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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
३०७ ******************************************* दिगम्बरों में जो अधिकारवाद का झगड़ा है और उससे लाखों करोड़ों रुपयों का अपव्यय हुआ है, हो रहा है और भविष्य में होने वाला है, यह सब नहीं होता, किन्तु जहाँ सुन्दर मित्र जैसे गुरु हों और अधिकारवाद का जोर शोर हो, वहाँ हमारे कथन पर कौन विचार कर सकता है? फिर भी हम तो यही चाहते हैं कि मूर्तिपूजक या स्थानकवासी या और कोई भी हों धार्मिक मामलों में अधिकारवाद को उत्तेजन देकर क्लेश नहीं बढ़े तो अच्छा है। ___आगे सुन्दर मित्र ने चौथी बात यह बतायी कि “मूर्ति नहीं मानने के कारण ३२ सूत्र के सिवाय अन्य सूत्र व हजारों ग्रन्थों से दूर भटकने लगे, यदि कोई पढ़ता है तो चर्चा के समय उसे अप्रमाणिक बताकर कर्म बांधता है" आदि। . यह बात भी विवेक से शून्य है, इसके विषय में हम पहले खूब लिख आये हैं, यहाँ संक्षेप में इतना ही कहेंगे कि सूत्रों और वीतराग वचनों को दूषण लगाने वाले तथा मतमोह में सने हुए जितने भी सूत्र या ग्रन्थ आदि हैं वे अवश्य प्रामाणिक नहीं हो सकते। पढ़ना दूसरी बात है और प्रामाणिक मानना भिन्न बात है, जैसे मैंने आपका "मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास'' (जिसके उत्तर में मैं यह ग्रन्थ लिख रहा हूँ) पढ़ा है, तो क्या पढ़ने मात्र से ही यह मननीय या प्रामाणिक बन गया? कितना भद्दा तर्क है?
___ पांचवें और छठे सारांश में आपने लिखा कि - : "मूर्ति नहीं मानने के कारण टीका, नियुक्ति भाष्य, चूर्णि, वृत्ति तथा ग्रन्थादि का अपमान कर वज्र पाप का भागी बनना पड़ा। नई कपोल कल्पित टीकायें बनानी पड़ी। ग्रन्थों के अनेक चारित्रों से मूर्ति विषयक पाठ निकालकर कल्पित पाठ बनाने पड़े, जैसे जैन
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