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उपसंहार का संहार ******************************************* दो मूर्ति पूजक साधुओं के आपस में डंडेमार चल गई थी जिससे एक साधु को ज्यादा चोट लग जाने से रक्त बह निकला था, क्या यह भी मूर्ति नहीं मानने का फल था? वास्तव में मूर्ति पूजा करने व न करने का इतना झगड़ा नहीं है जितना स्वार्थ, अभिमान या पक्ष मोह का झगड़ा है। सुन्दर मित्र ने तो कल्पना तरंग में ही कलम चलाई है, किन्तु हम तो सप्रमाण स्पष्ट कहते हैं कि जैन समाज में कलह की अधिकता में मन्दिरों और मूर्तियों का भी प्रधान कारण है। करोड़ों रुपये इनके लिए कोर्टों में और वकील बैरिस्टरों के खजानों में पहुँच गये। केशरिया तीर्थ में मानव संहार हुआ। मकसी तीर्थ में मूर्ति की हालत दो पत्नी वाले पति जैसी हुई और हमेशा हो रही है। आगमोद्धारकजी को खून से मन्दिर धोने का फतवा जाहिर करना पड़ा आदि अनेक तरह से इन मन्दिरों और मूर्तियों ने जैन समाज में फूट फैलाई। धन नाश कराया। एक को दूसरे का दुश्मन बनाया। इस तरह मूर्तियों और मन्दिरों से जैन समाज की अपार हानि हुई है? इस हानि को छुपाकर उल्टी हमारे शिर लादना, यह सुन्दर जी की सुन्दर बुद्धि का चमत्कार है। ___सुन्दर मित्र मूर्ति नहीं मानने के कारण ही संघ में झगड़ा होना बताते हैं। यह वास्तव में इनकी कलुषित भावना का ही फल है। मैं यहाँ सिर्फ यही कहता हूँ कि सुन्दर मित्र! पहले इतिहास पढ़ें, फिर इतिहासज्ञ बनें। आपके ही इतिहासकार जैन समाज में कलह का आरम्भ वि० सं० २३६ से बतलाते हैं, जब दिगम्बर और श्वेताम्बर ऐसे दो पक्ष हुए थे। फिर चैत्यवाद और चैत्यवास ने कलह का पोषण किया। इस प्रकार यह दिनों दिन फैलता ही गया। किन्तु सुन्दर मित्र को इतिहास से क्या तात्पर्य? इन्हें तो सिर्फ वैर वसूल करना है।
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