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________________ शाई ५८ शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव **李孝容***************李李李***安*****学举** कर्म वृन्दों का छेदन कर एका भवतारी हुआ, उसी प्रकार सबको करना चाहिये किन्तु सुन्दर मित्र मूर्ति के चक्कर में पड़कर कुछ और ही मतलब निकालते हैं, देखिये - ___"अहा! अहा!! नरभव में प्रदेशी राजा की दृढ़ श्रद्धा और अटूट क्षमा। बाद प्रदेशी राजा का जीव देवलोक में सूर्याभदेवपने उत्पन्न होता है और उत्पन्न होते ही कैसी भावना? मुझे पहले क्या करना चाहिए? पीछे क्या करना चाहिये।" आदि ... सुन्दरजी सूर्याभ देव की इस भावना के उद्भव होने के कारण धर्म बताकर उससे मूर्ति पूजा में धर्म बतलाना चाहते हैं, किन्तु सुन्दर मित्रजी को यह मालूम नहीं है कि - तत्काल के उत्पन्न हुए सूर्याभ ने अपनी स्थिति के योग्य कार्य करने का मार्ग ढूंढने को यह विचार किया है, वास्तव में नूतन परिस्थिति उत्पन्न होने पर सभी लोग यही सोचते हैं कि हमें यहाँ क्या करना चाहिये? पहले व पीछे हमें क्या हितकारी, सुखकारी होगा? इसी तरह सूर्याभ ने भी जन्म लेते - सज्ञान होते, यह विचार किया कि मुझे यहाँ पहले क्या करना चाहिये, और पीछे क्या? पहले व पीछे क्या हितकर सुखकर होगा? इस प्रकार की परिस्थिति में मार्ग निकालने के विचारों को भी सुन्दर मित्र धर्म का परिणाम बता कर, देवताओं के कहने से परम्परानुसार की हुई पूजा को धर्म मनवाने का प्रयत्न करते हैं यही तो महदाश्चर्य है? क्या सुन्दरजी? आप यह बतलाने का कष्ट स्वीकारेंगे कि प्रदेशी राजा ने अपने धार्मिक जीवन में कभी मूर्ति पूजा की थी या कभी मूर्ति के दर्शन भी किये थे? आप क्या आपके अनेकों विद्वान् आचार्य भी नही। बता सकते, क्योंकि जब मूल में ही नहीं तो लावें कहाँ से ? जब सूर्याभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002998
Book TitleJainagama viruddha Murtipooja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages366
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size12 MB
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