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________________ जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ५५ ***************************************** भवनपत्यादि के देव अरिहंतो को वन्दन नमस्कार कर अपने नाम गोत्र सुनाते हैं आदि, इसमें प्रभु ने केवल वन्दन नमस्कार और नाम गोत्र सुनाने को जीताचार कहा है और इसी की आज्ञा प्रदान की है, न कि मूर्ति पूजा रूप सांसारिक जीताचार की। जीताचार भी दो प्रकार के होते हैं, १. सांसारिक और २. धार्मिक सूर्याभ का मूर्ति पूजा रूपी जीताचार सांसारिक हैं, इसमें प्रभु की आज्ञा है ही नहीं, यदि इसमें भी आप प्रभु आज्ञा मानेंगे तो प्रभु आज्ञा और धर्म अधर्म में कुछ भी अन्तर नहीं रहेगा, क्योंकि सूर्याभ ने तो जीताचारानुसार नाग भूतादि की प्रतिमा, बावड़ी, नागदन्ता द्वार और ध्वजा आदि की भी जल, फूल, चन्दन और धूप से पूजा की है फिर यह भी धार्मिक जीताचार में माना जायगा। अतएव सांसारिक जीताचार को धार्मिकता का रूप देना और वन्दन नमस्कार तथा नाम गोत्र उच्चारण रूप धार्मिक जीताचार की अनुमति में इसे घसीट लेना शुद्ध हृदयी सुज्ञों का कार्य नहीं है। श्री सुंदरजी मूर्ति मोह में इतने मस्त हो गये कि सत्यासत्य का भान ही गंवा बैठे, आप पृ० ५६ में लिखते हैं कि - "जिन प्रतिमा की द्रव्य भाव पूजा कर सूर्याभ भगवान् महावीर देव को वन्दन करने को जाता है।" सुन्दरजी का मतलब है कि - मूर्ति पूजा के साथ ही सूर्याभ प्रभु वंदन को जाता है किन्तु यह कथन बिलकुल मिथ्या है। पूजा तो जन्मे बाद ही की थी और वन्दन नमस्कार तो उसके बाद कालांतर में किया, इससे उसका क्या सम्बन्ध? और सूत्र में वन्दन नमस्कार का वर्णन तो पहले आया, और पूजा का बहुत आगे बढ़ कर आया है, फिर एक से दूसरे का सम्बन्ध ही क्या? क्या इसमें भी कोई सुन्दर रहस्य है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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