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निष्कर्ष ***在沙特尔中李李李子步行李空中学学子弟中李东学中学生在中李*** निवृत्ति मार्ग, पुद्गल संग्रह, पुद्गलासक्त रूप प्रबृतिमार्ग होकर आत्म-कल्याण से वंचित रहता है।
३. मूर्ति पूजा का सिद्धांत विश्वव्यापक नहीं। न किसी वस्तु के विश्व व्यापक होने से वो धार्मिक बन सकती है या उपादेय हो जाती है, जैसे मिथ्यात्व, व्यभिचार, पाखण्ड आदि। .... ४. मूर्ति सदाचार आदि का मूल कारण नहीं, फर प्रायः दुराचार की प्रवर्तिका है। प्रत्यक्ष में जैन समाज के करोड़ों रुपयों का झगड़े में नाश, आपस में क्लेश, यहाँ तक कि नृशंस हाल्या का भी कारण मूर्तियें ही बनी हैं, पाखण्ड और अन्धविश्वास की प्रबल प्रचारिका भी यही हैं।
५. हृदय में साक्षात् का ध्यान करना या गुण चिंतन करना मूर्ति पूजा नहीं है।
६. मूर्ति पूजकों ने संसार का जितना अहित किया है उतना कदाचित् ही और तरह से हुआ हो? यदि मूर्तिपूजक अपना धन मन्दिरों और मूर्तियों में नहीं लगाते तो देश की इतनी गरीबी हालत नहीं होती।
७. धर्म प्रभु आज्ञा के पालन करने में है और प्रभु आज्ञा में साधुओं के पंच महाव्रत आदि तथा श्रावकों के द्वादशवत आदि है, मूर्ति पूजा नाम मात्र को भी नहीं है।
८. सूर्याभ देव ने अपने परम्परा के रिवाज के अनुसार प्रतिमा पूजी थी, किन्तु धर्म निमित्त नहीं। न वे मूर्तियें तीर्थंकरों की सिद्ध हो सकती हैं। क्योंकि वे शाश्वती हैं तथा सूर्याभ की पूजा सांसारिक है।
६. "नियंसेई" शब्द का वस्त्र चढ़ाना अर्थ करना एकदम मिथ्या है।
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