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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा 必学学本中***李****李多学学士学李******多多多多多多****** प्रचार किया है। उन पर व्याख्यान चलते हैं। यद्यपि यह प्रवृत्ति साधारण मनुष्यों को लुभाने के लिए ही है, तथापि यह अनुचित अवश्य है! यदि व्याख्याता को ऐसी कहानियें ही सुनाना है, तो कृपा कर वे इन पर सत्यता की छाप तो न लगाया करें और स्वतंत्र बुद्धिबल से चरित्र रचना करें, वह भी जनोपकारी हो सके वैसी, किन्तु हानिकर तथा निरर्थक सामग्री से भरी हुई नहीं होनी चाहिये।
मूर्ति पूजक चरित्र ग्रन्थों से कथानक लेकर उसमें से न्यूनाधिक करके उसे अपनी मान्यतानुसार गढ़ लेना यह भी ठीक नहीं है। यद्यपि मूर्ति पूजक महात्माओं ने भी "महाभारत" "रामायण' आदि अन्य दर्शनियों से लेकर कुछ परिवर्तन के साथ नये रूप में उपस्थित किया है और प्राचीन काल की होने से जैन समाज में अभी माननीय समझी जाती है, किन्तु वास्तव में मूल वस्तु जैनेतर समाज की है, ऐसा मेरा अनुमान है, फिर भी यहाँ मैं अपने ही समाज के विद्वानों से निवेदन करूँगा कि - कृपा कर इस प्रवृत्ति को छोड़ें तो ठीक हैं।
सातवें सारांश में आपने लिखा है कि -
"मूर्ति नहीं मानने के कारण ही संघ में न्याति जाति में कुसंप पैदा हुआ।" आदि
यह भी द्वेष बुद्धि का ही परिणाम है। हम यहाँ लेखक श्री से पूछते हैं कि पहले आप यह तो बताइये कि मूर्तिपूजकों में पारस्परिक कलह जो जोर शोर से चलता है क्या वह भी मूर्ति नहीं मानने का कारण है? चार वर्ष पूर्व मूर्ति पूजक समाज में पर्युषण पर्व के दिनों में साम्वत्सरिक (एक दिन आगे पीछे के) झगड़े को लेकर एक सभा में युद्ध प्रारम्भ हुआ था और सैंकड़ों मनुष्य घायल हो गये थे, क्या यह भी मूर्ति नहीं मानने का फल है? दो वर्ष पहले उदयपुर (मेवाड़) में
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