोटो मतभेद प्रवर्ते छे ते हकीकत ने लगतो आ पाठ भेद लागे छे, आ पाठ भेद बाबत खूब विचारी ने तत्व शोध थाय तोज जैन समाज मां शांति प्रवर्ते ए ध्यान मा राखवानुं छे।" मित्र! समझ गये टीकाकार के आशय को? वे कहते हैं कि यहां (हियाए सुहाए आदि पाठ में) पाठ भेद बहुत हैं, जिससे शिष्यों को सन्देह होगा, इसलिए यहां हम सुगम पाठ रखते हैं, और आप ही की मूर्ति पूजक समाज के विद्वान् भाषांतरकार पं० बेचरदासजी इसी पर से कहते हैं कि जैन समाज में भारी मतभेद चल रहा है। जिस पाठ को ही आपके टीकाकार महाराज सन्देह जन्य बता रहे हैं उसी पर आपका उछल कूद मचाना और वह भी एकदम उन्मार्ग की ओर यह कहाँ तक उचित है? विज्ञ पाठक समझ गये होंगे कि सुन्दर मित्र की युक्ति केवल भोली जनता को भ्रम में फंसाने की प्रपञ्च जाल मात्र है। ४. सुन्दर मित्र ने एक युक्ति यह भी पेश की है कि “जब आप सूर्याभ की मूर्ति पूजा को जीताचार कहते हैं तो जीताचार के लिए तो भगवान् ने स्वयं सूर्याभ को आज्ञा दी हैं, इस हेतु से मूर्ति पूजा में प्रभु आज्ञा पालन रूप धर्म है ही" इसके समाधान में हमारा कथन है कि - जब सूर्याभ प्रभु महावीर की सेवा में उपस्थित होकर अपना नाम, गोत्र सुनाकर वन्दन नमस्कार करता है। इनके उत्तर में प्रभु फरमाते हैं कि हे सूर्याभ! यह तुम्हारा पुराना जीताचार है यावत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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