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उपसंहार का संहार
रामायण, उपासक दशांग टीका, श्रीपाल रासादि इनमें अन्य ग्रन्थों से चोरी भी करनी पड़ी।" आदि आदि।
टीका निर्युक्त्यादि और ग्रन्थों के विषय में हम पहले दो प्रकरणों में बहुत कुछ लिख चुके हैं। यहाँ केवल इतना ही लिखना पर्याप्त है कि हम टीका आदि को मानते हैं, किन्तु वर्तमान काल की टीका आदि को पूर्ण रूपेण मान्य नहीं करते, क्योंकि कितने ही स्थानों पर मूल के बिना ही तथा मूल विरुद्ध व्याख्या की गई है। तथा टीकाव्याख्या कोई भी सूत्रों का विशेष अनुभवी विद्वान् बना सकता है तथा टीकाकार का निज का मंतव्य भी उसमें रहता है। ऐसी दशा में अपूर्णता के कारण त्रुटियां रह जाना स्वाभाविक है। स्वयं श्री अभयदेवाचार्य ने स्थानांग सूत्र की टीका समाप्त करते हुए यह बात स्वीकार की है तब आँखें बन्द करके सभी को यथातथ्य मान लेना बुद्धिमत्ता नहीं है। यही हाल ग्रन्थों के भी हैं। ग्रन्थों में भी कितनी ही विरुद्ध बातें लिखी हैं। यहाँ सिर्फ एक प्रमाण दिया जाता है।
"लोक प्रकाश" के तीसरे भाग में लेखक ने अशनादि चारों आहार की व्याख्या करते हुए पान शब्द में मदिरा-शराब-गिना दिया है? बताइये, इस विपरीत व्याख्या को कैसे मानें?
इसके सिवाय चरित्र ग्रन्थों का तो कहना ही क्या है? वे तो कदाचित् “ऐतिहासिक उपन्यास' ही कहने के योग्य हैं। यहाँ उनकी टीका टिप्पणी करना अनावश्यक हैं। समय आने पर इसके लिये एक समालोचना का ग्रन्थ ही प्रस्तुत किया जायगा।
मुझे लिखते हुए अत्यन्त खेद होता है कि हमारे साधुमार्गी समाज के कुछ विद्वानों ने मूर्ति पूजक चरित्र ग्रन्थों में से कुछ चरित्रों को लेकर उन पर से मनमानी राग रागिणी में ढालें बना कर उनका
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