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के विरोधी कहने की बुद्धि ही क्यों पैदा हुई? इससे तो यही स्पष्ट हुआ कि मूर्त्ति पूजा का सिद्धांत विश्व व्यापक नहीं है ।
विश्व व्यापकता की मिथ्या युक्ति
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(१) साधुमार्गी जैन, आर्य समाज, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई, कबीर आदि समाजें मूर्ति पूजा की मान्यता नहीं रखती हैं। उन्हें जबरदस्ती मूर्त्ति पूजक लिख डालना क्या हठ बुद्धि नहीं है? यद्यपि समय के प्रभाव से विकृति प्रायः सबमें आ गई है, जो कि प्रवृत्ति मार्ग का धर्म है। तथापि उन उन समाजों के मूल सिद्धांत तो मूर्तिपूजा को नहीं मानने के ही हैं। यदि आप पीछे से घुसी हुई किसी विकृति को देखकर प्रसन्न होते हों तो यह आपकी भूल है । किन्तु हाँ, आप भी तो विकृति के उपासक तथा प्रचारक हैं न? क्योंकि मूर्ति-पूजा. जैनधर्म का मूल सिद्धान्त (मौलिक संस्कृति) नहीं, किन्तु समय पाकर घुसा हुआ विकार ही है।
(२) किसी प्रवृत्ति के विश्व व्यापक होने से ही वह आदरणीय नहीं हो जाती, जैसे कि - मिथ्यात्व, अव्रत, असंयम आदि विश्वव्यापक हैं - विश्व के कौने-कौने में फैले हुए हैं । प्रवृत्ति मार्ग का अनुसरण करने वाला बहुत बड़ा समूह है। यदि विश्व व्यापकता ही के कारण किसी विषय की उपादेयता स्वीकार करते हैं तो आपके लिए मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय आदि भी करणीय हो जायेंगे? मित्रवर! विश्व व्यापकता की दुहाई देकर कहीं ऐसा नहीं करने लग जाना, नहीं तो उलटे लेने के देने पड़ जायँगे ।
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(३) विषय सेवन विश्व व्यापक है। देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी विषय में लुब्ध रहते हैं। केवल मनुष्यों में ही अँगुली पर गिनी जाय इतनी संख्या ऐसे महात्माओं की होगी जो विषय सेवन छोड़कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हों । सिद्ध हुआ कि विषय
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