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आनंद-श्रमणोपासक ********* ************************** (पुस्तक रूप) स्वयं अन्य तीर्थी के हाथ में जाने से विषम नहीं बन जाते, सूत्र तो सम ही हैं और सम ही रहते हैं, किन्तु सम-विषमता तो पाठक की योग्यता पर निर्भर है। पाठक यदि विषम मति (मिथ्यादृष्टि) होगा तो वह सम सूत्र का अर्थ भी उल्टा विषम कर डालेगा और पाठक समदृष्टि होगा तो सत्य अर्थ करेगा अतएव सूत्र की सम विषमता पाठक की योग्यता की अपेक्षा रखती है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सूत्र स्वयं विषम बन जाय। जैसे कि कोई सूत्र सम सूत्र है और वो विषम दृष्टि वाले के हाथ में है तो उस विषम दृष्टि वाले के लिए उसके विपरीत अर्थ लगाने के कारण विषम हो सकता है किन्तु वही सूत्र उसी समय किसी समदृष्टि सुज्ञ के हाथ में जायगा तो वह उसका सम अर्थ ही करेगा अतएव सिद्ध हुआ कि सूत्र तो सम ही है विषम नहीं, किन्तु सम विषम तो पाठक की बुद्धि का परिणाम ही है। मिथ्यादृष्टि या विषम मति के हाथ में जाने मात्र से सूत्र अमान्य नहीं हो जाते यदि ऐसा ही हो तो आपके लिए आज प्रायः सभी सूत्र अमान्य और विषम होने चाहिए क्योंकि आज जितने भी मुद्रित सूत्र हैं, वे प्रायः अजैनों के हाथ से मुद्रण होते हैं अजैन लोग ही उठाकर गाड़ियें भरकर प्रेस से लाते हैं अनेकों पुस्तकालयों में सूत्र साहित्य हैं वो अजैनों के हाथ में भी जाता है। अनेकों हस्तलिखित सूत्र अजैनों की लेखनी से लिखे गये हैं। आज प्रचलित भाषाओं में सूत्रों का अनुवाद होकर सैकड़ों अजैनों के हाथ में पहुंच चुके हैं। इसलिए सरल बुद्धि से यह समझो कि सूत्र स्वयं विषम नहीं हैं, किन्तु सम विषम का मतलब पाठकों की योग्यता से ही है।
- आप एक औषध को देखिये, यदि समझदार वैद्य उस औषध को किसी रोगी के उपयुक्त समझ कर उसे उचित अनुपान के साथ
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