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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
३११ *********************李*圣多姿多次***********
आप अन्तिम मन्तव्य में लिखते हैं कि - 'मूर्ति नहीं मानने के कारण मूर्ति नहीं मानने वालों के उत्पाद से शुद्धि का कार्य बन्द हो गया।" यह भी पूर्ववत् विपरीत ही है। क्योंकि शुद्धि के विषय में मूर्ति मानने नहीं मानने की कोई बाधा ही नहीं है। न स्थानकवासी समाज शुद्धि का विरोधी है। फिर यह अनर्गल कथन क्या अर्थ रखता है? ।
जैसी पुस्तक वैसा ही उसका उपसंहार। सत्य के पीछे तो सुन्दर मित्र बुरी तरह से लट्ठ लेकर पड़े और कल्पना तरंग में ही गोते लगाते गये, वह भी पक्ष मोह में मस्त होकर, फिर वहाँ सत्य के लिए अवकाश ही कहाँ रहता है ? यदि सत्य और धर्मतत्त्व को हृदय में रखकर विचार किया जाय तो सुन्दरजी के उपसंहार का संहार ही निश्चित है। पाठक स्वयं इसका अनुभव कर लें।
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निष्कर्ष श्री ज्ञानसुन्दरजी के 'मूर्ति पूजा का प्राचीन इतिहास' नामक ग्रन्थ के उत्तर में यह प्रथम भाग हम पाठकों की सेवा में रख रहे हैं। हमारे सुज्ञ पाठक समझ गये होंगे कि सुन्दर मित्र का पक्ष कितना निर्बल है। यहाँ संक्षेप में इस ग्रन्थ का निष्कर्ष (परिणाम) दे देते हैं
१. मूर्ति पूजा प्रवृत्ति मार्ग का पोषक है, इन्द्रियों के विषयों के पोषण का सरल साधन है, आत्म-कल्याण से इसका सम्बन्ध तनिक भी नहीं है।
२. रूपी द्रव्य (पुद्गल) अनादि होने से मूर्ति पूजा अनादि तथा आचरणीय नहीं हो सकती। क्योंकि इस युक्ति से तो चण्डी, काली आदि की मूर्तियें भी पूजनीय हो सकेंगी तथा पुद्गल त्याग रूप
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