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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
१०७ ******李李**李********李李李李李李***本***空********* उसमें किसी प्रकार की भिन्नता नहीं होती। हाँ साधु तो अन्य के ग्रहण कर लेने से अवन्दनीय हो सकता है, क्योंकि जैन मात्र के लिए गुरु पद में पंच महाव्रतादि मूल और उत्तरगुण युक्त मुनि ही वन्दनीय पूजनीय है
और अन्य तीर्थी के ग्रहण कर लेने से (अन्य समाज में मिल जाने से) साधु में ये गुण नहीं रहते हैं, वे जैन दृष्टि से शुद्ध सम्यक्त्व से भी रहित हो जाता है। अतएव अवन्दनीय अवश्य है, किन्तु मूर्ति के लिए तो यह बाधा है ही नहीं मूर्ति तो जहाँ होगी वहाँ एक ही रूप में होगी फिर अन्य के ग्रहण कर लेने मात्र से मूर्ति अछूत क्यों और कैसे हो सकती है? जिस प्रकार तीर्थंकर प्रभु और अनगार महात्मा अन्य सामाजिकों के वन्दन नमन करने पर भी जैन के लिए वन्दनीय पर्युपासनीय रहते हैं, उसी प्रकार मूर्ति भी आप के हिसाब से रहनी चाहिए। ___ साधु के अन्य समाज में मिल जाने पर उसको श्रद्धा जैनधर्म और सिद्धांतों पर नहीं रहती, वह जैनत्त्व को ही हेय समझता है, इसलिए जैनियों के लिए तो वह अवश्य अवंदनीय है। किन्तु मूर्ति तो जैनियों के अधिकार में होने पर भी जड़ है और अन्य के अधिकार में जाने पर भी जड़ ही रहती है ? जिन मूर्ति को यदि अन्य तीर्थी ग्रहण कर ले और उसे अपना देव मानकर वन्दे पूजे तो यह तो मूर्ति-पूजकों के लिए प्रसन्नता की बात होनी चाहिए? क्योंकि वे लोग जैनियों के देव को मूर्ति पूजकर मूर्ति-पूजकों के हिसाब से जिनोपासक होते हैं अतएव इसमें मूर्ति की अपूज्यता की बाधा क्यों होनी चाहिए? . ___कितने ही मूर्ति-पूजक लोग यहाँ यह तर्क करते हैं कि - "जिस प्रकार सम सूत्र मिथ्या दृष्टि के हाथ में जाने से विषम हो जाते हैं उसी प्रकार जिन मूर्ति भी अन्य के अधिकार में जाने से अवंदनीय हो जाती हैं।" किन्तु यह कथन भी अज्ञता का है, क्योंकि सूत्र
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