________________
११०
आनंद-श्रमणोपासक ********************* *********************
वास्तव में बात तो यह है कि जिस प्रकार सूत्र किसी अजैन के पढ़ लेने मात्र से जैनियों के लिए अमान्य नहीं हो जाते, उसी प्रकार मूर्ति भी किसी के अधिकार में जाने या किसी के वन्दने पूजने मात्र से अवन्दनीय नहीं हो सकती। इसलिए सरल बुद्धि से यह समझो कि आनंद श्रमणोपासक की प्रतिज्ञा मूर्ति विषयक नहीं किन्तु साधु विषयक है।
मूर्ति पूजक लोग जिन मूर्ति को देव पद में मानते हैं, स्वयं सुन्दर मित्र ने भी यह स्वीकार किया है कि - १. अरिहंतों के चैत्य (मंदिर मूर्ति) को आशातना करना अरिहंतों की ही आशातना है।
(पृ०७६) २. अरिहंतों की मूर्ति अरिहंत पद में और सिद्धों की सिद्ध पद
(पृ० २६३) ३. मूर्ति अरिहंत और सिद्धों के शरणा में है। (पृ० २६३) ४. जो अरिहंतों की मूर्ति की आशातना है वह ही अरिहंतों की आशातना है।
(पृ० २६३) अतएव सिद्ध हुआ कि - मूर्ति पूजक मूर्ति को देव पद में मानते हैं और न्य यूथिक देव जब अवन्दनीय हुए तो उसके साथ उनकी मान्य मूर्ति भी अवन्दनीय हुई यह स्वतः सिद्ध है, इसके लिए पृथक् स्थान रोकने की आवश्यकता नहीं। पृथक् स्थान जो रखा गया है वह अन्य यूथिक परिगृहित साधु के लिए ही है। जिसका मुख्य कारण पहले बतला दिया है।
सुन्दर जी की योग्यता चालू प्रकरण में सुंदर मित्र ने स्वयं अज्ञ होते हुए भी स्वर्गवासी आगमोद्धारक शांत स्वभाव परम पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज पर अनुचित हमले किये हैं। हम यह नहीं कहते कि पूज्य श्री के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org