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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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विरक्त होने का उपदेश करने वालों की निन्दा करे तो यह वास्तव में अज्ञान ईर्षा का ही प्राबल्य है।
इस प्रकार धर्म विरुद्ध युक्ति लगाकर वास्तव में सुन्दर मित्र प्रारम्भ में ही पथ भ्रष्ट हुए हैं।
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जैन साधुओं का कर्त्तव्य पथ स्वयं पुद्गल से विमुख होना और दूसरों को भी करना है । किन्तु सुन्दर मित्र अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही अपनी मूर्ति पूजा की उपादेयता पुद्गल द्रव्य के मूर्त्त और अनादि
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होने से बताकर परस्पर तुलना कर रहे हैं। इस प्रकार पुद्गलानुसारीपन को प्रोत्साहन देना स्पष्ट पथ भ्रष्टता है।
(४) विश्व व्यापकता की मिथ्या युक्ति
सुन्दर मित्र पृ० २ में दूसरी कुयुक्ति लगाते हुए लिखते हैं कि " मूर्त्ति पूजा का सिद्धांत विश्व व्यापक है, यह किसी भी समय विश्व से पृथक् नहीं हो सकता +++ मूर्ति को नहीं मानना एक प्रकार से प्रकृति का खून करना है । "
उक्त वाक्य सुन्दर मित्र ने किसी तरंग में आकर लिखे प्रतीत होते हैं। यद्यपि उक्त सिद्धांत भी पुद्गल पूजा की तरह नि:सार है, किन्तु फिर भी सुन्दर मित्र के लिये इस पर भी दूसरी तरह से विचार करते हैं।
जबकि सुन्दर कथनानुसार मूर्ति पूजा का सिद्धांत स्वयं विश्व व्यापक और नित्य है, तब उसी के लिये इन्हें इतना परिश्रम करने की आवश्यकता ही क्यों हुई? और साधुमार्गी समाज को मूर्त्ति पूजा
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