________________
जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२५५ ********************************************** सकता है और ज्ञान भी। यद्यपि साधु अर्थ सिद्ध होने मात्र से ज्ञान अर्थ भी सिद्ध हो जाता है, तथापि उक्त प्रमाणों में से तीसरा प्रमाण तो स्पष्ट ज्ञान अर्थ को ही बता रहा है। फिर भी एक प्रमाण ज्ञान अर्थ के लिये और भी लीजिये।
चौबीस तीर्थंकरों को जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ उस वृक्ष को समवायांग सूत्र में “चैत्यवृक्ष'' कहा है और इन्हीं चैत्य वृक्षों को “लोक प्रकाश' नामक ग्रन्थ के कर्ता मू० पू० श्री विनयविजयजी ने “काल-लोक प्रकाश'' में - "ज्ञानोत्पत्तिवृक्षाः" लिखा है। इसके सियाय श्री हरिभद्र सूरि ने “चित्तं अन्तःकरणं तस्य भावःकर्मवा चैत्यं भवति'' कहकर उक्त अर्थ को पुष्ट किया है, अतएव जरा सत्य को हृदय में स्थान देकर विचार कीजिये। ___आगे चलकर आप यह पूछते हैं कि - "ज्ञान को ज्ञान और साधु को साधु ही कहा जाता है चैत्य नहीं।" इसके समाधान में आपको समझाया जाता है कि - भगवन्! आप भी मंदिर को मन्दिर जिनालय, देहरा या देरासर और मूर्ति को मूर्ति, प्रतिमा, बिंब आदि कहते हैं, सो यही कहिये, चैत्य क्यों कहते हैं? यदि आप इस प्रकार अपना हठ छोड़ दें तो फिर यह झंझट ही नहीं रहे और उत्सूत्र भाषण से भी वंचित रह सकें। महात्मन्! सूत्रों में जिस प्रकार साधुओं के साधु श्रमण, भिक्षु, मुनि, संयति, अणगार आदि नाम हैं वैसे चैत्य भी एक नाम है, जो कि उक्त प्रमाणों से सिद्ध हैं, ऐसे ही ज्ञान के विषय में समझें। किसी शब्द का एक ही पर्याय में अधिक बार प्रयोग यह प्रचलित अर्थ की अधिका व्यापकता से सम्बन्ध रखता है और इसी से अनेक अर्थ होते हुए भी किसी एक अर्थ में अधिक और दूसरे में स्वल्प उपयोग होता है, किन्तु स्वल्प उपयोग होने मात्र से यह नहीं समझना चाहिए कि यह अर्थ हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org