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मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध
(१)
मूर्ति निर्माण का कारण हम “स्तूप निर्माण और उसका कारण' नामक प्रकरण में यह दिखा चुके हैं कि - सर्व प्रथम दुनिया में महात्माओं के निर्वाण पश्चात् उनके दाह स्थान पर “यादगिरी' के लिए स्मारक बनने लगे, वही स्मारक कला के विकास के साथ-साथ अपना आकार प्रकार भी बदलने लगे, याने एक से एक बढ़ चढ़कर सुन्दर और आकर्षक होने लगे और इस प्रकार चौंतरा, देहरी, पादुका का रूप धारण करते-करते मूर्ति रूप में भी परिणित होगये, सो भी यहाँ तक कि पहले तो ये मूर्तियें धर्म नायकों के स्मारक के लिए बनी, किन्तु बाद में राजा, महाराजा, अधिकारी, नेता आदि की भी बनने लगी। इस प्रकार कला के विकास के साथ-साथ स्मारकों की दुर्दशा भी बढ़ने लगी और वह भी सीमा छोड़कर। जैसे वर्तमान समय में सर्व त्यागी-त्याग के संसार भर में एक मात्र मुख्य आदर्श-तीर्थंकर प्रभु की मूर्तियों को कोट, पेंट, जाकट, नकटाई, कालर, घड़ी * लाखों रुपये के जेवर पहिनाना शुरू कर दिया, यह सब भक्तों ने अपनी इच्छा से, परिणाम का विचार किये बिना मन माना रंग चढ़ा दिया। यह सब खराबी लक्ष्य भ्रष्टता को लेकर हुई। यदि मानव समाज अपने मौलिक ध्येय पर कायम रहता तो आज यह दुर्दशा नहीं होती। जब से मनुष्यों ने स्मारकों की पूजा की, वस्तु
और उनके पूजने में अपना कल्याण होना माना है तब ही से वे लक्ष्य भ्रष्ट होकर सैद्धान्तिक विरुद्धता को भी उपादेय मानने लग गये हैं।
इसके सिवाय सांसारिक मनुष्यों में राग द्वेष की परिणती तो है ही। इच्छित पर राग करना यह सर्वानुभव सिद्ध बात है। इधर तीर्थंकर
___ * देखो श्री विद्याविजयजी कृत समय ने ओलखो भा० १ पृ० २१५।
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