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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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का अङ्ग नहीं है, न इसके लिए प्रामाणिक सूत्रों में प्रभु आज्ञा है फिर खाली कथाओं की ओट लेकर मनमाने आशय जोड़कर वितंडावाद फैलाना सुज्ञजनों और आत्मार्थियों का कार्य नहीं है। सूर्याभ साक्षी के लिए मूर्ति पूजक समाज के श्री हुकुममुनिजी भी आपसे असहमत हैं, देखिये
“जे लोको सुरीआभ देव नो तथा ध्रुपदी (द्रौपदी, ले०) प्रमुखनों अधिकार देखाडीये छीयें परन्तु ते करणीमां विचार घणो छे शामाटे के बिजे देवता प्रमुख घणा देवे, पूजा देवपणे उपन्या ते वखत करी छे, पण तेने भगवाने समकिति कहया नथी, ते तो मिथ्यात्वी छे, अने ते देव नवा उपने एटले सर्वे पुजा करे एवं सूत्र जोतां मालुम पड़े छे, परन्तु कंइ समकिती मिथ्यात्वी नो नियम रह्यो नथी, तेम कंइ फरीथी पूजा करवानो अधिकार कोई ने छे नहिं ।"
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(अध्यात्म प्रकरण अन्तर्गत तत्त्वसारोद्धार पृ० ४१० ) इसके सिवाय मूर्ति पूजक प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् पं० बेचरदासजी दोशी, अपने " रायपसेणइय सुत्त” प्रवेशक के पृ० २१ लखते हैं
"हुं समजुं छं त्यां सुधी आ सूत्र नो स्वाध्याय करनारे राजा पएसी चित्त शुद्धीकरण ने ज ध्यान मां राखवानुं छे, ए सिवाय धर्म ने नामे hair वधे रीते ए सूत्र नो उपयोग करवो घटित लागतो नथी । "
मूर्ति पूजक समाज के एक प्रसिद्ध विद्वान् का भी जब यह मत है और वे भी राजा प्रदेशी के आत्म कल्याण को ही लक्षित करने का कहते हैं, जिसका आशय बिलकुल स्पष्ट है कि - जिस प्रकार प्रदेशी राजा ने धार्मिक जीवन में प्रवेश कर व्रत, नियम, तप, स्वाध्याय, क्षमा, अनासक्ति आदि द्वारा आत्म कल्याण किया और पूर्व के निविड़
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