________________
१०६
आनंद-श्रमणोपासक ******************************************** आवश्यक है, क्योंकि ऐसे भागे हुए लोग पूर्व समाज के लिए अधिक हानि कारक हैं। यह तो सभी जानते हैं कि साधुमार्गी समाज के लिए हानिकारक जितने अन्य मूर्ति पूजक नहीं उतने यह भागे हुए आत्मारामजी बुरेरायजी आप खुद और पीछे के कान्हजी तथा भ्रष्ट पंचक आदि हैं। इन लोगों ने अपना पूर्व परिचय का जाल फैलाकर
और उन लोगों में घुस-घुस कर बहुतों को श्रद्धा भ्रष्ट कर दिया है। आप भी सं० १९६५ के चातुर्मास में ब्यावर में इस कूट नीति का अनुसरण कर चुके हैं। बस इसी कारण से अन्य तीर्थी के ग्रहण किये हुए से परहेज रखने की आनंद ने प्रतिज्ञा ली थी और उस समय उसकी आवश्यकता भी थी, क्योंकि उस समय जमाली गोशालक ने अपनी-अपनी खीचड़ी अलग पकाना प्रारम्भ कर दिया था। उनमें जितने भी साधु साध्वी आदि थे प्रायः जैन साधु संस्था में से गये हुए थे, इसलिए उनसे परिचय नहीं बढ़ाकर उनसे घृणा करना भी समाज रक्षकों का मुख्य कर्त्तव्य था, जिसका ज्वलंत प्रमाण सकडाल पुत्र श्रावक का गोशालक के प्रति अनादर भाव है। इसलिए उसने गौशालक को अपने घर चले आने पर भी मान नहीं दिया। यह अन्य तीर्थी को या उसमें मिल जाने वालों को आदर आदि नहीं देने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतएव ऐसी शङ्का को तनिक भी स्थानं नहीं है।
हमारे मूर्ति-पूजक भाई “अरिहंत चेइयाइं" से जिन प्रतिमा अर्थ करके यह कहते हैं कि “आनंद को अन्य तीर्थकों की ग्रहण की हुई जिन मूर्ति को वन्दनादि नहीं कल्पता है।" किन्तु यह कथन भी असत्य और युक्ति से शून्य है, क्योंकि जिन मूर्ति किसी के ग्रहण कर लेने मात्र से अपूज्य या अवन्दनीय नहीं हो जाती, न मूर्ति के ही रूप में परिवर्तन होता है चाहे, जैन उसकी पूजा करे या अजैन किन्तु इससे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org