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शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव ***************************************
५. सुन्दर मित्र ने एक युक्ति यह दी है, कि “सूर्याभ देव सम्यग्दृष्टि और भव्य है और सम्यग्दृष्टि अन्य देव को पूजते नहीं इसलिए उसकी मूर्ति पूजा उपादेय है" यह कथन भी बिना सोचे समझे हैं क्योंकि सांसारिक व्यवहार पालने से धार्मिकता में कोई बाधा नहीं है, संसार में रहा हुआ सम्यक्त्व को शुद्ध रख सकता है, जबकि आपके कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य साधु दशा में रहे हुए भी शिव-शंकर-जैसे अजैन देव की मूर्ति की स्तुति कर सकें, अविरति देवों का स्मरण-ध्यान और आराधन कर सकें, रात्रि को स्थान छोड़कर बाहर जाकर देव देवियों को बलि दे सकें, साधु साध्वी दिन में दो दो बार अविरति देवों की स्तुति कर सकें, तो गृहस्थ सम्यक्त्वी किसी विशेष परिस्थिति में संसार व्यवहार के अदा करने के लिए मिथ्यात्वी देवों का लौकिक अर्थ पूजनादि करे तो इसमें सम्यक्त्व को क्या बाधा है? और देवलोक में सभी देव तो सम्यक्त्वी है ही नहीं, जैसे यहाँ कई मत के मनुष्य रहते हैं वैसे देवलोक में भी कई मत के देव रहते हैं, और स्वर्ग में प्रतिमायें तो केवल ये चार प्रकार की ही हैं जिसे सभी देवता पूजते होंगे, इससे भी यही सिद्ध होता है कि इन प्रतिमाओं का पूजना धार्मिक दृष्टि से नहीं है, धार्मिक दृष्टि से हो तो फिर मिथ्या दृष्टि देव उन्हें क्यों पूजने लगें? इसलिए सूर्याभ का यह कृत्य लौकिक उद्देश्य से है, और लौकिक आवश्यक व्यवहारों का पालन करता हुआ भी शुद्ध श्रद्धा वाला गृहस्थ अपनी सम्यक्त्व को निर्मल रख सकता है। अतएव यह युक्ति भी कुयुक्ति ही सिद्ध हुई।
इस प्रकार सूर्याभ देव का उदाहरण जनता के सामने रखकर उन्हें मूर्ति पूजा में फंसाना ठीक नहीं है। मूर्ति पूजा धर्म व आत्मकल्याण
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